Saturday, September 25, 2010

Defining relationship of Media & Indian Mindset (With special reference to integrating social value system)


एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी

मीडिया एवम् भारतीय मानस के सम्बन्धों का परिभाषिकीकरण

(समन्वित सामाजिक मूल्यों के सन्दर्भ में)

Defining relationship of Media & Indian Mindset

(With special reference to integrating social value system)

दिनाँ - 27 अक्तूबर, 2010,

समय- प्रातः ९.०० बजे

प्रायोजक - विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली।

आयोजक मास कम्यूनिकेशन विभाग, एस० डी० कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी

अकादमिक सहयोग- इन्सटिच्य़ूट आफ़ मास कम्यूनिकेशन एण्ड मीडिया टेक्नालोजी, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

मान्यवर_________________,

मास कम्यूनिकेशन विभाग, एस० डी० कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी इन्सटिच्य़ूट आफ़ मास कम्यूनिकेशन एण्ड मीडिया टेक्नालोजी के अकादमिक सहयोग से उपरोक्त विषय पर आयोजित एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में पत्र प्रस्तुति एवम् समालोना के लिए आपको सादर आमन्त्रित करने में गौरवान्वित अनुभव करता है।

मीडिया एक व्यापक अर्थ वाला बहु आयामी शब्द है जिसने अपनी विस्तार और विकास की गति से सारे विश्व को विचलित इस अर्थ में किया है कि एक ओर सूचना-प्रसार-तन्त्र के द्वारा सारे विश्व को एकीकृत कर दिया है तो दूसरी ओर सभी सभ्यताओं, उनकी परम्पराओं, उनके मूल्यों की जड़ो को उखाड़ दिया है। मीडिया का क्रान्तिकारी प्रभाव मनुष्य और समाज पर ऐसा हुआ है कि हर विचारशील एवम् संवेदनशील मनुष्य को यह सोचना पड़ रहा है कि मनुष्यता का मूल कहाँ है और उसकी जड़ें कहाँ है ?विशेष रूप से भारतीय समाज के सन्दर्भ में मीडिया की भूमिका अत्यन्त सूक्ष्म रूप से विचारणीय है। क्योंकि अपने मूल रूप में भारतीय समाज–अविस्तारवादी ओर अहिंसक रहा है। मीडिया का पदार्पण भारत में एक अकाल-प्रसव की तरह है क्योंकि भारतीय मन मीडिया से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिये तैयार नहीं था जबकि पश्चिम की औद्योगिक क्रान्ति ने मीडिया की सशक्त पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी, जिसमें पश्चिमी समाज मीडिया के व्यावसायिक उपयोग के प्रति अत्यन्त सजग था। लेकिन इसके विपरीत भारतीय मन इस तरह की सूचना क्रान्ति के प्रभावों के लिये वस्तुतः तैयार नहीं था, जिससे भारतीय समाज की भाषा, व्यवहार, चेतना एवम् संस्कारों में विसंगतियाँ पैदा हो गई। इन विसंगतियों के कारण भारतीय मानस में एक ऐसा व्यामोह उत्पन्न हुआ जिससे भारतीय समाज में बौद्धिक एवम् भावनात्मक विडम्बनायें पैदा हो गई हैं। शब्द तथ्यों को पूरी तरह से कह नहीं पा रहे हैं। जो कुछ मीडिया के द्वारा कहा जा रहा है वह सब कितना प्रासंगिक व उचित है- यह बात प्रश्न की परिधि से बाहर नहीं हैं? इसलिये वर्तमान परिस्थितियों में जहां व्यक्ति और समाज बिखराव की ओर चल रहे है। या सारी व्यवस्थायें अपने विस्तार के भार से ही बे-सम्भल होती जा रही है वहां प्रत्येक संवेदनशील और दायित्वपूर्ण व्यक्ति के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह एक ऐसी दृष्टि की खोज करे जो भारतीय मूल्यों को समझें, व मीडिया के प्रभावों का समालोचन कर दोनों के बीच सन्तुलन स्थापित कर सके। जिससे मीडिया भारतीय समाज को ऐसी दिशा में अग्रसर कर सकें जो मनुष्यता को भविष्य के प्रति आश्वासन दें सकें ।

सम्भावित विचार बिन्दु

१. मीडिया तथा भारतीय पारिवारिक मूल्यों का संकट

२. मीडिया की स्वतन्त्रता तथा भारतीय लोक मानस पर प्रभाव

३. मीडिया के सन्दर्भ में वैयक्तिक व सामाजिक मूल्य

. मीडिया का सामाजिक मूल्यों के प्रति उत्तरदायित्व

५. भारतीय राजनैतिक समस्याएं एवम् मीडिया

६. भारतीय शिक्षा प्रणाली एवम् मीडिया

७. भारतीय प्राशासनिक पारदर्शिता एवम् मीडिया की भूमिका

८. सामाजिक – आर्थिक न्याय एवम् मीडिया

९. मीडिया की भारतीय सन्दर्भ में चुनौतियाँ एवम् दिशाएँ

१०. मीडिया एवम् मानवाधिकार की संस्कृति

आशुतोष आंगिरस प्रो० मनीष गोयल प्रो० राजबीर सिंह डा० देशबन्धु

संगोष्ठी निदेशक संगोष्ठी सचिव निदेशक प्राचार्य

आई एमसीएमटी एस० डी० कालेज

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय अम्बाला छावनी 09896394569 09996722333 09416007826 09812053283

HUMAN RIGHTS AND CONSTITUTION – AN INDIAN PERSPECTIVE


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HUMAN RIGHTS AND CONSTITUTION – AN INDIAN PERSPECTIVE

मानवाधिकार की अवधारणाएँ तथा संविधान भारतीय परिप्रेक्ष्य

OCTOBER 21, 2010, THURSDAY

Time – 9.30 A.M.

Organized by

Department of Sanskrit, Sanatana Dharma College (Lahore), Ambala Cantt.

In academic collaboration with

Department of Political Science, Kurukshetra Univesity, Kurukshetra.

मान्यवर _______________________,

संस्कृत विभाग, सनातन धर्म कालेज, अम्बाला छावनी तथा राजनीति विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित गोष्ठी में सहभागिता एवम् पत्र प्रस्तुति के लिए सादर आमन्त्रित हैं।

Suggested topics:-

भारतीय सन्दर्भ में मानवाधिकार का दर्शन एवम् व्यवहार

धर्म, संविधान एवम् मानवाधिकार- विरोध तथा परिष्कार

Philosophical foundations of Human rights and Indian Constitution

Human rights in Hindu/ Sikh/ Jain/ Bauddha/ Islam/ Christian Dharma

Politics of development and human rights in India

Power politics and human rights

Elements of Indian culture and human rights

Historical perspective of human rights in India

Terrorist movements, constitution and human rights

Issues of minorities and human rights

Issues of social justice and human rights

Globalization, trade practices and human rights

Armed forces, politics and human rights

Constitution, democracy and human rights

Gandhian perception & practice of human rights

Aurobindos’ understanding of human rights

Pre-independence human rights and British law

Redefining human rights and Indian sensibility

Rights and duties – an Indian perspective

संगोष्ठी विचार

भारतीय मानवाधिकार के सन्दर्भ में मनुष्य जाति के समक्ष दो ही स्पष्ट गम्भीर एवम् व्यापक समस्याएँ हैं- एक है शुभता (goodness / अच्छाई) की घोर कमी, और दूसरी समस्या है- शुभता को व्यवस्थित करने के लिए किसी सटीक पद्धति (नीति/ strategy) का अभाव। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि मानवाधिकार की संस्कृति आधुनिकता के तर्क पर आधारित आर्थिक दर्शन के प्रति मोहभंग की अभिव्यक्ति है क्योंकि भोग (अपने लिए अधिक से अधिक उपभोग की वस्तुएँ एकत्रित करना) और प्रभुता (अपने उपभोग के लिए एकत्रित सामग्री से दूसरों पर श्रेष्ठता स्थापित कर दूसरों को ईर्ष्या का भाव देना) पर आधारित कोई भी व्यवस्था न्यायपूर्ण और स्वस्थ समाज की स्थापना नहीं कर सकी और न ही कर सकती है। ऐसे में मानवाधिकार की संस्कृति कैसे विकसित होगी।

पश्चमी इतिहास से स्पष्ट होता है कि वहँ होने वाली सभी क्रान्तियाँ राजपरिवारों से व्यापारी वर्ग को शक्ति का हस्ताँतरण मात्र था। ये क्रान्तियाँ न न्याय के लिए थीं और न ही समानता के लिए। इसलिए मानवाधिकार की बात चाहे कितने ही तर्क से, प्रचार से की जाए उसकी मूल धारा में विकृति रहेगी ही। पूँजीवाद या समाजवाद दोनों चाहे जितना भी मान्वाधिकार का प्रचार करें परन्तु उन दोनों का पदार्थवाद ही मनुष्य की सत्ता को स्वीकार नहीं करता तो मानवाधिकार की सफ़लता पर प्रश्न चिन्ह लगेंगे ही।

अतः भारतीय होने कारण हम सभी मानवाधिकार की समस्याओं का आधुनिकता के नेतृत्व और उनके विषय विशेषज्ञता से स्वतन्त्र हो कर अपनी सांस्कृतिक प्रतिभा और बुद्धि के बल पर समाधान खोजें। क्योंकि भारतीय सन्दर्भ में मानवाधिकार का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज के अधिकारों और कर्त्तव्यों से एक साथ जुड़ा हुआ है। भारतीय परम्परा में अधिकार का सम्बन्ध स्वामित्व से है और उस स्वामित्व के प्रति सुरक्षा और सम्मान की भावना से है। भारतीय परम्परा के विषय में दो शब्दों का प्रयोग अत्यन्त सघनता से पूरे कालक्रम में दिखाई देता है- एक है- नीति और दूसरा है न्याय। इन दो शब्दों को स्पष्ट करते हुए डा० अमर्त्य सेन कहते हैं- ‘The former idea, that of Niti, relates to organizational propriety as well as behavioural correctness’ whereas the latter, Nyaya, is concerned with what emerges and how, and in particular the lives that people are actually able to lead.’ यही दो शब्द भारतीय संविधान के उत्तरदायित्व को स्पष्ट करते हैं कि मानवाधिकार के सम्बन्ध में क्या नीति अभीष्ट है और कैसे मानवाधिकार के सन्दर्भ में न्याय पर आधारित समानता और स्वस्थ समाज विकसित हो? इस संगोष्ठी का यही केन्द्र बिन्दु है।

आपसे सादर निवेदन है कि आप अपनी स्वतन्त्रता एवम् मान्यता के अनुसार विषय चुनें।

कृपया अपनी सहभागिता की सूचना एवम् शोधपत्र (अंग्रेजी / हिन्दी) १० अक्तूबर तक आवश्यक रूप से प्रेषित करें।

संयोजक समिति

आशुतोष आंगिरस प्रो० (डा०) आर एस यादव डा० देश बन्धु

संस्कृत विभाग अध्यक्ष, राजनीति विभाग प्राचार्य

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय,कुरुक्षेत्र एस० डी० कालेज (लाहौर)

098963-94569 09896088655 09812053283

Monday, December 21, 2009

SYSTEM'S THINKING AND HUMAN RIGHTS – AN INDIAN PERSPECTIVE


द्वि-दिवसीय राष्ट्रिय संगोष्ठी

व्यावस्थिकी-विचार एवम् मानवाधिकार - भारतीय परिप्रेक्ष्य में

SYSTEM'S THINKING AND HUMAN RIGHTS – AN INDIAN PERSPECTIVE

प्रायोजक - विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली।

दिनांक : 28-29 जनवरी, 2010 (वीरवार, शुक्रवार)

मान्यवर ................................................

'सनातन धर्म कॉलेज (लाहौर) उपरोक्त विषय पर आयोजित संगोष्ठी में प्रतिभागिता एवम् पत्र-प्रस्तुति के लिए आपको सादर निमन्त्रित करता है। बहु-वैषयिक (multi-disciplinary) संगोष्ठी में चर्चा एवम् मत प्रतिप्रादन अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान, राजनीति विज्ञान, विधि विज्ञान, मनोविज्ञान, लोक-प्रशासन, शिक्षा, धर्म एवम् साहित्य आदि की दृष्टि से अपेक्षित है क्योंकि तभी यह स्पष्ट हो पाएगा कि भारत की सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, धार्मिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक व्यवस्थाएँ कैसे अपने उद्देश्यों के विपरीत और व्यक्ति के विरोध में व्यवहार करती है ? किसी भी व्यवस्था की अपनी विचार प्रक्रिया या पद्धति में मानवीयता का क्या अर्थ हैं इस दृष्टिकोण से बौद्धिक, तार्किक, सम्वेदनशील, सहृदयतापूर्ण विश्लेषण आप द्वारा अपेक्षित हैं आपकी वैचारिकता से हम अनुगृहीत होने के लिए विनम्रतापूर्वक तत्पर हैं।

विशेष :-

1. सीमित संसाधनों के कारण आपकी प्रतिभागिता की पूर्व सूचना 20 जनवरी तक आवश्यक रूप से अपेक्षित है।

2. मार्ग व्यय सामान्य श्रेणी का ही देय होगा।

3. संगोष्ठी के पत्रों को पुस्तक रूप में छापा जाएगा अत: शोधपत्र हिन्दी में कृतिदेव या मंगल यूनिकोड और अंग्रेजी में TIMES NEW ROMAN साईज़ 12 में A-4 प्रारूप में सी.डी. अथवा ई.मेल पर हार्ड कॉपी के साथ भेजना आवश्यक है।

व्यावस्थिकी-विचार एवम् मानवाधिकार - भारतीय परिप्रेक्ष्य में

SYSTEM'S THINKING AND HUMAN RIGHTS – AN INDIAN PERSPECTIVE

निश्चित ही आर्थिक-सामाजिक-प्रशासनिक-राजनैतिक-नैय्यायिक-पारिवारिक शैक्षिणक एवम् धार्मिक व्यवस्थाएँ व्यष्टि एवम् समष्टि व्यक्ति के हित, सुख, सम्मान, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि के लिए स्थापित एवम् स्वीकृत विभिन्न देशों, सभ्यताओं, संस्कृतियों द्वारा की गई है ताकि मनुष्य की आदिम बुभुक्षा, आदिम भय, आदिम सौन्दर्य बोध एवम् आदिम जिज्ञासा जो निरन्तर गतिशील एवम् व्यापनशील होने कारण अत्यन्त जटिल प्रक्रियाओं को उत्पन्न करते हैं उन्हें एक अभीष्ट निर्दिष्ट दिशा प्रदान कर भविष्य की मानवता को सुरक्षित एवम् व्यवस्थित कर सकें परन्तु यदि किसी भी देश की कोई भी व्यवस्था अपने नागरिक (व्यक्ति) को कोई किसी भी प्रकार की आश्वस्ति प्रदान कर रहा है तो निश्चित ही इस सम्वाद संगोष्ठी का कोई औचित्य नहीं है और यदि किसी भी देश की कोई व्यवस्था किसी एक भी व्यक्ति को किसी प्रकार आश्वस्ति प्रयत्न करने पर भी नहीं प्रदान कर सकी है तो इस संगोष्ठी के आयोजन स्वत: सिद्ध हो जाता है विशेष रूप से भारत के सन्दर्भ में जिसकी सभी व्यवस्थाएं न केवल प्राचीनता के गौरव के भार से दबी हुई हैं और आधुनिकता के व्यामोह से विसंगति और बिखराव की ओर अग्रसर इस प्रकार हो रही हैं जिसमें गरीब के पास न्याय प्राप्ति के साधन नहीं हैं और धनी को अपने धन के प्रति किसी भी प्रकार की आश्वस्ति नहीं है तो निश्चित ही विचार करना होगा कि - ''वे सभी व्यवस्थाएँ जो व्यक्ति के लिए थी, वे सारी व्यवस्थाएँ व्यक्ति पर हावी क्यों और कैसे हो गई ?'' व्यवस्था में रहते हुए 100 करोड़ भारतीयों को जीने के लिए संघर्ष क्यों करना पड़ रहा है, क्यों प्रत्येक राजनेता के चेहरे पर परेशानी का भाव है, क्यों प्रत्येक प्रशासिनक अधिकारी frustrated दिखाई पड़ता है, क्यों प्रत्येक व्यक्ति अनहोनी की आशंका से, चिन्ता से पीड़ित है ? यह मुँह खोले प्रश्न न केवल वैज्ञानिक विश्लेषण एवम् समाधान की अपेक्षा करते हैं बल्कि साहित्यिक सहृदयता की भी आवश्यकता अनुभव करते हैं, नहीं तो व्यक्तियों को मनुष्य न समझ कर केवल ऑंकड़े मानकर व्यवहार करते रहेंगे और व्यक्ति प्रत्येक व्यवस्था में अपनी संगति ढूँढता रह जाएगा। 80 प्रतिशत भारतीय यदि साधन सम्पन्न नहीं है तो भारतीय व्यवस्था सार्थकता के प्रश्नों से पीछा नहीं छुड़ा सकती।

व्यवस्था और व्यक्ति के आपसी संगति का परिभाषिकीकरण ही वस्तुत: मानवाधिकार की स्थापना कर सकता है अन्यथा मानवाधिकार मात्र संवैधानिक व्यवस्था में जकड़ कर रह जाएगा और मानवाधिकार की संस्कृति कभी विकसित नहीं हो पाएगी क्योंकि मानवाधिकार का सम्बन्ध व्यक्ति के व्यवहार से है न कि लिपकीय संवैधानिक व्यवस्थाओं से (clerical constitutional system) सांस्कृतिक व्यवहार की दृष्टि से संविधान बहुत लघु सत्व है। भारत की सांस्कृतिक परम्परा हमेशा इस विषय में सजग रही है कि व्यवस्था और व्यक्ति की न केवल तार्किक बौ(कि संगतता ही हो बल्कि व्यक्ति का व्यक्तित्व इतना मानवीय हो कि वह वैश्विक मानव हो जाए जिससे वह व्यवस्थातीत हो जाए और इसके लिए लाखों लोगों को दो महायुद्धों में मारकर अनावाश्यक रूप से भविष्य में भय के कारण स्थापित यू.एन.ओ. के चार्टर को मानने की आवश्यकता नहीं है बल्कि जैनों की अहिंसा, बौद्धों की करुणा, वैदिकों की वैश्विक दृष्टि से प्रेरणा अभीष्ट है। उन्नति और विकास का नाम लेकर व्यापार करने के उद्देश्य से दूसरों की संस्कृति को नष्ट कर, विकृत कर फिर मानवाधिकार की दुहाई देना भारतीय सिद्धान्त नहीं है। अत: वर्तमान कालिक व्यवस्थाओं के व्यवहार पक्ष (working) और विचार पक्ष (thinking) पर समालोचना करने के लिए आप सादर साग्रह निमन्त्रित हैं जिससे आपकी बौद्धिकता से उपरोक्त विषय पर नए वैचारिक आयामों से सभी लाभान्वित हो सकें। यह एक अन्त:वैषयिक संगोष्ठी है, अत: आप किसी भी विषय से सम्बन्धित हों आपके वैचारिक योगदान का स्वागत है।

सम्भावित विचार बिन्दु :-

भारतीय न्याय व्यवस्था का व्यवहार एवम् मानवाधिकार

भारतीय अर्थव्यवस्था का व्यवहार एवम् वैयक्तिक अधिकार

भारतीय समाज व्यवस्था एवम् वैयक्तिक संघर्ष

भारतीय पुलिस व्यवस्था एवम् मानवीय संवेदनशीलता के प्रश्न

भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था की विचार प्रक्रिया एवम् मानवीय संवेदनशीलता

भारतीय शैक्षिक व्यवस्था एवम् मानवीयता की प्राक्कल्पना

हिन्दी अंग्रेजी, संस्कृत पंजाबी साहित्य में व्यवस्था विश्लेषण एवम् मानवाधिकार

भारतीय परम्परा में मानवाधिकार के मूल आधार

भारतीय राजनैतिक व्यवस्था की वैचारिक प्रक्रिया एवम् मानवीय मूल्य

भारतीय धर्मव्यवस्थाएँ एवम् मानवाधिकार

भारतीय माओवादी एवम् भारतीय संवैधानिक हिंसा तथा मानवाधिकार

भारतीय कारपोरेट संस्कृति एवम् व्यक्ति के सांस्कृतिक अधिकार

व्यवस्थिकी विचार के प्रति साहित्यिक प्रति संवेदन

व्यावस्थिकी विचार प्रक्रिया का ऐतिहासिक विश्लेषण

ङ्कवादी व्यवस्था की विचार प्रक्रिया एवम् धार्मिक-अधिकार

कृषि संस्कृति एवम् मानवाधिकार

पूंजीवादी औद्योगिक संस्कृति एवम् मानवाधिकार

हिन्दू/सिक्ख/जैन/बौद्ध/इस्लाम/ईसाई धर्म व्यवस्थाएँ एवम् मानवाधिकार

मनुवादी व्यवस्था एवम् मानवाधिकार

मार्क्सवादी व्यवस्था एवम् मानवाधिकार

सैन्य व्यवस्थागत विचार एवम् व्यवहार

q हिंसा का दर्शन एवम् मानवाधिकार

q वैश्वीकरण के दार्शनिक आधार एवम् मानवाधिकार

28-29 जनवरी, 2010 दिन (वीरवार, शुक्रवार)

पंजीकरण - 9.00 प्रात:

प्रथमोन्मेष - 10.00 प्रात:

चायपान - 11.30 प्रात:

द्वितीयोन्मेष - 11.45 प्रात:

भोजनावकाश - 1.30 मध्याह्न

तृतीयोन्मेष - 2.00 मध्याह्न

चायपान - 3.30 अपराह्न

चतुर्थोन्मेष - 3.45 सायँ

29 जनवरी, 2010 दिन शुक्रवार

पञचमोन्मेष - 9.30 प्रात:

चायपान - 11.15 प्रात:

षष्ठोन्मेष - 11.30 प्रात:

भोजनावकाश - 1.00 मध्याह्न

निमेष - 2.30 अपराह्न

चायपान - 4.30 सायँ

कृपया समय का सम्मान करें।

उच्चतर शिक्षा वीभाग के नाम खुला पत्र


प्रतिष्ठायाम्

श्री राजन गुप्ता,

आई० ए० एस०

फ़ाईनेंशियल कमिश्नर कम एजुकेशन सेक्रेटरी

हरियाणा सरकार

चण्डीगढ.

उचित माध्यम द्वारा

विषयहरियाणा उच्चतर शिक्षा में सार्थक मानवीय परिवर्तन के सन्दर्भ में।

मान्यवर,

दिसम्बर मास की १५ तारीख को करनाल नगर के दयाल सिंह कालेज में हरियाणा कालेज टीचर्ज द्वारा आयोजित उपरोक्त सन्दर्भ में जो संगोष्ठी में आप द्वारा जो प्रश्न प्राध्यापकों के विचार के लिए पूरी निष्ठा एवम् सहृदयता से उपस्थापित किए गए थे उसी सम्वाद श्रृंखला को सनातन धर्म कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी का संस्कृत विभाग अग्रसर करते हुए कुछ विचार अपनी भाषा में आपसे सांझा करने को तत्पर है, जैसे कि-

१. हरियाणा की उच्चतर शिक्षा प्रणाली में छात्रों को क्या यह सिद्ध करना है कि भारत मात्र एक व्यापारिक मण्डी है और हरियाणा के छात्र का भारत से सम्बन्ध मात्र धन्धे का ही है या भारत एक ऐसा देश है जिसके लिए हर भारतीय को जीना मरना चाहिए?

२. क्या वर्तमान उच्चतर शिक्षा का लक्ष्य केवल पूँजीवादी व्यवस्था के उद्योगों के लिए कर्मचारी तैयार करना है या ऐसे विचारवान मनुष्य की सम्भावना को तैयार करना है जो भविष्य की मानवता को आश्वस्ति प्रदान कर सके ताकि विश्व एक बेह्तर और सुरक्षित स्थान बन सके? (विचारक से अर्थ बिल्कुल नहीं है कि जिसे राजनेता, प्रशासनिक आधिकारी या व्यापारी एक नारा देकर समाज में भेज दें और वे उसे न्यायोचित मान कर उसकी सिद्धता में लगे रहें। इसका अर्थ है मुक्त विचारक।)

३. हरियाणा उच्चतर शिक्षा में यदि भारत एक देश है तो उस देश की आवश्यकताओं को सार्थक रूप से पूरा करने के लिए बी०ए०/ बी०एस०सी०/ बी०काम० आदि का स्थापन्न विशिष्ट शैक्षिक-धाराओं (educational streams ) से करना चाहिए जैसे कि एडमिनिस्ट्रेटिव स्ट्रीम, टेक्निकल स्ट्रीम, जुडिशियल स्ट्रीम, लेबर स्ट्रीम, मिलिटरि स्ट्रीम, क्लैरिकल स्ट्रीम, बिजिनस स्ट्रीम, टीचिंग स्ट्रीम, साईंटिस्ट स्ट्रीम, थिंकर्स स्ट्रीम, क्रिएटिव स्ट्रीम आदि आदि तथा इन स्ट्रीम्स के सन्दर्भ में विभिन्न विषयों को पढाया जाना चाहिए ताकि देश की सभी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।

४. उच्चतर शिक्षा में भाषाओं तथा साहित्य की सार्थकतापूर्ण उपयोगिता को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता इस सन्दर्भ में है कि शिक्षा से किस प्रकार के मनुष्य की निष्पत्ति करना चाहते हैक्या हरियाणा को साईबोर्ग्स चाहिए या सम्वेदनशील सहृदय मनुष्य चाहिए?

५. उच्चतर शिक्षा में संस्कृत भाषा की उपयोगिता पर साधिकार आक्षेप सिर्फ़ इसलिए किया जाता है क्योंकि संस्कृत के हाथ पैर बाँध कर उसे दूसरे विषयों से प्रतियोगिता करने को कहा जाता है। इस सन्दर्भ में संस्कृत की यह संक्षिप्त कथा अत्यन्त सटीक है कि उच्चतर शिक्षा नाम के एक राजा के संस्कृत, साईंस और कामर्स नाम के तीन कुमार थे जिनका समयानुकूल राजकुमार पद पर अभिषेक करने का राजा के द्वारा विचार करने पर प्राचार्य नामक एक मन्त्री ने उनकी परीक्षा द्वारा योग्यता का निर्णय करने का सुझाव दिया कि तीनों कुमारों को सौ सौ रूपए दे दी जाँए और उन रूपयों से तीनों अपने अपने महल को एक महीने भर दिया जाए और जिसका महल सबसे अधिक भरा होगा उसे राजकुमार पद पर अभिषक्त किया जाए। एक महीना होते ही प्राचार्य मन्त्री सहित उच्चतर शिक्षा नामक राजा निर्णय करने के लिए आ गए और देखा कि कामर्स कुमार ने आपना महल शेयर बाजार से नोटों से भर दिया है और साईंस कुमार ने अपना महल टी०वी, कम्प्यूटर से भर दिया है और संस्कृत कुमार का महल सिर्फ़ प्रकाश से भरा था क्योंकि उसने सौ रूपए के मिट्टी के दीए खरीद कर जला दिए थे यह देख कर प्राचार्य मन्त्री और उच्चतर शिक्षा नामक राजा किसी निर्णय पर नही पहुँच पाए हैं कि किसे पदाभिषिक्त करें?

६. इसके साथ यह भी विचारणीय है कि प्राध्यापक से सर्वकार, प्राचार्य तथा प्रबन्धक समितियां किस आधार पर नैतिक एवम् सम्वेदनशील व्यवहार की अपेक्षा करते हैं जबकि वे स्वयं शिक्षा के माध्यम से यह प्रचारित कर रहे हैं कि शिक्षा एक धन्धा है और धन्धे में ईमानदारी या सम्वेदनशीलता या मनुष्यता की बात क्या कामर्स, विज्ञान सिखा सकते हैं? प्राध्यापक की स्वतन्त्रता का वर्तमान व्यवस्था में क्या स्थान है जिससे वह विकसित और प्रौढ.हो सके?

सनातन धर्म कालेज, अम्बाला छावनी का संस्कृत विभाग उपरोक्त वैचारिक प्रश्नों को प्रस्तुत करने का साहस निम्नाँकित उपलब्धियों से करना चाहता है (हालाँकि संस्कृत की दृष्टि से उपलब्धियों की चर्चा करना निकृष्ट/हीन मानसिकता का प्रतीक है लेकिन वर्तमान व्यवस्था का सम्बन्ध मनुष्य के अस्तित्व की सार्थकता से न होकर उसकी मात्र उपलब्धियों से है|)

१. यू०जी०सी०, नई दिल्ली से मेजर रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए ३लाख ८५हजार की अनुदान राशि संस्कृत के आधार पर व्यावहारिक मनोविज्ञान की स्थापना हेतु प्राप्त किया और इस विषय को हरियाणा में प्रस्तुत करने वाला प्रथम विभाग है।

२. हरियाणा में सङ्गणकीय संस्कृत (Computational Sanskrit)) को प्रारंभ करने वाला प्रथम विभाग है और इस विषय में संस्कृत विभाग ने प्रध्यापकों, विश्वविद्यालय के शोध छात्रों एवम् अन्य छात्रों के कार्यशालाओं को आयोजित कर प्रशिक्षित किया है।

३. हरियाणा का यह प्रथम विभाग है जिसका ALLSOFT SOLUTIONS Pvt. Ltd. नामक प्राईवेट साफ़्टवेयर कम्पनी से संस्कृत के विकास के लिए अनुबन्ध है। प्रमाणस्वरूप कम्पनी और संस्कृत विभाग द्वारा दो सी०डी० संस्कृत ग्रन्थों की शिक्षा के बाजार में प्रस्तुत की गई है जिसका विमोचन कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के माननीय उप-कुलपति श्री वाजपेयी द्वारा किया गया था और भविष्य में शीघ्र ही अन्य उपलब्धियों को प्रस्तुत कर संस्कृत की उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लगाने वालों को प्रत्युत्तर देने के लिए तत्पर है।

४. हरियाणा का यह प्रथम विभाग है जिसने ऐसी अन्तः-वैषयिक राष्ट्रीय संगोष्ठियां सफ़लतापूर्वक आयोजित की जिनका सम्बन्ध मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति, संविधान, इतिहास, वाणिज्य, अंग्रेजी से है और भविष्य में जीवविज्ञान, भौतिकी आदि के साथ वैचारिक सम्भावनाओं पर प्रयोग करने का निश्चय है।

यदि उपरोक्त उपलब्धियां संस्कृत विभाग की वैचारिक एवम् व्यावहारिक विश्वसनीयता की स्थापना के लिए पर्याप्त हैं तो संस्कृत विभाग आपसे अनौपचारिक चर्चा के लिए विनम्र निवेदन करता है ताकि देश और केवल मनुष्यता के हित में हरियाणा की उच्चतर शिक्षा का आमूलचूल रूपान्तरण किया जाए।

सादर

भवदीय़

आशुतोष आङ्गिरस, प्राध्यापक, संस्कृत विभाग, सनातन धर्म कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी। १३३००१ ई-मेल :- sriniket2008@gamil.com http://sanatansanskrit.blogspot.com

अग्रेषित

डा० देशबन्धु

प्राचार्य

सनातन धर्म कालेज (लाहौर)

अम्बाला छावनी।१३३००१

प्रति

१. आयुक्त, हरियाणा उच्चतर शिक्षा विभाग, पञ्चकूला।

२. उप-कुलपति, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र।

३. उपकुलपति, महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक।

४. प्रधान, हरियाणा कालेज टीचर्स एसोसिएशयन, अम्बाला।