Sunday, August 16, 2009

''आधुनिक भारत के निर्माण में संस्कृतज्ञों का योगदान''


''आधुनिक भारत के निर्माण में संस्कृतज्ञों का योगदान''
आशुतोष आङ्गिरस, संस्कृत विभाग,एस.डी.कॉलेज (लाहौर), अम्बाला छावनी। १३३००१

संस्कृत साहित्य का मूलभूत और प्रथम सूत्र है - 'अथातो पुरुष-जिज्ञासा'। दर्शन के क्षेत्र में यह पुरुष के 'परा' रूप 'आत्मा' की जिज्ञासा है तो काव्य के क्षेत्र में उसके अपरा रूप 'महापुरुष' के प्रति जिज्ञासा है। आदिकवि वाल्मीकि इसी 'पुरुष जिज्ञासा' को लेकर प्रारम्भ करते हैं जिसमें एक शब्द का परिवर्धन कर इसे पत्र की भूमिका के रूप में स्थापित करना चाहता हूं -
कोन्वस्मिन् संस्कृतज्ञ: साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढ़व्रत:॥१-१-२॥
चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः ।
विद्वान् कः कः समर्थश्च कश्च एक प्रियदर्शनः ॥१-१-३॥
आत्मवान् को जित क्रोधो द्युतिमान् कः अनसूयकः ।
कस्य बिभ्यति देवाः च जात रोषस्य संयुगे ॥१-१-४॥
एतत् इच्छामि अहम् श्रोतुम् परम् कौतूहलम् हि मे ।
महर्षे त्वम् समर्थोऽसि ज्ञातुम् एवम् विधम् सँस्कृतज्ञम् (नरम्) ॥१-१-५॥
हे नारद, इस समय इस लोक में ऐसा 'संस्कृतज्ञ पुरुष' कौन है जो गुणवान्, वीर्यवान् धर्मज्ञ, सत्यवादी और दृढ़व्रती, चरित्रवान्, सर्वभूतहितकारी, विद्वान, समर्थवान्, प्रियदर्शन, आत्मवान्, जितक्रोधी, अनसूयक, द्युतिमान् है? संसार के इस युद्धक्षेत्र में किस संस्कृतज्ञ में रोष उत्पन्न होने पर देवता भी भयभीत होते हैं – ऐसा मेरा अत्यन्त कौतुहल है और मैं आप महर्षि से सुनना चाहता हूँ क्योंकि ऐसे सँस्कृतज्ञ को आप ही जानने में समर्थ हैं? ऐसी जिज्ञासा के उत्पन्न होते ही उत्तर की खोज में विचार मग्न महान् शास्त्रज्ञ, तपस्वी, योगी, स्वभाव से ही विभिन्न लोकों में पर्यटन के लिए सदा उत्सुक और ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवी-देवताओं, मनुष्यों, ऋषियों आदि के भवनों में बिना आज्ञा नि:संकोच प्रवेश करने वाले परन्तु विनम्र एवम् सभी विद्याओं के ज्ञाता होने पर भी निरन्तर जिज्ञासु मुनि नारद ने फिर एक बार विष्णु लोक जाकर शेष शैय्या पर लक्ष्मी सहित विराजमान भगवान् विष्णु से प्रणामपूर्वक जिज्ञासा की कि भगवन्! आधुनिक भारत के निर्माण में संस्कृज्ञों का क्या और कैसा योगदान है ? कृपया लोकहित के लिए संक्षिप्त, सरल एवम् उपयोगी रीति से प्रतिपादन करने की कृपा करें।'' भगवान् विष्णु ने सदा की तरह मन्दस्मित से कहा कि हे नारद! लोक हित के लिए तुमने यह जो विचित्र परन्तु सार्थक एवम् रुचिकर यथार्थवादी प्रश्न किया है उसका उत्तर मैं संक्षेप में तीन भागों में दूँगा - पहला यह कि आधुनिकता क्या है या आधुनिकता से क्या अभिप्राय है; दूसरा 'भारत का निर्माण' का क्या अर्थ है और तीसरे संस्कृतज्ञ होने का क्या अर्थ है और वे कितने प्रकार के हैं या उनकी कोटियाँ क्या हैं ? लेकिन उससे पूर्व जिन लोगों के हित के लिए तुम यह प्रश्न कर रहे हो, जिज्ञासा कर रहे हो उनके विषय में यह जान लो कि जिस देश और जाति के पास जितना बड़ा इतिहास होता है समुन्नत संस्कृति, धार्मिक उदात्त दृष्टि एवम् श्रेष्ठ साहित्य होता है, उसके दो ही परिणाम हुआ करते हैं या तो वे सामान्य व्यक्ति की भाँति अपने अतीत का गौरव गान करते हुए अपनी हीनता को छुपाते रहें या अतीत की उस महिमा मण्डित महाद्वीपता के समकक्ष अपना भी कोई यशद्वीप समानान्तर रूप से निर्मित एवम् विकसित करें। अथवा वाला यह कार्य उतना सामान्य नहीं है। इसके लिए असमान्य वर्चस्व और निर्मम संकल्प की अपेक्षा होती है। अतीत को वर्तमान बनाकर भविष्य के रूप में प्रस्तुत कर देना भगीरथ व्यक्तित्व की माँग रखता है। वैसे तो सभी देशों जातियों, सभ्यताओं के पास या तो अतीत की पौराणिकता है या नहीं तो मध्यकालीन ऐतिहासिकता की कुछ न कुछ परम्पराएँ हैं जिन पर उचित अनुचित गर्व कर सकते हैं परन्तु संस्कृतज्ञों की कठिनाई दूसरी सभ्यताओं, जातियों और देशों से बहुत अधिक है। इतिहास के क्रम में अधिकांश सभ्यताएँ अपने अतीत से कट कर सर्वथा भिन्न भाव भूमि ग्रहण कर चुकी हैं, अत: उनका अतीत एक प्रकार से उनके रचनात्मक व्यक्तित्व के लिए समाप्त हो चुका है। परन्तु संस्कृतज्ञों की कठिनाई यह है कि एक ओर वे बहश्रुत तथा बहुविध परम्पराओं से मण्डित हैं और दूसरी ओर उनकी अस्मिता पर गत दो-ढ़ाई सहस्र वर्षों से क्षारपर्तें निरन्तर गिरते-गिरते इतनी कड़ी हो गई हैं कि राम, कृष्ण, विवेकानन्द, दयानन्द गान्धी या अरविन्द द्वारा किए जाने वाले मोह भंग से भी इनका स्वत्व जाग्रत नहीं होता। इस अस्मिता हीनता और जड़ता में थोड़ा ही अन्तर रह गया है। भले ही संस्कृतज्ञ अपनी अस्मिता हरण के लिए सामी (sematic thinking) वैचारिकता को दोषी ठहरा दें परन्तु अब उन्हें किसी बाहरी शत्रु की आवश्यकता नहीं रह गई है।
इसी उपरोक्त कथन का यह पक्ष भी स्पष्ट कर लें कि संस्कृतज्ञ एक ऐसा उभयधर्मी प्राणी है जो एक साथ दो विश्वों में रहता है - एक विश्व तो वह है जो उसे दिया गया है जो जड़, जीवन और चेतना का विश्व है और दूसरा विश्व वह है जो स्वयं संस्कृतज्ञों द्वारा बनाया हुआ है, जो प्रतीकों का विश्व है। संस्कृतज्ञ अपनी विचार प्रक्रिया में भाषात्मक, गणितीय, चित्रात्मक, संगीतात्मक, कर्मकाण्ड सम्बन्धी आदि विभिन्न प्रकार की प्रतीक प्रणालियों का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार की प्रतीक-प्रणालियों के अभाव में कोई कला, साहित्य, विज्ञान, विधि या दर्शन सम्भव नहीं। इनके अभाव में सभ्यता का आरम्भ ही सम्भव नहीं है। अत: प्रतीक अपरिहार्य हैं। संस्कृतज्ञों का इतिहास भली भाँति स्पष्ट करता है कि ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में प्रतीकों की शब्दावली में विचार कर तदनुसार क्रिया करके प्रकृति की मूलभूत शक्तियों को उन्होंने समझा, सावधानी से उनका विश्लेषण किया तथा भौतिक अस्तित्व के उद्धाटित होने वाले तथ्यों के साथ उनका उत्तरोत्तर सामञ्जस्य किया - जो नितान्त उचित था और प्रशंसा के योग्य है परन्तु वर्तमान कालिक संस्कृतज्ञ क्या योगदान कर रहा है यह बात आग्रहपूर्वक विचार की अपेक्षा करती है क्योंकि किसी भी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक-पारिवारिक-वैश्विक समस्या के समाधान के लिए वैदिक मन्त्रों को, गीता, रामायण आदि के श्लोकों को संस्कृतज्ञ उद्धृत करते हैं तो नि:सन्देह वे उसे दोहराते हैं। क्या नहीं दोहराते ? और जिसे दोहराया जाता है वह सत्य नहीं हो सकता। सत्य दोहराया नहीं जा सकता। जिन संस्कृतज्ञों का यह मत है या विश्वास है कि इतिहास या परम्परा के नाम पर प्रदत्त प्रतीक प्रणाली या शब्द पूर्णतया उपादेय हैं, उसका महत्त्व सर्वाधिक है - यह बात या विश्वास मुक्ति की ओर नहीं ले जाती, हाँ इतिहास की ओर, प्राचीन विपत्तियों की ओर ही ले जाती है और ध्यान रखने योग्य बात यह भी है कि विश्वास अनिवार्यत: विभाजित करता है। यदि संस्कृतज्ञ के रूप में आपका कोई विश्वास है या आप किसी विशेष विश्वास में सुरक्षा खोजते हैं तो आप उन व्यक्तियों से पृथक् हो जाते हैं जो किसी दूसरे प्रकार के विश्वास में सुरक्षा खोजते हैं। सभी संगठित विश्वास विभाजन पर आधारित हैं यद्यपि वे भ्रातृत्व का उपदेश करते हैं। जिसने प्रदत्तों और प्रतीकों के दोनों विश्वों के साथ अपने सम्बन्ध की समस्या हल कर ली वही संस्कृतज्ञ है जिसका कोई पूर्व घोषित विश्वास नहीं - जैसे वैदिक ऋषि। जहाँ तक उसके व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का सम्बन्ध है वह कार्यवाहक प्राक-कल्पनाओं की श्रृंखला को स्वीकार करता है। वे उसकी आवश्यकताओं को पूरा करती है परन्तु वे प्राक्कल्पनाएँ उसके लिए एक माध्यम, एकसाधन से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं। अपने साथी प्राणियों, जीवों के प्रति और उस यथार्थ के प्रति जिसमें वे सब अवस्थित और व्यवस्थित हैं उसके पास प्रेम एवम् साक्षात् प्रातिभ अनुभव हैं। इसके विपरीत सामान्य रूप से संस्कृत का अध्ययन अध्यापन करने वाले संस्कृतज्ञ एक ऐसी चुनौती जो सदा नवीन होती है उसके प्रति किसी प्राचीन प्रारूप के अनुरूप प्रतिक्रिया करते हैं इसलिए उस प्रतिक्रिया में उस चुनौती की तदुनुरूप यथार्थता, नवीनता, ताज़ापन नहीं होता है। अत: ऐसे संस्कृतज्ञ की प्रतिक्रिया की कोई सार्थकता नहीं है और न ही पुरानी प्रतिबद्धता के अनुसार की गई प्रतिक्रिया चुनौती को समझने में सक्षम बनाती है। नवीन चुनौती का सामना करने के लिए आवश्यक है कि संस्कृतज्ञ अपने को आवरणों से पूर्णतया मुक्त कर दे, अपनी पृष्ठभूमि का पूर्णतया परित्याग कर दे और तब नवीन चुनौती का सामना करे जैसे स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द या श्री अरविन्द या गान्धी। दूसरे शब्दों में प्रतीकों को रुढ़ सिद्धान्तों के स्तर पर नहीं लाना चाहिए और कभी भी विचार प्रणाली को एक कार्य निर्वाही सुविधा से अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए। फार्मूलों में विश्वास के अनुसार कर्म समस्या का समाधान नहीं दे सकते। अत: संस्कृतज्ञ अपने प्रति सर्जनशील बोध के द्वारा ही एक सर्जनशील संसार, सर्जनशील भारत को सम्भव कर सकते हैं।
100 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले आधुनिक भारत के निर्माण में संस्कृतज्ञों के योगदान का विश्लेषण करने से पूर्व यह स्पष्ट कर लें कि आधुनिकता क्या है? आधुनिक भारत के निर्माण से क्या अभिप्राय है? उसमें संस्कृतज्ञों का क्या योगदान है और किस प्रकार के संस्कृतज्ञों का योगदान है ?
प्रस्तुत प्रसंग में आधुनिक भारत के दो रूप हैं - एक है पुराना आधुनिक भारत और दूसरी है नवीन आधुनिक भारत। पुराने आधुनिक भारत से अभिप्राय है स्वतन्त्रता पूर्व जब समाज सुधार आन्दोलनों की शुरुआत हुई। सती प्रथा और जाति प्रथा के विरोध में और शिक्षा के समर्थन में लोग आने लगे थे। सामाजिक सुधार के आन्दोलन के सूत्रधार मूल रूप में संस्कृतज्ञ ही थे वे चाहे राजा राम मोहन राय थे, स्वामी दयानन्द थे, ईश्वर चन्द्र विद्या सागर आदि थे। यह वह समय था जब संस्कृत में संस्कारों का स्थान विकारों ने ले लिया था। जड़ता, निराशा और हताशा भारत का व्यक्तित्व बन चुकी थी। सामाजिक सुधार वाले संस्कृतज्ञों की इस धारा के साथ संस्कृतज्ञों की एक और धारा दृष्टिगोचर होती है वह है स्वतन्त्रता सेनानियों और क्रान्तिकारियों की, बंकिम चन्द्र चैटर्जी, वीर सावरकर, चन्द्र शेखर आज़ाद, खुदी राम बोस, रामप्रसाद बिस्मिल, सूर्यसेन आदि ऐसे संस्कृतज्ञ हैं जिन्हें गीता जैसे ग्रन्थ कण्ठस्थ थे, मृत्यु के क्षणों में अपने संस्कृतज्ञ होने का प्रमाण गीता के श्लोकों के रूप में दे गए। बल्कि बंकिम चन्द्र चैटर्जी को तो ऋषि ही माना जाता है। अपने आनन्द मठ उपन्यास में संस्कृत की मूल चेतना की जैसी स्थापना की वह अविस्मरणीय है। इसके अतिरिक्त पुरानी आधुनिकता में गान्धी, विनोबा, तिलक, लाजपतराय आदि भी संस्कृतज्ञ ही हैं। स्वतन्त्रता संग्राम के मूल मन्त्र और संकल्पना वे संस्कृत की संस्कृति से ही ग्रहण कर रहे थे। ये तीसरे प्रकार के संस्कृतज्ञ थे। इनके साथ ही एक चौथे प्रकार के संस्कृतज्ञ और थे जिनका उल्लेख इतिहास के पृष्ठों में नहीं मिलता। वे ऐसे संस्कृतज्ञ थे जो अपने घरों में संस्कृत को अध्ययन अध्यापन के माध्यम से बचाए हुए थे। घोर दरिद्रता और संकटों में भी इन संस्कृतज्ञों ने संस्कृत का त्याग नहीं किया। अभावग्रस्तता भी संस्कृत और उसकी संस्कृति के प्रति उन लोगों में विमुखता या अनास्था नहीं ला सकी। इन संस्कृतज्ञों ने कोई बड़े काम नहीं किए, बड़े नारे नहीं दिए, युद्ध और हिंसा नहीं की परन्तु संस्कृत की रक्षा के व्रत का निर्वाह पूरी निष्ठा से किया। इनके अतिरिक्त सँस्कृतज्ञों की और धारा दिखाई देती है जिसे अंग्रेजों ने चलाया। मैक्डानल, विल्सन, मैक्समूलर,मोनियर विलियम्स, आदि के संस्कृतज्ञ होने में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। कुल मिलाकर पुराने आधुनिक भारत में उपरोक्त प्रकार के संस्कृतज्ञों का योगदान स्वतन्त्रता प्राप्ति तक बहुत स्पष्ट रूप से विचार और व्यवहार के स्तर पर दिखाई देता है।
परन्तु 1947 की स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् संस्कृतज्ञों के विचार और व्यवहार के स्तर योगदान की स्थिति बिल्कुल अचानक एकदम बदल गई। नए आधुनिक भारत में संस्कृतज्ञों के योगदान की बात बहुत कुछ सन्देहास्पद हो गई। क्योंकि जब तक स्वतन्त्रता प्राप्त नही हुई थी तब तक तो नेताओं के पास एक लक्ष्य था, आज़ादी का, स्वतन्त्रता का, स्वाधीनता का। परन्तु जिस दिन वह स्वाधीनता, स्वतन्त्रता, आज़ादी मिल गई उस दिन वह लक्ष्य भी समाप्त हो गया, लक्ष्य से जुड़ी सभी क्रियाएँ अर्थहीन हो गईं और नेताओं के सामने प्रश्न उपस्थित हो गया कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद क्या करें और कैसे करें ? इस प्रश्न के उत्तर का चुनाव नेहरूवादी विचारधारा ने औद्योगिकरण के माध्यम से आधुनिक भारत के निर्माण का किया। आनन फानन में किए गए औद्योगिक भारत के निर्माण की कल्पना ने सारे भारत के इतिहास, परम्परा, मूल्यों, विचारों और व्यवहारों में विसंगति पैदा कर दी। बल्कि आधुनिक, औद्योगिक भारत के निर्माण में गान्धिवाद भी हाशिए पर जा खड़ा हुआ। नए आधुनिक भारत की निर्माण यात्रा औद्योगिकरण से होती हुई टेक्नोलोजी के माध्यम से वैश्विक व्यापारीकरण और उपभोक्तावाद की ओर चल रही है जिसमें संस्कृतज्ञों का योगदान एक विचार का विषय है। क्योंकि उद्योग, टेक्नोलोजी और उपभोक्तावादी संस्कृति में संस्कृतज्ञ कौन है यह जानता, पहचानना और परिभाषित करना थोड़ा कठिन है। कानून और व्यवस्था की दृष्टि से वे सभी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति जिन्होंने बी.ए., एम.ए. आदि संस्कृत विषय में किया है वे संस्कृतज्ञ हैं क्योंकि आजीविका या नौकरी के लिए वे योग्य हैं। दूसरे उपभोक्तावाद की दृष्टि से वे सभी संस्कृतज्ञ हैं जो संस्कृत के आधार पर व्यापार कर सकते हैं - उनमें रजनीश, श्रीलप्रभुपाद, महेश योगी आदि प्रमुख हैं। तीसरे वे संस्कृतज्ञ हैं जो भारत की अधिकांश जनसंख्या में साधु या गुरु या सन्त या स्वामी के नाम से जाने जाते हैं, जैसे – बाबा रामादेव, श्री श्री रविशंकर, मुरारी बापू, आसाराम बापू, कॄपालु जी महाराज। चौथे प्रकार के संस्कृतज्ञ वे हैं जो प्रचारक कोटि के रहे हैं जो सनातन धर्म और आर्य समाज आदि से जुड़े हुए हैं। आजकल यह कार्यभार संस्कृत भारती के हाथों में चला गया है। पाँचवें प्रकार के संस्कृतज्ञ वे हैं जिन्हें विद्वान या पण्डित इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने कुछ या काफ़ी शास्त्र कण्ठस्थ किए हैं और अपनी स्मरण शक्ति का परिचय शास्त्रोक्त उक्तियों द्वारा देते हैं। छठे प्रकार के वे संस्कृतज्ञ जो रचनाकार कहे जाते हैं, जो संस्कृत भाषा में विगत 60 वर्षों से अभ्यास और निष्ठावश धारा प्रवाह कविता, कथा, नाटक आदि लिखने की क्रिया को दोहरा रहे हैं जिससे सँस्कृत साहित्य की सँख्यात्मक मात्रा (quantity) में निश्चित ही वृद्धि हो रही है। सातवें प्रकार के विचारकोटि के संस्कृतज्ञ हैं जिनके मूल में संस्कृत है परन्तु अभिव्यक्ति की भाषा अंग्रेजी, हिन्दी या अन्य प्रादेशिक भाषाएँ हैं - हिन्दी में हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, कुबेरनाथ राय, नरेश मेहता, राहुल साँकृत्यायन आदि कवियों लेखकों विचारकों की लम्बी और प्रभावी सूची है और अंग्रेज़ी में यू.आर.अनन्तमूर्ति, आनन्दकुमार स्वामी, राजा राओ, अरुण शोरी, नीरद चौधरी आदि। इन लोगों की दो कोटियाँ हैं - एक वे जो संस्कृत के पक्ष में हैं, संस्कृत के प्रति सकारात्मक सोच रखते हैं और दूसरे वे जो संस्कृत के विपक्ष में हैं और संस्कृत को सभी दोषों के लिए जिम्मेदार मानते हैं, लेकिन दोनों कोटियों के लोग संस्कृतज्ञ तो हैं ही और अन्तिम कोटि के संस्कृतज्ञ उनको मान लेना चाहिए जो अभी स्पष्ट रूप से अपनी उपस्थिति स्थापित नहीं कर पाए हैं परन्तु वे उभर रहे हैं वे हैं प्रयोगधर्मी संस्कृतज्ञ जो संस्कृत का उपयोग ज्ञान प्रबन्धन, समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, कम्प्यूटर्स, मानवाधिकार, पर्यावरण, संगीत आदि के क्षेत्रों में करने का व्यावहारिक प्रयत्न कर रहे हैं ताकि सँस्कृत पढने वाले वर्तमान और भविष्यकालिक छात्रों को यह विश्वास दिला सकें कि सँस्कृत के नाम पर जो कुछ भी वे पढ रहे हैं या पढाया जा रहा है वह न केवल आजीविका की प्राप्ति के प्रति आश्वस्त करेगा बल्कि स्थानीय, देशिक एवम् विश्व स्तर पर घटित होने वाले परिवर्तनों, समस्याओं एवम् प्रभावों के प्रति अपना दृष्टिकोण, अपना मत, अपनी राय और समझ और व्यक्तित्व भी विकसित कर सकेगा ।
उपरोक्त सभी प्रकार की संस्कृतज्ञों की कोटियों के समक्ष यदि यह प्रश्न रखा जाए कि 100 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले वर्तमान भारत के लोगों के भोजन, वस्त्र, आश्रय, सुरक्षा, शिक्षा आदि के सन्दर्भ में संस्कृतज्ञ कौन सी समस्या सुलझाने का व्यावहारिक, यथार्थपरक उपयोगी उपाय/व्यवस्था सुझा सकते हैं या विगत 60 वर्षों में संस्कृतज्ञों ने बदलती परिस्थितियों में किस क्षेत्र की समस्या सुलझाने का क्या सुझाव रखा ? या इस प्रश्न को इस तरह से प्रस्तुत करें कि कौन-कौन से क्षेत्र में संस्कृतज्ञों का प्रयोगपरक समाधान रहा है? लगातार परिवर्तित और अग्रसर हो रहे भारत में तीन क्रान्तियाँ हो चुकी हैं- जिनमें से एक तो औद्योगिक क्रान्ति (Industrial revolution) हुई, दूसरी सूचना-सञ्चार- क्रान्ति (information technology) घटित हो रही है और इसके साथ ही तीसरी क्रान्ति का युग प्रारम्भ हो चुका है वह है ज्ञान- क्रान्ति (knowledge revolution) – इन तीनों में से औद्योगिक क्रान्ति से मिलने वाले लाभ के अवसर को सँस्कृत और सँस्कृत पढने वाले विद्यार्थियों के हित के लिए हम सँस्कृतज्ञ चूक गए। इस दूसरी और तीसरी क्रान्ति में मिलने वाले अवसरों को सँस्कृतज्ञों को सँस्कृत एवम् सँस्कृत के विद्यार्थियों के हित को, भविष्य को ध्यान में रखते हुए चूकना नहीं चाहिए। नहीं तो इसका दो टूक, सीधा साफ़ स्पष्ट उत्तर देने में कठिनाई होगी। यह सही है कि मूल्य या धर्म (रीलिजन के अर्थ में नहीं) का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज के अधिकारों और कर्तव्यों से एक साथ जुड़ा हुआ है। भारत जैसे संविधानात्मक रूप से प्रजातान्त्रिक देश के लिए मूल्य या धर्म आवश्यक शर्त है परन्तु यह शर्त आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवम् विकास के लिए उपलब्ध संसाधनों के प्रयोग के बिना अर्थहीन है। धर्म या मूल्य दरिद्रता और अभाव के वातावरण में बेमानी हो जाते हैं क्योंकि व्यक्ति या समाज के सन्दर्भ में धर्म या मूल्य का सीधा सम्बन्ध स्वामित्व से है और उस स्वामित्व के प्रति सुरक्षा और सम्मान की भावना से है। परन्तु वर्तमान कालिक भारतवर्ष के भारतीयों की चेतना बुद्धिगत तर्कों से वैश्वीकरण की प्रक्रिया का समर्थन करती हुई उपभोक्तावादी संस्कृति को अधिकाधिक विकसित करने के लिए प्रयत्नशील होती हुई न केवल धर्म पर या मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह लगाकर अनुपयोगी करने के लिए तत्पर है बल्कि सम्पूर्ण व्यवस्था को ही गुणात्मक यथार्थ के माध्यम से असंगत सिद्ध करने के लिए तत्पर है। यद्यपि इस दिशा में विकसित हो रही वर्तमान कालिक भारतीय संवैधानिक सभ्यता अन्तर्निहित समस्याओं जैसे - पर्यावरण, सामाजिक अलगाव, आर्थिक असुरक्षा, आतंकवाद, समलैङ्गिकता आदि से ग्रसित है तथापि भीतर से उठने वाली व्यवस्थागत स्वत: स्फूर्त युक्तियां एवम् समाधान इसमें चमत्कारी सम्मोहन या आकर्षण उत्पन्न कर देते हैं जो इस आधुनिक भारत को ग्लैमरस और रोमांचकारी बना देता है। साथ ही साथ यह भी ध्यान योग्य है कि जीवन के तथ्यों और मनुष्य के भावों में आज इतनी तीव्रता से विस्तार हो रहा है कि संस्कृत भाषा के शब्द इस गुणात्मक परिवर्तन के साथ पग से पग मिलाकर चल नहीं पा रहे हैं। तथ्य शब्द में पूरा-पूरा व्याप्त या स्थिर नहीं हो पा रहा है। यह पद पदार्थ को आज सम्पूर्णत: व्यक्त करने में अपर्याप्त सिद्ध हो रहा है। सामान्य स्थिति में पूरी ईमानदारी से चेष्टा करने पर भी भाषिक विडम्बना का बोध पग-पग पर होता है - विशेषत: अवधारणात्मक (conceptual) शब्दों के सन्दर्भ में। व्यावहारिक परिवेश में जहाँ बेईमानी ही सर्वमान्य ईमान है और अस्पष्टता ही सर्वश्रेष्ठ रणनीति है, यह भाषिक त्रासदी और भी भयावह हो गई है। भाषिक कपटाचार के कारण 'डेमोक्रेसी, समाजवाद, प्रगतिशील, प्रतिक्रियावादी, पूँजीवाद, सामाजिक न्याय, सर्वहारा नेतृत्व, जनवादी, जनहित, वैश्वीकरण आदि दर्जन या दो दर्जन शब्द अपनी अर्थगत प्रमाणिकता खो कर अविश्वसनीय बन गए हैं। जिसके कारण व्यष्टि और समष्टि स्तर पर समाज में बुद्धिगत और मनोगत दोनों तरह क्रायसिस पैदा हो रहे हैं। इसलिए ऐसी परिस्थिति में संस्कारवान् और विचारशील संस्कृतज्ञ के लिए प्रथम आवश्यकता है ऐसी विचार दृष्टि की जो न केवल उपयोगी हो बल्कि प्रस्तुत आक्षेपों का निराकरण भी कर सके। इसलिए किसी भी प्रकार के या कोटि के संस्कृतज्ञ से यदि प्रश्न किया जाए कि आधुनिक युग की मूलभूत समस्या क्या है तो उसका सम्भावित सीधा उत्तर होगा - मनुष्य के अन्तर्निहित 'मनुष्यत्व' का, शील का या अच्छाई का संकट। विश्व में अशान्ति या यन्त्रणा का कारण 'बुराई' उतना नहीं है जितना अच्छाई का अक्षम और अपर्याप्त हो जाना। अच्छाई है परन्तु अक्षम है, अपर्याप्त है - यही अशान्ति का मूल कारण है। इस अच्छाई को मनुष्यता का नाम दें या शीलबोध का या देवत्व का या गुडनेस का या कोई और - यह भयावह रूप से अक्षम और अपर्याप्त है - यह स्थिति संस्कृतज्ञों के समक्ष दो प्रश्न उत्पन्न करती हे - प्रथम यह कि मनुष्य के अन्तर्निहित मनुष्यत्व या अच्छाई को सक्षम और पर्याप्त (potent and sufficient) कैसे किया जाए? द्वितीय प्रश्न है कि इस अच्छाई की व्यूह रचना (pattern or strategy) कैसी हो जो एक दीर्घकालीन समाधान दे सके? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर संस्कृत की चेतना से ही मिल सकता है क्योंकि अन्य सभी चिन्तन या विचार या दर्शन पद्धतियाँ वाद-प्रतिवाद (thesis and anti-thesis) की शैली में सोचते हैं इसलिए अच्छाई की सर्वमान्य परिभाषा सम्भव नहीं है क्योंकि उस शैली में अच्छाई का अर्थ है दलगत नीति की पक्षधरता और संस्कृत की चेतना इस सबसे अधिक व्यापक और अग्रसर है क्योंकि वह स्वाभाविक रूप से अहिंसा, अपरिग्रह और सत्याग्रह से सम्पूर्ण मनुष्यता को अभय प्रदान करती है, आश्वस्ति प्रदान करती है। हालाँकि 21वीं शताब्दी वाले भारत से मूल संस्कृतज्ञों का भारत उतना ही दूर था जिताना सुपरसोनिक से कोई गर्दभ लेकिन शिथिल गति वाले बढ़ी दाढ़ी मूँछ वाले वे संस्कृतज्ञ हमारी पीढ़ी की ओर उँगली उठा कर रहे थे - उन मूर्खों को देखो। वे अधिक खाने के लोभ में अपने समुद्र और अपने आकाश को खाते जा रहे हैं, अपने भविष्य को खाते जा रहे हैं फिर भी अपने को विज्ञानी कहते हैं। उनको ऐसा आरोप करने का अधिकार भी था क्योंकि उनकी नदियाँ सिर्फ बरसात में मैली होती थीं, उनका आसमान सिर्फ ऑंधी चलने पर मैला होता था, उनकी धूप केवल बादल घिरने पर मैली होती थी, उनका शरीर केवल काम करते हुए मैला होता था, आत्मा तो कभी मैली होती ही नहीं थी। वे हँसते थे तो उनकी हँसी में आह्लाद झलकता था पर मन की मलिनता नहीं झलकती थी। वे दु:खी भी कम होते थे क्योंकि उनके दु:ख की परिभाषा भिन्न थी। हमारी परिभाषा के दु:खों को पी जाते थे, ऑंसू के स्थान पर दर्शन टपकने लगता था। वे अपने लिए सब कुछ नहीं चाहते थे। पेट भरने के बाद उनकी भूख तेज़ होती थी, उनके ज्ञान के साधन सीमित थे और अविश्वसनीय थे पर सोच स्पष्ट थी क्योंकि वे निडर होकर सोचते थे क्योंकि उनकी ज्ञान-मीमाँसा में “ज्ञान” ज्ञान नहीं था बल्कि पहले दर्जे का अज्ञान था। वे दुनिया की चिन्तन करते हुए भी अपनी दुनिया से अधिक हमारी दुनिया के बारे में सोच रहे थे - पर्यावरण के ध्वंस पर, प्राकृतिक साधनों के अपव्यय पर, उपभोक्ता संस्कृति की विकृतियों पर, विज्ञान के पागलपन पर, मानव मूल्यों के ह्रास पर, संवेदन शून्यता की विडम्बना पर और अधिकारों के दुष्प्रयोग पर। इस दृष्टि से वे आज के संस्कृतज्ञ की तुलना में अधिक दूरदर्शी थे। इसलिए उन संस्कृतज्ञों के भारत का विश्लेषण करते हुए अपने भारत में प्रवेश करने का एक छोटा सा रास्ता निकालने की कोशिश इस पत्र के माध्यम से करने की है। इसकी सफलता आपके दृष्टिकोण पर निर्भर पर करेगी क्योंकि दृष्टिक्रम (perspective) के भेद से शैली और बोध में अन्तर आ जाता है और एक ही विषय भिन्न-भिन्न स्वाद और भिन्न-भिन्न बोध देने लगता है। अत: मेरी दृष्टि में संस्कृतज्ञ वह है जिसके चित्त का संस्कार ऋत से हुआ ओर वाणी का संस्कार सत्य से हुआ हो क्योंकि एक का सम्बन्ध मन की यथार्थ संकल्प करने की शक्ति से है तो दूसरे का वाणी की यथार्थ कथन करने की क्षमता से है। ऐसा संस्कृतज्ञ ही आधुनिक भारत के निर्माण को निर्देशित अभीष्ट परिवर्तन की दिशा दे सकता है बाकी तो मात्र व्यवस्था का हिस्सा ही हो सकते हैं, इससे अधिक नहीं। ऐसे संस्कृतज्ञ से ही आतङ्करहित संस्कृति उपलब्ध हो सकती है। ऐसे संस्कृतज्ञ का एक ही उद्देश्य है कि समाज में एक भी व्यक्ति संस्कारहीन न रहे। शिक्षा, ज्ञान, संस्कार संस्कृतज्ञ में स्वाभाविक रूप से समाविष्ट है। अत: आधुनिक भारत के निर्माण में संस्कृतज्ञ का मुख्य लक्ष्य बिन्दु वह मानव है, वह भारतीय है जो एक हाथ में धरती के समस्त गुणों को पकड़े हुए है तो दूसरे हाथ में देवत्व की प्रतिष्ठा को धारण किए हुए हैं। उस मानव की समस्त सम्भावनाओं को चारों ओर से सुरक्षित रखने के दायित्व का अधिग्रहण करना - यही संस्कृतज्ञ का आधुनिक भारत के निर्माण में योगदान है। यही कारण है कि संस्कृतज्ञ की उत्सुकता, वास्तविक और अस्तित्वपूर्ण जीवन में है। वह यह नहीं पूछता कि क्या मोक्ष है, क्या ईश्वर है, क्या स्वर्ग नर्क है। जीवन के सम्बन्ध में बुनियादी प्रश्नों को लेकर जीता है तभी वह आधुनिक भारत के मानस को प्रभावित कर पाएगा - चाहे वह पक्ष राजनीति का हो, समाजिकता का हो, विज्ञान का हो, धर्म या अर्थ का हो, गृहस्थ या सन्यास का हो।
''न भारती मेऽङ्ग मृषोपलक्ष्यते, न वै क्वचिन्मे मनसो मृषागति:।
न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे, यन्मे हृदौत्कण्ठ्यवता धृतो हरि:॥ श्रीमद्भागवत 2-6-33
अर्थात् हे नारद, क्योंकि मैंने अपने हृदय में भगवान को उतार दिया है, वे मेरी सत्ता के केन्द्र में स्थिर हो गए हैं, इसी से मेरी भारती/वाणी कभी मृषा नहीं होती, मेरा मन असद् मार्ग पर नहीं चलता और मेरी इन्द्रियों का पतन नहीं होता।' मेरी दृष्टि में ऐसा व्यक्ति ही संस्कृतज्ञ है।
प्रस्तुत विषय के विश्लेषण में अन्तिम बिन्दु 'भारत' का अर्थ भी स्पष्ट करने का प्रयत्न करना आवश्यक है। क्योंकि अथर्ववेद का मत कि - भद्रं इच्छन्त ऋषय: स्वर्विद: तपो दीक्षां उपसेदु: अग्रे। ततो राष्ट्रं बलं ओजश्च जातम् तदस्मै देवा उपसं नमन्तु। अर्थात् ऋषियों ने जगत कल्याण की इच्छा से जो तप किया उससे राष्ट्र निर्माण हुआ, राष्ट्रीय बल और ओज भी प्रकट हुआ। इसलिए सब विबुध इस राष्ट्र के सामने नम्र होकर इसकी सेवा करें। परन्तु किस जनसमूह के तप-त्याग, श्रम-साधना, किन लोगों की प्रज्ञा-प्रेरणा, अनुभूतियों और आकांक्षाओं, किन लोगों की सामूहिक विकास प्रक्रिया से भारत राष्ट्र बना है ? दूसरा किस जनसमूह का समान सुख-दुख बोध, समान शत्रु-मित्र भाव, जय पराजय के प्रति समान दृष्टिकोण, अपनी भूमि और उसके प्रति जुड़ी ऐकान्तिक निष्ठाएँ भारत राष्ट्र के रूप में पहचानी जानी चाहिए ? इन दोनों प्रश्नों को सरल शब्दों में ऐसे कह सकते हैं कि क्या है भारत राष्ट्र या किसे कहते हैं भारत राष्ट्र ? कैसे बना भारत राष्ट्र ? किसका है भारत राष्ट्र ? कौन है भारत के राष्ट्र जन ? इस भारत राष्ट्र की संस्कृति की संज्ञा क्या है ? इस भारत का संस्कृतज्ञों की दृष्टि में सार और रूप (form and essence) क्या है जिसके आधार पर भारत निर्माण में किसी भी कोटि का संस्कृतज्ञ तीन दृष्टियों से योगदान कर सकता है - एक है भौगोलिक आर्थिक-जैविक दृष्टि से, दूसरा ऐतिहासिक अविच्छिन्न विकास की दृष्टि से और तीसरा अचल मूल्यों की दृष्टि से जो भारत की मूल प्रकृतियां (essence) हैं। प्रथम दृष्टि से संस्कृतज्ञ आधुनिक भारत का 'काम' और 'अर्थ' सिद्ध करने में सहायता कर सकता है, दूसरी दृष्टि से आधुनिक भारत के धर्म नामक पुरुषार्थ अर्थात् भारत के मोक्षधर्म अर्थात् शुद्ध आनन्द जो ऑंशिक रूप से उत्सव, क्रीड़ा, कला, संगीत, साहित्य में और पूर्ण रूप से जीवन को यज्ञार्पित रुप से जीने के मूल्यों की स्थापना करने में योगदान कर सकता है जैसे गान्धी, विनोबा अरविन्द, मदनमोहन मालवीय, लोक मान्य तिलक, विवेकानन्द, गोपीनाथ कविराज आदि ने किया।
अन्त में संस्कृतज्ञों को सम्मानित करने के लिए ऋग्वेद के सूक्त जिसे मण्डूक सूक्त कहते हैं, उससे विचार का समाहार करना चाहता हूँ - व्रती स्तोता के समान एक वर्ष सोकर जागने वाले मेंढक पर्जन्य की स्तुति के लिए वाक्यों को उच्चारित करते हैं। कोई मेंढक गौ जैसा, कोई बकरे जैसा शब्द कर रहा है। कोई धूम्र वर्ण है तो कोई हरित वर्ण। ये विभिन्न वर्ण रूप वाले मेंढकगण अनेक स्थानों पर शब्द करते हुए प्रकट हो रहे हैं। हे मेंढकगण! अतिरात्र नामक सोमयाग में स्तोता जिस प्रकार शब्द करता है वैसे ही शब्द करते हुए, चारों ओर, तुम सरोवर में निवास करो। ये मण्डूकगण सोम वाले स्तोता के समान शब्द करते हैं। धूप के कारण बिलों में छिपे हुए मेंढक वर्षाकाल में बाहर निकल आते हैं। मण्डूक गण दैवी नियमों के रक्षक हैं। वे ऋतुओं को नष्ट नहीं करते। वर्ष के पूर्ण हो जाने पर आगत वर्षा से प्रसन्न होकर मेंढक गर्त्त के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। गौ के समान शब्द करते हुए मेंढक हमें धन प्रदान करें। बकरे के समान शब्द करते हुए मेंढक हमें धन प्रदान करें। भूरे और हरे रंग के मेंढक भी धन प्रदान करें। वनस्पतियों को पैदा करने वाली वर्षा ऋतु में ये मेंढक हमें गऊएँ प्रदान करें और हमारी आयु में वृद्धि करें।

धैर्यपूर्वक सुनने के लिए धन्यवाद!

(प्रस्तुत आलेख के प्रतिपाद्य विषय वस्तु के लिए मैं - कुबेरनाथ राय, भगवान सिंह, रमाकान्त आङ्गिरस, जे. कृष्णामूर्ति, रजनीश, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नरेश मेहता का विशेष रूप से आभारी हूँ जिनके विचारों और शब्दों का प्रयोग साधिकार प्रयोग किया है।)
''आधुनिक भारत के निर्माण में संस्कृतज्ञों का योगदान''
आशुतोष आङ्गिरस, संस्कृत विभाग,एस.डी.कॉलेज (लाहौर), अम्बाला छावनी। १३३००१

संस्कृत साहित्य का मूलभूत और प्रथम सूत्र है - 'अथातो पुरुष-जिज्ञासा'। दर्शन के क्षेत्र में यह पुरुष के 'परा' रूप 'आत्मा' की जिज्ञासा है तो काव्य के क्षेत्र में उसके अपरा रूप 'महापुरुष' के प्रति जिज्ञासा है। आदिकवि वाल्मीकि इसी 'पुरुष जिज्ञासा' को लेकर प्रारम्भ करते हैं जिसमें एक शब्द का परिवर्धन कर इसे पत्र की भूमिका के रूप में स्थापित करना चाहता हूं -
कोन्वस्मिन् संस्कृतज्ञ: साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढ़व्रत:॥१-१-२॥
चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः ।
विद्वान् कः कः समर्थश्च कश्च एक प्रियदर्शनः ॥१-१-३॥
आत्मवान् को जित क्रोधो द्युतिमान् कः अनसूयकः ।
कस्य बिभ्यति देवाः च जात रोषस्य संयुगे ॥१-१-४॥
एतत् इच्छामि अहम् श्रोतुम् परम् कौतूहलम् हि मे ।
महर्षे त्वम् समर्थोऽसि ज्ञातुम् एवम् विधम् सँस्कृतज्ञम् (नरम्) ॥१-१-५॥
हे नारद, इस समय इस लोक में ऐसा 'संस्कृतज्ञ पुरुष' कौन है जो गुणवान्, वीर्यवान् धर्मज्ञ, सत्यवादी और दृढ़व्रती, चरित्रवान्, सर्वभूतहितकारी, विद्वान, समर्थवान्, प्रियदर्शन, आत्मवान्, जितक्रोधी, अनसूयक, द्युतिमान् है? संसार के इस युद्धक्षेत्र में किस संस्कृतज्ञ में रोष उत्पन्न होने पर देवता भी भयभीत होते हैं – ऐसा मेरा अत्यन्त कौतुहल है और मैं आप महर्षि से सुनना चाहता हूँ क्योंकि ऐसे सँस्कृतज्ञ को आप ही जानने में समर्थ हैं? ऐसी जिज्ञासा के उत्पन्न होते ही उत्तर की खोज में विचार मग्न महान् शास्त्रज्ञ, तपस्वी, योगी, स्वभाव से ही विभिन्न लोकों में पर्यटन के लिए सदा उत्सुक और ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवी-देवताओं, मनुष्यों, ऋषियों आदि के भवनों में बिना आज्ञा नि:संकोच प्रवेश करने वाले परन्तु विनम्र एवम् सभी विद्याओं के ज्ञाता होने पर भी निरन्तर जिज्ञासु मुनि नारद ने फिर एक बार विष्णु लोक जाकर शेष शैय्या पर लक्ष्मी सहित विराजमान भगवान् विष्णु से प्रणामपूर्वक जिज्ञासा की कि भगवन्! आधुनिक भारत के निर्माण में संस्कृज्ञों का क्या और कैसा योगदान है ? कृपया लोकहित के लिए संक्षिप्त, सरल एवम् उपयोगी रीति से प्रतिपादन करने की कृपा करें।'' भगवान् विष्णु ने सदा की तरह मन्दस्मित से कहा कि हे नारद! लोक हित के लिए तुमने यह जो विचित्र परन्तु सार्थक एवम् रुचिकर यथार्थवादी प्रश्न किया है उसका उत्तर मैं संक्षेप में तीन भागों में दूँगा - पहला यह कि आधुनिकता क्या है या आधुनिकता से क्या अभिप्राय है; दूसरा 'भारत का निर्माण' का क्या अर्थ है और तीसरे संस्कृतज्ञ होने का क्या अर्थ है और वे कितने प्रकार के हैं या उनकी कोटियाँ क्या हैं ? लेकिन उससे पूर्व जिन लोगों के हित के लिए तुम यह प्रश्न कर रहे हो, जिज्ञासा कर रहे हो उनके विषय में यह जान लो कि जिस देश और जाति के पास जितना बड़ा इतिहास होता है समुन्नत संस्कृति, धार्मिक उदात्त दृष्टि एवम् श्रेष्ठ साहित्य होता है, उसके दो ही परिणाम हुआ करते हैं या तो वे सामान्य व्यक्ति की भाँति अपने अतीत का गौरव गान करते हुए अपनी हीनता को छुपाते रहें या अतीत की उस महिमा मण्डित महाद्वीपता के समकक्ष अपना भी कोई यशद्वीप समानान्तर रूप से निर्मित एवम् विकसित करें। अथवा वाला यह कार्य उतना सामान्य नहीं है। इसके लिए असमान्य वर्चस्व और निर्मम संकल्प की अपेक्षा होती है। अतीत को वर्तमान बनाकर भविष्य के रूप में प्रस्तुत कर देना भगीरथ व्यक्तित्व की माँग रखता है। वैसे तो सभी देशों जातियों, सभ्यताओं के पास या तो अतीत की पौराणिकता है या नहीं तो मध्यकालीन ऐतिहासिकता की कुछ न कुछ परम्पराएँ हैं जिन पर उचित अनुचित गर्व कर सकते हैं परन्तु संस्कृतज्ञों की कठिनाई दूसरी सभ्यताओं, जातियों और देशों से बहुत अधिक है। इतिहास के क्रम में अधिकांश सभ्यताएँ अपने अतीत से कट कर सर्वथा भिन्न भाव भूमि ग्रहण कर चुकी हैं, अत: उनका अतीत एक प्रकार से उनके रचनात्मक व्यक्तित्व के लिए समाप्त हो चुका है। परन्तु संस्कृतज्ञों की कठिनाई यह है कि एक ओर वे बहश्रुत तथा बहुविध परम्पराओं से मण्डित हैं और दूसरी ओर उनकी अस्मिता पर गत दो-ढ़ाई सहस्र वर्षों से क्षारपर्तें निरन्तर गिरते-गिरते इतनी कड़ी हो गई हैं कि राम, कृष्ण, विवेकानन्द, दयानन्द गान्धी या अरविन्द द्वारा किए जाने वाले मोह भंग से भी इनका स्वत्व जाग्रत नहीं होता। इस अस्मिता हीनता और जड़ता में थोड़ा ही अन्तर रह गया है। भले ही संस्कृतज्ञ अपनी अस्मिता हरण के लिए सामी (sematic thinking) वैचारिकता को दोषी ठहरा दें परन्तु अब उन्हें किसी बाहरी शत्रु की आवश्यकता नहीं रह गई है।
इसी उपरोक्त कथन का यह पक्ष भी स्पष्ट कर लें कि संस्कृतज्ञ एक ऐसा उभयधर्मी प्राणी है जो एक साथ दो विश्वों में रहता है - एक विश्व तो वह है जो उसे दिया गया है जो जड़, जीवन और चेतना का विश्व है और दूसरा विश्व वह है जो स्वयं संस्कृतज्ञों द्वारा बनाया हुआ है, जो प्रतीकों का विश्व है। संस्कृतज्ञ अपनी विचार प्रक्रिया में भाषात्मक, गणितीय, चित्रात्मक, संगीतात्मक, कर्मकाण्ड सम्बन्धी आदि विभिन्न प्रकार की प्रतीक प्रणालियों का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार की प्रतीक-प्रणालियों के अभाव में कोई कला, साहित्य, विज्ञान, विधि या दर्शन सम्भव नहीं। इनके अभाव में सभ्यता का आरम्भ ही सम्भव नहीं है। अत: प्रतीक अपरिहार्य हैं। संस्कृतज्ञों का इतिहास भली भाँति स्पष्ट करता है कि ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में प्रतीकों की शब्दावली में विचार कर तदनुसार क्रिया करके प्रकृति की मूलभूत शक्तियों को उन्होंने समझा, सावधानी से उनका विश्लेषण किया तथा भौतिक अस्तित्व के उद्धाटित होने वाले तथ्यों के साथ उनका उत्तरोत्तर सामञ्जस्य किया - जो नितान्त उचित था और प्रशंसा के योग्य है परन्तु वर्तमान कालिक संस्कृतज्ञ क्या योगदान कर रहा है यह बात आग्रहपूर्वक विचार की अपेक्षा करती है क्योंकि किसी भी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक-पारिवारिक-वैश्विक समस्या के समाधान के लिए वैदिक मन्त्रों को, गीता, रामायण आदि के श्लोकों को संस्कृतज्ञ उद्धृत करते हैं तो नि:सन्देह वे उसे दोहराते हैं। क्या नहीं दोहराते ? और जिसे दोहराया जाता है वह सत्य नहीं हो सकता। सत्य दोहराया नहीं जा सकता। जिन संस्कृतज्ञों का यह मत है या विश्वास है कि इतिहास या परम्परा के नाम पर प्रदत्त प्रतीक प्रणाली या शब्द पूर्णतया उपादेय हैं, उसका महत्त्व सर्वाधिक है - यह बात या विश्वास मुक्ति की ओर नहीं ले जाती, हाँ इतिहास की ओर, प्राचीन विपत्तियों की ओर ही ले जाती है और ध्यान रखने योग्य बात यह भी है कि विश्वास अनिवार्यत: विभाजित करता है। यदि संस्कृतज्ञ के रूप में आपका कोई विश्वास है या आप किसी विशेष विश्वास में सुरक्षा खोजते हैं तो आप उन व्यक्तियों से पृथक् हो जाते हैं जो किसी दूसरे प्रकार के विश्वास में सुरक्षा खोजते हैं। सभी संगठित विश्वास विभाजन पर आधारित हैं यद्यपि वे भ्रातृत्व का उपदेश करते हैं। जिसने प्रदत्तों और प्रतीकों के दोनों विश्वों के साथ अपने सम्बन्ध की समस्या हल कर ली वही संस्कृतज्ञ है जिसका कोई पूर्व घोषित विश्वास नहीं - जैसे वैदिक ऋषि। जहाँ तक उसके व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का सम्बन्ध है वह कार्यवाहक प्राक-कल्पनाओं की श्रृंखला को स्वीकार करता है। वे उसकी आवश्यकताओं को पूरा करती है परन्तु वे प्राक्कल्पनाएँ उसके लिए एक माध्यम, एकसाधन से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं। अपने साथी प्राणियों, जीवों के प्रति और उस यथार्थ के प्रति जिसमें वे सब अवस्थित और व्यवस्थित हैं उसके पास प्रेम एवम् साक्षात् प्रातिभ अनुभव हैं। इसके विपरीत सामान्य रूप से संस्कृत का अध्ययन अध्यापन करने वाले संस्कृतज्ञ एक ऐसी चुनौती जो सदा नवीन होती है उसके प्रति किसी प्राचीन प्रारूप के अनुरूप प्रतिक्रिया करते हैं इसलिए उस प्रतिक्रिया में उस चुनौती की तदुनुरूप यथार्थता, नवीनता, ताज़ापन नहीं होता है। अत: ऐसे संस्कृतज्ञ की प्रतिक्रिया की कोई सार्थकता नहीं है और न ही पुरानी प्रतिबद्धता के अनुसार की गई प्रतिक्रिया चुनौती को समझने में सक्षम बनाती है। नवीन चुनौती का सामना करने के लिए आवश्यक है कि संस्कृतज्ञ अपने को आवरणों से पूर्णतया मुक्त कर दे, अपनी पृष्ठभूमि का पूर्णतया परित्याग कर दे और तब नवीन चुनौती का सामना करे जैसे स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द या श्री अरविन्द या गान्धी। दूसरे शब्दों में प्रतीकों को रुढ़ सिद्धान्तों के स्तर पर नहीं लाना चाहिए और कभी भी विचार प्रणाली को एक कार्य निर्वाही सुविधा से अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए। फार्मूलों में विश्वास के अनुसार कर्म समस्या का समाधान नहीं दे सकते। अत: संस्कृतज्ञ अपने प्रति सर्जनशील बोध के द्वारा ही एक सर्जनशील संसार, सर्जनशील भारत को सम्भव कर सकते हैं।
100 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले आधुनिक भारत के निर्माण में संस्कृतज्ञों के योगदान का विश्लेषण करने से पूर्व यह स्पष्ट कर लें कि आधुनिकता क्या है? आधुनिक भारत के निर्माण से क्या अभिप्राय है? उसमें संस्कृतज्ञों का क्या योगदान है और किस प्रकार के संस्कृतज्ञों का योगदान है ?
प्रस्तुत प्रसंग में आधुनिक भारत के दो रूप हैं - एक है पुराना आधुनिक भारत और दूसरी है नवीन आधुनिक भारत। पुराने आधुनिक भारत से अभिप्राय है स्वतन्त्रता पूर्व जब समाज सुधार आन्दोलनों की शुरुआत हुई। सती प्रथा और जाति प्रथा के विरोध में और शिक्षा के समर्थन में लोग आने लगे थे। सामाजिक सुधार के आन्दोलन के सूत्रधार मूल रूप में संस्कृतज्ञ ही थे वे चाहे राजा राम मोहन राय थे, स्वामी दयानन्द थे, ईश्वर चन्द्र विद्या सागर आदि थे। यह वह समय था जब संस्कृत में संस्कारों का स्थान विकारों ने ले लिया था। जड़ता, निराशा और हताशा भारत का व्यक्तित्व बन चुकी थी। सामाजिक सुधार वाले संस्कृतज्ञों की इस धारा के साथ संस्कृतज्ञों की एक और धारा दृष्टिगोचर होती है वह है स्वतन्त्रता सेनानियों और क्रान्तिकारियों की, बंकिम चन्द्र चैटर्जी, वीर सावरकर, चन्द्र शेखर आज़ाद, खुदी राम बोस, रामप्रसाद बिस्मिल, सूर्यसेन आदि ऐसे संस्कृतज्ञ हैं जिन्हें गीता जैसे ग्रन्थ कण्ठस्थ थे, मृत्यु के क्षणों में अपने संस्कृतज्ञ होने का प्रमाण गीता के श्लोकों के रूप में दे गए। बल्कि बंकिम चन्द्र चैटर्जी को तो ऋषि ही माना जाता है। अपने आनन्द मठ उपन्यास में संस्कृत की मूल चेतना की जैसी स्थापना की वह अविस्मरणीय है। इसके अतिरिक्त पुरानी आधुनिकता में गान्धी, विनोबा, तिलक, लाजपतराय आदि भी संस्कृतज्ञ ही हैं। स्वतन्त्रता संग्राम के मूल मन्त्र और संकल्पना वे संस्कृत की संस्कृति से ही ग्रहण कर रहे थे। ये तीसरे प्रकार के संस्कृतज्ञ थे। इनके साथ ही एक चौथे प्रकार के संस्कृतज्ञ और थे जिनका उल्लेख इतिहास के पृष्ठों में नहीं मिलता। वे ऐसे संस्कृतज्ञ थे जो अपने घरों में संस्कृत को अध्ययन अध्यापन के माध्यम से बचाए हुए थे। घोर दरिद्रता और संकटों में भी इन संस्कृतज्ञों ने संस्कृत का त्याग नहीं किया। अभावग्रस्तता भी संस्कृत और उसकी संस्कृति के प्रति उन लोगों में विमुखता या अनास्था नहीं ला सकी। इन संस्कृतज्ञों ने कोई बड़े काम नहीं किए, बड़े नारे नहीं दिए, युद्ध और हिंसा नहीं की परन्तु संस्कृत की रक्षा के व्रत का निर्वाह पूरी निष्ठा से किया। इनके अतिरिक्त सँस्कृतज्ञों की और धारा दिखाई देती है जिसे अंग्रेजों ने चलाया। मैक्डानल, विल्सन, मैक्समूलर,मोनियर विलियम्स, आदि के संस्कृतज्ञ होने में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। कुल मिलाकर पुराने आधुनिक भारत में उपरोक्त प्रकार के संस्कृतज्ञों का योगदान स्वतन्त्रता प्राप्ति तक बहुत स्पष्ट रूप से विचार और व्यवहार के स्तर पर दिखाई देता है।
परन्तु 1947 की स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् संस्कृतज्ञों के विचार और व्यवहार के स्तर योगदान की स्थिति बिल्कुल अचानक एकदम बदल गई। नए आधुनिक भारत में संस्कृतज्ञों के योगदान की बात बहुत कुछ सन्देहास्पद हो गई। क्योंकि जब तक स्वतन्त्रता प्राप्त नही हुई थी तब तक तो नेताओं के पास एक लक्ष्य था, आज़ादी का, स्वतन्त्रता का, स्वाधीनता का। परन्तु जिस दिन वह स्वाधीनता, स्वतन्त्रता, आज़ादी मिल गई उस दिन वह लक्ष्य भी समाप्त हो गया, लक्ष्य से जुड़ी सभी क्रियाएँ अर्थहीन हो गईं और नेताओं के सामने प्रश्न उपस्थित हो गया कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद क्या करें और कैसे करें ? इस प्रश्न के उत्तर का चुनाव नेहरूवादी विचारधारा ने औद्योगिकरण के माध्यम से आधुनिक भारत के निर्माण का किया। आनन फानन में किए गए औद्योगिक भारत के निर्माण की कल्पना ने सारे भारत के इतिहास, परम्परा, मूल्यों, विचारों और व्यवहारों में विसंगति पैदा कर दी। बल्कि आधुनिक, औद्योगिक भारत के निर्माण में गान्धिवाद भी हाशिए पर जा खड़ा हुआ। नए आधुनिक भारत की निर्माण यात्रा औद्योगिकरण से होती हुई टेक्नोलोजी के माध्यम से वैश्विक व्यापारीकरण और उपभोक्तावाद की ओर चल रही है जिसमें संस्कृतज्ञों का योगदान एक विचार का विषय है। क्योंकि उद्योग, टेक्नोलोजी और उपभोक्तावादी संस्कृति में संस्कृतज्ञ कौन है यह जानता, पहचानना और परिभाषित करना थोड़ा कठिन है। कानून और व्यवस्था की दृष्टि से वे सभी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति जिन्होंने बी.ए., एम.ए. आदि संस्कृत विषय में किया है वे संस्कृतज्ञ हैं क्योंकि आजीविका या नौकरी के लिए वे योग्य हैं। दूसरे उपभोक्तावाद की दृष्टि से वे सभी संस्कृतज्ञ हैं जो संस्कृत के आधार पर व्यापार कर सकते हैं - उनमें रजनीश, श्रीलप्रभुपाद, महेश योगी आदि प्रमुख हैं। तीसरे वे संस्कृतज्ञ हैं जो भारत की अधिकांश जनसंख्या में साधु या गुरु या सन्त या स्वामी के नाम से जाने जाते हैं, जैसे – बाबा रामादेव, श्री श्री रविशंकर, मुरारी बापू, आसाराम बापू, कॄपालु जी महाराज। चौथे प्रकार के संस्कृतज्ञ वे हैं जो प्रचारक कोटि के रहे हैं जो सनातन धर्म और आर्य समाज आदि से जुड़े हुए हैं। आजकल यह कार्यभार संस्कृत भारती के हाथों में चला गया है। पाँचवें प्रकार के संस्कृतज्ञ वे हैं जिन्हें विद्वान या पण्डित इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने कुछ या काफ़ी शास्त्र कण्ठस्थ किए हैं और अपनी स्मरण शक्ति का परिचय शास्त्रोक्त उक्तियों द्वारा देते हैं। छठे प्रकार के वे संस्कृतज्ञ जो रचनाकार कहे जाते हैं, जो संस्कृत भाषा में विगत 60 वर्षों से अभ्यास और निष्ठावश धारा प्रवाह कविता, कथा, नाटक आदि लिखने की क्रिया को दोहरा रहे हैं जिससे सँस्कृत साहित्य की सँख्यात्मक मात्रा (quantity) में निश्चित ही वृद्धि हो रही है। सातवें प्रकार के विचारकोटि के संस्कृतज्ञ हैं जिनके मूल में संस्कृत है परन्तु अभिव्यक्ति की भाषा अंग्रेजी, हिन्दी या अन्य प्रादेशिक भाषाएँ हैं - हिन्दी में हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, कुबेरनाथ राय, नरेश मेहता, राहुल साँकृत्यायन आदि कवियों लेखकों विचारकों की लम्बी और प्रभावी सूची है और अंग्रेज़ी में यू.आर.अनन्तमूर्ति, आनन्दकुमार स्वामी, राजा राओ, अरुण शोरी, नीरद चौधरी आदि। इन लोगों की दो कोटियाँ हैं - एक वे जो संस्कृत के पक्ष में हैं, संस्कृत के प्रति सकारात्मक सोच रखते हैं और दूसरे वे जो संस्कृत के विपक्ष में हैं और संस्कृत को सभी दोषों के लिए जिम्मेदार मानते हैं, लेकिन दोनों कोटियों के लोग संस्कृतज्ञ तो हैं ही और अन्तिम कोटि के संस्कृतज्ञ उनको मान लेना चाहिए जो अभी स्पष्ट रूप से अपनी उपस्थिति स्थापित नहीं कर पाए हैं परन्तु वे उभर रहे हैं वे हैं प्रयोगधर्मी संस्कृतज्ञ जो संस्कृत का उपयोग ज्ञान प्रबन्धन, समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, कम्प्यूटर्स, मानवाधिकार, पर्यावरण, संगीत आदि के क्षेत्रों में करने का व्यावहारिक प्रयत्न कर रहे हैं ताकि सँस्कृत पढने वाले वर्तमान और भविष्यकालिक छात्रों को यह विश्वास दिला सकें कि सँस्कृत के नाम पर जो कुछ भी वे पढ रहे हैं या पढाया जा रहा है वह न केवल आजीविका की प्राप्ति के प्रति आश्वस्त करेगा बल्कि स्थानीय, देशिक एवम् विश्व स्तर पर घटित होने वाले परिवर्तनों, समस्याओं एवम् प्रभावों के प्रति अपना दृष्टिकोण, अपना मत, अपनी राय और समझ और व्यक्तित्व भी विकसित कर सकेगा ।
उपरोक्त सभी प्रकार की संस्कृतज्ञों की कोटियों के समक्ष यदि यह प्रश्न रखा जाए कि 100 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले वर्तमान भारत के लोगों के भोजन, वस्त्र, आश्रय, सुरक्षा, शिक्षा आदि के सन्दर्भ में संस्कृतज्ञ कौन सी समस्या सुलझाने का व्यावहारिक, यथार्थपरक उपयोगी उपाय/व्यवस्था सुझा सकते हैं या विगत 60 वर्षों में संस्कृतज्ञों ने बदलती परिस्थितियों में किस क्षेत्र की समस्या सुलझाने का क्या सुझाव रखा ? या इस प्रश्न को इस तरह से प्रस्तुत करें कि कौन-कौन से क्षेत्र में संस्कृतज्ञों का प्रयोगपरक समाधान रहा है? लगातार परिवर्तित और अग्रसर हो रहे भारत में तीन क्रान्तियाँ हो चुकी हैं- जिनमें से एक तो औद्योगिक क्रान्ति (Industrial revolution) हुई, दूसरी सूचना-सञ्चार- क्रान्ति (information technology) घटित हो रही है और इसके साथ ही तीसरी क्रान्ति का युग प्रारम्भ हो चुका है वह है ज्ञान- क्रान्ति (knowledge revolution) – इन तीनों में से औद्योगिक क्रान्ति से मिलने वाले लाभ के अवसर को सँस्कृत और सँस्कृत पढने वाले विद्यार्थियों के हित के लिए हम सँस्कृतज्ञ चूक गए। इस दूसरी और तीसरी क्रान्ति में मिलने वाले अवसरों को सँस्कृतज्ञों को सँस्कृत एवम् सँस्कृत के विद्यार्थियों के हित को, भविष्य को ध्यान में रखते हुए चूकना नहीं चाहिए। नहीं तो इसका दो टूक, सीधा साफ़ स्पष्ट उत्तर देने में कठिनाई होगी। यह सही है कि मूल्य या धर्म (रीलिजन के अर्थ में नहीं) का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज के अधिकारों और कर्तव्यों से एक साथ जुड़ा हुआ है। भारत जैसे संविधानात्मक रूप से प्रजातान्त्रिक देश के लिए मूल्य या धर्म आवश्यक शर्त है परन्तु यह शर्त आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवम् विकास के लिए उपलब्ध संसाधनों के प्रयोग के बिना अर्थहीन है। धर्म या मूल्य दरिद्रता और अभाव के वातावरण में बेमानी हो जाते हैं क्योंकि व्यक्ति या समाज के सन्दर्भ में धर्म या मूल्य का सीधा सम्बन्ध स्वामित्व से है और उस स्वामित्व के प्रति सुरक्षा और सम्मान की भावना से है। परन्तु वर्तमान कालिक भारतवर्ष के भारतीयों की चेतना बुद्धिगत तर्कों से वैश्वीकरण की प्रक्रिया का समर्थन करती हुई उपभोक्तावादी संस्कृति को अधिकाधिक विकसित करने के लिए प्रयत्नशील होती हुई न केवल धर्म पर या मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह लगाकर अनुपयोगी करने के लिए तत्पर है बल्कि सम्पूर्ण व्यवस्था को ही गुणात्मक यथार्थ के माध्यम से असंगत सिद्ध करने के लिए तत्पर है। यद्यपि इस दिशा में विकसित हो रही वर्तमान कालिक भारतीय संवैधानिक सभ्यता अन्तर्निहित समस्याओं जैसे - पर्यावरण, सामाजिक अलगाव, आर्थिक असुरक्षा, आतंकवाद, समलैङ्गिकता आदि से ग्रसित है तथापि भीतर से उठने वाली व्यवस्थागत स्वत: स्फूर्त युक्तियां एवम् समाधान इसमें चमत्कारी सम्मोहन या आकर्षण उत्पन्न कर देते हैं जो इस आधुनिक भारत को ग्लैमरस और रोमांचकारी बना देता है। साथ ही साथ यह भी ध्यान योग्य है कि जीवन के तथ्यों और मनुष्य के भावों में आज इतनी तीव्रता से विस्तार हो रहा है कि संस्कृत भाषा के शब्द इस गुणात्मक परिवर्तन के साथ पग से पग मिलाकर चल नहीं पा रहे हैं। तथ्य शब्द में पूरा-पूरा व्याप्त या स्थिर नहीं हो पा रहा है। यह पद पदार्थ को आज सम्पूर्णत: व्यक्त करने में अपर्याप्त सिद्ध हो रहा है। सामान्य स्थिति में पूरी ईमानदारी से चेष्टा करने पर भी भाषिक विडम्बना का बोध पग-पग पर होता है - विशेषत: अवधारणात्मक (conceptual) शब्दों के सन्दर्भ में। व्यावहारिक परिवेश में जहाँ बेईमानी ही सर्वमान्य ईमान है और अस्पष्टता ही सर्वश्रेष्ठ रणनीति है, यह भाषिक त्रासदी और भी भयावह हो गई है। भाषिक कपटाचार के कारण 'डेमोक्रेसी, समाजवाद, प्रगतिशील, प्रतिक्रियावादी, पूँजीवाद, सामाजिक न्याय, सर्वहारा नेतृत्व, जनवादी, जनहित, वैश्वीकरण आदि दर्जन या दो दर्जन शब्द अपनी अर्थगत प्रमाणिकता खो कर अविश्वसनीय बन गए हैं। जिसके कारण व्यष्टि और समष्टि स्तर पर समाज में बुद्धिगत और मनोगत दोनों तरह क्रायसिस पैदा हो रहे हैं। इसलिए ऐसी परिस्थिति में संस्कारवान् और विचारशील संस्कृतज्ञ के लिए प्रथम आवश्यकता है ऐसी विचार दृष्टि की जो न केवल उपयोगी हो बल्कि प्रस्तुत आक्षेपों का निराकरण भी कर सके। इसलिए किसी भी प्रकार के या कोटि के संस्कृतज्ञ से यदि प्रश्न किया जाए कि आधुनिक युग की मूलभूत समस्या क्या है तो उसका सम्भावित सीधा उत्तर होगा - मनुष्य के अन्तर्निहित 'मनुष्यत्व' का, शील का या अच्छाई का संकट। विश्व में अशान्ति या यन्त्रणा का कारण 'बुराई' उतना नहीं है जितना अच्छाई का अक्षम और अपर्याप्त हो जाना। अच्छाई है परन्तु अक्षम है, अपर्याप्त है - यही अशान्ति का मूल कारण है। इस अच्छाई को मनुष्यता का नाम दें या शीलबोध का या देवत्व का या गुडनेस का या कोई और - यह भयावह रूप से अक्षम और अपर्याप्त है - यह स्थिति संस्कृतज्ञों के समक्ष दो प्रश्न उत्पन्न करती हे - प्रथम यह कि मनुष्य के अन्तर्निहित मनुष्यत्व या अच्छाई को सक्षम और पर्याप्त (potent and sufficient) कैसे किया जाए? द्वितीय प्रश्न है कि इस अच्छाई की व्यूह रचना (pattern or strategy) कैसी हो जो एक दीर्घकालीन समाधान दे सके? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर संस्कृत की चेतना से ही मिल सकता है क्योंकि अन्य सभी चिन्तन या विचार या दर्शन पद्धतियाँ वाद-प्रतिवाद (thesis and anti-thesis) की शैली में सोचते हैं इसलिए अच्छाई की सर्वमान्य परिभाषा सम्भव नहीं है क्योंकि उस शैली में अच्छाई का अर्थ है दलगत नीति की पक्षधरता और संस्कृत की चेतना इस सबसे अधिक व्यापक और अग्रसर है क्योंकि वह स्वाभाविक रूप से अहिंसा, अपरिग्रह और सत्याग्रह से सम्पूर्ण मनुष्यता को अभय प्रदान करती है, आश्वस्ति प्रदान करती है। हालाँकि 21वीं शताब्दी वाले भारत से मूल संस्कृतज्ञों का भारत उतना ही दूर था जिताना सुपरसोनिक से कोई गर्दभ लेकिन शिथिल गति वाले बढ़ी दाढ़ी मूँछ वाले वे संस्कृतज्ञ हमारी पीढ़ी की ओर उँगली उठा कर रहे थे - उन मूर्खों को देखो। वे अधिक खाने के लोभ में अपने समुद्र और अपने आकाश को खाते जा रहे हैं, अपने भविष्य को खाते जा रहे हैं फिर भी अपने को विज्ञानी कहते हैं। उनको ऐसा आरोप करने का अधिकार भी था क्योंकि उनकी नदियाँ सिर्फ बरसात में मैली होती थीं, उनका आसमान सिर्फ ऑंधी चलने पर मैला होता था, उनकी धूप केवल बादल घिरने पर मैली होती थी, उनका शरीर केवल काम करते हुए मैला होता था, आत्मा तो कभी मैली होती ही नहीं थी। वे हँसते थे तो उनकी हँसी में आह्लाद झलकता था पर मन की मलिनता नहीं झलकती थी। वे दु:खी भी कम होते थे क्योंकि उनके दु:ख की परिभाषा भिन्न थी। हमारी परिभाषा के दु:खों को पी जाते थे, ऑंसू के स्थान पर दर्शन टपकने लगता था। वे अपने लिए सब कुछ नहीं चाहते थे। पेट भरने के बाद उनकी भूख तेज़ होती थी, उनके ज्ञान के साधन सीमित थे और अविश्वसनीय थे पर सोच स्पष्ट थी क्योंकि वे निडर होकर सोचते थे क्योंकि उनकी ज्ञान-मीमाँसा में “ज्ञान” ज्ञान नहीं था बल्कि पहले दर्जे का अज्ञान था। वे दुनिया की चिन्तन करते हुए भी अपनी दुनिया से अधिक हमारी दुनिया के बारे में सोच रहे थे - पर्यावरण के ध्वंस पर, प्राकृतिक साधनों के अपव्यय पर, उपभोक्ता संस्कृति की विकृतियों पर, विज्ञान के पागलपन पर, मानव मूल्यों के ह्रास पर, संवेदन शून्यता की विडम्बना पर और अधिकारों के दुष्प्रयोग पर। इस दृष्टि से वे आज के संस्कृतज्ञ की तुलना में अधिक दूरदर्शी थे। इसलिए उन संस्कृतज्ञों के भारत का विश्लेषण करते हुए अपने भारत में प्रवेश करने का एक छोटा सा रास्ता निकालने की कोशिश इस पत्र के माध्यम से करने की है। इसकी सफलता आपके दृष्टिकोण पर निर्भर पर करेगी क्योंकि दृष्टिक्रम (perspective) के भेद से शैली और बोध में अन्तर आ जाता है और एक ही विषय भिन्न-भिन्न स्वाद और भिन्न-भिन्न बोध देने लगता है। अत: मेरी दृष्टि में संस्कृतज्ञ वह है जिसके चित्त का संस्कार ऋत से हुआ ओर वाणी का संस्कार सत्य से हुआ हो क्योंकि एक का सम्बन्ध मन की यथार्थ संकल्प करने की शक्ति से है तो दूसरे का वाणी की यथार्थ कथन करने की क्षमता से है। ऐसा संस्कृतज्ञ ही आधुनिक भारत के निर्माण को निर्देशित अभीष्ट परिवर्तन की दिशा दे सकता है बाकी तो मात्र व्यवस्था का हिस्सा ही हो सकते हैं, इससे अधिक नहीं। ऐसे संस्कृतज्ञ से ही आतङ्करहित संस्कृति उपलब्ध हो सकती है। ऐसे संस्कृतज्ञ का एक ही उद्देश्य है कि समाज में एक भी व्यक्ति संस्कारहीन न रहे। शिक्षा, ज्ञान, संस्कार संस्कृतज्ञ में स्वाभाविक रूप से समाविष्ट है। अत: आधुनिक भारत के निर्माण में संस्कृतज्ञ का मुख्य लक्ष्य बिन्दु वह मानव है, वह भारतीय है जो एक हाथ में धरती के समस्त गुणों को पकड़े हुए है तो दूसरे हाथ में देवत्व की प्रतिष्ठा को धारण किए हुए हैं। उस मानव की समस्त सम्भावनाओं को चारों ओर से सुरक्षित रखने के दायित्व का अधिग्रहण करना - यही संस्कृतज्ञ का आधुनिक भारत के निर्माण में योगदान है। यही कारण है कि संस्कृतज्ञ की उत्सुकता, वास्तविक और अस्तित्वपूर्ण जीवन में है। वह यह नहीं पूछता कि क्या मोक्ष है, क्या ईश्वर है, क्या स्वर्ग नर्क है। जीवन के सम्बन्ध में बुनियादी प्रश्नों को लेकर जीता है तभी वह आधुनिक भारत के मानस को प्रभावित कर पाएगा - चाहे वह पक्ष राजनीति का हो, समाजिकता का हो, विज्ञान का हो, धर्म या अर्थ का हो, गृहस्थ या सन्यास का हो।
''न भारती मेऽङ्ग मृषोपलक्ष्यते, न वै क्वचिन्मे मनसो मृषागति:।
न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे, यन्मे हृदौत्कण्ठ्यवता धृतो हरि:॥ श्रीमद्भागवत 2-6-33
अर्थात् हे नारद, क्योंकि मैंने अपने हृदय में भगवान को उतार दिया है, वे मेरी सत्ता के केन्द्र में स्थिर हो गए हैं, इसी से मेरी भारती/वाणी कभी मृषा नहीं होती, मेरा मन असद् मार्ग पर नहीं चलता और मेरी इन्द्रियों का पतन नहीं होता।' मेरी दृष्टि में ऐसा व्यक्ति ही संस्कृतज्ञ है।
प्रस्तुत विषय के विश्लेषण में अन्तिम बिन्दु 'भारत' का अर्थ भी स्पष्ट करने का प्रयत्न करना आवश्यक है। क्योंकि अथर्ववेद का मत कि - भद्रं इच्छन्त ऋषय: स्वर्विद: तपो दीक्षां उपसेदु: अग्रे। ततो राष्ट्रं बलं ओजश्च जातम् तदस्मै देवा उपसं नमन्तु। अर्थात् ऋषियों ने जगत कल्याण की इच्छा से जो तप किया उससे राष्ट्र निर्माण हुआ, राष्ट्रीय बल और ओज भी प्रकट हुआ। इसलिए सब विबुध इस राष्ट्र के सामने नम्र होकर इसकी सेवा करें। परन्तु किस जनसमूह के तप-त्याग, श्रम-साधना, किन लोगों की प्रज्ञा-प्रेरणा, अनुभूतियों और आकांक्षाओं, किन लोगों की सामूहिक विकास प्रक्रिया से भारत राष्ट्र बना है ? दूसरा किस जनसमूह का समान सुख-दुख बोध, समान शत्रु-मित्र भाव, जय पराजय के प्रति समान दृष्टिकोण, अपनी भूमि और उसके प्रति जुड़ी ऐकान्तिक निष्ठाएँ भारत राष्ट्र के रूप में पहचानी जानी चाहिए ? इन दोनों प्रश्नों को सरल शब्दों में ऐसे कह सकते हैं कि क्या है भारत राष्ट्र या किसे कहते हैं भारत राष्ट्र ? कैसे बना भारत राष्ट्र ? किसका है भारत राष्ट्र ? कौन है भारत के राष्ट्र जन ? इस भारत राष्ट्र की संस्कृति की संज्ञा क्या है ? इस भारत का संस्कृतज्ञों की दृष्टि में सार और रूप (form and essence) क्या है जिसके आधार पर भारत निर्माण में किसी भी कोटि का संस्कृतज्ञ तीन दृष्टियों से योगदान कर सकता है - एक है भौगोलिक आर्थिक-जैविक दृष्टि से, दूसरा ऐतिहासिक अविच्छिन्न विकास की दृष्टि से और तीसरा अचल मूल्यों की दृष्टि से जो भारत की मूल प्रकृतियां (essence) हैं। प्रथम दृष्टि से संस्कृतज्ञ आधुनिक भारत का 'काम' और 'अर्थ' सिद्ध करने में सहायता कर सकता है, दूसरी दृष्टि से आधुनिक भारत के धर्म नामक पुरुषार्थ अर्थात् भारत के मोक्षधर्म अर्थात् शुद्ध आनन्द जो ऑंशिक रूप से उत्सव, क्रीड़ा, कला, संगीत, साहित्य में और पूर्ण रूप से जीवन को यज्ञार्पित रुप से जीने के मूल्यों की स्थापना करने में योगदान कर सकता है जैसे गान्धी, विनोबा अरविन्द, मदनमोहन मालवीय, लोक मान्य तिलक, विवेकानन्द, गोपीनाथ कविराज आदि ने किया।
अन्त में संस्कृतज्ञों को सम्मानित करने के लिए ऋग्वेद के सूक्त जिसे मण्डूक सूक्त कहते हैं, उससे विचार का समाहार करना चाहता हूँ - व्रती स्तोता के समान एक वर्ष सोकर जागने वाले मेंढक पर्जन्य की स्तुति के लिए वाक्यों को उच्चारित करते हैं। कोई मेंढक गौ जैसा, कोई बकरे जैसा शब्द कर रहा है। कोई धूम्र वर्ण है तो कोई हरित वर्ण। ये विभिन्न वर्ण रूप वाले मेंढकगण अनेक स्थानों पर शब्द करते हुए प्रकट हो रहे हैं। हे मेंढकगण! अतिरात्र नामक सोमयाग में स्तोता जिस प्रकार शब्द करता है वैसे ही शब्द करते हुए, चारों ओर, तुम सरोवर में निवास करो। ये मण्डूकगण सोम वाले स्तोता के समान शब्द करते हैं। धूप के कारण बिलों में छिपे हुए मेंढक वर्षाकाल में बाहर निकल आते हैं। मण्डूक गण दैवी नियमों के रक्षक हैं। वे ऋतुओं को नष्ट नहीं करते। वर्ष के पूर्ण हो जाने पर आगत वर्षा से प्रसन्न होकर मेंढक गर्त्त के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। गौ के समान शब्द करते हुए मेंढक हमें धन प्रदान करें। बकरे के समान शब्द करते हुए मेंढक हमें धन प्रदान करें। भूरे और हरे रंग के मेंढक भी धन प्रदान करें। वनस्पतियों को पैदा करने वाली वर्षा ऋतु में ये मेंढक हमें गऊएँ प्रदान करें और हमारी आयु में वृद्धि करें।

धैर्यपूर्वक सुनने के लिए धन्यवाद!

(प्रस्तुत आलेख के प्रतिपाद्य विषय वस्तु के लिए मैं - कुबेरनाथ राय, भगवान सिंह, रमाकान्त आङ्गिरस, जे. कृष्णामूर्ति, रजनीश, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नरेश मेहता का विशेष रूप से आभारी हूँ जिनके विचारों और शब्दों का प्रयोग साधिकार प्रयोग किया है।)

एक दिवसीय राष्ट्रिय सड्.गोष्ठी

Defining Ambivalent Relationship of Sanskrit and English Language & Literature

सँस्कृत एवम् अँग्रेजी भाषा एवम् साहित्य के राग-द्वेष पूर्ण सम्बन्धों का परिभाषिकीकरण

दिनाड्.क – २५ अगस्त, २००९
समय – ९.०० प्रातः
स्थान : सभागार, एस० डी० कालेज, अम्बाला छावनी।
प्राचार्य / मान्यवर .....................................
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सँस्कृत विभाग, सनातन धर्म कॉलेज (लाहौर) अम्बाला छावनी एवम् हरियाणा सँस्कृत अकादमी, पंचकूला के द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित उपरोक्त विषय पर एक-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेने के लिए तथा विचार विनिमय करने के लिए सादर आमन्त्रित हैं। सड्.गोष्ठी में कुल चार वक्तव्य प्रस्तुत किए जाएँगे जिन पर सदन में प्रश्नोत्तर / विवाद / स्वमत स्थापन/ परमत खण्डन किया जा सकेगा। चार शोध-पत्रों में से दो पत्र विश्वविद्यालय के अँग्रेजी प्राध्यापकों द्वारा और दो पत्र सँस्कृत प्राध्यापकों द्वारा वैचारिक स्थापना हेतु प्रस्तुत किए जाएँगे।
आवश्यक निवेदन
मार्ग व्यय अकादमी द्वारा मूल टिकट के प्रस्तुति पर ही देय होगा। सीमित संसाधनों के कारण आपकी प्रतिभागिता के विषय में पूर्वसूचना २० अगस्त, २००९ तक आवश्यक रूप से अपेक्षित है।
विचार विनिमय कि भाषा हिन्दी/ अँग्रेजी रहेगी।
कृपया समय का सम्मान करे।
आशुतोष आङ्गिरस डॉ. देशबन्धु
समन्वयक प्राचार्य
098963-94569


संयोजक परिषद्
डॉ. उमा शर्मा, डा० अलका शर्मा डा० सतवीर शर्मा,
09466046186 09416328766 09416828386
प्रो० जयदीप पीयूष अग्रवाल
09416123305 09896862403



Idea of the Seminar

Defining Ambivalent Relationship of Sanskrit and English Language & Literature

Relationship of Sanskrit and English has remained tense but interactive since English came to do business and moved on to rule India and Indian mind. At the same time, they started exploring Indian art, culture and languages etc. Subsequently many of them were fascinated by the non-regional language and literature of Sanskrit. Their sincere business adventurism was mesmerized by the dynamic thoughts & their processes of Sanskrit language & literature. They immediately started translating Sanskrit texts and introduced these works to the west. Moreover they also started expressing myths/ concepts/ ideas of Sanskrit in their language and literature. Whatever may have been their intentions but there is no denying the fact that they were fascinated, influenced by the culture of Sanskrit language & literature, right from Max Muller to Eliot and others who have borrowed, used thoughts, expressions of Sanskrit in their writings. Then slowly emerged a new class of Indian English writers starting from Tagore, Ghosh, Naidu to modern writers. In this class there were two sections of writers- one who targeted to condemn or humiliate Sanskrit language & literature, like- N.C. Chaudhary and others. This large section of writers/ thinkers has made a place in the market by denouncing the very basics of Indian way of life and living which have their roots in Sanskrit. These writers generally focus on two issues, namely- man woman relationship and oppressed class or caste. By condemning/ negating/ humiliating Sanskrit, they tried hard to make India a worth living place.
The second section of Indian writers writing in English belongs to Aurobindo, Raja Rao, Arun joshi, U. R. Anatha Murti etc., who not only tried to understand the sources of Sanskrit tradition but also expressed themselves in a more sensible and meaningful manner. It is not that they were biased or obsessed by the very ethos of Sanskrit. It was the basic inputs of healthy mind and life which forced them to make a right / positive query about the very basic meaning or purpose of life.
So this Love- hate relationship has influenced English Literature but acknowledging Sanskrit as fact has remained an illusion. Sanskrit mindset which has been time and again assaulted, insulted, looked down with contempt by the pseudo-secularists modernists have created blunders not only by mistranslating the basic terms or concepts, like- Dharma as religion, Brahaman as God, Brahmin/ Purohit as Priest, Adhyaatam as Spiritual etc., but also played havoc with the cultural ethos of India since English does not have the concepts of Moksha, Purushartha, Stri etc. That is why questions of self/ identity/ relevance are popping up in the present day literature of English, Hindi and other regional languages.
On the other hand English and other regional languages have forced Sanskritists to re-look, re-evaluate their position critically in the changing scenario of the society. Present day compulsions have made Sanskritists to think in English frame work. Therefore to bring Sanskrit and English on one platform to open up a meaningful dialogue on a positive / progressive note, this one day seminar is need of the hour. Scholars, teachers and academicians from English and Sanskrit streams are invited not only to interact but also to find out the answers to the outstanding questions of self denial or condemnation, a trend which has been pampered in the name of progress, modernism, consumerism and globalization. We as Linguists/ humanists must have an open mind for a better human future in Indian terms, if possible.
Suggested Topics for discussions-
Understanding Ethos of Sanskrit and English language
Use of Sanskrit concepts / Myths in Indian Writings in English
Treatment of Brahmnical view point in Indian writings in English
Traditional women in Sanskrit-English writings
Understanding of Social/ religious/ spiritual/ cultural concepts in Sanskrit-English writings
Man woman relationship in Sanskrit -English writings
Expression of Caste/ class system in Sanskrit- English writings
Meaning of Indian Tradition in English writings
Statements of Self in Sanskrit- English writings