Sunday, December 7, 2008

द्वि-दिवसीय
राष्ट्रिय सम्वाद गोष्ठी एवम् कार्यशाला

RETHINKING BASIC CONCEPTS OF PSYCHOLOGICAL AND COUNCSELLING TECHNIQUES IN INDIAN TRADITION
भारतीय परम्परा में मनोविज्ञान की मूल अवधारणाएं एवम् परामर्श पद्धतियां- एक पुनःविचार
दिनांक-27-28 फ़रवरी, 2009
Sponsored by- ICSSR, P.U., Chandigarh

मान्यवर_________________,
संस्कृत की पुनः संरचना योजना के अन्तर्गत संस्कृत, संगीत विभाग उपरोक्त विषय पर आयोजित द्वि-दिवसीय राष्ट्रिय संगोष्ठी एवम् कार्यशाला में पत्र प्रस्तुति एवम् समालोचन के लिए सादर आमन्त्रित करने में गौरवान्वित अनुभव करता है।
इस सम्वाद गोष्ठी के आयोजन का मुख्य कारण है कि भारतीय मनोविज्ञान का एक औपचारिक, तार्किक व्यावहारिक प्रारूप उपस्थापित करना ताकि पाश्चात्य मनोविज्ञान और भारतीय मनोविज्ञान में मानवीय हितों को दृष्टि में रखते हुए एक सम्वाद का मार्ग खुल सके और मानवीय चेतना के उन आयामों को टटोला जा सके जिसकी आवश्यकता आज सम्पूर्ण मानवता को है और इसमें मूलभूत प्रश्न यह है कि भारतीय मनोविज्ञान के नाम पर साहित्य में, शास्त्र में, परम्परा में, संस्कृति में, जीवन में, व्यवहार में जो कुछ भी सामग्री उपलब्ध है, क्या उसके आधार पर एक निश्चित प्रारूप प्रस्तुत किया जा सकता है और यदि किया जा सकता है तो वह क्या है या क्या हो सकता है और साथ ही यह भी स्पष्ट कर लेना चहिए कि क्या मनोविज्ञान साईकालोजी का सही अनुवाद है क्योंकि पश्चिम में “साईकी” (“Psyche”) शब्द का अपना एक इतिहास है जो एक सांस्कृतिक-वैज्ञानिक-दार्शनिक मूल्य के रूप में प्रयोग होता है जबकि भारत में मन “अन्तःकरण” का एक भाग है और इस अन्तःकरण में मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार सम्मिलित हैं अतः अन्तःकरण शब्द तो सम्भवतः साईकोलोजी का समीपवर्ती अनुवाद हो सकता है परन्तु फ़िर भी भारतीय मनोविज्ञान को परिभाषित करने में कई व्यावहारिक कठिनाइयां दृष्टिगत होती हैं जिनकी चर्चा इस गोष्ठी में अपेक्षित है ।साथ ही साथ यह भी ध्यातव्य है कि मनोविज्ञान को इस प्रकार परिभाषित किया जाए कि वह अध्यात्म के क्षेत्र का अतिक्रमण न करे और वह दैनन्दिन समस्याओं का विश्लेषण करे भी और करना सिखाए भी। वेद, उपनिषद्, साहित्य और दर्शन में अनेक गुणात्मक और विश्लेषण पूर्ण तथ्य मन के विषय में कहे गए हैं जिनकी चर्चा इस पक्ष से अपेक्षित है कि वह सब तथ्य मिल कर भारतीय मनोविज्ञान का क्या और कैसा स्वरूप प्रस्तुत करने में सक्षम है।
कतिपय विचार बिन्दु-
• भारतीय मनोविज्ञान से हम क्या समझते हैं?
• क्या मनोविज्ञान “Psychology” विषय का किसी भी प्रकार से सही अनुवाद हो सकता है?
• क्या मन बुद्धि चित्त अहंकार वृत्ति आत्मा सत् चित्त् आनन्द जीव कोश कर्म आदि शब्दों का अंग्रेजी में परिनिष्ठित (realistic) अनुवाद सम्भव है?
• क्या उपरोक्त शब्दों की व्याख्याएं अतिव्याप्ति (over generalization) या सांकर्य (overlapping) दोष पीड़ित नहीं है?
• भारतीय मनोविज्ञान के विषय में जो कुछ भी सूचना सामग्री उपलब्ध है क्या वह पर्याप्त एवम् व्यवस्थित है ?
• क्या उपलब्ध विषय सामग्री का उपयोग वैज्ञानिक पद्धति से करना सम्भव है?
क्या भारतीय मनोविज्ञान को एक विषय के रूप में कम से कम बी०ए०/बी० एस० सी० में पढाना सम्भव है ?और यदि है, तो अभी तक इस सन्दर्भ में हमने क्या प्रयत्न किए और यदि प्रयत्न नहीं किया तो संस्कृत की रक्षा के नाम पर हमने क्या किया? विशेष रूप से विश्वविद्यालयों के स्तर पर?
• Have there been any terms, systems, thinking processes in Indian tradition regarding psychology?
• If there had been any thing which deals with the psychological issues in Indian tradition then a serious investigation is needed so as to find out not only new dimensions in Psychology but also to find a better alternative psychological system?
• Primary investigations has led us to believe that Indian tradition deals with nature of consciousness, mind, nervous system, behavior of individuals or society, in a different manner. There are different schools of Indian tradition which not only conceptualize an advance frame-work for psychology but also practise them in a very indigenous manner which makes psychology to think in more humanistic terms like jiva, bhuta, praani etc.
• How can different schools of Indian psychology like- Vedic, Mimaanasaa, Saamkhya-yoga, Vedanata, Buddhist, Jain, Tantra, ayurveda etc. be used to add more meaning to the realms of psychology?
• Can there be any creative dialogue between the Indian systems of psychological thinking and the western understanding of psychology?
• Can India contribute its experiences of psychic understanding to the world at large or humanity in its own terms in different fields of psychology?


संगोष्ठी से पूर्व उपरोक्त विषय पर ग्रन्थ प्रकाशित करने की योजना के अधीन आपसे साग्रह निवेदन है कि अपना शोधपत्र निम्नांकित विषयों के सन्दर्भ में ही प्रेषित करें। कृपया पत्र के पूर्वकथन में समस्या/ प्रश्न/जिज्ञासा/आपत्ति/आक्षेप/ स्थिति को आधुनिक सन्दर्भ में परिभाषित करें तदनन्तर स्वपक्ष स्थापित करें। शोधपत्र का विषय शास्त्र एवम् लोक परम्परा के अनुकूल होने के साथ साथ बुद्धिवादिता और प्रयोगार्हता का पात्र हो। इसी कारण को ध्यान में रखते हुए ग्रन्थ के दो भाग किए गए हैं-
१. सिद्धान्त पक्ष Theory > Man and Natureमनुष्य एवम् प्रकृति, Nervous system नाड़ी / स्नायुमण्डल, Mind अन्तःकरण, Emotions and sentiment भाव , Process of knowledgeज्ञान प्रक्रिया, Action कर्म, Language/ Speech वाक् / भाषा
२. व्यवहार पक्ष Applied Aspect > [Corrective methods उपाय प्रक्रियाएँ- योग , प्राणायाम, ध्यान, मुद्राएं, न्यास, चिकित्सकीय ज्योतिष, कथा, संगीत, मन्त्र तथा अन्य कलाएं आदि]
इस सन्दर्भ में ध्यातव्य है कि भारतीय परामर्श पद्धतियों में दुःख के समाजीकरण की प्रक्रिया [सत्यनारायण कथा], जडता, मन्दता, हिंसा, अवसाद, मानसिक विचलन आदि के लिए प्रयोग की जानी वाली प्रक्रियाओं का विश्लेषण जैसे- गुरू शिष्य सम्वाद [पञ्चतन्त्र, हितोपदेश, उपनिषद्], पति-पत्नी सम्वाद [त्रिपुरा-रहस्य], नरनारायण सम्वाद [गीता], नारदीय,जैन,बौद्ध, पौराणिक परामर्श पद्धतियाँ इत्यादि को आधार बना कर आधुनिक उपयोग की योग्यता के अनुकूल प्रस्तुति की आपसे अपेक्षा है।

उपरोक्त विषय के सन्दर्भ में आपके प्रश्नों का, उत्तरों का, सुझावों और वैचारिक आयामों का विनम्रतापूर्ण स्वागत है। कृपया अपनी उपस्थिति से हमें अनुगृहीत करें।

विशेष-
१. शोधपत्र की कम्पयूटरीकृत साफ़्ट एवं हार्ड प्रति आवश्यक रूप से दिनांक ०५ जनवरी,२००९ तक आवश्यक रूप से पहुंच जानी चाहिए। फ़ान्ट अंग्रेज़ी भाषा के लिए Times New Roman [12] तथा हिन्दी भाषा के लिए यूनिकोड अथवा कृतिदेव[१२] माईक्रोसाफ़्ट वर्ड में प्रेषित करने चाहिए।
२. पंजीकरण शुल्क-२००/-
३. ठहरने की व्यवस्था के लिए पूर्वसूचना अवश्य दें ।
४. यात्रा भात्ता सामान्य श्रेणी का नियमानुसार देय होगा।

डा० आशुतोष अंगिरस डा० रश्मि चौधरी डा० देशबन्धु ,
संगोष्ठी निदेशक संगोष्ठी सचिव प्राचार्य
098963-94569 09896473740 09812053283
ई-मेल- sriniket2008@gmail.com
ब्लाग- http//sanatan sanskrit.blogspot.com
http//angiras.blog.co.in
आयोजन समिति
, प्रो० नीलम अहूजा, प्रो० कमलेश सिंह, डा० उमा शर्मा, डा० परमजीत कौर
09466046186 09416862076

डा० सतवीर शर्मा, प्रो० श्वेता उपाध्याय, , श्री हेमचन्द भारद्वाज श्री शशी शर्मा,
09416828386 09466693634 09416157454
विशिष्ट सहयोग- डा० राजेन्द्र शर्मा, अध्यक्ष, मनोविज्ञान विभाग, जी०एम० एन० कालेज, अम्बाला
छावनी। मो०-09416553630, ई-मेल- arianhorse@yahoo.com

कार्यक्रम
RETHINKING BASIC CONCEPTS OF PSYCHOLOGICAL AND COUNCSELLING TECHNIQUES IN INDIAN TRADITION
भारतीय परम्परा में मनोविज्ञान की मूल अवधारणाएं एवम् परामर्श पद्धतियां- एक पुनःविचार
दिनांक-27-28 फ़रवरी, 2009
प्रथम दिवस [दिनांक-27 फ़रवरी, 2009]
पंजीकरण - ०९.०० से ०९.३० तक
आद्युन्मेष – ९.३० से ११.०० तक
चाय-पान- ११.०० से ११.१५ तक
प्रथम उन्मेष- ११.१५ से १.३० तक
भोजनावकाश –१.३० से २.१५ तक
द्वितीय उन्मेष -२.१५ से ४.०० तक
चाय-पान - ४.०० से ४.१५ तक
तृतीय उन्मेष –४.१५ से ५.३० तक

द्वितीय दिवस [ दिनांक-28 फ़रवरी, 2009]
चतुर्थ उन्मेष – ९.०० से ११.३० तक
चाय-पान - ११.३० से ११.४५ तक
पंचम उन्मेष – ११.४५ से १.३० तक
भोजनावकाश - १.३० से २.१५ तक
निमेष – २.१५ से ४.३० तक
चाय-पान

Sunday, November 23, 2008

नेशनल Seminar



  1. A
    ONE DAY
    NTIONAL SEMINAR
    ON

    “Rethinking Human Rights and Value Education”
    “मानवाधिकार एवम् मूल्य(मर्यादा)परक-शिक्षा- एक पुन:विचार”
    Sponsored by University Grants Commission

    22nd December, 2008

    Dear Sir/Madam _______________________,

    Department of Journalism, Sanskrit, Economics and National Cadet Corps [Boys &Girls wing] of S.D. College [Lahore] cordially invite you to participate and present a paper in a one day national seminar being held on above said date and time.

    Human Rights inhere in a person by virtue of his/her being a human. They comprise both civil and political rights as well as economic, social and cultural rights. Human rights and fundamental freedom allow us to fully develop and use our human qualities, our intelligence, our talents and our conscience and to satisfy our spiritual and other needs. They are based on mankind's increasing demand for a life in which the inherent dignity and worth of each human being will receive respect and protection. The denial of human rights and fundamental freedoms not only is an individual and personal tragedy, but also creates conditions of social and political unrest, sowing seeds of violence and conflict within and between societies and nations. As the first sentence of the universal declaration of Human rights states, respect for human rights and human dignity "is the foundation of freedom, justice and peace in the world." Human rights issues in India are very different from those in a developed society. For a large number of people in India, human rights are related at once to food, shelter, education, employment and health. The greatest need today is to increase awareness about human rights because every aware individual ceases to be a potential violator and instead becomes a potential protector.
    We invite you to deliberate on this topic not only in the terms of human Rights but also in the terms and vision of value education or education based on values which is not at all a priority of any government, educational institutions in this business/ corporate oriented world. Since the reasons for establishing human Rights in west are all together different and in India, giving a legal sanction to human Rights is a poor imitation and this has created more confusion and complications in the collective Indian mind. This chaos starts right from the moment when we try to translate English terms in Hindi language which has a different socio-cultural understanding and practice of human Rights and value education- like translating Human Rights as manavadhikar is misleading translation since Rights and adhikar are words having diverse socio-cultural context and likewise translating value as mulya is wrong translation since its main focus is economics and appropriate translation can be maryada or dharma. Again problem arises when we try to understand vidya and shiksha in the terms of education.
    This chaos becomes denser when it comes to laying down the policies for an imported concept without evaluating its impacts. What kind of Indians this education system has produced or what kinds of personalities are the outcome of this education system? How humanity is related to science, technology and commerce or what kind of humanity is expected from these subjects and related educational institutes? Or do we want this system to produce cyborgs only? Indian society is basically familial society and western society is individualistic society so if west can think in their references, terms and situations then why can not we as Indians think in our own context? Is Indian tradition, ethos, culture, education is not competent enough to design or generate its own indigenous terms or system of human rights? In west Human rights is the direct outcome of world wars and there need to protect human rights is simply because of the business interests but how many times India has gone out of its territory to win or to fight with other countries? What Vedas, Puranas, Bauddhas, Jains and whole of the saint tradition said and did for human rights? Were they irrational human beings? If not then what efforts were made by the present day education system to evaluate the idea, concept and practices of human rights? Is present education system is capable enough to sensitize Indian society or individuals regarding value system of human rights? Are the concepts or ideas of ahimsa, compassion, synthesis, control over senses etc. needed for the present day humanity or not? If not then lets have the courage to disown Gandhi, Aurobindo, whole saint and rishi tradition. More over Indian constitution is not the part Indian culture. Deep down Indian psyche does not live by the constitutional rights or guarantees rather they live by and believe in their own faiths which makes them more human beings and as intellectuals, planners we have failed ourselves in recognizing basic constituents or ingredients of Indianness or Indianhood in our education system.
    So there is an urgent need to re-integrate the whole education system in such a way that it serves the humanity rather than producing the spare parts for the industries or corporate sector. Education not only for business or job purpose only but for a sensitive human being. Once we have good/ better human beings then business will be done only for human dignity.
    It is our humble objective to evaluate the concept of “Human Rights and Value Education” through inter-disciplinary observations and find better needful understanding. We are sure such an interaction between different subjects and individuals can raise hopes for a better future where “Human Rights and Value Education” may exist in real sense.
    You are kindly requested to choose topic of conviction and convenience

    Kindly submit your paper latest by 15th December, 2008.
    Delegation fee: Rs 100/-
    Ashutosh Angiras ०९८९६३-९४५६९
    Convener
    Suggested topics-

    Philosophy of Value education and Human rights
    Human rights and Indian Education System
    Concept of Values and human rights
    Historical perspective of human rights
    Role of Science in promoting Value Education
    Value System in Science and Value Education
    Scientific thinking and Human dignity
    Philosophy of Science and Idea of Humanity
    Meaning of Humanity in Science
    Philosophy of laws and human rights
    Human rights and Vedic sensibility
    Manus’ ideology of human rights
    Globalization, trade practices and human rights
    Gandhian perception & practice of human rights
    Aurobindos’ understanding of human rights
    Indian saint tradition and human rights
    Treatment of human rights in Indian languages and literature
    Defining the meaning of Value Education
    Education, Technology and Value System
    Culture of trade and Human Rights
    Human Rights and traditional value system
    Terrorist movements, Role of Science and Human Rights
    Philosophy and Politics of Human Rights
    Modern education policy and value consciousness
    Economic priorities and Value Education
    Sociology of Education and value consciousness
    Literature, language and Value Education
    Art as an expression of Value Education
    Scientific temper and Value education
    History as a tool of value education and Human Rights
    Science, Religion and Human Rights
    Human Rights in the Indian social contexts
    Need for teaching of value Education and human rights

Tuesday, October 14, 2008

आंगिरस दर्शन - एक विश्लेषण


आंगिरस दर्शन - एक विश्लेषण
भारतीयता का साक्षात् सम्बन्ध प्रकाश की उपासना से है । प्रकाश के विभिन्न आयामों को जितनी विविधता से इस संस्कृति ने ग्रहण किया है उतना किया अन्य संस्कृति द्वारा नहीं किया गया । उन अनेक आयामों में से एक आयाम है : अग्नि । इस अग्नि ने अपने नाम और रूप के विभिन्न आयामों से जितना अधिक इस आर्ष संस्कृति को प्रभावित किया, इस समाज की दिशा को निर्धारित किया, मानवीय मूल्यों का उत्कर्ष किया, मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण किया वह अपने आप में अद्भुत है । सम्भवत: इसीलिए ऋग्वेद के संकलन के समय पहला मन्त्र अग्नि का ही उपस्थित किया गया है ---- ''अग्निमीडे पुरोहितं ---1 ।''
यह निश्चित है कि आदि-काल में जब अग्नि का आविष्कार हुआ होगा तब अग्नि को उत्पन्न अथवा प्रकट करने वाले लोगों को समाज में विशिष्ट स्थान प्राप्त हो गया होगा । क्योंकि अग्नि तत्कालीन समाज की ऐसी आवश्यकता थी जो न केवल उनके जीवन का आधार ही थी अपितु उनके ज्ञान-विज्ञान, सोच-समझ, दर्शन की भी दिशा की निर्धारक तत्व थी । आदि-मानव के समाज में अग्नि को प्रकट करना अपने आप में एक कला थी जो दो रूपों में दृष्टिगोचर होती है ---
1) लकड़ी के मन्थन से अग्नि को उत्पन्न करने की कला,
ऋग्वेद, 3-29-1 से 12ु
2) उतवनन द्वारा अग्नि को प्रकट करने की कला, जैसा कि यजुर्वेद के मन्त्र 11-21 में कहा है कि
''वयं स्याम सुमतो पृथिव्याऽअग्नि खनन्त उपस्थेऽअस्या: ।'' अर्थात् जब हम धरती को खोद कर उसकी गोद से अग्नि को निकालें तो वह हमारे अनुकूल रहे । ''तत: खनेम तु प्रतीकमग्निं स्वोरूहाणाऽअधि नाकमुत्तमम् ।'' वही, 11-22, अर्थात् वहां से हम अग्नि को खोदें, जो देखने में सुन्दर है और हम उच्चतम आधारतक, स्वर्ग तक चढ़ें । ''पृथिव्या: सधस्थादग्निं पुरिष्यमंगिरस्वत् खनामि । ज्यातिष्मन्तं त्वामग्ने सुप्रतीकमजस्रेण भानुना दीद्यतम् । शवं प्रजाम्योऽहि सन्तं पृथिव्या: सध्सस्याग्निं पुरिष्यमंगिरस्वत् खनाम: । 11-28, अर्थात् जैसा आंगिरस करते थे वैसे ही हे पुरीष्य अग्नि, मैं धरती से तुमको खोद कर निकालता हूँ । इसे कला इसलिए कहा जाएगा क्योंकि सर्वप्रथम अग्नि ही अपने आप में अत्यधिक महत्वपूर्ण है और दूसरा अग्नि से सम्बन्धित जो भी क्रिया होगी वह स्वाभाविक रूप से अतिविशिष्ट होगी और यह अतिवैशिष्टय ही उसे कला के रूप में उपस्थित करता है और तीसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अग्नि से सम्बन्धित किए जाने वाले क्रिया कलाप, उसका संस्कार है । यह संस्कार मानवीय चेतना और भौतिक पदार्थों दोनों को ही संस्कारित करता है क्योंकि तभी यह प्रार्थना सम्भव है ---- ''अग्ने नय सुपया राये ---- ।2''
इस तथ्य को आत्मसात् करने वाले अथर्वन जो कि एक इतिहास पुरुष है, अग्नि के आविष्कर्ता होने के कारण आंगरस कहलाने लगे तथा उनके नाम पर अग्नि का मन्थन करने वालों की पूरी की पूरी जाति आंगिरस नाम से विख्यात हुई । 3 प्रमाण रूप में )ग्वेद के ये मन्त्र महत्वपूर्ण है ---''त्वामग्ने पुष्करादध्यर्थवा निरमन्थत । मूध्नों विश्वस्य बाघत: ।4'' अर्थात् हे अग्नि, ऋषि अथर्वन ने कमल से मन्थन करके पुरोहित विश्व के सिर से तुम्हारा आविर्भाव किया । और भी ---''अग्निर्जातो अथर्वणा विदद् विश्वानि काव्या ।''5 अर्थात् अथर्वन् द्वारा आविर्भूत हे अग्नि, आप सब स्तवनों के ज्ञाता हैं । और भी -- ''इममुत्यमथर्ववदग्नि मन्थन्ति वेधस:'' 6 अर्थात् हे अग्नि, विद्वान आपका मन्थन करते हैं, जैसा कि अथर्वन ने किया ।
वेदों के विभिन्न मन्त्रों में अथर्वन शब्द के विभिन्न रूप दृष्टिगोचर होते हैं जैसे- ऋग्वेद में उपलब्ध रूप है- अथर्वण:, अथर्वणा, अथर्वणि, अथर्वम्य:, अथर्ववत्, अथर्वा, अथर्वाण: । 7 अथर्ववेद में प्राप्त रूप हैं - अथर्व-आंगिरस, अथर्वण:, अथर्वाणं, अथर्वणि, अथर्वणे, अथर्वन्, अथर्ववत्, अथर्वा, अथर्वाण: ।8 तथा यजुर्वेद में उपलब्ध रूप है - अथर्वण:, अथर्वम्य:, अथर्वा, अथर्वाण: ।9 अथर्ववेद के 1612 मन्त्रों के ऋषि अथर्वन के द्वारा अग्नि की खोज कर लिए जाने के बाद बहुत से आंगिरस गोत्रीय अग्नि के मन्थन कर्ता के रूप में प्रसिद्ध हुए । लकड़ी से सफलतापूर्वक आग को मन्थन करके निकालना आसान कार्य नहीं था और ऐसा लगता है कि आग प्रकट करने की कला में इन आंगिरसों ने विशेषज्ञता प्राप्त कर ली थी । इसी कारण इनका समाज में विशेष सम्मानजनक स्थान था ।
यद्यपि एक )षि के रूप में कथर्वन का सम्बन्ध ऋग्वेद की किसी ऋचा से नहीं लेकिन बहुत से आंगिरस अनेक ऋचाओं के )षि हैं । ऋग्वेद में अनेक आंगिरस ऋषियों के नाम मिलते हैं जैसे ----
''अभीवीर्त, अमहीयु, अयास्य, उचथ्य, ऊरू, ऊर्ध्वसद्मा, कुत्स, ड्डतयशा, ड्डष्ण, गृत्समद, घोर, तिरश्चि, दिव्य, धरूण्, ध्रव, नृमेध, पवित्र, पुरूमीढ़, पुरूमेध, पुरूहन्मा, पूतदक्ष, प्रचेता, प्रभूवसु, प्रियमेध, बरू, बिन्दु, बृहस्पति, बृहन्मति, भिक्षु, मूर्धन्वान्, रह्गण, वसुरोचिष, विरूप, विहव्य, वीतहव्य, व्यश्व, शिशु, त्रुतकक्ष, संवनन, संवर्त, सप्तगु, सव्य, सुकक्ष, सुदीति, हरिमन्त, हिरण्यस्तूप । और अथर्ववेद में उल्लिखित आंगिरसों के नाम इस प्रकार हैं ---- अंगिरा, अंगिरा-प्रचेता, प्रचेता-यम, अथर्वांगिरस, तिरश्चि आंगिरस, प्रत्यंगिरस, भृगु आंगिरस ।
इन नामों के संग्रह पर दृष्टिपात करने पर इन के अर्थ की समस्या उत्पन्न होती है जिस के संबंध में विद्वानों के दो तीन समाधान उपलब्ध होते हैं जिसमें पहले मत के अनुसार ये नाम ऐतिहासिक संज्ञाएं हैं, दूसरे मत में ये नाम प्रतीकात्मक है, तीसरे मत में ये नाम विभिन्न आध्यात्मिक सत्ताओं के विभिन्न आयाम हैं । परन्तु ये मत हमें बोध के स्तर पर बहुत दूर नहीं ले जाते । क्योंकि इस दृष्टि से अभी तक हम किसी निश्चित बोध की प्राप्ति तक नहीं पहुंचे इन अर्थों में पूर्णता का अभाव खटकता ही है । इसलिए यदि हम इस दृष्टिकोण से देखें कि ये संज्ञाएं आदिम सभ्यता के मानवों की रूपांतरित चेतनाओं की जीवन दृष्टि के नाम है जिससे उन्होंने सत्य को बिना किसी आग्रह के सरलता से ग्रहण किया । तभी हम सूक्त और ऋषि की एकात्मकता के बोध की सम्भावना कर सकते हैं । नहीं तो हमारे सामने ये दो समस्याएं बिना किसी समाधान के उपस्थित रहेंगी ।
प्रथम समस्या है कि वैदिक ऋषि नामों का, जिन मन्त्रों के वे ऋषि माने गए हैं, उनके साथ क्या कोई विशिष्ट सम्बन्ध है ? क्या ये नाम केवल संज्ञावाचक नाम हैं अथवा किसी प्रकार के प्रतीक हैं या किसी तात्विक विशेषता के बोधक हैं ? यह समस्या निम्नलिखित प्रसंगों में महत्वपूर्ण है ----
1. जहां अग्नि देवता को मंत्रों का ऋषि माना गया है ।
2. जहां ऋषि नाम के साथ देवता संबंधी विशेषण का प्रयोग किया गया है ।जैसे
- इन्द्र अश्वनौ, अग्नि, बृहस्पति के विशेषण के रूप में आंगिरस ।
3. जहां ऋषि का नाम किसी भावना, गुण, अचेतन वस्तुओं के वाचक पदों के
रूप में प्रयुक्त है ।
4. जहां मन्त्र का देवता और ऋषि अभिन्न है । जैसे ऋग्वेद के 10-124-2 में
ऋषि और देवता अग्नि ही है ।
5. जहां मन्त्र में प्रयुक्त शब्द के आधार पर ऋषि नाम का निर्धारण होता है ।
6. जहां मंत्र में ऋषि नाम का अन्य पुरुष, मध्यम पुरुष, संबोधन या बहुवचन
के रूप में प्रयोग हुआ है ।
7. जहां मंत्र का स्वीकृत ऋषि कोई पश्चातकालिक भिन्न व्यक्ति है ।
दूसरी समस्या है जहां ---
1. कुछ मंत्रों के संबंध में भिन्न-2 ऋषियों का उल्लेख मिलता है ।
2. कुछ मंत्रों को अनेक ऋषियों ने सम्मिलित रूप से देखा ।
3. कुछ मंत्रों के ऋषि नाम के संबंध में विकल्प मिलते हैं, जैसे यजुर्वेद के 10-
96 में आंगिरस बरु या ऐन्द्र सर्वहरि, 10-10-7 में दिव्य आंगिरस या दक्षिण प्राजा ।
जो विद्वान ये मानते हैं कि वेद के प्रमुखत: चार ऋषि हैं--- अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा तथा इन्हीं से क्रमश: चार वेदों का प्रादुर्भाव हुआ तो उनके सामने यह समस्या होगी कि यदि ये चारों देवता ही वेद मंत्रों के प्रमुख ऋषि हैं तो इनके ऋषित्व या मन्त्र द्रष्टा होने का क्या अभिप्राय है ?10 इन संज्ञाओं के संबंध में यही समाधान हो सकता है कि ये संज्ञाएं जीवन दृष्टि हैं । जो दृष्टि स्फटिक मणि के समान पारदर्शी है, प्रकाश की किरणों के समान सरल है, अग्नि के समान ओजयुक्त है, आकाश के समान निर्मल है । इस दृष्टि में न तो कोई संकोच है और न ही कोई मलिनता और यही कारण है कि आज तक इन मंत्रों का निर्द्वन्द्व अर्थ पण्डितों और बुद्धिजिवियों के लिए रहस्य बने हुए हैं । इतना अवश्य है कि जो जितना अधिक सरल हुआ है वह उतना ही उसके अनुभव के निकट पहुंचा है, क्योंकि ऋषि की दृष्टि तो --''तद् अपश्यत् तदभवत् तदासीत्'' 11 वाली है । ऋषियों के लिए तो उनका अनुभव शायद रहस्यपूर्ण हो परन्तु उनकी वाणी उनके अपने लिए रहस्यपूर्ण नहीं हो सकती जैसा कि श्री अरविन्द अपनी पुस्तक वेद रहस्य में ऋषियों के अनुभवों को रहस्यवादी सिद्ध करना चाहते हैं।12 क्योंकि ऋषियों को अर्थ के लिए भाषा का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं थी । इस तथ्य को एक मात्र भवभूति ने स्पष्ट समझा और प्रतिपादित किया है कि ऋषि वाणी ऐसी है जिसके पीछे स्वयं अर्थ भागता है और लोक की भाषा ऐसी है जो अर्थ के पीछे भागती है।13 और यह इसलिए था क्योंकि तब तक मंत्रविदेवस्मि नात्मवित् वाली समस्या नहीं थी। जैसे-जैसे यह समस्या बढ़ती चली गई वैसे-वैसे जो सरल से सरलतम था वह रहस्यपूर्ण और निगूढ़ होता चला गया ।
यह निश्चित है कि आंगिरसों का संबंध अग्नि के विभिन्न आयामों से है क्योंकि आंगिरस नाम अग्नि पर्यायवाचक शब्द अथवा नाम के रूप में प्रयुक्त होता है ।14 साथ ही साथ यह भी स्पष्ट होता है कि आंगिरस अग्नि के पुत्र हैं, अग्नि से उत्पन्न हुए हैं।15 सम्भवत: इसी कारण भाष्यकार सायण यास्क और ऐतरेय ब्राह्मण का उद्धरण देते हुए कहते हैं कि जो अंगार थे वे आंगिरस बन गए-- ये अंगारा आसंस्ते आंगिरस्ते अभवन् । अथवा निरुक्तकार का यह मत कि अंगारेष्वंगिरा । अंगारा: अंकना: 3-3-17 अथवा सायण ऋग्वेद के मन्त्र 1-100-4 में आंगिरस की व्युत्पत्ति गत्यर्थक अंग् धातु से करते हुए आंगिरस का अर्थ जाने वाले या जो तेजी से जाते हैं। ये आंगिरस आकाश के पुत्र हैं, ये ऐसे द्रष्टा हैं जो देवों के पुत्र हैं, इन लोगों ने लकडी में छिपी अग्नि को प्राप्त किया और यज्ञ के प्रथम विधान का विचार किया । यज्ञ से इन्होंने अमरता और इन्द्र की मित्रता प्राप्त की । गायों की मुक्ति संबंधी पुराकथा में आंगिरसों का गायन एक विशिष्टता है । ये इन्द्र के साथ गायों को बाहर निकालते हैं और जलों को मुक्त करते हैं । महाभारत के वनपर्व में युधिष्ठिर के एक प्रश्न के उत्तार में मार्कण्डेय ने जो कथा कही है उसमें प्रच्छन्न और अस्पष्ट रूप में आंगिरस का अग्नि के साथ ड्डत्य में तादात्म्य स्थापित किया है । इन आंगिरसों को मूलत: देवों और मनुष्यों के बीच स्थित उच्चतर व्यक्तियों की एक जाति माना जाता था जो अग्नि के सेवक थे । इन लोगों के चरित्र में पौरोहित एक बाद का विकास है । ऐसी सम्भावना भी हो सकती है कि ये लोग आकाश की ओर जरने वाले दूत के रूप में अग्नि की ज्वालाओं के मूख्रतकरण रहे हों । और शायद इसीलिए यह कहा गया है कि ये विविध रूप वाले आंगिरस अग्नि के चारों तरफ और फिर सारे द्युलोक के चारों ओर घूमते हैं । नव तथा दस किरणों वाले आंगिरस्तम देवों में समृद्धि को प्राप्त करते हैं ।16 और यह समृद्धि उन्हें अग्नि के पांच आयामों को प्रकट करने से प्राप्त हुई । ये विभिन्न आयाम हैं--- 1. द्युलोकाग्नि, 2. पर्जन्याग्नि, 3. इहलोकाग्नि, 4. पुरुषाग्नि, 5. योषाग्नि । इसी अग्नि के विभिन्न प्रकाशों अर्थात् आदित्यज्योति, चंद्रज्योति, अग्निज्योति, वाग्ज्योति और आत्मज्योति की उपासना से आंगिरसों ने कवित्व और दार्शनिकता की मूल अवधारणाओं की उपस्थापनाएं की । इनमें से मुख्य अवधारणाएं दो हैं--- 1. प्राण विद्या की अवधारणा और 2. मधुविद्या की अवधारणा । ये दोनों अवधारणाएं एक दूसरे की पूरक है क्योंकि दोनों के समन्वय से ही मानवीय चेतना की कई सौन्दर्यपूर्ण और उत्साहपूर्ण आयामों का विकास हुआ । जिसका प्रत्यक्ष दर्शन हमें भारतीयता के मूल आधार गृहस्थ में सफल होता दिखाई देता है । क्योंकि ''प्राणों वै समंचनप्रसारणं'' 17 अर्थात् सिकुड़ने व फैलने वाला स्पंदन ही प्राण है । विश्व में जितनी गति है, सब स्पंदन रूप है । वही प्राण है । यही प्राण है जो प्रत्येक पुरुष में चेतनात्मक द्वोत्रज प्रजापति के रूप में उसे जीवित रखता है और इस प्राण के साथ प्रज्ञा सहयुक्त है --- यो वै प्राण: सा प्रज्ञा, या प्रज्ञा स प्राण: । स: ह्येतावस्मिन् शरीरे वसत: सहोत्क्रयमत: ।''18 इस प्राण रूप पक्षी की अथर्वांगिरसों को इसकी प्रतिष्ठा कहा गया है--- अथर्वांगिरसों पुच्छं प्रतिष्ठा ।''19 इसके साथ यह तथ्य तो स्वाभाविक रूप से स्वत: सि( है कि बृंहण या स्पंदन अग्नि के बिना नहीं होता । इसी गृहस्थ का प्रथम आधार है पुरुष, जिसे ''अथ य: पुरुष: सोऽग्नि वैश्वानर: ।''20 कहा जाता है । उसकी अग्नि रूप में मधु की आवश्यकता तो स्वाभाविक रूप से बनी ही रहती है । इसी अग्नि को मधु विद्या के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए दघ्यं अथर्वण ने कहा है कि यह अग्नि समस्त भूतों का मधु है और समस्त भूत इस अग्नि के मधु हैं ।''21 इसी मधु बिया का दूसरे दृष्टिकोण से उपपादन करते हुए कहा गया है कि आदित्य निश्चय ही देवताओं का मधु है । इस की उत्तार दिशा की किरण्ों ही मधु नाड़ियां हैं । अथर्वांगिरस श्रुतियां ही मधुकर हैं, पुराण इतिहास ही पुष्प है तथा अमृत ही आप है उन अथर्वांगिरस श्रुतियों ने ही इस इतिहास पुराण को अभितप्त किया । उसी से ही यश, तेज, इन्द्रिय, वीर्य और अन्न आदि रूप रस की उत्पत्ति हुई।22 इस प्राण और मधु का समन्वय ही आंगिरस दर्शन की आधार भूमि है । जैसा कि आचार्य शंकर बृहदारण्यक के मंत्रांश --- ''आंगिरसों अंगांनां हि रस:''23 की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इसको देवताओं ने अंतराकाश में उपलब्ध किया और इसी ने इंद्रियों को अग्नि आदि को देव भाव से युक्त किया । इसी से वह भूत और इंद्रियों का आंगिरस आत्मा है । यह आंगिरस कार्य कारण रूप अंगों का रस अर्थात् सार अर्थात् आत्मा है --- ऐसा प्रसिद्दि है । किंतु अंग रसत्व क्यों है । क्योंकि इसके चले जाने पर शरीर सूख जाता है ।
इस लिए जहां प्राण विद्या आंगिरसों की दार्शनिकता की पृष्ठभूमि है वहीं मधु विद्या उनकी सौन्दर्य दृष्टि की आधार भूमि है । इन ऋषियों की सौंदर्यानुभूति उनके लोक दर्शन को ओर भी अधिक सजीव बना देती है । इन आंगिरसों की सौंदर्य संवेदनाओं का अनुमान उनके द्वारा प्रयुक्त किए जाने वाले अग्नि के प्रकाश संबंधी विशेषणों से सहज ही अनुमानित किया जा सकता है जैसे --- घृतकेश, ज्वालकेश, स्वख्रणम, उज्जवल, ज्वालामय मस्तक इत्यादि । यह अग्नि एक दिव्य पक्षी के समान है । इसकी ज्वालाएं समुद्र की गर्जन करती हुई लहरों के समान है । प्रकाश के प्रति अत्यधिक संवेदनशीलता ने आंगिरसों के ज्ञान को विशिष्टता प्रदान की । तभी कुत्स आंगिरस यजुर्वेद के मंत्र 7-42 में घोषित करते हैं ''चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुमित्रस्य वरूणस्याग्ने: । आप्रा द्यावापृथिवी अंतरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥'' यह प्रकाश दो रूपों में )षि चेतना को प्रभावित करता है --- जीवन के प्रति उत्साहपूर्ण या उल्लासपूर्ण निष्ठा के रूप में और ज्ञान के रूप में । इसीलिए तो दंघ्यंअथर्वण यजुर्वेद के मंत्र 36-24 में कहते हैं कि ''पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतं----'' । और इसी को आंगिरस का मार्ग घोषित करते हुए शांखायन ब्राह्मण का कथन है कि ''तदेतगिंरसामयनं स एनेनायनेन प्रतिपद्यते अंगिरसां सलोकतां सायुज्यामाप्नोति''24 अर्थात् यह आंगिरसों का मार्ग है जो इस मार्ग पर चलता है वह आंगिरसों की सलोकता को और सायुज्यता को प्राप्त करता है । अपने इसी उत्साह के कारण आंगिरसों में से घोर आंगिरस ने आदित्यों के साथ स्वर्ग लोक जाने की र्स्पश की।''25 ड्डष्ण आंगिरस ने ब्राह्मणाच्छंसी के पद के लिए तृतीय सवन का साक्षात्कार किया।''26 और नाभानेदिष्ठमानव ने आंगिरसों से जब उपहव चाहा तो उन्होंने अच्छावाक के ड्डत्य को देखा ।27
प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता के कारण अग्नि और उससे संबंधिन क्रियाकलाप अधिक से अधिक महत्वपूर्ण हो गए जिसके कारण भारतीय संस्ड्डति इसी अग्नि के इर्द गिर्द विकसित होती चली गई । क्योंकि संस्कार करने की क्षमता तो अग्नि में ही है । इसी तथ्य को आंगिरसों ने अपने जीवन का सार बना लिया और अग्नि का भारतीयों के कौटुम्बिक जीवन के केन्द्र के रूप में संबंध इतना घनिष्ठ हो गया कि वह अग्नि केवल हवियों का एक निष्क्रिय ग्रहण्ाकर्ता मात्र नहीं रहा अपितु पृथ्वी और द्युलोक के बीच मध्यस्थ बन गया, एक संवाद बन गया । इसलिए जीवन दर्शन की दृष्टि से आंगिरस एक व्यापक शब्द है क्योंकि कि इसमें वह सब कुछ आ जाता है जो लोक मानस में लोक जीवन में निहित है । संहिता भाग में आंगिरस दर्शन आदिम भौतिकवाद और आदिम अध्यात्मवाद के रूप में दिखाई देता है जो बाद में विशु( अध्यात्मवाद में परिणत होता चला गया । यह बात कहने का साहस इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि यह दर्शन एक साथ इहलोकवादी एवं कामना प्रधान है तो दूसरी ओर श्र(ा सम्पृक्त एवं रहस्य प्रवण भी है । इसका जन्म भय और लोप से ही नहीं, सौंदर्यबोध से भी हुआ है । इसी कारण संवर्त आंगिरस ने त्रिपुरा रहस्य में अग्नि सामान्य का यज्ञाग्नि के रूप में विशिष्ट संस्कार से उदात्तीकरण कर के उस अग्नि को तंत्रों की चिदग्निकुण्डसम्भूता रूपी श्रीविद्या के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया ।
संक्षेप में इस दर्शन की विशिष्टताएं इस रूप में स्वीकार की जा सकती है -
1. आंगिरस दर्शन अपौरूषेय है क्योंकि इसका जनक रूवक्ति नहीं परम्परा है ।
2. आंगिरस दर्शन का अर्थ लोकविद्या है ।
3. इस दर्शन की दृष्टिभंगी कामना प्रधान और सुख प्रधान है किन्तु साथ ही साथ उपासनावादी और अध्यात्मवादी भी है ।
4. यह दर्शन रसवादी एवं समन्वयवादी है ।
5. इस दर्शन में जिज्ञासा, रहस्यबोध, सोंदर्यबोध तथा आदिम भय सहोदर रूप में
निहित है ।
परिशिष्ट
ऋग्वेद में आंगिरस शब्द के वैय्याकरणिक रूप इस प्रकार के उपलब्ध होते हैं :-
1. अंगारा: ---- 10-34-9,
2. अंगिर: ---- 1-9-6, 31-17, 74-5, 112-18, 2-23-18, 4-3-15, 9-7,
5-8-4, 10-7, 11-6, 21-1, 6-2-10, 16-11, 8-60-2, 74-
11, 75-5, 84-4, 102-17,
3. अंगिरितम: --- 1-75-2, 8-83-18, ?-27, 44-8,
4. अंगिर:ऽतम: --- 1-31-2, 100-4, 130-3, 9-107-6, 10-62-6,
5. अंगिर:तमम् --- 8-23-10,
6. अंगिर:ऽतमा --- 7-75-1, 79-3,
7. अंगिर:ऽभि: --- 1-62-5, 100-4, 2-15-8, 4-16-8, 6-18-5, 7-44-4,
10-14-3, 5, 111-4,
8. अंगिर:ऽम्य: ---1-521-3, 132-4, 139-7, 8-15, 63-3, 9-62-9, 86-23,
9. अङ.गिरस: --- 1-62-2, 71-2, 3-53-7, 4-2-15, 3-11, 5-11-6, 45-8,
6-65-5, 7-42-1, 52-3, 10-14-6, 62-5, 67-2, 78-5,
108-8,105-?, 169-2,
10. अङ.गिरसा --- 10-62-1 से 4
11. अङ.गिरसाम् ---1-62-3, 107-2, 121-1, ?-3, 127-2, 2-20-5, 6-11-3,
10-70-9,
12. अङ.गिरस्वत् --- 1-31-17, 45-3, 62-1, 78-3, 2-171, 3-31-19, 6-49-
11, 8-40-12, 43-13,
13. अङ.गिरस्वन्ते --- 8-35-14,
14. अङ.गिरस्वान् --- 2-11-20, 6-17-6,
15. अङ.गिरा: --- 1-31-1, 83-4, 139-9, 3-31-7, 5-45-7,10-92-15,
16. अङ.गिरे --- 4-51-4,
17. आङ.गिरस: --- 6-73-1, 10-47-6, 68-2, 149-5, 164-4,
18. आङ.गिरसस्य --- 4-40-1,
19. आङ.गिरसान् --- 6-35-5,
खिल-मंत्रों में उपलब्ध आंगिरस पदों की सूची इस प्रकार है :-
1. अंगार: --- 3-15-20,
2. अंगिर: --- 2-13-4, 5-20-4,
3. अंगिरस: --- 4-5-9, 4-8-9,
4. अंगिरसाम् --- 3-15-30, 32, 5-1-3,
5. अंगिरस्तम् --- 2-13-5,
6. अंगिरस्वत् --- 4-9-3,
7. अंगिरोम्य: --- 4-20-1,
8. आंगिरसम् --- 1-2-9, 2-4-2,
आङ.गिरसों के नाम से आरम्भ होने वाले ऋग्वेद के मंत्र इस प्रकार हैं :-
1. अङ. गिरसों न: पितर: नवग्वा अर्थवाणा भृगव: सोम्यास: ।
तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ॥ 10-14-6
2. अङ. गिरस्वन्ता उत विष्णुवन्ता मरुत्वन्ता जरितुर्गच्छयोहवम् ।
सजोषसा उषसा सूर्येण चादित्यैयातमश्विना ॥ 8-35-14,
3. अङ. गिरोभिरा गहि यज्ञियेभिर्यम् वैरुषैरिह मादयस्व ।
विवस्वन्तं हुवे य: पिता तेऽस्मिन्यज्ञ बहिंष्या निषध ॥ 10-14-5
आङ.गिरसों को देवता स्वीकार करने वाले )ग्वेद के मंत्र इस प्रकार हैं :-
1. 10-62-1 से 6,
ऋग्वेद में उपलब्ध आङ.गिरस ऋषियों की सूची इस प्रकार है :-
1. अभीवर्त आङ. गिरस --- 10-174,
2. अमहीयु: आङ. गिरस --- 9-61,
3. अयास्य आङ. गिरस --- 9-44, 9-46, 10-67, 10-68,
4. उचथ्य '' '' --- 9-50 से 52,
5. ऊरु --- 9-108-4, 5,
6. कुत्स --- 1-94-18, 1-101 से 115, 9-97-45 से 58,
7. ड्डतशया --- 9-108-10 से 11,
8. ड्डष्ण --- 8-85, 8-86, 8-87, 10-42 से 44,
9. गृत्समद --- 2-1 से 3, 2-8 से 43, 9-86-46 से 48,
10. घोर --- 3-36-10,
11. तिरश्ची --- 8-95, 8-95,
12. दिव्य --- 10-107,
13. धरूण --- 5-15,
14. ध्रुव --- 10-173,
15. नृमेध --- 8-89, 8-90, 8-98, 8-99, 9-27, 9-29,
16. पवित्र --- 9-67-22 से 32, 9-73, 9-83,
17. पुरुमीळह --- 8-71,
18. पुरूमेध --- 8-89, 8-90,
19. पुरूहन्मा --- 8-70,
20. पूतदक्ष --- 8-94,
21. प्रचेता --- 10-164
22. प्रभुवसु --- 5-35, 5-36, 9-35, 9-36
23. प्रियमेध --- 8-2-1 से 40, 8-68, 8-69, 8-87, 9-28
24. बरू --- 10-96
25. बिन्दु --- 8-94, 9-30
26. बृहन्मति --- 9-39, 9-40
27. बृहस्पति --- 10-71, 10-72
28. भिक्षु --- 10-117
29. मूर्धन्वान् --- 10-88
30. रह्गण --- 9-37, 9-38
31. वसुरोचिष --- 8-34-16 से 18
32. विरूप --- 8-34, 8-44, 8-75
33. विहव्य --- 10-128
34. वीतहव्य --- 6-15
35. व्यश्व --- 8-26
36. शश्वत्याङ. गिरसी --- 8-1-34
37. शिशु --- 9-112
38. श्रुतकक्ष --- 8-92
39. सैंवनन --- 10-191
40. संवर्त --- 10-172
41. सप्तगु --- 10-47
42. सव्य --- 1-51 से 57
43. सुकक्ष --- 8-92, 8-93
44. सुदीति --- 8-71
45. हरिमन्त --- 9-72
46. हिरण्यस्तूप --- 1-11-35, 9-4, 9-69
ऋग्वेद में प्राप्त स्त्री आङ.गिरस ऋषि का नाम इस प्रकार है:-
शश्वती आङ. गिरसी
यजुर्वेद में प्राप्त होने वाले आंगिरस ऋषि तथा उनसे संबंधित मंत्रों का विवरण इस प्रकार है :-
1.अंगिरस/आंगिरस: --4-10, 20-36 से 46, 7-43 से 48, 8-1 से 3, 3-1
2. कुत्स --- 7-42, 8-4, 8-5
3. बृहस्पति --- 2-11 से 13
4. हिरण्यस्तूप --- 33-43, 34-12 से 13, 24 से 27, 31
अथर्ववेद में प्राप्त आंगिरस ऋषि तथा उनसे संबंधित मंत्रों का विवरण इस प्रकार है :-
1. अंगिरा: ---2-35, 4-39, 5-12, 6-45 से 48, 7-50 से 51, 7-90, 7-95,
19-22, 19-34 से 35
2. अथर्वांगिरस --- 4-8, 6-72, 6-74, 6-83 से 84, 6-94, 6-101, 6-128,
7-78, 7-120 से 123, 19-3 से 5,
3. तिरश्चि --- ?-20, 137-7 से 11
4. प्रत्यंगिरस --- 10-1
5. भृग्वंगिरा --- 1-12 से 14, 1-25, 2-8 से 10, 3-7, 3-11, 4-11, 5-4, 5-
22, 6-20, 6-42, 6-43, 6-91, 6-95, 6-96, 6-127, 7-
31 से 32,7-93, 8-8, 9-3, 9-8, 11-12, 19-29, 19-39
5. भृग्वंगिरा ब्रह्मा --- 19-72
सामवेद में प्राप्त आंगिरस )षि तथा उनसे संबंधित मंत्रों की सूची इस प्रकार है :-
1. अमहीयु ---467, 470, 479, 484, 487, 494, 495, 510, 592,
593, 672 से 674, 762,778 से 780, 787 से 789, 815 से
817, 889 से 891, 1081 से 1083,
1210 से 1212, 1335 से 1337
2. अयास्य --- 509
3. उचय्य --- 496, 499, 1205 से 1209, 1225 से 1227,
4. उरू --- 584, 93
5. उर्ध्वसद्मा --- 599, 1011, 1395
6. कुत्स --- 66, 380, 541, 590, 626, 1064 से 1066, 1104 से
1106, 1426 से 1428, 1748 से 1751
7. ड्डतयशा --- 584, 1012
8. गौर --- 458
9. तिरश्चि --- 346, 349, 351, 883 से 885, 1402 से 1404
10. नृमेध --- 248, 257, 258, 267, 269, 283, 302, 311, 388,
393, 405, 406, 601, 710 से 712, 813, 814, 1025 से
1027, 1169 से 1171, 1247 से 1249, 1284 अन्त के
तीन पादु,1285प्रथम पादु, 1319,1320,1411, 412, 1429से
1431, 1492, 1493, 1637, 1638, 1765 से 1767,
11. पवित्र --- 565, 596, 875 से 877, 1298 से 1303,
12. पुरूमीढ़ --- 1554, 1555,
13. पुरूमेध--- 248, 257, 258, 269, 601, 1411, 1412, 1429से 1431,
1492, 1493,
14. पुरूहन्मा --- 243, 268, 273, 862, 863, 933, 934,1155, 1156,
15. पूतदक्ष --- 149, 174, 1785 से 1787,
16. प्रियमेध --- 123, 124, 157, 168, 225, 227, 354, 360, 362, 364,
719 से 321, 1280 से 1283, 1284 प्रथमपादु, 1489 से
1491, 1512, 1657 से 1659, 1768 से 1773,
17. बिन्दु --- 149, 174, 1785 से 1787,
18. बृहन्मति --- 488, 898 से 903, 924 से 926,
19. रह्गण --- 1274, 1279, 1292 से 1297,
20. विरूप --- 27, 1532 से 1534, 1541 से 1543, 1648 से 1650, 1711
से 1713,
21. संवर्त --- 443, 451,
22. सप्गु --- 317,
23. सव्य --- 373, 376, 377,
24. सुकक्ष --- 116, 125, 126, 150, 151, 155, 158, 170, 173, 188,
197, 199, 208, 213, 713 से 715, 722 से 724, 824 से
826, 1222 से 1224, 1550 से 1552, 1586, 1642 से
1644, 1660 से 1662, 1790 से 1792,
25. सुदीति --- 6, 49, 1554, 1555,
26. हिरण्यस्तूप --- 612, 1047 से 1056, 1370 से 1372

सन्दर्भ - सूची
1) ऋग्वेद, 1-1-1,
2) ईशावास्योपनिषद्, 16,
3) पृष्ठ - 4, भारतीय विज्ञान के कर्णधार, लेखक-सत्यप्रकाश, प्रकाशक - रिसर्च इन्सटीच्यूट आफ एन्शेण्ट साइण्टिफिक स्टडीज, न्यू देहली । 1967
4) ऋग्वेद, 6-11-3,
5) वही, 10-21-5,
6) वही, 6-15-17,
7) 6-16-14, 10-48-2, 10-21-5, 8-9-7, 6-47-24, 6-12-17, 10-87-12,
1-80-16,83-5, 6-16-13, 10-92-10, 10-120-9, 11-11-2, 10-14-8.
ऋग्वेद
8) 10-7-20, 10-2-27, 6-8-16, 20-140-2, 7-109-1, 5-11-2, 8-3-21, 5-
2-9, 10-2-26, 10-12-17, 18-3-54, 19-4-1, 20-25-5, 4-37-1, 10-
6-20,11-6-13, 18-1-58, 4-1-7, 5-11-11, 7-2-1 । अथर्ववेद
9) 11-33, 30-15, 8-56, 11-32, 15-22, 19-50 । यजुर्वेद
10. पृ. 4, 5, वैदिक ऋषि -- एक परिशीलन, लेखक -- कपिल देव शास्त्री,
प्रकाशक -- कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरूक्षेत्र ।
11. यजुर्वेद, 32-12
12. अभयदेव ड्डत हिन्दी अनुवाद पृ. 213 से 232
13. लौकिकानां हि साध्नामर्थ वागनुवर्तते ।
ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमयों अनुधावति ॥ उत्तर रामचरितम्, 1
14. त्वमग्ने प्रथमों अंगिरा ऋषि: । ऋग्वेद, 1-31-1
त्वमग्ने प्रथमों अंगिरस्तम: । वही, 1-31-2
स नो जुषस्व समिधानों अंगिरों देवो मर्तस्य यशसा सुदीतिभि:।वही, 5-4-8
उत ब्रम्हाण्यंगिरो जुषस्व । वही 4-3-15
15. ते अंगिरस: सूनवस्त अग्ने: परिजीज्ञरे । वही, 10-62-5
16. ये अग्ने: परिजज्ञिरे विरूपासो दिवस्परि ।
नवग्वोनु दश्ग्वो अंगिरस्तम: सच: देवेषु मंहते । वही, 10-62-6
17. शतपथ, 8-14-10,
18. कौषीतिकी,
19. तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्द वल्ली, तृतीय अनुवाक,
20. मैत्रायणी उपनिषद्, 2-6,
21. बृहदारण्यक उपनिषद्, 2-5,
22. छान्दोग्योपनिषद्, 3-4,
23. बृहदारण्यक उपनिषद, 1-3-8,
24. शांखायन ब्राह्मण, अध्याय 18, पृष्ठ-139,
25. वही, अध्याय 30, पृष्ठ-252,
26. वही, पृष्ठ-254,
27. वही, अध्याय 28, पृष्ठ-237,
------इति-------

Friday, October 3, 2008

स्त्री-चेतना एवं भारतीयता की मूलप्रकृति


'स्त्री - चेतना एवम् भारतीयता की मूल प्रकृति का पुनर्विश्लेषण'
आशुतोष आंगिरस , प्रवक्ता, संस्कृत विभाग , अम्बाला छावनी।
ऐसे विषय जो अतिबौद्दिकता, अर्ध-ऐतिहासिकता और अति-परिचय के कारण व्यक्ति और समाज के लिए अस्पष्ट हो गए हाें और उलझ गए हों या जिनका कोई सीधा स्पष्ट उत्तार न हो या जिन विषयों के सम्बन्ध घड़े बन्दियाँ हाें तो वहाँ विषयों को स्पष्ट करने का सरलतम उपाय मूलभूत प्रश्नों को सामने रखने का हो सकता है विशेष रूप से स्त्री चेतना और भारतीय प्रकृति के सन्दर्भ में। अत: उपरोक्त विषय के सम्बन्ध में मैं सरलतम और संक्षिप्त प्रश्न अपने सामने रखना चाहता हँ कि स्त्री मायने क्या या स्त्री होने का क्या अर्थ है ? क्या ऐसी कोई देह जो सन्तानोत्पत्ति करती हो, उसे स्त्री कहेंगें या काई ऐसा अस्तित्व जो पुरूष से भिन्न है या ऐसी कोई अस्मिता जो सजातीय, विजातीय और स्वगत भेद से भिन्न परिभाषित की जा सकती है अथवा सामाजिक सन्दर्भ में माँ, बहिन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका आदि में से स्त्री कौन सी है या व्यक्तिगत स्तर पर एक पुत्र को अपनी माँ को रूप में देखना चाहिए या स्त्री के रूप में ? व्यक्तिगत स्तर पर यह प्रश्न और भी महत्तवपूर्ण हो जाता है क्योंकि स्त्री-अधिकारों के हनन के सन्दर्भ में पुत्र अपने माँ के अधिकारों के लिए संघर्ष करे अथवा उसे स्त्री समझ कर उसके अधिकारों के विषय में निर्णय करें ? ये सारे प्रश्न इसलिए आवश्यक है क्योंकि एक बार 'स्त्री' का निर्णय हो जाए तो 'स्त्री चेतना' और उससे सम्बन्धित अन्य विषयों को ठीक से समझा जा सकता है। और यह समझ इसलिए आवश्यक है क्योंकि हम सभी एक स्वस्थ समाज चाहते हैं जो दैहिक रूप से और मानसिक रूप से भी स्वस्थ हो और यह तभी सम्भव है जब स्त्री दैहिक और मानसिक रूप से स्वस्थ और पूर्ण हो क्योंकि अभी तक हुआ यह है कि सामाजिक विकृतियों को अनुभव कर भारतीय परम्परा को जानने वालों ने स्त्री के पुनरुत्यान का जो आन्दोलन चलाया था वह शीघ्र ही उनके हाथों से फिसल कर औद्योगिक क्रान्ति के बुध्दिजीवियों के अधिकार में आ गया और उन्होंने स्त्री-स्वातन्त्र्य के नाम पर जो व्यापार किया उसका परिणाम टूटते परिवारों, बढ़ते अपराधों और व्यवस्थाओं के चरमराने के रूप में दिखाई देने लगा है। अभी तक भारतीय स्त्री की अस्मिता को दो छोरों ने बाँध रखा था - एक ओर सौभाग्य था और दूसरी ओर मातृवात्सल्य। उसकी प्रकृति ने ही उसे मर्यादित कर रखा था परन्तु अब आधुनिकता ने उसे सौभाग्य के स्थान पर नौकरी या आर्थिक सुरक्षा दी और मातृवात्सल्य के स्थान पर प्राकृतिक प्रजनन शक्ति का नियन्त्रण। यह कहाँ तक स्वस्थ स्त्री और स्वस्थ समाज की रचना में सहायक या उपयोगी है - यह विचारणीय है क्योंकि स्त्री चेतना की सफलता समाज की स्वस्थता पर निर्भर करती है और स्वस्थ समाज ही स्वस्थ स्त्रीत्व का उद्देश्य हैं जिसके लिए स्वातन्त्र्य मूलभूत शर्त है और वह स्वातन्त्र्य दो प्रकार का है - एक है स्त्री का सत्ताा-स्वातन्त्र्य और दूसरा है स्त्री का क्रिया-स्वातन्त्र्य। अत्यन्त सरल एवम् स्थूल शब्दों में स्त्री चेतना के दो स्तर हैं - एक उसके होने का और दूसरा करने का। स्त्री का होना उसका स्वभाव है, उसे पाने के लिए कुछ करना नहीं होता क्योंकि स्त्री तो वह है ही और यह ऐसा भी नहीं है कि वह कुछ ऐसा है जो स्त्री के पास है या स्त्री के अधिकार में है। स्त्री में और स्त्री के होने में किंचित सी भी दूरी नहीं है। वह स्त्री का होना है, उसका अस्तित्व है। दूसरी ओर क्रिया या करना उसकी उपलब्धि है। जो कुछ भी करती है वह बिना किए नहीं हो सकता। स्त्री करेगी तो वह होगा, नहीं करेगी तो नहीं होगा लेकिन जीवन जीने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है और धीरे - धीरे यह सक्रियता ही स्त्री के होने को जानने में बाधा बन जाती है और यही कारण है कि स्त्री का मूल्यांकन पुरूषोचित कर्म करने में होने लग गई है और यह स्पष्ट है कि कर्म या क्रिया पर आधारित पहचान परिधि है, केन्द्र नहीं है। आधुनिक स्त्री का अर्जन, उसकी सम्पदा, जो कुछ भी उसके पास है वह उसके कृत्य ने, उपलब्धि ने केन्द्रभूत स्त्री को आच्छादित कर रखा है। स्त्री का होना उसकी सभी उपलब्धियों से पहले है। कृत्य तो चुनाव है, वह चुना जाए या न चुना जाए, वह किया जाए न किया जाए वह स्त्री के हाथ में है। कृत्य चुना जा सकता है परन्तु अस्तित्व नहीं। इसलिए स्त्री जहाँ एक ओर विशिष्ट बोध सत्ताा है वहीं वह विशिष्ट संस्कार समूह भी है और इन दो प्रकारों ने स्त्री चेतना ने मानव मन को सदा प्रभावित किया है। इसलिए स्त्री- चेतना को मात्र कृत्यों के सन्दर्भ में देखना और उसकी अस्मिता के प्रश्न को अनदेखा करना - दोनों ही स्वस्थ विश्लेषण की अपेक्षा रखते हैं। लेकिन मानवीय दृष्टि की तरह मानव बुद्दि भी एक साथ सभी कोणों से किसी भी तथ्य को समझने मे सशक्त नहीं है इसलिए आवश्यक है कि स्त्री चेतना को तीन दृष्टिकोण्ाों से देखकर समझने का प्रयत्न किया जाए। स्त्री चेतना के भारतीय की दृष्टि में तीन रूप इस प्रकार के हैं - प्रथम पार्थिव रूप से तात्पर्य उसके जैविक, आर्थिक दृष्टि है, दूसरे शाश्वत रूप से तात्पर्य ऐतिहासिक अविच्छिन्न विकास की दृष्टि है और तीसरे चिन्मय रूप से तात्पर्य अचल मूल्य की दृष्टि है या मूल प्रकृति या मेमदबम की दृष्टि है। इन तीन दृष्टिकोणों से विश्लेषण कर स्त्री-चेतना का पार्थिव रूप हमारे घरों, गावों, नगरों, खेतखलिहनों, कार्यालयों, राजनीति, बाजारवाद, उपभोक्तावाद के साधनों में उपस्थित है और इस माध्यम से वह अर्थ और काम की सिध्दि कर रही है। स्त्री चेतना का शाश्वत रूप इतिहास में हजारों वर्षों से क्रमागत रूप से चलायमान है। यह शाश्वत इस अर्थ में ही कि यह अविच्छिन्न रहा है। वस्तुत: शाश्वत शब्द एक काल सम्बन्धी आइडिया देता है जिसे निरन्तर वर्तमान के अर्थ में लेना चाहिए। यह काल का कोई स्थिर बिन्दु नहीं है। यह निरन्तर रहते हुए भी सतत विकासशील और प्रवाह मान भी है क्योंकि यही समाज और व्यक्ति की मानसिक शक्तियों का ढँाचा तैयार करते हैं। इस दृष्टि से स्त्री चेतना अपने धर्म नामक पुरुषार्थ को सफल कर रही है और तीसरा चिन्मय रूप शाश्वतरूप से अधिक सूक्ष्म है जिसका लक्ष्य है पूर्ण स्वस्थता, पूर्ण आनन्द जो ऑंशिक रूप से क्रीड़ा, कला, संगीत, साहित्य आदि में और पूर्ण रूप से जीवन जीने के रूप में मिलता है। इस चिन्मय रूप में ही रुचिबोध और संस्कृति बोध के बीच पनपते हैं। सभी बीजों का स्रोत यही स्त्री का चिन्मय रूप ही है परन्तु उन बीजों का अंकुरण और विकास होता है शाश्वत और पार्थिव सन्दर्भ के अनुसार। सम्भवत: इस प्रकार भारतीय सन्दर्भ मे स्त्री चेतना के पकमंस या मेमदजपंस रूप को समझा जा सकता है और इसके साथ ही मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि स्त्री मेरे लिए कोई विवाद का विषय नहीं है, न हीे यौन लिंगों के नाम पर धड़ेबन्दी का मेरे से सम्बन्ध है और न ही ऐसे लोगों से सम्बन्ध है जो यह समझते है कि स्त्री कोई समझा जाने वाला तत्तव नहीं है, केवल प्रेम की, भोग की वस्तु है। सामान्य व्यक्ति का मन सदा भाषा के स्तर पर ही जीता हे और भाषा तो लिंगों के आधार पर विभाजन मानकर चलती है और केवल ऐतिहासिक दृष्टि से स्त्री-चेतना का अध्ययन द्वन्द्वात्मक संघर्ष को हवा देने की बात है। समाज में व्यवहार में लोक में स्त्री को जैसे भी समझा हो परन्तु सम्वेदनशील मनुष्य के लिए स्त्री सृष्टि का एक मूल तत्तव है जो आकर्षण भी करती है और विकर्षण भी। वह केवल लिंगों तक सीमित नहीं है इसलिए भारतीय सन्दर्भ में स्त्री के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्द तीनों लिंगों में मिलते है-जैसे 'दारा' पुल्लिंग है तो 'कलत्र' नपुंसक लिंग है तो 'नारी' स्त्रीलिंग शब्द हे। सम्भवत: यही कारण है कि एक तत्तव के रूप में स्त्री का सर्वत्र अभिनन्दन ही हुआ है परन्तु व्यक्ति-स्त्री में गुण दोष वाली दृष्टि को यथार्थ मान कर पक्ष और विपक्ष में दोनों तरह की बातें कही गई है अत: स्त्री चेतना के प्रति अभिनन्दन भारतीय प्रकृति के लिए कोई औपचारिकता की बात नहीं है -''विद्या: समस्ता तव देवि भेदा:, स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु॥'' अर्थात् हे देवी! समस्त विद्याएँ और जगत् की समस्त स्त्रियां तुम्हारे ही अनेक रूप हैं।
इस उपरोक्त विश्लेषण के मूल सन्दर्भ भारतीयता की प्रकृति के स्वरूप निर्माण में वैदिक और अवैदिक या आर्य और अनार्य परम्पराओं के तात्तिवक वैचारिक योगदान को भी जान लिया जाए क्योंकि दोनों के अति सूक्ष्म वैचारिक तत्तवों का समन्वय ही भारतीयता की मूल प्रकृति को निर्धारित करते हैं। वैदिक परम्परा के उपलब्ध तत्तव हैं-संस्कृत, यज्ञ, देववाद और आत्म या ब्रह्म। और दूसरी और अवैदिक परम्परा के तत्तव हैं - संसार का मिथ्यात्व, अत्यन्त घोर तप, पूजा - विशेष रूप से आकृति पूजा, ध्यान के प्रति योग के उपाय और अनीश्वरता। इन उपरोक्त चार वैदिक तत्तवों और पाँच अवैदिक तत्तवों के आपसी समन्वय से भारतीयता की मूल प्रकृति का स्वगत लक्षण स्पष्ट करते हैं। वे तत्तव हैं - 1. माया या लीला, 2. कर्म, 3. धर्म, 4. अर्थ, 5. काम, 6. मोक्ष, 7. भक्ति, 8. आकृति उपासना, 9. व्यक्तिगत धार्मिक या आध्यात्मिक अनुभव- इन तत्तवों ने अपनी मिथकीयता या पौराणिकता और प्रतीकात्मकता से भारत की अधिकांश भाषाओं को प्रभावित किया हैं। हलाँकि मिथक और प्रतीक ये दोनों अलग अलग हैं जैसे पुरुष और प्रकृति - ये दोनो बिम्ब प्रतीक हैं - दो तरह की आदिम और सनातन सृजन - शक्तियों के जिनके युगबध्द होने पर ही सृष्टि सम्भव हे परन्तु शिव र्पावती आदि के बिम्ब इसी तथ्य के मिथकीय रूप हैं। ये प्रतीक किसी तथ्य को या थ्योरी को सूत्र रूप में बिम्बित करते हैं लेकिन इनमें कोई लीला या कथात्मकता नहीं है इसके विपरीत मिथक का रूप कथात्मक होता है और उसके बिम्ब पुरूष-नारी आकृतियाँ लेकर एक लीला रचते हैं। मिथकीय भाषा अधिक सगुण, नामरूपवाली होती हैं। यदि भारतीयता मूलसाहित्य और दर्शन को कुछ देर के लिए छोड़ दें तो भारतीय परम्परा, लोक धर्म और लोक संस्कृति के आधार पर यह कहना सम्भव है कि भारतवर्ष की आदिम देवता देवी है क्योंकि सभ्यता का आदि रूप सर्वत्र मातृ सत्ताा प्रधान रहा है। और वहीं से भारत का 'समूह मन' या 'लोक-चित्त' का प्रारम्भ हुआ। उस देवी के सूक्ष्म से सूक्ष्मतर रूप ने भारतीय कर्मकाण्ड, दर्शन, कला, साहित्य को प्रभावित किया और दूसरी ओर उसने प्रत्येक व्यक्ति के अति भीतर स्नायुमण्डल के केन्द्र में कुल कुण्डलिनी, परा-शक्ति, त्रिपुर सुन्दरी के रूप में प्रभावित किया। सच तो यह है कि इस देवी के खप्पर में पड़ कर भारतीय आर्य के पुरुष प्रधान स्वभाव का रूपान्तर 'नव्य आर्य' या 'हिन्दू' के रूप में हो गया और हमारे समूहमन या लोकचित में स्थित इसकी 'मातर्ृमूत्तिा' या कलियुग की भाषा में 'मदर इमेज' हमारे ऐतिहासिक उत्थान पतन का नियमन कर रही है। इस प्रकार इतिहास में देवी का वाद आरम्भ हुआ जो विकसित होता हुआ ऋग्वैदिक 'श्री' या रूदुस्वसा अम्बिका' में स्थित हुआ और प्रतिवाद के रूप में प्रकृति और नारी के प्रति वर्जनशील धर्म साधना का उदय बौद्द, जैन आदि के रूप में हुआ। फिर गुप्त युग के आसपास वाद प्रतिवाद के पारस्परिक अन्त: प्रवेश के फलस्वरूप एक और महायान में देवी का प्रवेश वज्रेश्वरी, तारा आदि के रूप में हुआ तो दूसरी ओर वह वेदान्त में श्री-विद्या के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। फिर धीरे धीरे यही देवी वाद-प्रतिवाद के माध्यम से भक्ति के रूप में राधा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। तत्पश्चात् 19वीे शती में देवी का तीसरा वाद धार्मिक न होकर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से देश भक्ति के रूप में उपस्थित हुआ जिसका स्वरूप 'वन्दे मातरम्' में स्पष्ट होता है। स्त्री चेतना का यह रूप भक्ति न होकर सामाजिक शाक्ति की उपासना थी। यह सामूहिक जिजीविषा का प्रतीक बन कर स्वतन्त्रता संग्राम में उदय हुई।
अपने विषय का समापन इन विचार बिन्दुओं से करना चाहता हूँ कि भारतीयता की मूल प्रकृति का आरम्भिक रूप जितना भौतिकवादी है उतना ही अध्यात्मवादी भी है। भारतीय प्रकृति इहलोकवादी एवम् कामना प्रधान हैं परन्तु साथ ही साथ यह श्रध्दा-सम्पृक्त और रहस्य-प्रणव भी है। भारतीय प्रकृति की रचना आदिम भय और आदिम बुभुक्षा से ही नहीं हुई बल्कि सौन्दर्य-बोध और रहस्य-बोध से भी हुई है जिसने सभ्यता, संस्कृति, भोजन पान, वसन-व्यसन, शब्द-सम्भार, भाषा-बोली, कल्प और शिल्प, भावबोध और नीतिबोध को भी प्रभावित किया और यह प्रवाह आज भी प्रवहमान है। इसलिए भारतीयता की मूल प्रकृति जनसमूह की दृष्टि-भंगी है, यह जनसमूह की विश्व-दृष्टि है क्योंकि यदि इसमें भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का मूल विद्यमान न रहता तो संस्कृति का चर्तुपुरुषार्थ का संतुलित परवत्तर्ाी विकास सम्भव नहीं होता। भारतीय प्रकृति समस्त जीवन प्रक्रिया को समाविष्ट किए हुए और धारण किए हुए चलती है - चूल्हा चक्की, शिल्प से लेकर लोकनृत्य आदि तक इसका विस्तार है। अत: भारतीयता की मूल प्रकृति के विषय में यह कहना सम्भव है कि पहला यह कि यह अपौरूषेय है क्योंकि इसका जनक व्यक्ति नहीं परम्परा है। दूसरा इसका अर्थ लोकविद्या है। तीसरा इसकी दृष्टि भंगी कामना प्रधान और सुखवादी होने के साथ साथ अध्यात्मवादी है। चौथे यह रसवादी और वर्ग निरपेक्ष है परन्तु धार्मिकता प्रकृति सेक्यूलर, उदार और साम्प्रदायिकता निरपेक्ष है परन्तु धार्मिकता मुक्त कहीं नहीं है। छटे इसमें जिज्ञासा, रहस्यबोध, सौन्दर्यबोध तथा आदिम मय इसमें सहोदर रूप में निहित हैं।
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Monday, September 29, 2008

२० unmesh


वेदान्तसार

अखण्डं सच्चिदानन्दमवाङ्मनसगोचरम् ।
आत्मानमखिलाधारमाश्रयेऽभीष्टसिद्धये .. १..
अर्थतोऽप्यद्वयानन्दानतीतद्वैतभानतः .
गुरूनाराध्य वेदान्तसारं वक्ष्ये यथामति .. २..
वेदान्तो नामोपनिषत्प्रमाणं तदुपकारीणि शारीरकसूत्रादीनि च .. ३..
अस्य वेदान्तप्रकरणत्वात् तदीयैः एव अनुबन्धैः तद्वत्तासिद्धेः न ते पृथगालोचनीयाः .. ४..
तत्र अनुबन्धो नाम अधिकारिविषयसम्बन्धप्रयोजनानि .. ५..
अधिकारी तु विधिवदधीतवेदवेदाङ्गत्वेनापाततोऽधिगताखिलवेदार्थोऽस्मिन् जन्मनि जन्मान्तरे वा काम्यनिषिद्धवर्जनपुरःसरं नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानुष्ठानेन निर्गतनिखिलकल्मषतया
नितान्तनिर्मलस्वान्तः साधनचतुष्टयसम्पन्नः प्रमाता .. ६..
काम्यानि - स्वर्गादीष्टसाधनानि ज्योतिष्टोमादीनि .. ७..
निषिद्धानि - नरकाद्यनिष्टसाधनानि ब्राह्मणहननादीनि .. ८..
नित्यानि - अकरणे प्रत्यवायसाधनानि सन्ध्यावन्दनादीनि .. ९..
नैमित्तिकानि - पुत्रजन्माद्यनुबन्धीनि जातेष्ट्यादीनि .. १०..
प्रायश्चित्तानि - पापक्षयसाधनानि चान्द्रायणादीनि .. ११..
उपासनानि - सगुणब्रह्मविषयमानसव्यापाररूपाणि शाण्डिल्यविद्यादीनि .. १२..
एतेषां नित्यादीनां बुद्धिशुद्धिः परं प्रयोजनमुपासनानां तु चित्तैकाग्र्यं "तमेतमात्मानं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा
विविदिषन्ति यज्ञेन"[बृ उ ४ . ४ . २२]इत्यादि श्रुतेः "तपसा कल्मषं हन्ति"[मनु १२ - १०४] इत्यादि स्मृतेश्च .. १३..
नित्यनैमित्तिकयोः उपासनानां त्ववान्तरफलं पितृलोकसत्यलोकप्राप्तिः "कर्मणा पितृलोकः विद्यया देवलोकः"[बृ उ १- ५- १६] इत्यादिश्रुतेः .. १४..
साधनानि - नित्यानित्यवस्तुविवेकेहामुत्रार्थफलभोगविरागशमादिषट्कसम्पत्तिमुमुक्षुत्वानि .. १५..
नित्यानित्यवस्तुविवेकस्तावद् ब्रह्मैव नित्यं वस्तु ततोऽन्यदखिलमनित्यमिति विवेचनम् .. १६..
ऐहिकानां स्रक्चन्दनवनितादिविषयभोगानां कर्मजन्यतयानित्यत्ववदामुष्मिकाणामप्यमृतादि-
विषयभोगानामनित्यतया तेभ्यो नितरां विरतिः - इहामुत्रार्थफलभोगविरागः .. १७..
शमादयस्तु - शमदमोपरतितितिक्षासमाधानश्रद्धाख्याः .. १८..
शमस्तावत् - श्रवणादिव्यतिरिक्तविषयेभ्यो मनसो निग्रहः .. १९..
दमः - बाह्येन्द्रियाणां तद्व्यतिरिक्तविषयेभ्यो निवर्तनम् .. २०..
निवर्तितानामेतेषां तद्व्यतिरिक्तविषयेभ्य उपरमणमुपरतिरथवा विहितानां कर्मणां विधिना परित्यागः .. २१..
तितिक्षा - शीतोष्णादिद्वन्द्वसहिष्णुता .. २२..
निगृहीतस्य मनसः श्रवणादौ तदनुगुणविषये च समाधिः - समाधानम् .. २३..
गुरूपदिष्टवेदान्तवाक्येषु विश्वासः - श्रद्धा .. २४..
मुमुक्षुत्वम् - मोक्षेच्छा .. २५..
एवम्भूतः प्रमाताधिकारी "शान्तो दान्तः"[बृ उ ४. ४. २३ ]इत्यादिश्रुतेः . उक्तञ्च -
"प्रशान्तचित्ताय जितेन्द्रियाय च
प्रहीणदोषाय यथोक्तकारिणे .
गुणान्वितायानुगताय सर्वदा
प्रदेयमेतत् सततं मुमुक्षवे .. २६.. " (उपदेशसाहस्री ३२४ . १६ . ७२ )
विषयः - जीवब्रह्मैल्यं शुद्धचैतन्यं प्रमेयं तत्र एव वेदान्तानां तात्पर्यात् .. २७..
सम्बन्धस्तु - तदैक्यप्रमेयस्य तत्प्रतिपादकोपनिषत्प्रमाणस्य च बोध्यबोधकभावः .. २८..
प्रयोजनं तु – तदैक्यप्रमेयगताज्ञाननिवृत्तिः स्वस्वरूपानन्दावाप्तिश्च "तरति शोकम् आत्मवित् (छां उ ७ . १ . ३ ) इत्यादिश्रुतेः "ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति " (मुण्ड उ ३ . २ . ९ )इत्यादिश्रुतेश्च .. २९..
अयमधिकारी जननमरणादिसंसारानलसन्तप्तो दीप्तशिराजलराशिमिवोपहारपाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं गुरुमुपसृत्य
तमनुसरति "तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् "(मुण्ड उ १ . २ . १२ ) इत्यादिश्रुतेः .. ३०..
स गुरुः परमकृपयाध्यारोपापवादन्यायेनैनमुपदिशति
"तस्मै स विद्वानुपसन्नया सम्यक्
प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय .
येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं
प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम् .. " (मुण्ड उ १ . २ . १३ ) इत्यादिश्रुतेः .. ३१..
===============================================================================

असर्पभूतायां रज्जौ सर्पारोपवत् वस्तुनि अवस्त्वारोपः - अध्यारोपः .. ३२..
वस्तु - सच्चिदानन्दमद्वयं ब्रह्म अज्ञानादिसकलजडसमूहोऽवस्तु .. ३३..
अज्ञानं तु - सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मकं ज्ञानविरोधि भावरूपं यत्किञ्चिदिति वदन्त्यहमज्ञ इत्याद्यनुभवात् "देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् "(श्वेत उ १ . ३ )इत्यादिश्रुतेश्च .. ३४..
इदमज्ञानं समष्टिव्यष्ट्यभिप्रायेणैकमनेकमिति च व्यवह्रियते .. ३५..
तथाहि यथा वृक्षाणां समष्ट्यभिप्रायेण वनमित्येकत्वव्यपदेशो यथा वा जलानां समष्ट्यभिप्रायेण जलाशय इति तथा नानात्वेन प्रतिभासमानानां जीवगताज्ञानानां समष्ट्यभिप्रायेण तदेकत्वव्यपदेशः "अजामेकां "(श्वे उ ४ | ५ )इत्यादिश्रुतेः .. ३६..
इयं समष्टिरुत्कृष्टोपाधितया विशुद्धसत्त्वप्रधाना .. ३७..
एतदुपहितं चैतन्यं सर्वज्ञसर्वेश्वरत्वसर्वनियन्तृत्वादिगुणकमव्यक्तमन्तर्यामी जगत्कारणमीश्वर इति च व्यपदिश्यते सकलाज्ञानावभासकत्वात् ."यः सर्वज्ञः सर्ववित् "(मुण्ड उ १ | १ | ९ )इति श्रुतेः .. ३८..
ईश्वरस्येयं समष्टिरखिलकारणत्वात्कारणशरीरमानन्दप्रचुरत्वात्कोशवदाच्छादकत्वाच्चानन्दमयकोशः सर्वोपरमत्वा-
त्सुषुप्तिरत एव स्थूलसूक्ष्मप्रपञ्चलयस्थानमिति च उच्यते .. ३९..
यथा वनस्य व्यष्ट्यभिप्रायेण वृक्षा इत्यनेकत्वव्यपदेशो यथा वा जलाशयस्य व्यष्ट्यभिप्रायेण जलानीति तथाज्ञानस्य व्यष्ट्यभिप्रायेण तदनेकत्वव्यपदेशः "इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते "(ऋग्वेद ६ | ४७ | १८)इत्यादिश्रुतेः .. ४०..
अत्र व्यस्तसमस्तव्यापित्वेन व्यष्टिसमष्टिताव्यपदेशः .. ४१..
इयं व्यष्टिर्निकृष्टोपाधितया मलिनसत्त्वप्रधाना .. ४२..
एतदुपहितं चैतन्यमल्पज्ञत्वानीश्वरत्वादिगुणकं प्राज्ञ इत्युच्यत एकाज्ञानावभासकत्वात् .. ४३..
अस्य प्राज्ञत्वमस्पष्टोपाधितयानतिप्रकाशकत्वात् .. ४४..
अस्यापीयमहङ्कारादिकारणत्वात्कारणशरीरमानन्दप्रचुरत्वात्कोशवदाच्छादकत्वाच्चानन्दमयकोशः सर्वोपरमत्वात्सुषुप्तिरत एव स्थूलसूक्ष्मशरीरप्रपञ्च- लयस्थानमिति च उच्यते .. ४५..
तदानीमेतावीश्वरप्राज्ञौ चैतन्यप्रदीप्ताभिरतिसूक्ष्माभिरज्ञानवृत्तिभिरानन्दमनुभवतः "आनन्दभुक् चेतोमुखः
प्राज्ञः "(माण्डू उ ५ )इति श्रुतेः सुखमहमवाप्सम् न किञ्चिदवेदिषमिथ्युत्थितस्यपरामर्शोपपत्तेश्च .. ४६..
अनयोः समष्टिव्यष्ट्योर्वनवृक्षयोरिव जलाशय- जलयोरिव वाभेदः .. ४७..
एतदुपहितयोरीश्वरप्राज्ञयोरपि वनवृक्षावच्छिन्नाकाशयोरिव जलाशयजलगतप्रतिबिम्बाकाशयोरिव वाभेदः "एष सर्वेश्वर
(एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् )"(माण्डू उ ६ )इत्यादि श्रुतेः .. ४८..
वनवृक्षतदवच्छिन्नाकाशयोर्जलाशयजलतद्गतप्रतिबिम्बाकाशयोर्वाधारभूतानुपहिताकाशवदनयोरज्ञानतदुपहितचैतन्ययो-
राधारभूतं यदनुपहितं चैतन्यं तत्तुरीयमित्युच्यते "शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते (स आत्मा स विज्ञेयः )"
(माण्डू उ ७ )इत्यादिश्रुतेः .. ४९..
इदमेव तुरीयं शुद्धचैतन्यमज्ञानादितदुपहितचैतन्याभ्यां तप्तायः पिण्डवदविविक्तं सन्महावाक्यस्य वाच्यं विविक्तं सल्लक्ष्यमिति चोच्यते .. ५०..
अस्याज्ञानस्यावरणविक्षेपनामकमस्ति शक्तिद्वयम् .. ५१..
आवरणशक्तिस्तावदल्पोऽपि मेघोऽनेकयोजनायतमादित्यमण्डलमवलोकयितृनयनपथपिधायकतया यथाच्छादयतीव
तथाज्ञानं परिच्छिन्नमप्यात्मानमपरिच्छिन्नमसंसारिणमवलोकयितृबुद्धिपिधायकतयाच्छादयतीव तादृशं सामर्थ्यम् .
तदुक्तं - "घनच्छन्नदृष्टिर्घनच्छन्नमर्कं यथा मन्यते निष्प्रभं चातिमूढः . तथा बद्धवद्भाति यो मूढदृष्टेः स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा .. 'इति (हस्तामलकम् १० | ).. ५२..
अनया आवृत्तस्यात्मनः कर्तृत्वभोक्तृत्वसुखित्वदुःखित्वादिसंसारसम्भावनापि भवति यथा स्वाज्ञानेनावृतायां रज्ज्वां सर्पत्वसम्भावना .. ५३..
विक्षेपशक्तिस्तु यथा रज्ज्वज्ञानं स्वावृत रज्जौ स्वशक्त्या सर्पादिकमुद्भावयत्येवमज्ञानमपि स्वावृतात्मनि स्वशक्तादिप्रपञ्चमुद्भावयति तादृशं सामर्थ्यम् . तदुक्तम् - "विक्षेपशक्तिर्लिङ्गादि ब्रह्माण्डान्तं जगत् सृजेत्"इति . (वाक्यसुधा १३ ).. ५४..
शक्तिद्वयवदज्ञानोपहितं चैतन्यं स्वप्रधानतया निमित्तं स्वोपाधिप्रधानतयोपादनं च भवति .. ५५..
यथा लूता तन्तुकार्यं प्रति स्वप्रधानतया निमित्तं स्वशरीरप्रधानतयोपादानञ्च भवति .. ५६..
तमःप्रधानविक्षेएपशक्तिमदज्ञानोपहितचैतन्यादाकाश आकाशाद्वायुर्वायोरग्निरग्ग्नेरापोऽद्भ्यः पृथिवी चोत्पद्यते "एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः "(तै उ २ . १ . १ )इत्यादिश्रुतेः .. ५७..
तेषु जाड्याधिक्यदर्शनात्तमःप्राधान्यं तत्कारणस्य तदानीं सत्त्वरजस्तमांसि कारणगुणप्रक्रमेण तेष्वाकाशादिषुत्पद्यन्ते .. ५८..
एतान्येव सूक्ष्मभूतानि तन्मात्राण्यपञ्चीकृतानि चोच्यन्ते .. ५९..
एतेभ्यः सूक्ष्मशरीराणि स्थूलभूतानि चोत्पद्यन्ते .. ६०..
सूक्ष्मशरीराणि सप्तदशावयवानि लिङ्गशरीराणि .. ६१..
अवयवास्तु ज्ञानेन्द्रियपञ्चकं बुद्धिमनसी कर्मेन्द्रियपञ्चकं वायुपञ्चकं चेति .. ६२..
ज्ञानेन्द्रियाणि श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणाख्यानि .. ६३..
एतान्याकाशादीनां सात्त्विकांशेभ्यो व्यस्तेभ्यः पृथक् पृथक् क्रमेणोत्पद्यन्ते .. ६४..
बुद्धिर्नाम निश्चयात्मिकान्तःकरणवृत्तिः .. ६५..
मनो नाम सङ्कल्पविकल्पात्मिकान्तःकरणवृत्तिः .. ६६..
अनयोरेव चित्ताहङ्कारयोरन्तर्भावः .. ६७..
अनुसन्धानात्मिकान्तःकरणवृत्तिः चित्तम् .. ६८..
अभिमानात्मिकान्तःकरणवृत्तिः अहङ्कारः .. ६९..
एते पुनराकाशादिगतसात्त्विकांशेभ्यो मिलितेभ्य उत्पद्यन्ते .. ७०..
एतेषां प्रकाशात्मकत्वात्सात्त्विकांशकार्यत्वम् .. ७१..
इयं बुद्धिर्ज्ञानेन्द्रियैः सहिता विज्ञानमयकोशो भवति .. ७२..
अयं कर्तृत्वभोक्तृत्वसुखित्वदुःखित्वाद्यभिमानत्वेनेहलोकपरलोकगामी व्यवहारिको जीव इत्युच्यते .. ७३..
मनस्तु ज्ञानेन्द्रियैः सहितं सन्मनोमयकोशो भवति .. ७४..
कर्मेन्द्रियाणि वाक्पाणिपादपायूपस्थाख्यानि .. ७५..
एतानि पुनराकाशादीनां रजोंशेभ्यो व्यस्तेभ्यः पृथक् पृथक् क्रमेणोत्पद्यते .. ७६..
वायवः प्राणापानव्यानोदानसमानाः .. ७७..
प्राणो नाम प्राग्गमनवान्नासाग्रस्थानवर्ती .. ७८..
अपानो नामावाग्गमनवान्पाय्वादिस्थानवर्ती .. ७९..
व्यानो नाम विष्वग्गमनवानखिलशरीरवर्ती .. ८०..
उदानो नाम कण्ठस्थानीय ऊर्ध्वगमनवानुत्क्रमणवायुः .. ८१..
समानो नाम शरीरमध्यगताशितपीतान्नादिसमीकरणकरः .. ८२..
समीकरणन्तु परिपाककरणं रसरुधिरशुक्रपुरीषादिकरणमिति यावत् .. ८३..
केचित्तु नागकूर्मकृकलदेवदत्तधनञ्जयाख्याः पञ्चान्ये वायवः सन्तीति वदन्ति .. ८४..
तत्र नाग उद्गिरणकरः . कूर्म उन्मीलनकरः कृकलः क्षुत्करः .देवदत्तो जृम्भणकरः धनञ्जयः पोषणकरः .. ८५..
एतेषां प्राणादिष्वन्तर्भावात्प्राणादयः पञ्चैवेति केचित् .. ८६..
एतत्प्राणादिपञ्चकमाकाशादिगतरजोंशेभ्योमिलितेभ्य उत्पद्यते .. ८७..
इदं प्राणादिपञ्चकं कर्मेन्द्रियैः सहितं सत्प्राणमयकोशो भवति अस्य क्रियामकत्वेन रजोंशकार्यत्वम् .. ८८..
एतेषु कोशेषु मध्ये विज्ञानमयो ज्ञानशक्तिमान् कर्तृरूपः मनोमय इच्छाशक्तिमान् करणरूपः प्राणमयः क्रियाशक्तिमान् कार्यरूपः योग्यत्वादेवमेतेषां विभाग इति वर्णयन्ति एतत्कोशत्रयं मिलितं सत्सूक्ष्मशरीरमित्युच्यते .. ८९..
अत्राप्यखिलसूक्ष्मशरीरमेकबुद्धिविषयतया वनवज्जलाशयवद्वा समष्टिरनेकबुद्धिविषयतया वृक्षवज्जलवद्वा व्यष्टिरपि भवति .. ९०..
एतत्समष्ट्युपहितं चैतन्यं सूत्रात्मा हिरण्यगर्भः प्राणश्चेत्युच्यते सर्वत्रानुस्यूतत्वाज्ज्ञानेच्छाक्रियाशक्तिमदुपहितत्वाच्च .. ९१..
अस्यैषा समष्टिः स्थूलप्रपञ्चापेक्षया सूक्ष्मत्वात्सूक्ष्मशरीरं विज्ञानमयादिकोशत्रयं जाग्रद्वासनामयत्वात्स्वप्नोऽतएव
स्थूलप्रपञ्चलयस्थानमिति चोच्यते .. ९२..
एतद्व्यष्ट्युपहितं चैतन्यं तैजसो भवति तेजोमयान्तःकरणोपहितत्वात् .. ९३..
अस्यापीयं व्यष्टिः स्थूलशरीरापेक्षया सूक्ष्मत्वादिति हेतोरेव सूक्ष्मशरीरं विज्ञानमयादिकोशत्रयं ग्रद्वासनामयत्वात्स्वप्नोऽतएव स्थूलशरीरलयस्थानमिति चोच्यते .. ९४..
एतौ सूत्रात्मतैजसौ तदानीं मनोवृत्तिभिः सूक्ष्मविषयाननुभवतः "प्रविविक्तभुक्तेऐजसः "(माण्डू उ ३)इत्यदिश्रुतेः .. ९५..
अत्रापि समष्टिव्यष्ट्योस्तदुपहितसूत्रात्मतैजसयोर्वनवृक्षवत्तदव- च्छिन्नाकाशवच्च जलाशयजलवत्तद्गतप्रतिबिम्बाकाशवच्चाभेदः .. ९६..
एवं सूक्ष्मशरीरोत्पत्तिः .. ९७..
स्थूलभूतानि तु पञ्चीकृतानि .. ९८..
पञ्चीकरणं त्वाकाशादिपञ्चस्वेकैकं द्विधा समं विभज्य तेषु दशसु भागेषु प्राथमिकान्पञ्चभागान्प्रत्येकं
चतुर्धा समं विभज्य तेषां चतुर्णां भागानां स्वस्वद्वितीयार्धभागपरित्यागेन भागान्तरेषु योजनम् .. ९९..
तदुक्तम् -
"द्विधा विधाय चैकैकं चतुर्धा प्रथमं पुनः ..
स्वस्वेतरद्वितीयांशैर्योजनात्पञ्च पञ्चते .."इति .. .. १००..
अस्याप्रामाण्यं नाशङ्कनीयं त्रिवृत्करणश्रुतेः पञ्चीकरणस्याप्युपलक्षणत्वात् .. १०१..
पञ्चानां पञ्चात्मकत्वे समानेऽपि तेषु च "वैशेष्यात्तु तद्वादस्तद्वादः "(ब्र सू २ . ४ . २२ )
इति न्यायेनाकाशादिव्यपदेशः सम्भवति .. १०२..
तदानीमाकाशे शब्दोऽभिव्यज्यते वायौ शब्दस्पर्शावग्नौ शब्दस्पर्शरूपाण्यप्सु शब्दस्पर्शरूपरसाः पृथिव्यां
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाश्च .. १०३..
एतेभ्यः पञ्चीकृतेभ्यो भूतेभ्यो भूर्भुवःस्वर्महर्जनस्तपःसत्य-मित्येतन्नामकानामुपर्युपरिविद्यमानानामतलवितलसुतलरसातलतलातलमहातलपातालनामकानामधोऽधोविद्यमानानां
लोकानां ब्रह्माण्डस्य तदन्तर्गतचतुर्विधस्थूलशरीराणां तदुचितानामन्नपानादीनां चोत्पत्तिर्भवति .. १०४..
चतुर्विधशरीराणि तु जरायुजाण्डजस्वेदजोद्भिज्जाख्यानि .. १०५..
जरायुजानि जरायुभ्यो जातानि मनुष्यपश्वादीनि .. १०६..
अण्डजान्यण्डेभ्यो जातानि पक्षिपन्नगादीनि .. १०७..
स्वेदजानि स्वेदेभ्यो जातानि यूकमशकादीनि .. १०८..
उद्भिज्जानि भूमिमुद्भिद्य जातानि लतावृक्षादीनि .. १०९..
अत्रापि चतुर्विधसकलस्थूलशरीरमेकानेकबुद्धिविषयतया वनवज्जलाशयवद्वा समष्टिर्वृक्षवज्जलवद्वा व्यष्टिरपि भवति .. ११०..
एतत्समष्ट्युपहितं चैतन्यं वैश्वानरो विराडित्युच्यते सर्वनराभिमानित्वाद्विविधं राजमानत्वाच्च .. १११..
अस्यैषा समष्टिः स्थूलशरीरमन्नविकारत्वादन्नमयकोशः स्थूलभोगायतनत्वाच्च स्थूलशरीरं जाग्रदिति च व्यपदिश्यते .. ११२..
एतद्व्यष्ट्युपहितं चैतन्यं विश्व इत्युच्यते सूक्ष्मशरीराभिमानमपरित्यज्य स्थूलशरीरादिप्रविष्टत्वात् .. ११३..
अस्याप्येषा व्यष्टिः स्थूलशरीरमन्नविकारत्वादेव हेतोरन्नमयकोशो जाग्रदिति चोच्यते .. ११४..
तदानीमेतौ विश्ववैश्वानरौ दिग्वातार्कवरुणाश्विभिः क्रमान्नियन्त्रितेन श्रोत्रादीन्द्रियपञ्चकेन
क्रमाच्छब्दस्पर्शरूपरसगन्धानग्नीन्द्रोपेन्द्रयमप्रजापतिभिः क्रमान्नियन्त्रितेन वागादीन्द्रियपञ्चकेन
क्रमाद्वचनादानगमनविसर्गानन्दांश्चन्द्रचतुर्मुखशङ्कराच्युतैः क्रमान्नियन्त्रितेन मनोबुद्ध्यहङ्कारचित्ताख्येनान्तरेन्द्रियचतुष्केण क्रमात्सङ्कल्पनिश्चयाहङ्कार्यचैत्तांश्च सर्वानेतान्
स्थूलविषयाननुभवतः "जागरितस्थानो बहिःप्रज्ञः "(माण्डू उ ३) इत्यादिश्रुतेः .. ११५..
अत्राप्यनयोः स्थूलव्यष्टिसमष्ट्योस्तदुपहितविश्ववैश्वानरयोश्च वनवृक्षवत्तदवच्छिन्नाकाशवच्च जलाशयजलवत्तगतप्रतिबिम्बाकाशवच्च पूर्ववदभेदः .. ११६..
एवं पञ्चीकृतपञ्चभूतेभ्यः स्थूलप्रपञ्चोत्पत्तिः .. ११७..
एतेषां स्थूलसूक्षमकारणप्रपञ्चानामपि समष्टिरेको महान्प्रपञ्चो भवति यथावान्तरवनानां समष्टिरेकं महद्वनं भवति
यथा वावान्तरजलाशयानां समष्टिरेको महान् जलाशयः .. ११८..
एतदुपहितं वैश्वानरादीश्वरपर्यन्तं चैतन्यप्यवान्तरवनावच्छिन्नाकाशवदवान्तर जलाशयगतप्रतिबिम्बाकाशवच्चैकमेव .. ११९..
आभ्यां महाप्रपञ्चदुपहितचैतन्याभ्यां तप्तायपिण्डवदविविक्तं सदनुपहितं चैतन्यं "सर्वं खल्विदं ब्रह्म "(छान्द उ ३ . १४ . १) इति (महा )वाक्यस्य वाच्यं भवति विविक्तं सल्लक्ष्यमपि भवति .. १२०..
एवं वस्तुन्यवस्त्वारोपोऽध्यारोपः सामान्येन प्रदर्शितः .. १२१..

इदानीं प्रत्यगात्मनीदमिदमयमयमारोपयतीति विशेषत उच्यते .. १२२..
अतिप्राकृतस्तु "आत्मा वै जायते पुत्रः "इत्यादिश्रुतेः स्वस्मिन्निव पुत्रेऽपि प्रेमदर्शनात्पुत्रे पुष्टे नष्टे चाहमेव पुष्टो नष्टश्चेत्याद्यनुभवाच्च पुत्र आत्मेति वदति .. १२३..
चार्वाकस्तु "स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः "(तै उ २ . १ . १ ")इत्यादिश्रुतेः प्रदीप्तगृहात्स्वपुत्रं परित्यज्यापि स्वस्य निर्गमदर्शनात्स्थूलोऽहं कृशोऽहमित्याद्यनुभवाच्च स्थूलशरीरमात्मेति वदति .. १२४..
अपरश्चार्वाकः "ते ह प्राणाः प्रजापतिं पितरमेत्योचुः "(छा उ ५ . १ . ७ )
इत्यादिश्रुतेरिन्द्रियाणामभावे शरीरचलनाभावात्काणोऽहं बधिरोऽहमित्याद्यनुभवाच्चेन्द्रियाण्यात्मेति वदति .. १२५..
अपरश्चार्वाकः "अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः "(तै उ २ . २ . १ ) इत्यादिश्रुतेः प्राणाभाव इन्द्रियादिचलनायोगादहमशनायावानहं पिपासावानित्यादि अनुभवाच्च प्राण आत्मेति वदति .. १२६..
अन्यस्तु चार्वाकः "अन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः "(तै उ २ . ३ . १)इत्यादिश्रुतेर्मनसि सुप्ते प्राणादेरभावादहं सङ्कल्पवानहं विकल्पवानित्याद्यनुभवाच्च मन आत्मेति वदति .. १२७..
बौद्धस्तु "अन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः "(तै उ २ . ४ . १ )इत्यादिश्रुतेः कर्तुरभावे करणस्य शक्त्यभावादहं कर्ताहं भोक्तेत्याद्यनुभवाच्च बुद्धिरात्मेति वदति .. १२८..
प्राभाकरतार्किकौ तु "अन्योऽन्तर आत्मानन्दमयः "(तै उ २ . ५ . १ )इत्यादिश्रुतेर्बुद्ध्यादीनामज्ञाने लयदर्शनादहमज्ञोऽहमज्ञानीत्याद्यनुभवाच्चाज्ञानमात्मेति वदतः .. १२९..
भाटस्तु "प्रज्ञानघन एवानन्दमयः "(माण्डू उ ५ )इत्यादिश्रुतेः सुषुप्तौ प्रकाशाप्रकाशसद्भावान्मामहं न जानामीत्याद्यनुभवाच्चाज्ञानोपहितं चैतन्यमात्मेति वदति .. १३०..
अपरो बौद्धः "असदेवेदमग्र आसीत् "(छा उ ६ . २ . १ )इत्यादिश्रुतेः सुषुप्तौ सर्वाभावादहं सुषुप्तौ नासमित्युत्थितस्य स्वाभावपरामर्शविषयानुभवाच्च शून्यमात्मेति वदति .. १३१..
एतेषां पुत्रादीनामनात्मत्वमुच्यते .. १३२..
एतैरतिप्राकृतादिवादिभिरुक्तेषु श्रुतियुक्त्यनुभवाभासेषु पूर्वपूर्वोक्तश्रुतियुक्त्यनुभवाभासानामुत्तरोत्ततरश्रुतियुक्त्यनुभवाभासै-
रात्मत्वबाधदर्शनात्पुत्रादीनामनात्मत्वं स्पष्टमेव .. १३३..
किञ्च प्रत्यगस्थूलोऽचक्षुरप्राणोऽमना अकर्ता चैतन्यं चिन्मात्रं सदित्यादिप्रबलश्रुतिविरोधादस्य पुत्रादिशून्यपर्यन्तस्य जडस्य चैतन्यभास्यत्वेन घटादिवदनित्यत्वादहं ब्रह्मेति विद्वदनुभवप्राबल्याच्च तत्तच्छ्रुतियुक्त्यनुभवभासानां
बाधितत्वादपि पुत्रादिशून्यपर्यन्तमखिलमनात्मैव .. १३४..
अतस्तत्तद्भासकं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तसत्यस्वभावं प्रत्यक्चैतन्यमेवात्मवस्त्विति वेदान्तविद्वदनुभवः .. १३५..
एवमध्यारोपः .. १३६..

अपवादो नाम रज्जुविवर्तस्य सर्पस्य रज्जुमात्रत्ववद्वस्तुविवर्तस्यावस्तुनोऽज्ञानादेः प्रपञ्चस्य वस्तुमात्रत्वम् .. १३७..
तदुक्तम् -
"सतत्त्वतोऽन्यथाप्रथा विकार इत्युदीरितः .अतत्त्वतोऽन्यथाप्रथा विवर्त इत्युदीरितः .. "इति .. १३८..
तथाहि एतद्भोगायतनं चतुर्विधसकलस्थूलशरीरजातं भोग्यरूपान्नपानादिकमेतदायतनभूतभूरादिचतुर्दशभुवनान्येतदायतनभूतं ब्रह्माण्डं चैतत्सर्वमेतेषां कारणरूपं पञ्चीकृतभूतमात्रं भवति .. १३९..
एतानि शब्दादिविषयसहितानि पञ्चीकृतानि भूतानि सूक्ष्मशरीरजातं चैतत्सर्वमेतेषां कारणरूपापञ्चीकृतभूतमात्रं भवति .. १४०..
एतानि सत्त्वादिगुणसहितान्यपञ्चीकृतान्युत्पत्तिव्युत्क्रमेणैतत्कारणभूताज्ञानोपहितचैतन्यमात्रं भवति .. १४१..
एतदज्ञानमज्ञानोपहितं चैतन्यं चेश्वरादिकमेतदाधारभूतानुपहितचैतन्यरूपं तुरीयं ब्रह्ममात्रं भवति .. १४२..
आभ्यामध्यारोपापवादाभ्यां तत्त्वम्पदार्थशोधनमपि सिद्धं भवति .. १४३..
तथाहि - अज्ञानादिसमष्टिरेतदुपहितं सर्वज्ञत्वादिविशिष्टं चैतन्यमेतदनुपहितं चैतत्त्रयं तप्तायःपिण्डवदेकत्वेनावभासमानं
तत्पदवाच्यार्थो भवति .. १४४..
एतदुपाध्युपहिताधारभूतमनुपहितं चैतन्यं तत्पदलक्ष्यार्थोभवति .. १४५..
अज्ञानादिव्यष्टिरेतदुपहिताल्पज्ञत्वादिविशिष्टचैतन्यमेतदनुपहितं चैतत्त्रयं तप्तायःपिण्डवदेकत्वेनावभासमानं
त्वम्पदवाच्यार्थो भवति .. १४६..
एतदुपाध्युपहिताधारभूतमनुपहितं प्रत्यगानन्दं तुरीयं चैतन्यं त्वम्पदलक्ष्यार्थो भवति .. १४७..
अथ महावाक्यार्थो वर्ण्यते . इदं तत्त्वमसिवाक्यं सम्बन्धत्रयेणाखण्डार्थबोधकं भवति .. १४८..
सम्बन्धत्रयं नाम पदयोः सामानाधिकरण्यं पदार्थयोर्विशेषणविशेष्यभावः प्रत्यगात्मलक्षणयोर्लक्ष्यलक्षणभावश्चेति .. १४९..
तदुक्तम् -
"सामानाधिकरण्यं च विशेषणविशेष्यता .लक्ष्यलक्षणसम्बन्धः पदार्थप्रत्यगात्मनाम् .. "इति .. १५०..
सामानाधिकरण्यसम्बन्धस्तावद्यथा सोऽयं देवदत्त इत्यस्मिन्वाक्ये तत्कालविशिष्टदेवदत्तवाचकसशब्दस्यैतत्कालविशिष्टदेवदत्तवाचकायंशब्दस्य चैकस्मिन्पिण्डे तात्पर्यसम्बन्धः तथा च
तत्त्वमसीति वाक्येऽपि परोक्षत्वादिविशिष्टचैतन्यवाचकतत्पादस्यापरोक्षत्वादि विशिष्टचैतन्यवाचकत्वम्पदस्य चैकस्मिंश्चैतन्ये तात्पर्यसम्बन्धः .. १५१..
विशेषणविशेष्यभावसम्बन्धस्तु यथा तत्रैव वाक्ये सशब्दार्थतत्कालविशिष्टदेवदत्तस्यायंशब्दार्थेतत्कालविशिष्टदेवदत्तस्य
चान्योन्यभेदव्यावर्तकतया विशेषणविशेष्यभावः .तथात्रापि वाक्ये तत्पदार्थपरोक्षत्वादिविशिष्टचैतन्यस्य त्वम्पदार्थापरोक्षत्वादिविशिष्टचैतन्यस्य चान्योन्यभेदव्यावर्तकतया विशेषणविशेष्यभावः .. १५२..
लक्ष्यलक्षणसम्बन्धस्तु यथा तत्रैव सशब्दायंशब्दयोस्तदर्थयोर्वा विरुद्धतत्कालैतत्कालविशिष्टत्वपरित्यागेनाविरुद्धदेवदत्तेन सह लक्ष्यलक्षणभावः तथात्रापि वाक्ये तत्त्वम्पदयोस्तदर्थयोर्वा विरुद्धपरोक्षत्वापरोक्षत्वादि- विशिष्टत्वपरित्यागेनाविरुद्धचैतन्येन सह लक्ष्यलक्षणभावः .. १५३..
इयमेव भागलक्षणेत्युच्यते .. १५४..
अस्मिन्वाक्ये नीलमुत्पलमिति वाक्यवद्वाक्यार्थो न सङ्गच्छते .. १५५..
तत्र तु नीलपदार्थनीलगुणस्योत्पलपदार्थोत्पलद्रव्यस्य च
शौक्ल्यपटादिभेदव्यावर्तकतयान्योन्यविशेषणविशेष्य-
रूपसंसर्गस्यान्यतरविशिष्टस्यान्यतरस्य तदैक्यस्य वा
वाक्यार्थत्वाङ्गीकारे प्रमाणान्तरविरोधाभावात्तद्वाक्यार्थः सङ्गच्छते .. १५६..
अत्र तु तत्पदार्थपरोक्षत्वादिविशिष्टचैतन्यस्य त्वंपदार्थापरोक्षत्वादिविशिष्टचैतन्यस्य चान्योन्यभेदव्यावर्तकतया
विशेषणविशेष्यभावसंसर्गस्यान्यतरविशिष्टस्यान्यतरस्य तदैक्यस्य वा वाक्यार्थत्वाङ्गीकारे प्रत्यक्षादिप्रमाणविरोधाद्वाक्यार्थो न सङ्गच्छते .. १५७..
तदुक्तम् -
"संसर्गो वा विशिष्टो वा वाक्यार्थो नात्र सम्मतः .
अखण्डैकरसत्वेन वाक्यार्थो विदुषां मतः .. "इति (पञ्चदशी ७|७५ ).. १५८..
अत्र गङ्गायां घोषः प्रतिवसतीतिवाक्यवज्जहल्लक्षणापि न सङ्गच्छते .. १५९..
तत्र तु गङ्गाघोषयोराधाराधेयभावलक्षणस्य वाक्यार्थस्याशेषतो विरुद्धत्वाद्वाक्यार्थमशेषतः परित्यज्य तत्सम्बन्धितीरलक्षणाया युक्तत्वाज्जहल्लक्षणा सङ्गच्छते .. १६०..
अत्र तु परोक्षापरोक्षचैतन्यैकत्वलक्षणस्य वाक्यार्थस्य भागमात्रे विरोधाद्भागान्तरमपि
परित्यज्यान्यलक्षणाया अयुक्तत्वाज्जहल्लक्षणा न सङ्गच्छते .. १६१..
न च गङ्गापदं स्वार्थपरित्यागेन तीरपदार्थं यथा लक्षयति तथा तत्पदं त्वंपदं वा
स्वार्थपरित्यागेन त्वंपदार्थं तत्पदार्थं वा लक्षयत्वतः कुतो जहल्लक्षणा न सङ्गच्छत इति वाच्यम् .. १६२..
तत्र तीरपदाश्रवणेन तदर्थाप्रतीतौ लक्षणया तत्प्रतीत्यपेक्षायामपि तत्त्वंपदयोः श्रूयमाणत्वेन
तदर्थप्रतीतौ लक्षणया पुनरन्यतरपदेनान्यतर- पदार्थप्रतीत्यपेक्षाभावात् .. १६३..
अत्र शोणो धावतीतिवाक्यवदजहल्लक्षणापि न सम्भवति .. १६४..
तत्र सोणगुणगमनलक्ष्णस्य वाक्यार्थस्य विरुद्धत्वात्तदपरित्यागेन तदाश्रयाश्वादिलक्षणया तद्विरोधपरिहारसम्भवादजहल्लक्षणा सम्भवति .. १६५..
अत्र तु परोक्षत्वापरोक्षत्वादिविशिष्टचैतन्यैकत्वस्य वाक्यार्थस्य विरुद्धत्वात्तदपरित्यागेन तत्सम्बन्धिनो यस्य
कस्यचिदर्थस्य लक्षितत्वेऽपि तद्विरोधपरिहारासम्भवा- दजहल्लक्षणा न सम्भवत्येव .. १६६..
न च तत्पदं त्वंपदं वा स्वार्थविरुद्धांशपरित्यागेनां- शान्तरसहितं त्वंपदार्थं तत्पदार्थं वा लक्षयत्वतः
कथं प्रकारान्तरेण भागलक्षणाङ्गीकरणमिति वाच्यम् .. १६७..
एकेन पदेन स्वार्थांशपदार्थान्तरोभयलक्षणाया असम्भवात्पदान्तरेण तदर्थप्रतीतौ लक्षणया
पुनस्तत्प्रतीत्यपेक्षाभावाच्च .. १६८..
तस्माद्यथा सोऽयं देवदत्त इति वाक्यं तदर्थो वा तत्कालैतत्कालविशिष्टदेवदत्तलक्षणस्य वाक्यार्थस्यांशे
विरोधाद्विरुद्धतत्कालैतत्कालविशिष्टांशं परित्यज्याविरुद्धं देवदत्तंशमात्रं लक्षयति तथा तत्त्वमसीतिवाक्यं तदर्थो वा
परोक्षत्वापरोक्षत्वादिविशिष्टचैतन्यैकत्वलक्षणस्य वाक्यार्थस्यांशे विरोधाद्विरुद्धपरोक्षत्वापरोक्षत्वविशिष्टांशं
परित्यज्याविरुद्धमखण्डचैतन्यमात्रं लक्षयतीति .. १६९..
अथाधुनाहं ब्रह्मास्मि (बृ उ १ . ४ . १० )
इत्यनुभववाक्यार्थो वर्ण्यते .. १७०..
एवमाचार्येणाध्यारोपापवादपुरःसरं तत्त्वंपदार्थौ शोधयित्वा वाक्येनाखण्डार्थेऽवबोधितेऽधिकारिणोऽहं
नित्यशुद्धबुद्धमुक्तसत्यस्वभावपरमानन्दानन्ताद्वयं ब्रह्मास्मीत्यखण्डाकाराकारिता चित्तवृत्तिरुदेति .. १७१..
सा तु चित्प्रतिबिम्बसहिता सती प्रत्यगभिन्नमज्ञातं परंब्रह्म विषयीकृत्य तद्गताज्ञानमेव बाधते तदा पटकारणतन्तुदाहे
पटदाहवदखिलकारणेऽज्ञाने बाधिते सति तत्कार्यस्याखिलस्य बाधितत्वात्तदन्तर्भूताखण्डाकाराकारिता चित्तवृत्तिरपि बाधिता भवति .. १७२..
तत्र प्रतिबिम्बितं चैतन्यमपि यथा दीपप्रभादित्यप्रभावभासनासमर्था
सती तयाभिभूता भवति तथा स्वयंप्रकाशमानप्रत्यगभिन्नपरब्रह्मावभासनानर्हतया
तेनाभिभूतं सत् स्वोपाधिभूताखण्डवृत्तेर्बाधितत्वाद्दर्पणाभावे मुखप्रतिबिम्बस्य मुखमात्रत्ववत्प्रत्यगभिन्नपरब्रह्ममात्रं भवति .. १७३..
एवं च सति "मनसैवानुद्रष्टव्यम् "(बृ उ ४ . ४ . १९ )"यन्मनसा न मनुते "
(के उ १ . ५ )इत्यनयोः श्रुत्योरविरोधो वृत्तिव्याप्यत्वाङ्गीकारेण फलव्याप्यत्वप्रतिषेधप्रतिपादनात् .. १७४..
तदुक्तम् -
"फलव्याप्यत्वमेवास्य शास्त्रकृद्भिर्निवारितम् .
ब्रह्मण्यज्ञाननाशाय वृत्तिव्याप्तिरपेक्षिता .. "इति (पञ्चदशी ६ . ९० ).. १७५..
"स्वयंप्रकाशमानत्वान्नाभास उपयुज्यते . "इति च (पञ्चदशी ६ . ९२ ).. १७६..
जडपदार्थाकाराकारितचित्तवृत्तेर्विशेषोऽस्ति .. १७७..
तथाहि . अयं घट इति घटाकाराकारितचित्तवृत्तिरज्ञातं घटं विषयीकृत्य तद्गताज्ञाननिरसनपुरःसरं स्वगतचिदाभासेन
जडं घटमपि भासयति .. १७८..
तदुक्तं -
"बुद्धितस्थचिदाभासौ द्वावपि व्याप्नुतो घटम् .
तत्राज्ञानं धिया नश्येदाभासेन घटः स्फुरेत् .. "इति . (पञ्चदशी ७ . ९१ ).. १७९..
यथा दीपप्रभामण्डलमन्दकारगतं घटपटादिकं विषयीकृत्य तद्गतान्धकारनिरसनपुरःसरं स्वप्रभया तदपि भासयतीति .. १८०..

एवं भूतस्वस्वरूपचैतन्यसाक्षात्कारपर्यन्तं श्रवणमनन- निदिध्यासनसमाध्यनुष्ठानस्यापेक्षितत्वात्तेऽपि प्रदर्श्यन्ते .. १८१..
श्रवणं नाम षड्विधलिङ्गैरशेषवेदान्तानामद्वितीयवस्तुनि तात्पर्यावधारणम् .. १८२..
लिङ्गानि तूपक्रमोपसंहाराभ्यासापूर्वताफलार्थवादोपपत्त्याख्यानि .. १८३..
तदुक्तम् -
"उपक्रमोपसंहारावभ्यासोऽपूर्वताफलम् .
अर्थवादोपपत्ती च लिङ्गं तात्पर्यनिर्णये .. ".. १८४..
प्रकरणप्रतिपाद्यस्यार्थस्य तदाद्यन्तयोरुपपादनमुपक्रमोपसंहारौ .
यथा छान्दोग्ये षष्ठाध्याये प्रकरणप्रतिपाद्यस्याद्वितीयवस्तुन
"एकमेवाद्वितीयम् "(६ . २ . १ )इत्यादौ "ऐतदात्म्यमिदं सर्वम् "(६ . ८ . ७ )
इत्यन्ते च प्रतिपादनम् .. १८५..
प्रकरणप्रतिपाद्यस्य वस्तुनस्तन्मध्ये पौनःपुन्येन
प्रतिपादनमभ्यासः . यथा तत्रैवाद्वितीयवस्तुनि मध्ये
तत्त्वमसीति नवकृत्वः प्रतिपादनम् .. १८६..
प्रकरणप्रतिपाद्यस्याद्वितीयवस्तुनः प्रमाणान्तरा-
विषयीकरणमपूर्वता . यथा तत्रैवाद्वितीयवस्तुनो
मानान्तराविषयीकरणम् .. १८७..
फलं तु प्रकरणप्रतिपाद्यस्यात्मज्ञानस्य तदनुष्ठानस्य
वा तत्र तत्र श्रूयमाणं प्रयोजनम् . यथा तत्र "आचार्यवान्पुरुषो वेद तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्येथ सम्पत्स्ये "(६ | १४ |२ )
इत्यद्वितीयवस्तुज्ञानस्य तत्प्राप्तिः प्रयोजनं श्रूयते .. १८८..
प्रकरणप्रतिपाद्यस्य तत्र तत्र प्रशंसनमर्थवादः .यथा तत्रैव "उत तमादेशमप्राक्ष्यो येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं
मतमविज्ञातं विज्ञातम् "(६ | १ | ३ )इत्यद्वितीयवस्तुप्रशंसनम् .. १८९..
प्रकरणप्रतिपाद्यार्थसाधने तत्र तत्र श्रुयमाणा युक्तिरुपपत्तिः . यथा तत्र "यथा सौम्येक्यैन मृत्पिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातं
स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् "(६| १ | ४ )
इत्यादावद्वितीयवस्तुसाधने विकारस्य वाचारम्भणमात्रत्वे युक्तिः श्रूयते .. १९०..
मननं तु श्रुतस्याद्वितीयवस्तुनो वेदान्तानुगुणयुक्तिभिरनवरतमनुचिन्तनम् .. १९१..
विजातीयदेहादिप्रत्ययरहिताद्वितीयवस्तुसजातीयप्रत्ययप्रवाहो निदिध्यासनम् .. १९२..
समाधिर्द्विविधः सविकल्पको निर्विकल्पश्चेति .. १९३..
तत्र सविकल्पको नाम ज्ञातृज्ञानादिविकल्पलयानपेक्षयाद्वितीयवस्तुनि
तदाकाराकारितायाश्चित्तवृत्तेरवस्थानम् .. १९४..
तदा मृण्मयगजादिभानेऽपि मृद्भानवद्द्वैतभानेऽप्यद्वैतं वस्तु भासते .. १९५..
तदुक्तम् -
"दृशिस्वरूपं गगनोपमं परम्
सकृद्विभातं त्वजमेकमक्षरम् .
अलेपकं सर्वगतं यदद्वयम्
तदेव चाहं सततं विमुक्तमोम् .. "इति
(उपदेशसाहस्री ७३| १०| १ ).. १९६..
निर्विकल्पकस्तु ज्ञातृज्ञानादिविकल्पलयापेक्षयाद्वितीयवस्तुनि
तदाकाराकारितायाश्चित्तवृत्तेरतितरामेकीभावेनावस्थानम् .. १९७..
तदा तु जलाकाराकारितलवणानवभासेन जलमात्रावभासवदद्वितीय-
वस्त्वाकाराकारितचित्तवृत्त्यनवभासेनाद्वितीयवस्तुमात्रमवभासते .. १९८..
ततश्चास्य सुषुप्तेश्चाभेदशङ्का न भवति . उभयत्र वृत्त्यभाने
समानेऽपि तत्सद्भावासद्भावमात्रेणानयोर्भेदोपपत्तेः .. १९९..
अस्याङ्गानि यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयः .. २००..
तत्र "अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ".. २०१..
"शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः "..२०२..
करचराणदिसंस्थानविशेषलक्षणानि पद्मस्वस्तिकादीन्यासनानि .. २०३..
रेचकपूरककुम्भकलक्षणाः प्राणनिग्रहोपायाः प्राणायामाः .. २०४..
इन्द्रियाणां स्वस्वविषयेभ्यः प्रत्याहरणं प्रत्याहारः .. २०५..
अद्वितीयवस्तुन्यन्तरिन्द्रियधारणं धारणा .. २०६ ..
तत्राद्वितीयवस्तुनि विच्छिद्य विच्छिद्यान्तरिन्द्रियवृत्तिप्रवाहो ध्यानम् .. २०७..
समाधिस्तूक्तः सविकल्पक एव .. २०८..
एवमस्याङ्गिनो निर्विकल्पकस्य लयविक्षेपकषायरसास्वादलक्षणाश्चत्वारो
विघ्नाः सम्भवन्ति .. २०९..
लयस्तावदखण्डवस्तनवलम्बनेन चित्तवृत्तेर्निद्रा .. २१०..
अखण्डवस्त्वनवलम्बनेन चित्तवृत्तेरन्यावलम्बनं विक्षेपः .. २११..
लयविक्षेपाभावेऽपि चित्तवृत्तेर्रागादिवासनया
स्तब्धीभावादखण्डवस्त्वनवलम्बनं कषायः .. २१२..
अखण्डवस्त्वनवलम्बनेनापि चित्तवृत्तेः सविकल्पकानन्दास्वादनं
रसास्वादः . समाध्यारम्भसमये सविकल्पकानन्दास्वादनं वा .. २१३..
अनेन विघ्नचतुष्टयेन विरहितं चित्तं निर्वातदीपवदचलं
सदखण्डचैतन्यमात्रमवतिष्ठते यदा तदा निर्विकल्पकः
समाधिरित्युच्यते .. २१४..
यदुक्तम् -
"लये सम्बोधयेच्चितं विक्षिप्तं शमयेत्पुनः .
सकषायं विजानीयात्समप्राप्तं न चालयेत् ..
नास्वादयेद्रसं तत्र निःसङ्गः प्रज्ञया भवेत् "इति च
(गौडपादकारिका ३ | ४४- ४५ )
"यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता "इति च
(गीता ६ - १९ ).. २१५..

अथ जीवन्मुक्तलक्षणमुच्यते .. २१६..
जीवन्मुक्तो नाम स्वस्वरूपाखण्डब्रह्मज्ञानेन
तदज्ञानबाधनद्वारा स्वस्वरूपाखण्डब्रह्मणि
साक्षात्कृतेऽज्ञानतत्कार्यसञ्चितकर्मसंशयविपर्ययादीनामपि
बाधितत्वादखिलबन्धरहितो ब्रह्मनिष्ठः .. २१७..
"भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः .
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे .. "
इत्यादिश्रुतेः (मुण्ड उ २ | २ | ८ ).. २१८..
अयं तु व्युत्थानसमये मांसशोणितमूत्रपुरीषादिभाजनेन
शरीरेणान्ध्यमान्द्यापटुत्वादिभाजनेनेद्रियग्रामेणाशना-
पिपासाशोकमोहादिभाजनेनान्तःकरणेन च पूर्वपूर्ववासनया
क्रियामाणानि कर्माणि भुज्यमानानि ज्ञानाविरुद्धारब्धफलानि
च पश्यन्नपि बाधितत्वात्परमार्थतो न पश्यते . यथेन्द्रजालमिति
ज्ञानवांस्तदिन्द्रजालं पश्यन्नपि परमार्थमिदमिति न पश्यति .. २१९..
"सचक्षुरचक्षुरिव सकर्णोऽकर्ण इव "इत्यादिश्रुतेः .. २२०..
उक्तञ्च -
"सुषुप्तवज्जाग्रति यो न पश्यति
द्वयं च पश्यन्नपि चाद्वयत्वतः ..
तथा च कुर्वन्नपि निष्क्रियश्च यः
स आत्मविन्नान्य इतीह निश्चयः .. "इति (उपदेशसाहस्री ५ ).. २२१..
अथ ज्ञानात्पूर्वं विद्यमानानामेवाहारविहारादीनामनुवृत्तिव-
च्छुभवासनानामेवानुवृत्तिर्भवति शुभाशुभयोरौदासीन्यं वा .. २२२..
तदुक्तम् . -
"बुद्धाद्वैतसतत्त्वस्य यथेष्टाचराणं यदि .
शुनां तत्त्वदृशाञ्चैव को भेदोऽशुचिभक्षणे .. "इति (नैष्कर्म्यसिद्धिः ४ | ६२ ]
"ब्रह्मवित्तं तथा मुक्त्वा स आत्मज्ञो न चेतरः .. )"इति च (उपदेशसाहस्री ११५ ).. २२३..
तदानीममानित्वादीनि ज्ञानसाधनान्यद्वेष्ट्टत्वादयः सद्गुणाश्चालङ्कारवदनुवर्तन्ते .. २२४..
तदुक्तम् -
"उत्पन्नात्मावबोधस्य ह्यद्वेष्ट्टत्वादयो गुणाः .
अयत्नतो भवन्त्यस्य न तु साधनरूपिणः .. "इति (नैष्कर्म्यसिद्धिः ४ | ६९ ).. २२५..
किं बहुनायं देहयात्रामात्रार्थमिच्छानिच्छा-
परेच्छाप्रापितानि सुखदुःखलक्षणान्यारब्ध-
फलान्यनुभवन्नन्तःकरणाभासादीनामवभासकः
संस्तदवसाने प्रत्यगानन्दपरब्रह्मणि प्राणे लीने
सत्यज्ञानतत्कार्यसंकाराणामपि विनाशात्परमकैवल्य-
मानन्दैकरसमखिलभेदप्रतिभासरहितमखण्डब्रह्मावतिष्ठते .. २२६..
"न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति "(बृ उ ४ . ४ . ६ )
"अत्रैव समवनीयन्ते "(बृ उ ३ . २ . ११ )
"विमुक्तश्च विमुच्यते "(कठ उ ५ . १ )इत्यादिश्रुतेः .. २२७..
इति सदानन्द योगीन्द्र विरचितो वेदान्तसारनाम ग्रन्थः समाप्तः .





१८ unmesh


SANATAN DHARAM COLLEGE [LAHORE], AMBALA CANNT
NATIONAL SEMINAR
“SOCIAL PHILOSOPHY OF DHARAM-SHASTRAS AND INDIAN MIND”
*/keZ’kkL=ksa dk lekt n’kZu vkSj Hkkjrh; ekul*
27th- 28th October, 2006.
Sponsored by- HARYANA SANSKRIT ACADEMY

Dear _________________________,

JqfrLrq osnks foKs;ks /keZ’kkL=a rq oS Le`fr%A RkSk lokZFksZ”oehekaL;kS rkH;ka /keksZ fg fucZHkkSAA euqLe`fr]2& 10
An understanding of the philosophical foundations of Indian mind; its nature and meaning as revealed in its Shruti and Smriti traditions, which is integral to Indianness and shows that the growth and development of Indian mind is a result of constant interaction and mutual influence of the two traditions. Indian world view, meaning of Dharma as religion, man’s understanding of his own existence and reality, conception of divine, destiny are the major source of unity of diverse sects and sub-traditions. Though little attention has been paid to Smriti tradition but its influence can not be undermined because what does Shruti tradition stand for, is a matter of interpretation and every interpretation is influenced by various factors, individual, social and historical. The Smriti tradition, which accepts the authority of Shruti, is also an interpretation and at the same time, has its own identity due to its independent origin. While Shruti is the stable aspect of Indian mind which is not effected by time, space or any other circumstances, gives identity, character, and essence to Indian consciousness and Smriti tradition is the dynamic aspect of Indian mind by motivating growth and development and thus forms its body. Thus Smriti is not a closed or stagnant tradition, it has been ever changing in accordance with yug-dahrama and ever growing. The main object or purpose of Smriti tradition is to adapt the Vedic wisdom to changing Indian society- vU;s d`r;qxs /kekZL=srk;ka }kijs ;qxsA vU;s dfy;qxs u`.kka ;qx:wikuqlkjr%AA ;qxs”okorZekus”kq /keksZ∙I;korZrs iqu%A /kesZ”okorZekus”kq yksdks ∙I;korZrs iqu%AA Jqfr’p ‘kkSpekpkj%% izfrdkya fofHkrsA ukuk/keZk% izorZUrs ekuokuka ;qxs ;qxsAAThe Smriti tradition which primarily represents the Pauranic and Agamic sensibility, addresses itself to the task of adapting every individual in its fold by bringing them in the main stream of Indian consciousness. All criticism, attacks and protests against Smriti and Smriti form of religious life and worship, its ritualistic form of religious life, is not open to all. But does that mean that those who were denied samskaars are not Hindu and have no religious life of their own? Lot more questions regarding culture, human existence, humanity etc. are out there that need to be addressed and discussed.
Moreover of all the constructed constitutions, behavioural patterns of all the human race at the national and international level does not go beyond the exclusive definition of the Dharma Shastras as all the constitutions, behaviours etc. basically give systematic direction to the human behaviour at individual and collective level, in which healthy human being, sound mentality along with sound and safe society may be created. There can be many bases for this construction – spirituality, scientific temper, logic, natural justice etc. but in Indian tradition, spirituality had been the substratum of Dharma Shatra- like Manu Smriti, Yajnavalkya Smriti. We may find so many faults with the practical system but we can not ignore its existence in India and world over. It is hardly any question that extraversion is the predominant attitude of the westerner and the modern Indian, whereas the east and the ancient wisdom owes the depths of its philosophy and practice to an almost exclusively introverted approach. One could therefore by the law of identity of the soul, except that the Indian having been a born introvert his approach would of necessity show a lot of congruencies with the modern way to individuation.
In the context of these treatises, too many issues like caste system, judiciary, woman identity, human rights, and environmental consciousness pose challenges not only to the Sanskrit scholars but also to the intellectuals of other subjects- Law, sociology, psychology, anthropology, philosophy and political science. What is the reality of these treatises? What is there basic vision or their approach towards the above said issues- all this need to be discussed among the scholars like you.
So we request you to present a paper of your choice on any one of the following themes or choose a different topic of your own choice related to main theme of the seminar.

Suggested topics-

· Le`fr&xzUFkksa esa lkekftd U;k; dh vo/kkj.kk Hkkjrh; lafo/kku vkSj Le`frxzUFk
· Le`frxzUFkksa esa uSfrd ewY;ksa dh ehekalk Le`frxzUFkksa dk L=h ds izfr n`f”Vdks.k
· /keZ’kkL=ksa esa tkfrO;oLFkk dk fopkj /keZ’kkL= esa yksdrU= vkSj jkT;&O;oLFkk
· /keZ’kkL=ksa esa ‘kwnz O;oLFkk dk Lo:i /keZ’kkL=ksa esa jktO;ogkj@ iz’kklu
· /keZ’kkL=ksa esa U;k;& O;oLFkk dk Lo:i /keZ’kkL=ksa esa vkJe& O;oLFkk dk Lo:i
· /keZ’kkL=ksa esa iqutZUe ,oe~ deZ& O;oLFkk /keZ’kkL= vkSj LokrU=~;ksRrj lkfgR;
· /keZ’kkL=h; yksdO;ogkj dk Lo:i
· /keZ’kkL=h; laLdkjksa dk Lo:i ,oe~ euksoSKkfud vo/kkj.kk,a
· Le`frxzUFkksa ds nk’kZfud fln~/kkUr ,oe~ fgUnh e/;dkyhu lkfgR;
· /keZ’kkL=h; nSufUnu O;ogkj dk Lo:i ,oe~ O;fDr LokrU=~;
Relationship of Shruti and Smriti
Philosophical foundations of Smritri
Dharma Sutras as foundation of Smriti Granthas
Environmental consciousness in Dharma Shatras
Dharma as corrective method/ agent of Artha and Kaama
Rethinking Women in Dharma Shastra
Treatment of Art and Philosophy in Dharma Shastra
Yoga and Dharma Shastra
Educational system of Dharma shastra and Modern education
Varna / jaati and vyavastha in Dharma Shastra
Judicial system of Dharma Shastra and present judiciary
Modern Hindu law and Dharma in Smriti Granths
Dharma vs. religion/ sectarian thinking in Smriti Granthas
Fundamentals of management in Smriti Granthas
Administrative practices of Smriti Granthas and public administration
World view of Bauddha Dharma Shastras and Smriti Granthas
Moral practices in Jain Dharam Sutras and Smriti Granthas
Influences of Pauranik thinking on Dharma shastras
Family institution in Smriti Granthas and Individual identity
Influences of foreign invasions on Smriti Granthas
Smriti consciousnesses in Indian English writings

17 unmesh


A Two–Days
National Seminar
on
Pilgrimage Tourism in India
(Past Present and Future)
Hkkjr esa rhFkZi;ZVu@rhFkZ;k=k
(Hkwr] orZeku ,oe~ Hkfo";)
Sponsored by UGC
March 12 - 13 , 2008

Dear Sir/Madam ...............................................,
Departments of Commerce, History and Sanskrit of this college cordially invite you to participate and present a paper in a two–days National Seminar being held on the above said date. You are requested to send an advance copy of your paper (one hard copy and one soft copy in Page Maker 6.5/7 or MS-Office, Font : Arial Unicode 12 pts. in English or 14 Pts. Hindi or e-mail only) along with Abstract as we are going to publish them before the seminar.
We invite you to deliberate on this topic in the light of your own experiences and the subject you are presently teaching. It is our humble objective to evaluate the concept of Pilgrimage Tourism through an inter–disciplinary observations and find a better needful understanding. We are sure that such an interaction between different subjects and individuals can raise hope for a better future where Pilgrimage tourism and cultural ethos may exist in real sense.
You are kindly requested to choose a topic of your conviction and convenience.
Kindly submit your paper latest by Feb. 10,2008.
You will be provided boarding and lodging.
Delegation fee : Rs 200 e-mail : sd.sanskrit@yahoo.co.in



Pilgrimage Tourism in India
(Past, Present and Future)
Hkkjr esa rhFkZi;ZVu@rhFkZ;k=k
(Hkwr] orZeku ,oe~ Hkfo";)

Idea of the seminar
Tourism in India has not only established itself as an industry by providing economic and commercial opportunities to the people but also work as a strong pillar for democratic norms, national integration and secular-values, education methodology and social behavior. Not only this, tourism also work as a corrective method to the issue of the identity to the religious groups, adventure loving groups and other economic groups of the society. Keeping in view the different dimensions of the tourism one must be aware about the basic socio-cultural and economic background because only then sensible policies can be framed so that tourism should be a tool to positive socio-economic change and not an unplanned industry. Tourism as an industry must not be allowed to play havoc with the environment, of local ways of life-style and living. Unplanned tourism development is neither good for the country nor for the people. The government policies must fall in line with the Indian norms, values and identity. Tourism of late has been a tool of economic development and has been able to generate lots of business opportunities but what price we as a nation, society and environmentalist are paying. Comprehensive guidelines for tourism are the need of the hour only then tourism would be able to sell itself to the tourist — foreigner or local because tourist is interested either peace and comfort or adventure or the mystery of the place.
India as country and as a culture certainly mystifies not only foreigners but also locals too because from geographical point of view it offers lots of unexplored places and from cultural angle it mesmerizes, so looking from the philosophical angle one needs to understand what makes India so interesting. What makes India to survive even after all invasions - external and internal, modem and ancient, in the history of mankind? Of so many reasons one reason which has helped to sustain India and its identity is the pilgrimage which has very long tradition in the terms of history, mythology, religious rituals and places. One needs to investigate the philosophical, psychological and sociological practices of this Indian Pilgrimage Tourism in order to make the tourism policies more sensible, practical and accountable.
Pilgrimage means a journey to a so called sacred place and a person who makes a journey to that place is known as a 'Pilgrim'. In Hindi Pilgrimage means ‘Tirth Yatra.’ The place of Pilgrimage is referred as Pilgrim centre or ‘Tirth Esthan’. The importance of Pilgrimage is recognized by almost all religions of the world though the meaning and nature of Pilgrimage varies from individual to individual and from religion to religion and region to region.
India is a secular country that is a land of many religions like Hinduism, Islam, Sikhism, Christianity, Jainism, Buddhism etc. Every religion has its own Pilgrim centers and these are spread through out the length and breadth of the country. For Example famous Hindu Pilgrimages include Amamath, Char Dham Yatra, Vaishnodevi, Gangotri, Yamunotri, four Kumbh places, shaktipeethas etc. and Pilgrim places of Islam include Dargah at Ajmer etc. The Pilgrim centers associated with Sikhism includes Golden Temple at Amritsar; Hemkund Sahib in Uttaranchal, Anandpur Sahib Etc. Buddhist Pilgrim centres includes Bodhgaya, Sarnath, Kushinagar, Vaishali, etc.
Pilgrimage serves many purposes but the main importance of Pilgrimage lies in its contribution towards the enhancement of National Integration. There may be many motives behind Pilgrimage. Some of these are listed below :
l Pilgrims may undertake Pilgrimage to get so called blessings or to seek fulfilment of one’s wishes from the concept of God/Goddess.
l Pilgrims perceive that they can get ‘Moksha’ by visiting to a sacred place and may be liberated from the continuous cycle of birth and rebirth.
l Pilgrims undertakes Pilgrimage so that they can get a glimpse of their deity i.e. to get a ‘darshan’ of deity as they think that deity would protect them in case of any difficulty.
l Pilgrimage is also marked by the devotees so that their wishes could be fulfilled by a supernatural power known as God.
l Pilgrimage is marked after the fulfilment of a wish from the concept of God and to convey him thanks.
l Devotees also visit to a Pilgrim centre as to pay the respect to the God or to simply mark an attendance in the front of God.
l Pilgrimage is also recommended in some religions. For example, in Islam, it is said that every Muslim should go, if one has money, on Hajj at least once in one’s lifetime.
l Pilgrimages are also marked during some Fair and Festivals. For example, during Navratra fair tihere is a great rush of pilgrims to sacred shrine of Vaishnodevi, Mansa Devi etc. During the time of Urs great rush can be seen at the Dargah at Ajmer.
l Pilgrims may have curiosity, fun and adventure in Pilgrimage Tourism without any emotional devotion towards the concept of popular religious concepts.
There is an urgent need to discuss these issues at the seminar so that pilgrimage tourism along with economic development may be given a direction in such a way that it expands without creating environmental hazards.
Suggested Topics :-
1. Historical development of pilgrimage tourism
2. Pilgrimage in Vedic and pauranic literature
3. Pilgrimage as source of Nationalism
4. Traditions of pilgrimage in India
5. Practices of Pilgrimage in different Religions.
6. Major Pilgrimage Centers and Economic Development
7. Consumer Behavior of Pilgrims.
8. Socio-Economic Study of different religious Pilgrims
9. Pilgrimage Tourism Industry and Environmental Issues.
10. Tourism Management with special reference to Pilgrimage Tourism
11. Perception and Objectives of Pilgrims
12. Marketing of Pilgrimage
13. Pilgrimage Governance
14. Role of Local Self Govt. at Pilgrimage - Problems, Challenges and Solutions
15. Pilgrimage as a source of Entrepreneurship in Tour & Travels and Hotel Industry
16. Pilgrimage as a source of Foreign Exchange
17. Pilgrimage Tourism and Transportation - Opportunities, Problems and Challenges
18. Pilgrimage and secularism
19. Historical importance of Pilgrimage Centres of India.
20. laLd`r lkfgR; esa ;k=k lkfgR; dk vonku
21. 'kkDr ,oe~ 'kSo ihB&;k=k,a
22. rhFkZ ;k=k,¡ ,oe~ /keZ ;k=k,¡
23. Hkkjr ds lkaLd`frd fuekZ.k esa ;k=kvksa dk ;ksxnku
24. iqjk.kksa esa rhFkZ;k=kvksa dk Lo:i
25. Mythology and Pilgrimage

१६ unmesh



A TWO DAYS
REGIONAL SEMINAR
ON

“SOURCES OF INDIAN NATIONALISM- AN EVALUATION”

Since development stages of different human groups all over the world have been different so qualitatively the development of unity among different groups has been different. Keeping in view this fact, definition, explanations and problems of nationalism should be analyzed in the context of unity of individual groups, their structure patterns, qualities etc. The nationalism particularly in Indian context is all together is different because diversity is the basic fact of this nation / country. Nationalism in India is all things. But how do our petty, confused minds approach nationalism - that is important and not the definition or descriptions of what is nationalism is. On our approach to nationalism, all questions and answers depend. More over the addition of the suffix ‘ism’ to ‘national’ has altered profoundly the original meaning of the ‘nation’. The nation was originally conceived to be a community of people organized on the basis of common geographical area, history, language traditions and culture but the new ‘ism’ endowed it with new, excessive traits which changed the entire concept. Nationalism makes more of the nation than this political or cultural community. It is well said that the term ‘nationalism’ is the perversion of the original word ‘nation’. Nationalism has its own peculiar historical development. So nationalism like religion, is subjective, psychological, a condition of mind, a spiritual possession; a way of feeling, thinking and living. Nationalism is not a political but an educational conception. Nationalism is only accidentally a political question, but primarily it is a spiritual and educational question. So if nationalism is a state of mind, an act of consciousness or a supreme form of group consciousness or if nationalism denotes the resolve of a group of human beings to solve their fortune, and to exercise exclusive control over their own action or if development of nationalism lies in common history, common suffering, common triumphs, common achievements, common memories then finding out the basic ingredients, source of nationalism is justified particularly in the present time because India or Indian mind cannot be defined only in the terms of industry, technology and economy.
So we need a seminar to discuss the following points:-
(a) Nationalism as an historical process
(b) Nationalism as a theory
(c) Nationalism as socio-political activity
(d) Nationalism as a sentiment or consciousness

Subtopics –

Nature of nationalism in Vedic India
Post Vedic perspective of nationalism
Medieval India understands of nationalism
Form of Nationalism in Medical; Hindus
Form of Nationalism in Islam
Revolutionaries’ concept of Nationalism in freedom struggle
Gandhian understanding of nationalism
Political parties and their understanding of nationalism
Indian education system and spirit of nationalism
Projection of Indian nationalism and western concepts of nationalism
Post independence sources of Nationalism
Constituents of India’s national identity
Indian nationalism, terrorism and peace
Characteristics of Indian nationalism and working of Indian mind