Sunday, August 16, 2009

''आधुनिक भारत के निर्माण में संस्कृतज्ञों का योगदान''
आशुतोष आङ्गिरस, संस्कृत विभाग,एस.डी.कॉलेज (लाहौर), अम्बाला छावनी। १३३००१

संस्कृत साहित्य का मूलभूत और प्रथम सूत्र है - 'अथातो पुरुष-जिज्ञासा'। दर्शन के क्षेत्र में यह पुरुष के 'परा' रूप 'आत्मा' की जिज्ञासा है तो काव्य के क्षेत्र में उसके अपरा रूप 'महापुरुष' के प्रति जिज्ञासा है। आदिकवि वाल्मीकि इसी 'पुरुष जिज्ञासा' को लेकर प्रारम्भ करते हैं जिसमें एक शब्द का परिवर्धन कर इसे पत्र की भूमिका के रूप में स्थापित करना चाहता हूं -
कोन्वस्मिन् संस्कृतज्ञ: साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढ़व्रत:॥१-१-२॥
चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः ।
विद्वान् कः कः समर्थश्च कश्च एक प्रियदर्शनः ॥१-१-३॥
आत्मवान् को जित क्रोधो द्युतिमान् कः अनसूयकः ।
कस्य बिभ्यति देवाः च जात रोषस्य संयुगे ॥१-१-४॥
एतत् इच्छामि अहम् श्रोतुम् परम् कौतूहलम् हि मे ।
महर्षे त्वम् समर्थोऽसि ज्ञातुम् एवम् विधम् सँस्कृतज्ञम् (नरम्) ॥१-१-५॥
हे नारद, इस समय इस लोक में ऐसा 'संस्कृतज्ञ पुरुष' कौन है जो गुणवान्, वीर्यवान् धर्मज्ञ, सत्यवादी और दृढ़व्रती, चरित्रवान्, सर्वभूतहितकारी, विद्वान, समर्थवान्, प्रियदर्शन, आत्मवान्, जितक्रोधी, अनसूयक, द्युतिमान् है? संसार के इस युद्धक्षेत्र में किस संस्कृतज्ञ में रोष उत्पन्न होने पर देवता भी भयभीत होते हैं – ऐसा मेरा अत्यन्त कौतुहल है और मैं आप महर्षि से सुनना चाहता हूँ क्योंकि ऐसे सँस्कृतज्ञ को आप ही जानने में समर्थ हैं? ऐसी जिज्ञासा के उत्पन्न होते ही उत्तर की खोज में विचार मग्न महान् शास्त्रज्ञ, तपस्वी, योगी, स्वभाव से ही विभिन्न लोकों में पर्यटन के लिए सदा उत्सुक और ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवी-देवताओं, मनुष्यों, ऋषियों आदि के भवनों में बिना आज्ञा नि:संकोच प्रवेश करने वाले परन्तु विनम्र एवम् सभी विद्याओं के ज्ञाता होने पर भी निरन्तर जिज्ञासु मुनि नारद ने फिर एक बार विष्णु लोक जाकर शेष शैय्या पर लक्ष्मी सहित विराजमान भगवान् विष्णु से प्रणामपूर्वक जिज्ञासा की कि भगवन्! आधुनिक भारत के निर्माण में संस्कृज्ञों का क्या और कैसा योगदान है ? कृपया लोकहित के लिए संक्षिप्त, सरल एवम् उपयोगी रीति से प्रतिपादन करने की कृपा करें।'' भगवान् विष्णु ने सदा की तरह मन्दस्मित से कहा कि हे नारद! लोक हित के लिए तुमने यह जो विचित्र परन्तु सार्थक एवम् रुचिकर यथार्थवादी प्रश्न किया है उसका उत्तर मैं संक्षेप में तीन भागों में दूँगा - पहला यह कि आधुनिकता क्या है या आधुनिकता से क्या अभिप्राय है; दूसरा 'भारत का निर्माण' का क्या अर्थ है और तीसरे संस्कृतज्ञ होने का क्या अर्थ है और वे कितने प्रकार के हैं या उनकी कोटियाँ क्या हैं ? लेकिन उससे पूर्व जिन लोगों के हित के लिए तुम यह प्रश्न कर रहे हो, जिज्ञासा कर रहे हो उनके विषय में यह जान लो कि जिस देश और जाति के पास जितना बड़ा इतिहास होता है समुन्नत संस्कृति, धार्मिक उदात्त दृष्टि एवम् श्रेष्ठ साहित्य होता है, उसके दो ही परिणाम हुआ करते हैं या तो वे सामान्य व्यक्ति की भाँति अपने अतीत का गौरव गान करते हुए अपनी हीनता को छुपाते रहें या अतीत की उस महिमा मण्डित महाद्वीपता के समकक्ष अपना भी कोई यशद्वीप समानान्तर रूप से निर्मित एवम् विकसित करें। अथवा वाला यह कार्य उतना सामान्य नहीं है। इसके लिए असमान्य वर्चस्व और निर्मम संकल्प की अपेक्षा होती है। अतीत को वर्तमान बनाकर भविष्य के रूप में प्रस्तुत कर देना भगीरथ व्यक्तित्व की माँग रखता है। वैसे तो सभी देशों जातियों, सभ्यताओं के पास या तो अतीत की पौराणिकता है या नहीं तो मध्यकालीन ऐतिहासिकता की कुछ न कुछ परम्पराएँ हैं जिन पर उचित अनुचित गर्व कर सकते हैं परन्तु संस्कृतज्ञों की कठिनाई दूसरी सभ्यताओं, जातियों और देशों से बहुत अधिक है। इतिहास के क्रम में अधिकांश सभ्यताएँ अपने अतीत से कट कर सर्वथा भिन्न भाव भूमि ग्रहण कर चुकी हैं, अत: उनका अतीत एक प्रकार से उनके रचनात्मक व्यक्तित्व के लिए समाप्त हो चुका है। परन्तु संस्कृतज्ञों की कठिनाई यह है कि एक ओर वे बहश्रुत तथा बहुविध परम्पराओं से मण्डित हैं और दूसरी ओर उनकी अस्मिता पर गत दो-ढ़ाई सहस्र वर्षों से क्षारपर्तें निरन्तर गिरते-गिरते इतनी कड़ी हो गई हैं कि राम, कृष्ण, विवेकानन्द, दयानन्द गान्धी या अरविन्द द्वारा किए जाने वाले मोह भंग से भी इनका स्वत्व जाग्रत नहीं होता। इस अस्मिता हीनता और जड़ता में थोड़ा ही अन्तर रह गया है। भले ही संस्कृतज्ञ अपनी अस्मिता हरण के लिए सामी (sematic thinking) वैचारिकता को दोषी ठहरा दें परन्तु अब उन्हें किसी बाहरी शत्रु की आवश्यकता नहीं रह गई है।
इसी उपरोक्त कथन का यह पक्ष भी स्पष्ट कर लें कि संस्कृतज्ञ एक ऐसा उभयधर्मी प्राणी है जो एक साथ दो विश्वों में रहता है - एक विश्व तो वह है जो उसे दिया गया है जो जड़, जीवन और चेतना का विश्व है और दूसरा विश्व वह है जो स्वयं संस्कृतज्ञों द्वारा बनाया हुआ है, जो प्रतीकों का विश्व है। संस्कृतज्ञ अपनी विचार प्रक्रिया में भाषात्मक, गणितीय, चित्रात्मक, संगीतात्मक, कर्मकाण्ड सम्बन्धी आदि विभिन्न प्रकार की प्रतीक प्रणालियों का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार की प्रतीक-प्रणालियों के अभाव में कोई कला, साहित्य, विज्ञान, विधि या दर्शन सम्भव नहीं। इनके अभाव में सभ्यता का आरम्भ ही सम्भव नहीं है। अत: प्रतीक अपरिहार्य हैं। संस्कृतज्ञों का इतिहास भली भाँति स्पष्ट करता है कि ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में प्रतीकों की शब्दावली में विचार कर तदनुसार क्रिया करके प्रकृति की मूलभूत शक्तियों को उन्होंने समझा, सावधानी से उनका विश्लेषण किया तथा भौतिक अस्तित्व के उद्धाटित होने वाले तथ्यों के साथ उनका उत्तरोत्तर सामञ्जस्य किया - जो नितान्त उचित था और प्रशंसा के योग्य है परन्तु वर्तमान कालिक संस्कृतज्ञ क्या योगदान कर रहा है यह बात आग्रहपूर्वक विचार की अपेक्षा करती है क्योंकि किसी भी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक-पारिवारिक-वैश्विक समस्या के समाधान के लिए वैदिक मन्त्रों को, गीता, रामायण आदि के श्लोकों को संस्कृतज्ञ उद्धृत करते हैं तो नि:सन्देह वे उसे दोहराते हैं। क्या नहीं दोहराते ? और जिसे दोहराया जाता है वह सत्य नहीं हो सकता। सत्य दोहराया नहीं जा सकता। जिन संस्कृतज्ञों का यह मत है या विश्वास है कि इतिहास या परम्परा के नाम पर प्रदत्त प्रतीक प्रणाली या शब्द पूर्णतया उपादेय हैं, उसका महत्त्व सर्वाधिक है - यह बात या विश्वास मुक्ति की ओर नहीं ले जाती, हाँ इतिहास की ओर, प्राचीन विपत्तियों की ओर ही ले जाती है और ध्यान रखने योग्य बात यह भी है कि विश्वास अनिवार्यत: विभाजित करता है। यदि संस्कृतज्ञ के रूप में आपका कोई विश्वास है या आप किसी विशेष विश्वास में सुरक्षा खोजते हैं तो आप उन व्यक्तियों से पृथक् हो जाते हैं जो किसी दूसरे प्रकार के विश्वास में सुरक्षा खोजते हैं। सभी संगठित विश्वास विभाजन पर आधारित हैं यद्यपि वे भ्रातृत्व का उपदेश करते हैं। जिसने प्रदत्तों और प्रतीकों के दोनों विश्वों के साथ अपने सम्बन्ध की समस्या हल कर ली वही संस्कृतज्ञ है जिसका कोई पूर्व घोषित विश्वास नहीं - जैसे वैदिक ऋषि। जहाँ तक उसके व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का सम्बन्ध है वह कार्यवाहक प्राक-कल्पनाओं की श्रृंखला को स्वीकार करता है। वे उसकी आवश्यकताओं को पूरा करती है परन्तु वे प्राक्कल्पनाएँ उसके लिए एक माध्यम, एकसाधन से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं। अपने साथी प्राणियों, जीवों के प्रति और उस यथार्थ के प्रति जिसमें वे सब अवस्थित और व्यवस्थित हैं उसके पास प्रेम एवम् साक्षात् प्रातिभ अनुभव हैं। इसके विपरीत सामान्य रूप से संस्कृत का अध्ययन अध्यापन करने वाले संस्कृतज्ञ एक ऐसी चुनौती जो सदा नवीन होती है उसके प्रति किसी प्राचीन प्रारूप के अनुरूप प्रतिक्रिया करते हैं इसलिए उस प्रतिक्रिया में उस चुनौती की तदुनुरूप यथार्थता, नवीनता, ताज़ापन नहीं होता है। अत: ऐसे संस्कृतज्ञ की प्रतिक्रिया की कोई सार्थकता नहीं है और न ही पुरानी प्रतिबद्धता के अनुसार की गई प्रतिक्रिया चुनौती को समझने में सक्षम बनाती है। नवीन चुनौती का सामना करने के लिए आवश्यक है कि संस्कृतज्ञ अपने को आवरणों से पूर्णतया मुक्त कर दे, अपनी पृष्ठभूमि का पूर्णतया परित्याग कर दे और तब नवीन चुनौती का सामना करे जैसे स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द या श्री अरविन्द या गान्धी। दूसरे शब्दों में प्रतीकों को रुढ़ सिद्धान्तों के स्तर पर नहीं लाना चाहिए और कभी भी विचार प्रणाली को एक कार्य निर्वाही सुविधा से अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए। फार्मूलों में विश्वास के अनुसार कर्म समस्या का समाधान नहीं दे सकते। अत: संस्कृतज्ञ अपने प्रति सर्जनशील बोध के द्वारा ही एक सर्जनशील संसार, सर्जनशील भारत को सम्भव कर सकते हैं।
100 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले आधुनिक भारत के निर्माण में संस्कृतज्ञों के योगदान का विश्लेषण करने से पूर्व यह स्पष्ट कर लें कि आधुनिकता क्या है? आधुनिक भारत के निर्माण से क्या अभिप्राय है? उसमें संस्कृतज्ञों का क्या योगदान है और किस प्रकार के संस्कृतज्ञों का योगदान है ?
प्रस्तुत प्रसंग में आधुनिक भारत के दो रूप हैं - एक है पुराना आधुनिक भारत और दूसरी है नवीन आधुनिक भारत। पुराने आधुनिक भारत से अभिप्राय है स्वतन्त्रता पूर्व जब समाज सुधार आन्दोलनों की शुरुआत हुई। सती प्रथा और जाति प्रथा के विरोध में और शिक्षा के समर्थन में लोग आने लगे थे। सामाजिक सुधार के आन्दोलन के सूत्रधार मूल रूप में संस्कृतज्ञ ही थे वे चाहे राजा राम मोहन राय थे, स्वामी दयानन्द थे, ईश्वर चन्द्र विद्या सागर आदि थे। यह वह समय था जब संस्कृत में संस्कारों का स्थान विकारों ने ले लिया था। जड़ता, निराशा और हताशा भारत का व्यक्तित्व बन चुकी थी। सामाजिक सुधार वाले संस्कृतज्ञों की इस धारा के साथ संस्कृतज्ञों की एक और धारा दृष्टिगोचर होती है वह है स्वतन्त्रता सेनानियों और क्रान्तिकारियों की, बंकिम चन्द्र चैटर्जी, वीर सावरकर, चन्द्र शेखर आज़ाद, खुदी राम बोस, रामप्रसाद बिस्मिल, सूर्यसेन आदि ऐसे संस्कृतज्ञ हैं जिन्हें गीता जैसे ग्रन्थ कण्ठस्थ थे, मृत्यु के क्षणों में अपने संस्कृतज्ञ होने का प्रमाण गीता के श्लोकों के रूप में दे गए। बल्कि बंकिम चन्द्र चैटर्जी को तो ऋषि ही माना जाता है। अपने आनन्द मठ उपन्यास में संस्कृत की मूल चेतना की जैसी स्थापना की वह अविस्मरणीय है। इसके अतिरिक्त पुरानी आधुनिकता में गान्धी, विनोबा, तिलक, लाजपतराय आदि भी संस्कृतज्ञ ही हैं। स्वतन्त्रता संग्राम के मूल मन्त्र और संकल्पना वे संस्कृत की संस्कृति से ही ग्रहण कर रहे थे। ये तीसरे प्रकार के संस्कृतज्ञ थे। इनके साथ ही एक चौथे प्रकार के संस्कृतज्ञ और थे जिनका उल्लेख इतिहास के पृष्ठों में नहीं मिलता। वे ऐसे संस्कृतज्ञ थे जो अपने घरों में संस्कृत को अध्ययन अध्यापन के माध्यम से बचाए हुए थे। घोर दरिद्रता और संकटों में भी इन संस्कृतज्ञों ने संस्कृत का त्याग नहीं किया। अभावग्रस्तता भी संस्कृत और उसकी संस्कृति के प्रति उन लोगों में विमुखता या अनास्था नहीं ला सकी। इन संस्कृतज्ञों ने कोई बड़े काम नहीं किए, बड़े नारे नहीं दिए, युद्ध और हिंसा नहीं की परन्तु संस्कृत की रक्षा के व्रत का निर्वाह पूरी निष्ठा से किया। इनके अतिरिक्त सँस्कृतज्ञों की और धारा दिखाई देती है जिसे अंग्रेजों ने चलाया। मैक्डानल, विल्सन, मैक्समूलर,मोनियर विलियम्स, आदि के संस्कृतज्ञ होने में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। कुल मिलाकर पुराने आधुनिक भारत में उपरोक्त प्रकार के संस्कृतज्ञों का योगदान स्वतन्त्रता प्राप्ति तक बहुत स्पष्ट रूप से विचार और व्यवहार के स्तर पर दिखाई देता है।
परन्तु 1947 की स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् संस्कृतज्ञों के विचार और व्यवहार के स्तर योगदान की स्थिति बिल्कुल अचानक एकदम बदल गई। नए आधुनिक भारत में संस्कृतज्ञों के योगदान की बात बहुत कुछ सन्देहास्पद हो गई। क्योंकि जब तक स्वतन्त्रता प्राप्त नही हुई थी तब तक तो नेताओं के पास एक लक्ष्य था, आज़ादी का, स्वतन्त्रता का, स्वाधीनता का। परन्तु जिस दिन वह स्वाधीनता, स्वतन्त्रता, आज़ादी मिल गई उस दिन वह लक्ष्य भी समाप्त हो गया, लक्ष्य से जुड़ी सभी क्रियाएँ अर्थहीन हो गईं और नेताओं के सामने प्रश्न उपस्थित हो गया कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद क्या करें और कैसे करें ? इस प्रश्न के उत्तर का चुनाव नेहरूवादी विचारधारा ने औद्योगिकरण के माध्यम से आधुनिक भारत के निर्माण का किया। आनन फानन में किए गए औद्योगिक भारत के निर्माण की कल्पना ने सारे भारत के इतिहास, परम्परा, मूल्यों, विचारों और व्यवहारों में विसंगति पैदा कर दी। बल्कि आधुनिक, औद्योगिक भारत के निर्माण में गान्धिवाद भी हाशिए पर जा खड़ा हुआ। नए आधुनिक भारत की निर्माण यात्रा औद्योगिकरण से होती हुई टेक्नोलोजी के माध्यम से वैश्विक व्यापारीकरण और उपभोक्तावाद की ओर चल रही है जिसमें संस्कृतज्ञों का योगदान एक विचार का विषय है। क्योंकि उद्योग, टेक्नोलोजी और उपभोक्तावादी संस्कृति में संस्कृतज्ञ कौन है यह जानता, पहचानना और परिभाषित करना थोड़ा कठिन है। कानून और व्यवस्था की दृष्टि से वे सभी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति जिन्होंने बी.ए., एम.ए. आदि संस्कृत विषय में किया है वे संस्कृतज्ञ हैं क्योंकि आजीविका या नौकरी के लिए वे योग्य हैं। दूसरे उपभोक्तावाद की दृष्टि से वे सभी संस्कृतज्ञ हैं जो संस्कृत के आधार पर व्यापार कर सकते हैं - उनमें रजनीश, श्रीलप्रभुपाद, महेश योगी आदि प्रमुख हैं। तीसरे वे संस्कृतज्ञ हैं जो भारत की अधिकांश जनसंख्या में साधु या गुरु या सन्त या स्वामी के नाम से जाने जाते हैं, जैसे – बाबा रामादेव, श्री श्री रविशंकर, मुरारी बापू, आसाराम बापू, कॄपालु जी महाराज। चौथे प्रकार के संस्कृतज्ञ वे हैं जो प्रचारक कोटि के रहे हैं जो सनातन धर्म और आर्य समाज आदि से जुड़े हुए हैं। आजकल यह कार्यभार संस्कृत भारती के हाथों में चला गया है। पाँचवें प्रकार के संस्कृतज्ञ वे हैं जिन्हें विद्वान या पण्डित इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने कुछ या काफ़ी शास्त्र कण्ठस्थ किए हैं और अपनी स्मरण शक्ति का परिचय शास्त्रोक्त उक्तियों द्वारा देते हैं। छठे प्रकार के वे संस्कृतज्ञ जो रचनाकार कहे जाते हैं, जो संस्कृत भाषा में विगत 60 वर्षों से अभ्यास और निष्ठावश धारा प्रवाह कविता, कथा, नाटक आदि लिखने की क्रिया को दोहरा रहे हैं जिससे सँस्कृत साहित्य की सँख्यात्मक मात्रा (quantity) में निश्चित ही वृद्धि हो रही है। सातवें प्रकार के विचारकोटि के संस्कृतज्ञ हैं जिनके मूल में संस्कृत है परन्तु अभिव्यक्ति की भाषा अंग्रेजी, हिन्दी या अन्य प्रादेशिक भाषाएँ हैं - हिन्दी में हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, कुबेरनाथ राय, नरेश मेहता, राहुल साँकृत्यायन आदि कवियों लेखकों विचारकों की लम्बी और प्रभावी सूची है और अंग्रेज़ी में यू.आर.अनन्तमूर्ति, आनन्दकुमार स्वामी, राजा राओ, अरुण शोरी, नीरद चौधरी आदि। इन लोगों की दो कोटियाँ हैं - एक वे जो संस्कृत के पक्ष में हैं, संस्कृत के प्रति सकारात्मक सोच रखते हैं और दूसरे वे जो संस्कृत के विपक्ष में हैं और संस्कृत को सभी दोषों के लिए जिम्मेदार मानते हैं, लेकिन दोनों कोटियों के लोग संस्कृतज्ञ तो हैं ही और अन्तिम कोटि के संस्कृतज्ञ उनको मान लेना चाहिए जो अभी स्पष्ट रूप से अपनी उपस्थिति स्थापित नहीं कर पाए हैं परन्तु वे उभर रहे हैं वे हैं प्रयोगधर्मी संस्कृतज्ञ जो संस्कृत का उपयोग ज्ञान प्रबन्धन, समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, कम्प्यूटर्स, मानवाधिकार, पर्यावरण, संगीत आदि के क्षेत्रों में करने का व्यावहारिक प्रयत्न कर रहे हैं ताकि सँस्कृत पढने वाले वर्तमान और भविष्यकालिक छात्रों को यह विश्वास दिला सकें कि सँस्कृत के नाम पर जो कुछ भी वे पढ रहे हैं या पढाया जा रहा है वह न केवल आजीविका की प्राप्ति के प्रति आश्वस्त करेगा बल्कि स्थानीय, देशिक एवम् विश्व स्तर पर घटित होने वाले परिवर्तनों, समस्याओं एवम् प्रभावों के प्रति अपना दृष्टिकोण, अपना मत, अपनी राय और समझ और व्यक्तित्व भी विकसित कर सकेगा ।
उपरोक्त सभी प्रकार की संस्कृतज्ञों की कोटियों के समक्ष यदि यह प्रश्न रखा जाए कि 100 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले वर्तमान भारत के लोगों के भोजन, वस्त्र, आश्रय, सुरक्षा, शिक्षा आदि के सन्दर्भ में संस्कृतज्ञ कौन सी समस्या सुलझाने का व्यावहारिक, यथार्थपरक उपयोगी उपाय/व्यवस्था सुझा सकते हैं या विगत 60 वर्षों में संस्कृतज्ञों ने बदलती परिस्थितियों में किस क्षेत्र की समस्या सुलझाने का क्या सुझाव रखा ? या इस प्रश्न को इस तरह से प्रस्तुत करें कि कौन-कौन से क्षेत्र में संस्कृतज्ञों का प्रयोगपरक समाधान रहा है? लगातार परिवर्तित और अग्रसर हो रहे भारत में तीन क्रान्तियाँ हो चुकी हैं- जिनमें से एक तो औद्योगिक क्रान्ति (Industrial revolution) हुई, दूसरी सूचना-सञ्चार- क्रान्ति (information technology) घटित हो रही है और इसके साथ ही तीसरी क्रान्ति का युग प्रारम्भ हो चुका है वह है ज्ञान- क्रान्ति (knowledge revolution) – इन तीनों में से औद्योगिक क्रान्ति से मिलने वाले लाभ के अवसर को सँस्कृत और सँस्कृत पढने वाले विद्यार्थियों के हित के लिए हम सँस्कृतज्ञ चूक गए। इस दूसरी और तीसरी क्रान्ति में मिलने वाले अवसरों को सँस्कृतज्ञों को सँस्कृत एवम् सँस्कृत के विद्यार्थियों के हित को, भविष्य को ध्यान में रखते हुए चूकना नहीं चाहिए। नहीं तो इसका दो टूक, सीधा साफ़ स्पष्ट उत्तर देने में कठिनाई होगी। यह सही है कि मूल्य या धर्म (रीलिजन के अर्थ में नहीं) का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज के अधिकारों और कर्तव्यों से एक साथ जुड़ा हुआ है। भारत जैसे संविधानात्मक रूप से प्रजातान्त्रिक देश के लिए मूल्य या धर्म आवश्यक शर्त है परन्तु यह शर्त आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवम् विकास के लिए उपलब्ध संसाधनों के प्रयोग के बिना अर्थहीन है। धर्म या मूल्य दरिद्रता और अभाव के वातावरण में बेमानी हो जाते हैं क्योंकि व्यक्ति या समाज के सन्दर्भ में धर्म या मूल्य का सीधा सम्बन्ध स्वामित्व से है और उस स्वामित्व के प्रति सुरक्षा और सम्मान की भावना से है। परन्तु वर्तमान कालिक भारतवर्ष के भारतीयों की चेतना बुद्धिगत तर्कों से वैश्वीकरण की प्रक्रिया का समर्थन करती हुई उपभोक्तावादी संस्कृति को अधिकाधिक विकसित करने के लिए प्रयत्नशील होती हुई न केवल धर्म पर या मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह लगाकर अनुपयोगी करने के लिए तत्पर है बल्कि सम्पूर्ण व्यवस्था को ही गुणात्मक यथार्थ के माध्यम से असंगत सिद्ध करने के लिए तत्पर है। यद्यपि इस दिशा में विकसित हो रही वर्तमान कालिक भारतीय संवैधानिक सभ्यता अन्तर्निहित समस्याओं जैसे - पर्यावरण, सामाजिक अलगाव, आर्थिक असुरक्षा, आतंकवाद, समलैङ्गिकता आदि से ग्रसित है तथापि भीतर से उठने वाली व्यवस्थागत स्वत: स्फूर्त युक्तियां एवम् समाधान इसमें चमत्कारी सम्मोहन या आकर्षण उत्पन्न कर देते हैं जो इस आधुनिक भारत को ग्लैमरस और रोमांचकारी बना देता है। साथ ही साथ यह भी ध्यान योग्य है कि जीवन के तथ्यों और मनुष्य के भावों में आज इतनी तीव्रता से विस्तार हो रहा है कि संस्कृत भाषा के शब्द इस गुणात्मक परिवर्तन के साथ पग से पग मिलाकर चल नहीं पा रहे हैं। तथ्य शब्द में पूरा-पूरा व्याप्त या स्थिर नहीं हो पा रहा है। यह पद पदार्थ को आज सम्पूर्णत: व्यक्त करने में अपर्याप्त सिद्ध हो रहा है। सामान्य स्थिति में पूरी ईमानदारी से चेष्टा करने पर भी भाषिक विडम्बना का बोध पग-पग पर होता है - विशेषत: अवधारणात्मक (conceptual) शब्दों के सन्दर्भ में। व्यावहारिक परिवेश में जहाँ बेईमानी ही सर्वमान्य ईमान है और अस्पष्टता ही सर्वश्रेष्ठ रणनीति है, यह भाषिक त्रासदी और भी भयावह हो गई है। भाषिक कपटाचार के कारण 'डेमोक्रेसी, समाजवाद, प्रगतिशील, प्रतिक्रियावादी, पूँजीवाद, सामाजिक न्याय, सर्वहारा नेतृत्व, जनवादी, जनहित, वैश्वीकरण आदि दर्जन या दो दर्जन शब्द अपनी अर्थगत प्रमाणिकता खो कर अविश्वसनीय बन गए हैं। जिसके कारण व्यष्टि और समष्टि स्तर पर समाज में बुद्धिगत और मनोगत दोनों तरह क्रायसिस पैदा हो रहे हैं। इसलिए ऐसी परिस्थिति में संस्कारवान् और विचारशील संस्कृतज्ञ के लिए प्रथम आवश्यकता है ऐसी विचार दृष्टि की जो न केवल उपयोगी हो बल्कि प्रस्तुत आक्षेपों का निराकरण भी कर सके। इसलिए किसी भी प्रकार के या कोटि के संस्कृतज्ञ से यदि प्रश्न किया जाए कि आधुनिक युग की मूलभूत समस्या क्या है तो उसका सम्भावित सीधा उत्तर होगा - मनुष्य के अन्तर्निहित 'मनुष्यत्व' का, शील का या अच्छाई का संकट। विश्व में अशान्ति या यन्त्रणा का कारण 'बुराई' उतना नहीं है जितना अच्छाई का अक्षम और अपर्याप्त हो जाना। अच्छाई है परन्तु अक्षम है, अपर्याप्त है - यही अशान्ति का मूल कारण है। इस अच्छाई को मनुष्यता का नाम दें या शीलबोध का या देवत्व का या गुडनेस का या कोई और - यह भयावह रूप से अक्षम और अपर्याप्त है - यह स्थिति संस्कृतज्ञों के समक्ष दो प्रश्न उत्पन्न करती हे - प्रथम यह कि मनुष्य के अन्तर्निहित मनुष्यत्व या अच्छाई को सक्षम और पर्याप्त (potent and sufficient) कैसे किया जाए? द्वितीय प्रश्न है कि इस अच्छाई की व्यूह रचना (pattern or strategy) कैसी हो जो एक दीर्घकालीन समाधान दे सके? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर संस्कृत की चेतना से ही मिल सकता है क्योंकि अन्य सभी चिन्तन या विचार या दर्शन पद्धतियाँ वाद-प्रतिवाद (thesis and anti-thesis) की शैली में सोचते हैं इसलिए अच्छाई की सर्वमान्य परिभाषा सम्भव नहीं है क्योंकि उस शैली में अच्छाई का अर्थ है दलगत नीति की पक्षधरता और संस्कृत की चेतना इस सबसे अधिक व्यापक और अग्रसर है क्योंकि वह स्वाभाविक रूप से अहिंसा, अपरिग्रह और सत्याग्रह से सम्पूर्ण मनुष्यता को अभय प्रदान करती है, आश्वस्ति प्रदान करती है। हालाँकि 21वीं शताब्दी वाले भारत से मूल संस्कृतज्ञों का भारत उतना ही दूर था जिताना सुपरसोनिक से कोई गर्दभ लेकिन शिथिल गति वाले बढ़ी दाढ़ी मूँछ वाले वे संस्कृतज्ञ हमारी पीढ़ी की ओर उँगली उठा कर रहे थे - उन मूर्खों को देखो। वे अधिक खाने के लोभ में अपने समुद्र और अपने आकाश को खाते जा रहे हैं, अपने भविष्य को खाते जा रहे हैं फिर भी अपने को विज्ञानी कहते हैं। उनको ऐसा आरोप करने का अधिकार भी था क्योंकि उनकी नदियाँ सिर्फ बरसात में मैली होती थीं, उनका आसमान सिर्फ ऑंधी चलने पर मैला होता था, उनकी धूप केवल बादल घिरने पर मैली होती थी, उनका शरीर केवल काम करते हुए मैला होता था, आत्मा तो कभी मैली होती ही नहीं थी। वे हँसते थे तो उनकी हँसी में आह्लाद झलकता था पर मन की मलिनता नहीं झलकती थी। वे दु:खी भी कम होते थे क्योंकि उनके दु:ख की परिभाषा भिन्न थी। हमारी परिभाषा के दु:खों को पी जाते थे, ऑंसू के स्थान पर दर्शन टपकने लगता था। वे अपने लिए सब कुछ नहीं चाहते थे। पेट भरने के बाद उनकी भूख तेज़ होती थी, उनके ज्ञान के साधन सीमित थे और अविश्वसनीय थे पर सोच स्पष्ट थी क्योंकि वे निडर होकर सोचते थे क्योंकि उनकी ज्ञान-मीमाँसा में “ज्ञान” ज्ञान नहीं था बल्कि पहले दर्जे का अज्ञान था। वे दुनिया की चिन्तन करते हुए भी अपनी दुनिया से अधिक हमारी दुनिया के बारे में सोच रहे थे - पर्यावरण के ध्वंस पर, प्राकृतिक साधनों के अपव्यय पर, उपभोक्ता संस्कृति की विकृतियों पर, विज्ञान के पागलपन पर, मानव मूल्यों के ह्रास पर, संवेदन शून्यता की विडम्बना पर और अधिकारों के दुष्प्रयोग पर। इस दृष्टि से वे आज के संस्कृतज्ञ की तुलना में अधिक दूरदर्शी थे। इसलिए उन संस्कृतज्ञों के भारत का विश्लेषण करते हुए अपने भारत में प्रवेश करने का एक छोटा सा रास्ता निकालने की कोशिश इस पत्र के माध्यम से करने की है। इसकी सफलता आपके दृष्टिकोण पर निर्भर पर करेगी क्योंकि दृष्टिक्रम (perspective) के भेद से शैली और बोध में अन्तर आ जाता है और एक ही विषय भिन्न-भिन्न स्वाद और भिन्न-भिन्न बोध देने लगता है। अत: मेरी दृष्टि में संस्कृतज्ञ वह है जिसके चित्त का संस्कार ऋत से हुआ ओर वाणी का संस्कार सत्य से हुआ हो क्योंकि एक का सम्बन्ध मन की यथार्थ संकल्प करने की शक्ति से है तो दूसरे का वाणी की यथार्थ कथन करने की क्षमता से है। ऐसा संस्कृतज्ञ ही आधुनिक भारत के निर्माण को निर्देशित अभीष्ट परिवर्तन की दिशा दे सकता है बाकी तो मात्र व्यवस्था का हिस्सा ही हो सकते हैं, इससे अधिक नहीं। ऐसे संस्कृतज्ञ से ही आतङ्करहित संस्कृति उपलब्ध हो सकती है। ऐसे संस्कृतज्ञ का एक ही उद्देश्य है कि समाज में एक भी व्यक्ति संस्कारहीन न रहे। शिक्षा, ज्ञान, संस्कार संस्कृतज्ञ में स्वाभाविक रूप से समाविष्ट है। अत: आधुनिक भारत के निर्माण में संस्कृतज्ञ का मुख्य लक्ष्य बिन्दु वह मानव है, वह भारतीय है जो एक हाथ में धरती के समस्त गुणों को पकड़े हुए है तो दूसरे हाथ में देवत्व की प्रतिष्ठा को धारण किए हुए हैं। उस मानव की समस्त सम्भावनाओं को चारों ओर से सुरक्षित रखने के दायित्व का अधिग्रहण करना - यही संस्कृतज्ञ का आधुनिक भारत के निर्माण में योगदान है। यही कारण है कि संस्कृतज्ञ की उत्सुकता, वास्तविक और अस्तित्वपूर्ण जीवन में है। वह यह नहीं पूछता कि क्या मोक्ष है, क्या ईश्वर है, क्या स्वर्ग नर्क है। जीवन के सम्बन्ध में बुनियादी प्रश्नों को लेकर जीता है तभी वह आधुनिक भारत के मानस को प्रभावित कर पाएगा - चाहे वह पक्ष राजनीति का हो, समाजिकता का हो, विज्ञान का हो, धर्म या अर्थ का हो, गृहस्थ या सन्यास का हो।
''न भारती मेऽङ्ग मृषोपलक्ष्यते, न वै क्वचिन्मे मनसो मृषागति:।
न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे, यन्मे हृदौत्कण्ठ्यवता धृतो हरि:॥ श्रीमद्भागवत 2-6-33
अर्थात् हे नारद, क्योंकि मैंने अपने हृदय में भगवान को उतार दिया है, वे मेरी सत्ता के केन्द्र में स्थिर हो गए हैं, इसी से मेरी भारती/वाणी कभी मृषा नहीं होती, मेरा मन असद् मार्ग पर नहीं चलता और मेरी इन्द्रियों का पतन नहीं होता।' मेरी दृष्टि में ऐसा व्यक्ति ही संस्कृतज्ञ है।
प्रस्तुत विषय के विश्लेषण में अन्तिम बिन्दु 'भारत' का अर्थ भी स्पष्ट करने का प्रयत्न करना आवश्यक है। क्योंकि अथर्ववेद का मत कि - भद्रं इच्छन्त ऋषय: स्वर्विद: तपो दीक्षां उपसेदु: अग्रे। ततो राष्ट्रं बलं ओजश्च जातम् तदस्मै देवा उपसं नमन्तु। अर्थात् ऋषियों ने जगत कल्याण की इच्छा से जो तप किया उससे राष्ट्र निर्माण हुआ, राष्ट्रीय बल और ओज भी प्रकट हुआ। इसलिए सब विबुध इस राष्ट्र के सामने नम्र होकर इसकी सेवा करें। परन्तु किस जनसमूह के तप-त्याग, श्रम-साधना, किन लोगों की प्रज्ञा-प्रेरणा, अनुभूतियों और आकांक्षाओं, किन लोगों की सामूहिक विकास प्रक्रिया से भारत राष्ट्र बना है ? दूसरा किस जनसमूह का समान सुख-दुख बोध, समान शत्रु-मित्र भाव, जय पराजय के प्रति समान दृष्टिकोण, अपनी भूमि और उसके प्रति जुड़ी ऐकान्तिक निष्ठाएँ भारत राष्ट्र के रूप में पहचानी जानी चाहिए ? इन दोनों प्रश्नों को सरल शब्दों में ऐसे कह सकते हैं कि क्या है भारत राष्ट्र या किसे कहते हैं भारत राष्ट्र ? कैसे बना भारत राष्ट्र ? किसका है भारत राष्ट्र ? कौन है भारत के राष्ट्र जन ? इस भारत राष्ट्र की संस्कृति की संज्ञा क्या है ? इस भारत का संस्कृतज्ञों की दृष्टि में सार और रूप (form and essence) क्या है जिसके आधार पर भारत निर्माण में किसी भी कोटि का संस्कृतज्ञ तीन दृष्टियों से योगदान कर सकता है - एक है भौगोलिक आर्थिक-जैविक दृष्टि से, दूसरा ऐतिहासिक अविच्छिन्न विकास की दृष्टि से और तीसरा अचल मूल्यों की दृष्टि से जो भारत की मूल प्रकृतियां (essence) हैं। प्रथम दृष्टि से संस्कृतज्ञ आधुनिक भारत का 'काम' और 'अर्थ' सिद्ध करने में सहायता कर सकता है, दूसरी दृष्टि से आधुनिक भारत के धर्म नामक पुरुषार्थ अर्थात् भारत के मोक्षधर्म अर्थात् शुद्ध आनन्द जो ऑंशिक रूप से उत्सव, क्रीड़ा, कला, संगीत, साहित्य में और पूर्ण रूप से जीवन को यज्ञार्पित रुप से जीने के मूल्यों की स्थापना करने में योगदान कर सकता है जैसे गान्धी, विनोबा अरविन्द, मदनमोहन मालवीय, लोक मान्य तिलक, विवेकानन्द, गोपीनाथ कविराज आदि ने किया।
अन्त में संस्कृतज्ञों को सम्मानित करने के लिए ऋग्वेद के सूक्त जिसे मण्डूक सूक्त कहते हैं, उससे विचार का समाहार करना चाहता हूँ - व्रती स्तोता के समान एक वर्ष सोकर जागने वाले मेंढक पर्जन्य की स्तुति के लिए वाक्यों को उच्चारित करते हैं। कोई मेंढक गौ जैसा, कोई बकरे जैसा शब्द कर रहा है। कोई धूम्र वर्ण है तो कोई हरित वर्ण। ये विभिन्न वर्ण रूप वाले मेंढकगण अनेक स्थानों पर शब्द करते हुए प्रकट हो रहे हैं। हे मेंढकगण! अतिरात्र नामक सोमयाग में स्तोता जिस प्रकार शब्द करता है वैसे ही शब्द करते हुए, चारों ओर, तुम सरोवर में निवास करो। ये मण्डूकगण सोम वाले स्तोता के समान शब्द करते हैं। धूप के कारण बिलों में छिपे हुए मेंढक वर्षाकाल में बाहर निकल आते हैं। मण्डूक गण दैवी नियमों के रक्षक हैं। वे ऋतुओं को नष्ट नहीं करते। वर्ष के पूर्ण हो जाने पर आगत वर्षा से प्रसन्न होकर मेंढक गर्त्त के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। गौ के समान शब्द करते हुए मेंढक हमें धन प्रदान करें। बकरे के समान शब्द करते हुए मेंढक हमें धन प्रदान करें। भूरे और हरे रंग के मेंढक भी धन प्रदान करें। वनस्पतियों को पैदा करने वाली वर्षा ऋतु में ये मेंढक हमें गऊएँ प्रदान करें और हमारी आयु में वृद्धि करें।

धैर्यपूर्वक सुनने के लिए धन्यवाद!

(प्रस्तुत आलेख के प्रतिपाद्य विषय वस्तु के लिए मैं - कुबेरनाथ राय, भगवान सिंह, रमाकान्त आङ्गिरस, जे. कृष्णामूर्ति, रजनीश, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नरेश मेहता का विशेष रूप से आभारी हूँ जिनके विचारों और शब्दों का प्रयोग साधिकार प्रयोग किया है।)

एक दिवसीय राष्ट्रिय सड्.गोष्ठी

Defining Ambivalent Relationship of Sanskrit and English Language & Literature

सँस्कृत एवम् अँग्रेजी भाषा एवम् साहित्य के राग-द्वेष पूर्ण सम्बन्धों का परिभाषिकीकरण

दिनाड्.क – २५ अगस्त, २००९
समय – ९.०० प्रातः
स्थान : सभागार, एस० डी० कालेज, अम्बाला छावनी।
प्राचार्य / मान्यवर .....................................
.......................................................
.......................................................

सँस्कृत विभाग, सनातन धर्म कॉलेज (लाहौर) अम्बाला छावनी एवम् हरियाणा सँस्कृत अकादमी, पंचकूला के द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित उपरोक्त विषय पर एक-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेने के लिए तथा विचार विनिमय करने के लिए सादर आमन्त्रित हैं। सड्.गोष्ठी में कुल चार वक्तव्य प्रस्तुत किए जाएँगे जिन पर सदन में प्रश्नोत्तर / विवाद / स्वमत स्थापन/ परमत खण्डन किया जा सकेगा। चार शोध-पत्रों में से दो पत्र विश्वविद्यालय के अँग्रेजी प्राध्यापकों द्वारा और दो पत्र सँस्कृत प्राध्यापकों द्वारा वैचारिक स्थापना हेतु प्रस्तुत किए जाएँगे।
आवश्यक निवेदन
मार्ग व्यय अकादमी द्वारा मूल टिकट के प्रस्तुति पर ही देय होगा। सीमित संसाधनों के कारण आपकी प्रतिभागिता के विषय में पूर्वसूचना २० अगस्त, २००९ तक आवश्यक रूप से अपेक्षित है।
विचार विनिमय कि भाषा हिन्दी/ अँग्रेजी रहेगी।
कृपया समय का सम्मान करे।
आशुतोष आङ्गिरस डॉ. देशबन्धु
समन्वयक प्राचार्य
098963-94569


संयोजक परिषद्
डॉ. उमा शर्मा, डा० अलका शर्मा डा० सतवीर शर्मा,
09466046186 09416328766 09416828386
प्रो० जयदीप पीयूष अग्रवाल
09416123305 09896862403



Idea of the Seminar

Defining Ambivalent Relationship of Sanskrit and English Language & Literature

Relationship of Sanskrit and English has remained tense but interactive since English came to do business and moved on to rule India and Indian mind. At the same time, they started exploring Indian art, culture and languages etc. Subsequently many of them were fascinated by the non-regional language and literature of Sanskrit. Their sincere business adventurism was mesmerized by the dynamic thoughts & their processes of Sanskrit language & literature. They immediately started translating Sanskrit texts and introduced these works to the west. Moreover they also started expressing myths/ concepts/ ideas of Sanskrit in their language and literature. Whatever may have been their intentions but there is no denying the fact that they were fascinated, influenced by the culture of Sanskrit language & literature, right from Max Muller to Eliot and others who have borrowed, used thoughts, expressions of Sanskrit in their writings. Then slowly emerged a new class of Indian English writers starting from Tagore, Ghosh, Naidu to modern writers. In this class there were two sections of writers- one who targeted to condemn or humiliate Sanskrit language & literature, like- N.C. Chaudhary and others. This large section of writers/ thinkers has made a place in the market by denouncing the very basics of Indian way of life and living which have their roots in Sanskrit. These writers generally focus on two issues, namely- man woman relationship and oppressed class or caste. By condemning/ negating/ humiliating Sanskrit, they tried hard to make India a worth living place.
The second section of Indian writers writing in English belongs to Aurobindo, Raja Rao, Arun joshi, U. R. Anatha Murti etc., who not only tried to understand the sources of Sanskrit tradition but also expressed themselves in a more sensible and meaningful manner. It is not that they were biased or obsessed by the very ethos of Sanskrit. It was the basic inputs of healthy mind and life which forced them to make a right / positive query about the very basic meaning or purpose of life.
So this Love- hate relationship has influenced English Literature but acknowledging Sanskrit as fact has remained an illusion. Sanskrit mindset which has been time and again assaulted, insulted, looked down with contempt by the pseudo-secularists modernists have created blunders not only by mistranslating the basic terms or concepts, like- Dharma as religion, Brahaman as God, Brahmin/ Purohit as Priest, Adhyaatam as Spiritual etc., but also played havoc with the cultural ethos of India since English does not have the concepts of Moksha, Purushartha, Stri etc. That is why questions of self/ identity/ relevance are popping up in the present day literature of English, Hindi and other regional languages.
On the other hand English and other regional languages have forced Sanskritists to re-look, re-evaluate their position critically in the changing scenario of the society. Present day compulsions have made Sanskritists to think in English frame work. Therefore to bring Sanskrit and English on one platform to open up a meaningful dialogue on a positive / progressive note, this one day seminar is need of the hour. Scholars, teachers and academicians from English and Sanskrit streams are invited not only to interact but also to find out the answers to the outstanding questions of self denial or condemnation, a trend which has been pampered in the name of progress, modernism, consumerism and globalization. We as Linguists/ humanists must have an open mind for a better human future in Indian terms, if possible.
Suggested Topics for discussions-
Understanding Ethos of Sanskrit and English language
Use of Sanskrit concepts / Myths in Indian Writings in English
Treatment of Brahmnical view point in Indian writings in English
Traditional women in Sanskrit-English writings
Understanding of Social/ religious/ spiritual/ cultural concepts in Sanskrit-English writings
Man woman relationship in Sanskrit -English writings
Expression of Caste/ class system in Sanskrit- English writings
Meaning of Indian Tradition in English writings
Statements of Self in Sanskrit- English writings

Friday, June 26, 2009

A Critique of counseling Techniques in Indian Tradition


A Critique of counseling Techniques in Indian Tradition

Ashutosh Angiras, Lecturer, Department of Sanskrit,स.D.College [Lahore], अम्बाला Cantt.133301

Indian traditional perspective regarding human beings is two folds- what he is and what he does? First perspective contains the basic term or idea of –अस्ति i.e. being and the second perspective deals with the term- भवति i.e. becoming. The idea of अस्ति has been deliberated from three viewpoints:
1) Pure consciousness, which includes the terms- ब्रह्म, पुरुष, शिव, चैतन्य,
2) Pure matter i.e. प्रकृति, महाभूत,
3) शून्य (the word has no corresponding English term. The closest translation can be nothingness or nihilism but care must be taken that shoonyta is neither a negative word nor it conveys negativity.)
The idea of अस्ति has been discussed in varied forms by scholars, right from the beginning of the Vedic Age to the most modern thinkers like Aurobindo Ghosh, Vivekanand, J. Krishnamurti, Osho,Rajnish and other religio-philosophic sects rooted in Indian tradition. We need not deliberate on this part at the moment but one must bear this idea of अस्ति in our mind since it will help us to understand the idea of counseling in Indian tradition.
The second aspect – भवति (becoming) needs to be deliberated upon. Every human being lives by a series of actions which lead him to achievements in life and a man is known by his achievements in the society or the world he lives in. The movement from being to becoming is an expression of man’s inner most wish or desire to be ‘somebody’. Man’s mind is always engaged in doing or achieving something but this doing or achieving hardly means his own being (अस्ति). Actions or achievements can be chosen by an individual but his own being is his very basic nature. One can not be anything but his own self. It cannot be chosen but the process of becoming can be chosen – you may want or act to be ‘somebody’ or you may not want it which i since human mind is always involved in achievements there arises problems of pain, pleasure, jealousy, competition, stress etc. and the situation necessitates counseling. That is why Indian counseling techniques do not require answers to frivolous questions regarding achievements rather traditional counselors ask very basic or fundamental questions regarding the purpose, meaning or nature of one’s being. They slowly but surely lead to path of being from becoming that is why terms like निष्काम कर्म/ सन्यास योग/ स्थित प्रज्ञ have been used frequently. These terms or concepts are not idealistic in nature. These are real terms and applied too. More the distance between the being and becoming, more the counseling required, because one’s being always comes ahead of one’s achievements.
There is no denying the fact that everybody needs some kind of counseling at some stage of his or her life under varied circumstances or situations- like in case of deaths of near and dear ones or betrayal by lover or relatives, loss of socio-economic securities etc. or in case of excessive happiness or achievements in the worldly affairs. Although Indian socio-religious system is such that it trains the mind of an individual in a way that one knows what to do and how to do in the events of happiness or grief. But in extremely trying situations where after effects are too strong counseling is done by elders, close friends, relatives, pundit gurus. This socio-religious kind of counseling can be termed as UPADESH because it means going close to some one to direct him or her to act or perform. The word ‘UP’ in UPADESH means being close to someone whom one trusts or has faith in. So this faith or trust constitutes the first part of counseling and the second word is ‘DISH’ which is a verb, meaning directed action, i.e. the direction in which mind should be diverted to act. This directional action will unlock a particular mind or unbundle a particular kind of complexity of mind. Thus UPDESH contains the idea of self counseling also known as ATMA-CHINTANAM or AATMA_VIMARSH in Indian Tradition. Examples like – NACHIKETA, SATYAKAAM JAABAAL, NAARAD etc can be referred. The UPADESH concept has a definite line of reason, argument, logic and conclusion. UPADESH does not at all mean hurling orders to someone. So the concept of UPADESH needs to be understood in the right perspective. It is quite different from a sermon or teaching since UPADESH is which is spoken in the beginning between the two- ADYOCHARANAM UPADESH’.
For the applied aspect of Counseling techniques in Indian tradition let us take up five different situations of five different individuals of different time periods where examples of counseling can be perceived -
1. Counseling done by RISHI VASISTH of RAMA in the adolescent age for VARAGYA situation in YOGA VASISTH;
2. Counseling performed by SRI KRISHNA of ARJUN in the war situation for VISHAAD i.e. depression in BHAGWAT GITA;
3. Counseling done by RISHI SUMEDHA of king SURTHA and business man SAMADHI for their confused state of attached mind due to loss of their kingdom and betrayal by the family, respectively in DURGA SAPTASHATI;
4. Counseling done by a housewife HEMLEKHA of her prince husband HEMCHUD for dissatisfaction in the marital life in TRIPURA RAHASY;
5. Counseling done by PUNDIT VISHNU SHARMA of three dull and timid headed princes for socio-political practical behavior i.e. VYAVHAAR KUSHALTA in PANCH TANTRA and HITOPADESH.
Yoga Vasistha (योग-वासिष्ठ), authored by sage Vasistha, one of the teachers of Rama. As the name suggests, ‘Yoga’ means union - with Truth, and "Vasistha" was the sage who imparted this knowledge. It is a discourse by the great Sage Vasistha to young Prince Rama , after he returns from a tour of the country and becomes utterly dispassionate after seeing the apparent reality of the world. This worries his father, King Dasaratha. The King expresses his concern to Sage Vasistha, upon his arrival. Sage Vasistha consoles the king by telling him that Rama's dispassion (vairagya) is a sign that the prince is now ready for spiritual enlightenment. He says that Rama has begun to understand profound spiritual truths, which is the cause of his confusion and he just needs confirmation. Sage Vasistha asks king Dashratha to summon Rama. In the court of king Dashratha, the sage begins this address to Rama which lasts for several days. The scripture contains wonderful health hints, psychosomatic theories, lucid instructions on meditation, worship and beautiful descriptions. Vasistha declares right in the beginning that the feeling that I am psychologically bound and what I want is to get out of this prison, is the qualification of one who can profit by a study of this text. Why do despair and fear arise in our life? Why do we get attached to anything in life? Why do we hate anything? All these arise from hope or desire for happiness, for peace of mind. This hope inevitably leads us to our own destruction or unhappiness. Vasistha says: "Give up all ideas of renunciation of running away from this world. Don’t even try to examine what despair is; don’t even try to investigate whatever is a passing phenomenon. Don’t even let your mind dwell on what has been considered unreal." In this manner counseling goes on and RAMA finds his MANH-SWASTHYA.
Bhagwat GIta – The first chapter is called VISHAD YOGA and the under current of all 18 chapters is Yoga. It deals with a peculiar situation of a great warrior Arjun, whose mind is engulfed by depression at the precise moment when the war is to begin. Depression overwhelms his personality, when he takes a look at the two armies and the leading warriors in the battle field, be able to decide whom to fight with? The mental process described here is quite exquisite as Arjun’s desire to see leads him to multiple complexities of thought and thought postpones the mood of action and that leads to depression. In the first chapter the word PASHYANTI has been used time and again and this made him to think (VICHAAR). Vichar has a tendency of duality that creates symptoms of depression, like trembling in body due to loss of vitality, dryness of mouth, burning sensation in skin, instability of mind or tremors in eyes and imagining things which have not occurred. War concerns changes watery to care and concern for relatives, family, society, men and women, future generations and other worldly affairs.
At this moment KRISHNA questions him –“Where did you get this KASHMAL in situation of war? You very well know that this is not the path of upright men. This brings bad name? You cannot earn heaven by this state. Shun this weakness of mind, do not be impotent, this does not suit you, so arise.” These posers bring ARJUN in to a dialogue mode, which is the first step towards counseling in the treatment of depression. In the next stage Arjun asks Krishna what he should do, knowing well that he is confused now. Smiling, Krishna raises issues of reality and belief with reasoning and makes him realize not to think as a pseudo intellectual. During the discourse Krishna argues in a philosophical and realistic manner. He slowly and surely transforms Arjun’s depression in to query mode, then into understanding, then in to realization followed by decisive action. During the course of 18 chapters of GITA, Krishna counsels with different and vast range of arguments. Krishna’s way of counseling is all inclusive.
TRIPURA RAHSYA- The third case study concerns the marital discord in the love cum arranged marriage of prince HEMCHUD to HEMLEKHA, the foster daughter of MUNI VYAGRAHPAD. Soon after marriage the prince, always busy in BHOGAs( worldly pleasures) senses that his wife is not interested in BHOGAs and that she remains in a stable state of mind (TATASTH). This disturbs and upsets the prince, so he asks her one day- “when I express my feelings of love to you why do not you express your feelings in the same manner? You do not seem to be involved in anything [ANASAKT]. You have a pious smile but are these SUKHOPOBHOG not suitable to the wishes of your mind? When you do not seem to be enjoying the best possible available BHOGAS then how can I derive pleasure out of these? I am very much involved in worldly pleasures and in your love but while staying in the midst of these pleasures your mind seems to be unattached. Although detached you still talk [VARTA] to me and behave in a caring manner. Your every action or activity makes me feel your non-involvement [ASNGATATA].None of the carefully planned arrangements seem to interest you and you hardly participate in them. Tell me how I can derive pleasure with nothing but an artist's model which is what seem to be, seeing your indifference to all enjoyments. What does not please you cannot please me either. I am always looking to you, trying to please you like a lily looking up at the moon. O dear, show interest in these wonderful pleasures of life and world. You mean much more to me than my life [PRANADHIK PRIYE] but I am unable to bear or tolerate your non-involvement. Speak to me, solve my problem.”
Since she wished her husband to relate to reality, she spoke with a serious smile [GANBHIR SMIT] - It is not that I do not love you but I also ponder upon- what is the dearest in this world and what is not? Laughing the prince replied- it is true that women are silly since everybody knows including animals what is dear and what is not because everybody is interested in dear and disinterested in what ever is not. How can you confuse the two? She replied- Agreed that women are simple and can not understand truth but dear husband! You are a prince. You are a thinker and know the minutest of details about things or situations but let me know how when one thing at a particular time is dear and gives pleasure at another given time, is not dear and causes pain, how one should decide about the thing or the situation? Moreover excess availability or non-availability of things changes the meaning of what is dear and what is not. "The same object yields pleasure or pain according to circumstances. What then is the finality of your statement? Take the example of fire. Its results vary according to season, place and its own size or intensity. The same situation applies to all things- may it be family, wealth etc. How can constantly changing things satisfy anyone? None seems to possess all that is required for happiness. Now, the question arises: Can a man never be happy, even with such limited means? I shall give you the answer. That, my Lord, which is tinged with misery, cannot be happiness. Misery is of two kinds, external and internal. The former pertains to the body and is caused by nerves, etc. the latter pertains to the mind and is caused by desire. Mental distraction is worse than physical pain and the whole world has fallen victim to it. Desire is the seed of the tree of misery and never fails in its fruits. So consider the matter well, Prince! Shaped by fat and flesh, filled with blood, topped by the head, covered a skin, ribbed by bones, sheathed with hair, containing bile and phlegm, a pitcher of faeces and urine, generated from semen and ova, and born from the womb, such is the body. Just think over it, finding delight in such a thing! Are men any better than worms growing in offal? My King! Is not this body (pointing to herself) dear to you? Think well over each part there of. Analyze well and carefully.
On hearing all this, Hemachuda developed an instant disgust towards earthly pleasures. He was amazed at the strange discourse he had heard. He later pondered over all that Hemalekha had said. His disgust for earthly pleasures grew in volume and in force. He again and again discussed the matter with his beloved so that he understood the ultimate truth. Through his association all people gained jnana (wisdom). Know then, that satsanga (association with the wise)alone is the root of salvation.
DURGA SAPTASHATI- Once there was a king by the name of Suratha he was a good king who protected his people and treated them as his sons but he was usurped of his kingdom. The king alone rode on horseback into a dense forest. While on a walk about in the jungle, king Suratha reflected in his own mind. Overcome with attachment, he thought-“I do not know whether the capital which was well guarded by my ancestors and recently deserted by me is, being guarded righteously or not by my servants of evil conduct. I do not know what enjoyments and care my chief elephant, and now fallen into the hands of my foes, will get. Those who were my constant followers and received favors, riches and food from me, now certainly pay homage to other kings. The treasures which I gathered with great care will be squandered by those constant spendthrifts, who are addicted to improper expenditures.” The king continuously thought about these and other such things.
In the jungle near the hermitage of the sage MEDHA the king saw a merchant, and asked him- “Who are you? What is the reason for your coming here? Where from do you appear as if afflicted with grief and depressed in mind?” Hearing the words of the king, uttered in a friendly spirit, the merchant bowed respectfully and replied – “I am a merchant named Samadhi, born in a wealthy family. I have been cast out by my sons and wife, who are wicked through greed of wealth. My wife and sons have misappropriated my riches, and made me devoid of wealth. Cast out by my trusted kinsmen, I have come to the forest grief-stricken. Dwelling here, I do not know anything about the welfare of my sons, kinsmen and wife. How are they? Are my sons living good or evil lives?”
The king said-“Why is your mind affectionately attached to those covetous folks, your sons, wife and others, who have deprived you of your wealth?” The merchant said-‘the very same thought occurred to me, just as you uttered it. Yet, what can I do? My mind does not forsake attachment; it bears deep affection to those very persons who have driven me out in their greed for wealth, abandoning love for a father and attachment to one's master and kinsmen. Although, I know it, I am not able to comprehend it. O noble hearted king, how is it that the mind is prone to love even towards worthless kinsmen? On account of them I heave heavy sighs and feel dejected. What can I do since my mind does not become detached towards those unloving ones?”
Then the king Suratha and merchant together approached the wise sage Medha, in his hermitage. The king said-“Sir, I wish to ask you something .If possible kindly solve my query. My mind is afflicted with sorrow and I have no control over my intellect. Though I have lost my kingdom, yet like an ignorant person I still remain attachment to all the paraphernalia of my kingdom. Similarly this merchant has been disowned and forsaken by his greedy children, wife, selfish servants, yet he remains still inordinately affectionate towards them. Thus both he and I, drawn by attachment towards objects whose defects we do know, are exceedingly unhappy. How does this happen, then, sir, that though we are aware of it, this delusion persists? This delusion besets me as well as him, blinded as we are in respect of discrimination?”
The Rishi said-“Sir, every being has the knowledge of objects perceivable by the senses. And object perceivable by senses reaches him in various ways. Some beings are blind by day, and others are blind by night; some beings have equal sight both by day and night. Human beings are certainly endowed with knowledge, but they are not the only beings (to be so endowed), for cattle, birds, animals and other creatures also cognize (objects of senses).
The knowledge that men have, birds and beasts too have; and what they have men also possess; and the rest (like eating and sleeping) is common to both of them. Look at these birds, who though are possess knowledge, are still distressed by hunger and because of the delusion, are engaged in feeding grains into the beaks of their young ones. See with what devotion they put the food grains into the beaks of their young ones? Men, O king, are full of desires. Human beings are, O tiger among men, attached to their children because of greed, expecting rewards in return. Do you not see this? Even so men are hurled into the whirlpool of attachment, the pit of delusion, through the power of Mahamaya (the Great delusion), who makes the existence of the world possible. It is by her the world is deluded. Verily she, the Mahamaya forcibly drawing the minds of even the wise, entangles them into delusion. She creates this entire universe, both moving and still. It is she who, when propitious, becomes a boon-giver to human beings for their final liberation. She is the supreme knowledge, the cause of final liberation, and eternal; she is the cause of the bondage of transmigration and the sovereign.”
PANCHATANTRA- Panchatantra is essentially related to one of the branches of science known by the Indians as the 'Nitishastra' which in Sanskrit means 'A book of wise conduct in life'. It attempts to teach us, how to understand people, how to choose reliable and trustworthy friends, how to face difficulties and solve problems through tact and wisdom, and how to live in peace and harmony in the face of hypocrisy, deceit and pitfalls in life.
Panchatantra is woven around the frame of a tale of a king who entrusts his three 'dud' sons to a learned man, a Brahmin, called Pandit Vishnu Sharma, to enlighten their minds within six months. The Brahmin promises to educate them and takes them to his 'ashrama' (hermitage). There he recites to them his especially composed tales divided into five tantras (in Sanskrit: Pancha=five and tantra=systems or parts) about how to deal with people in life.

The tale is narrated in prose while the exposition of a philosophical and moral theme is put in verse, maxims or wise sayings are also expressed in verse, which either sums up the narration or introduces the next tale. The story-teller's art sugar coats the bitter of his sober philosophy. He sets story within story and keeps us waiting for the sequels and hence leads us on through the five 'tantras.' As one fable follows another, people and animals are constantly changing places, they share the same characteristics of love and hatred, compassion and wit, selfless courage and base cowardice, generosity and meanness. Each story has a moral and philosophical theme which has stood the test of time and so is true even in modern times - an age of atomic fear and madness.
Panchatantra is a rare book, for in no book will you find philosophy, psychology, politics, music, astronomy, human relationship, etc., all discussed together in such a simple yet elegant style. This is exactly what Pandit Vishnu Sharma had in mind, to give as much knowledge to the princes as possible. And no doubt not only the princes but also millions of listeners and readers for the last 2,200 years have benefited from this unique book.
The above description clearly shows the different techniques of counseling in Indian tradition but more meticulous research is required regarding the construction of language, process of reasoning, variety of knowledge, sensitivity and above all human approach. Certainly these indigenous counseling techniques can show better results what is we need to explore it more seriously and without prejudices.
------------------------

Sunday, December 7, 2008

द्वि-दिवसीय
राष्ट्रिय सम्वाद गोष्ठी एवम् कार्यशाला

RETHINKING BASIC CONCEPTS OF PSYCHOLOGICAL AND COUNCSELLING TECHNIQUES IN INDIAN TRADITION
भारतीय परम्परा में मनोविज्ञान की मूल अवधारणाएं एवम् परामर्श पद्धतियां- एक पुनःविचार
दिनांक-27-28 फ़रवरी, 2009
Sponsored by- ICSSR, P.U., Chandigarh

मान्यवर_________________,
संस्कृत की पुनः संरचना योजना के अन्तर्गत संस्कृत, संगीत विभाग उपरोक्त विषय पर आयोजित द्वि-दिवसीय राष्ट्रिय संगोष्ठी एवम् कार्यशाला में पत्र प्रस्तुति एवम् समालोचन के लिए सादर आमन्त्रित करने में गौरवान्वित अनुभव करता है।
इस सम्वाद गोष्ठी के आयोजन का मुख्य कारण है कि भारतीय मनोविज्ञान का एक औपचारिक, तार्किक व्यावहारिक प्रारूप उपस्थापित करना ताकि पाश्चात्य मनोविज्ञान और भारतीय मनोविज्ञान में मानवीय हितों को दृष्टि में रखते हुए एक सम्वाद का मार्ग खुल सके और मानवीय चेतना के उन आयामों को टटोला जा सके जिसकी आवश्यकता आज सम्पूर्ण मानवता को है और इसमें मूलभूत प्रश्न यह है कि भारतीय मनोविज्ञान के नाम पर साहित्य में, शास्त्र में, परम्परा में, संस्कृति में, जीवन में, व्यवहार में जो कुछ भी सामग्री उपलब्ध है, क्या उसके आधार पर एक निश्चित प्रारूप प्रस्तुत किया जा सकता है और यदि किया जा सकता है तो वह क्या है या क्या हो सकता है और साथ ही यह भी स्पष्ट कर लेना चहिए कि क्या मनोविज्ञान साईकालोजी का सही अनुवाद है क्योंकि पश्चिम में “साईकी” (“Psyche”) शब्द का अपना एक इतिहास है जो एक सांस्कृतिक-वैज्ञानिक-दार्शनिक मूल्य के रूप में प्रयोग होता है जबकि भारत में मन “अन्तःकरण” का एक भाग है और इस अन्तःकरण में मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार सम्मिलित हैं अतः अन्तःकरण शब्द तो सम्भवतः साईकोलोजी का समीपवर्ती अनुवाद हो सकता है परन्तु फ़िर भी भारतीय मनोविज्ञान को परिभाषित करने में कई व्यावहारिक कठिनाइयां दृष्टिगत होती हैं जिनकी चर्चा इस गोष्ठी में अपेक्षित है ।साथ ही साथ यह भी ध्यातव्य है कि मनोविज्ञान को इस प्रकार परिभाषित किया जाए कि वह अध्यात्म के क्षेत्र का अतिक्रमण न करे और वह दैनन्दिन समस्याओं का विश्लेषण करे भी और करना सिखाए भी। वेद, उपनिषद्, साहित्य और दर्शन में अनेक गुणात्मक और विश्लेषण पूर्ण तथ्य मन के विषय में कहे गए हैं जिनकी चर्चा इस पक्ष से अपेक्षित है कि वह सब तथ्य मिल कर भारतीय मनोविज्ञान का क्या और कैसा स्वरूप प्रस्तुत करने में सक्षम है।
कतिपय विचार बिन्दु-
• भारतीय मनोविज्ञान से हम क्या समझते हैं?
• क्या मनोविज्ञान “Psychology” विषय का किसी भी प्रकार से सही अनुवाद हो सकता है?
• क्या मन बुद्धि चित्त अहंकार वृत्ति आत्मा सत् चित्त् आनन्द जीव कोश कर्म आदि शब्दों का अंग्रेजी में परिनिष्ठित (realistic) अनुवाद सम्भव है?
• क्या उपरोक्त शब्दों की व्याख्याएं अतिव्याप्ति (over generalization) या सांकर्य (overlapping) दोष पीड़ित नहीं है?
• भारतीय मनोविज्ञान के विषय में जो कुछ भी सूचना सामग्री उपलब्ध है क्या वह पर्याप्त एवम् व्यवस्थित है ?
• क्या उपलब्ध विषय सामग्री का उपयोग वैज्ञानिक पद्धति से करना सम्भव है?
क्या भारतीय मनोविज्ञान को एक विषय के रूप में कम से कम बी०ए०/बी० एस० सी० में पढाना सम्भव है ?और यदि है, तो अभी तक इस सन्दर्भ में हमने क्या प्रयत्न किए और यदि प्रयत्न नहीं किया तो संस्कृत की रक्षा के नाम पर हमने क्या किया? विशेष रूप से विश्वविद्यालयों के स्तर पर?
• Have there been any terms, systems, thinking processes in Indian tradition regarding psychology?
• If there had been any thing which deals with the psychological issues in Indian tradition then a serious investigation is needed so as to find out not only new dimensions in Psychology but also to find a better alternative psychological system?
• Primary investigations has led us to believe that Indian tradition deals with nature of consciousness, mind, nervous system, behavior of individuals or society, in a different manner. There are different schools of Indian tradition which not only conceptualize an advance frame-work for psychology but also practise them in a very indigenous manner which makes psychology to think in more humanistic terms like jiva, bhuta, praani etc.
• How can different schools of Indian psychology like- Vedic, Mimaanasaa, Saamkhya-yoga, Vedanata, Buddhist, Jain, Tantra, ayurveda etc. be used to add more meaning to the realms of psychology?
• Can there be any creative dialogue between the Indian systems of psychological thinking and the western understanding of psychology?
• Can India contribute its experiences of psychic understanding to the world at large or humanity in its own terms in different fields of psychology?


संगोष्ठी से पूर्व उपरोक्त विषय पर ग्रन्थ प्रकाशित करने की योजना के अधीन आपसे साग्रह निवेदन है कि अपना शोधपत्र निम्नांकित विषयों के सन्दर्भ में ही प्रेषित करें। कृपया पत्र के पूर्वकथन में समस्या/ प्रश्न/जिज्ञासा/आपत्ति/आक्षेप/ स्थिति को आधुनिक सन्दर्भ में परिभाषित करें तदनन्तर स्वपक्ष स्थापित करें। शोधपत्र का विषय शास्त्र एवम् लोक परम्परा के अनुकूल होने के साथ साथ बुद्धिवादिता और प्रयोगार्हता का पात्र हो। इसी कारण को ध्यान में रखते हुए ग्रन्थ के दो भाग किए गए हैं-
१. सिद्धान्त पक्ष Theory > Man and Natureमनुष्य एवम् प्रकृति, Nervous system नाड़ी / स्नायुमण्डल, Mind अन्तःकरण, Emotions and sentiment भाव , Process of knowledgeज्ञान प्रक्रिया, Action कर्म, Language/ Speech वाक् / भाषा
२. व्यवहार पक्ष Applied Aspect > [Corrective methods उपाय प्रक्रियाएँ- योग , प्राणायाम, ध्यान, मुद्राएं, न्यास, चिकित्सकीय ज्योतिष, कथा, संगीत, मन्त्र तथा अन्य कलाएं आदि]
इस सन्दर्भ में ध्यातव्य है कि भारतीय परामर्श पद्धतियों में दुःख के समाजीकरण की प्रक्रिया [सत्यनारायण कथा], जडता, मन्दता, हिंसा, अवसाद, मानसिक विचलन आदि के लिए प्रयोग की जानी वाली प्रक्रियाओं का विश्लेषण जैसे- गुरू शिष्य सम्वाद [पञ्चतन्त्र, हितोपदेश, उपनिषद्], पति-पत्नी सम्वाद [त्रिपुरा-रहस्य], नरनारायण सम्वाद [गीता], नारदीय,जैन,बौद्ध, पौराणिक परामर्श पद्धतियाँ इत्यादि को आधार बना कर आधुनिक उपयोग की योग्यता के अनुकूल प्रस्तुति की आपसे अपेक्षा है।

उपरोक्त विषय के सन्दर्भ में आपके प्रश्नों का, उत्तरों का, सुझावों और वैचारिक आयामों का विनम्रतापूर्ण स्वागत है। कृपया अपनी उपस्थिति से हमें अनुगृहीत करें।

विशेष-
१. शोधपत्र की कम्पयूटरीकृत साफ़्ट एवं हार्ड प्रति आवश्यक रूप से दिनांक ०५ जनवरी,२००९ तक आवश्यक रूप से पहुंच जानी चाहिए। फ़ान्ट अंग्रेज़ी भाषा के लिए Times New Roman [12] तथा हिन्दी भाषा के लिए यूनिकोड अथवा कृतिदेव[१२] माईक्रोसाफ़्ट वर्ड में प्रेषित करने चाहिए।
२. पंजीकरण शुल्क-२००/-
३. ठहरने की व्यवस्था के लिए पूर्वसूचना अवश्य दें ।
४. यात्रा भात्ता सामान्य श्रेणी का नियमानुसार देय होगा।

डा० आशुतोष अंगिरस डा० रश्मि चौधरी डा० देशबन्धु ,
संगोष्ठी निदेशक संगोष्ठी सचिव प्राचार्य
098963-94569 09896473740 09812053283
ई-मेल- sriniket2008@gmail.com
ब्लाग- http//sanatan sanskrit.blogspot.com
http//angiras.blog.co.in
आयोजन समिति
, प्रो० नीलम अहूजा, प्रो० कमलेश सिंह, डा० उमा शर्मा, डा० परमजीत कौर
09466046186 09416862076

डा० सतवीर शर्मा, प्रो० श्वेता उपाध्याय, , श्री हेमचन्द भारद्वाज श्री शशी शर्मा,
09416828386 09466693634 09416157454
विशिष्ट सहयोग- डा० राजेन्द्र शर्मा, अध्यक्ष, मनोविज्ञान विभाग, जी०एम० एन० कालेज, अम्बाला
छावनी। मो०-09416553630, ई-मेल- arianhorse@yahoo.com

कार्यक्रम
RETHINKING BASIC CONCEPTS OF PSYCHOLOGICAL AND COUNCSELLING TECHNIQUES IN INDIAN TRADITION
भारतीय परम्परा में मनोविज्ञान की मूल अवधारणाएं एवम् परामर्श पद्धतियां- एक पुनःविचार
दिनांक-27-28 फ़रवरी, 2009
प्रथम दिवस [दिनांक-27 फ़रवरी, 2009]
पंजीकरण - ०९.०० से ०९.३० तक
आद्युन्मेष – ९.३० से ११.०० तक
चाय-पान- ११.०० से ११.१५ तक
प्रथम उन्मेष- ११.१५ से १.३० तक
भोजनावकाश –१.३० से २.१५ तक
द्वितीय उन्मेष -२.१५ से ४.०० तक
चाय-पान - ४.०० से ४.१५ तक
तृतीय उन्मेष –४.१५ से ५.३० तक

द्वितीय दिवस [ दिनांक-28 फ़रवरी, 2009]
चतुर्थ उन्मेष – ९.०० से ११.३० तक
चाय-पान - ११.३० से ११.४५ तक
पंचम उन्मेष – ११.४५ से १.३० तक
भोजनावकाश - १.३० से २.१५ तक
निमेष – २.१५ से ४.३० तक
चाय-पान

Sunday, November 23, 2008

नेशनल Seminar



  1. A
    ONE DAY
    NTIONAL SEMINAR
    ON

    “Rethinking Human Rights and Value Education”
    “मानवाधिकार एवम् मूल्य(मर्यादा)परक-शिक्षा- एक पुन:विचार”
    Sponsored by University Grants Commission

    22nd December, 2008

    Dear Sir/Madam _______________________,

    Department of Journalism, Sanskrit, Economics and National Cadet Corps [Boys &Girls wing] of S.D. College [Lahore] cordially invite you to participate and present a paper in a one day national seminar being held on above said date and time.

    Human Rights inhere in a person by virtue of his/her being a human. They comprise both civil and political rights as well as economic, social and cultural rights. Human rights and fundamental freedom allow us to fully develop and use our human qualities, our intelligence, our talents and our conscience and to satisfy our spiritual and other needs. They are based on mankind's increasing demand for a life in which the inherent dignity and worth of each human being will receive respect and protection. The denial of human rights and fundamental freedoms not only is an individual and personal tragedy, but also creates conditions of social and political unrest, sowing seeds of violence and conflict within and between societies and nations. As the first sentence of the universal declaration of Human rights states, respect for human rights and human dignity "is the foundation of freedom, justice and peace in the world." Human rights issues in India are very different from those in a developed society. For a large number of people in India, human rights are related at once to food, shelter, education, employment and health. The greatest need today is to increase awareness about human rights because every aware individual ceases to be a potential violator and instead becomes a potential protector.
    We invite you to deliberate on this topic not only in the terms of human Rights but also in the terms and vision of value education or education based on values which is not at all a priority of any government, educational institutions in this business/ corporate oriented world. Since the reasons for establishing human Rights in west are all together different and in India, giving a legal sanction to human Rights is a poor imitation and this has created more confusion and complications in the collective Indian mind. This chaos starts right from the moment when we try to translate English terms in Hindi language which has a different socio-cultural understanding and practice of human Rights and value education- like translating Human Rights as manavadhikar is misleading translation since Rights and adhikar are words having diverse socio-cultural context and likewise translating value as mulya is wrong translation since its main focus is economics and appropriate translation can be maryada or dharma. Again problem arises when we try to understand vidya and shiksha in the terms of education.
    This chaos becomes denser when it comes to laying down the policies for an imported concept without evaluating its impacts. What kind of Indians this education system has produced or what kinds of personalities are the outcome of this education system? How humanity is related to science, technology and commerce or what kind of humanity is expected from these subjects and related educational institutes? Or do we want this system to produce cyborgs only? Indian society is basically familial society and western society is individualistic society so if west can think in their references, terms and situations then why can not we as Indians think in our own context? Is Indian tradition, ethos, culture, education is not competent enough to design or generate its own indigenous terms or system of human rights? In west Human rights is the direct outcome of world wars and there need to protect human rights is simply because of the business interests but how many times India has gone out of its territory to win or to fight with other countries? What Vedas, Puranas, Bauddhas, Jains and whole of the saint tradition said and did for human rights? Were they irrational human beings? If not then what efforts were made by the present day education system to evaluate the idea, concept and practices of human rights? Is present education system is capable enough to sensitize Indian society or individuals regarding value system of human rights? Are the concepts or ideas of ahimsa, compassion, synthesis, control over senses etc. needed for the present day humanity or not? If not then lets have the courage to disown Gandhi, Aurobindo, whole saint and rishi tradition. More over Indian constitution is not the part Indian culture. Deep down Indian psyche does not live by the constitutional rights or guarantees rather they live by and believe in their own faiths which makes them more human beings and as intellectuals, planners we have failed ourselves in recognizing basic constituents or ingredients of Indianness or Indianhood in our education system.
    So there is an urgent need to re-integrate the whole education system in such a way that it serves the humanity rather than producing the spare parts for the industries or corporate sector. Education not only for business or job purpose only but for a sensitive human being. Once we have good/ better human beings then business will be done only for human dignity.
    It is our humble objective to evaluate the concept of “Human Rights and Value Education” through inter-disciplinary observations and find better needful understanding. We are sure such an interaction between different subjects and individuals can raise hopes for a better future where “Human Rights and Value Education” may exist in real sense.
    You are kindly requested to choose topic of conviction and convenience

    Kindly submit your paper latest by 15th December, 2008.
    Delegation fee: Rs 100/-
    Ashutosh Angiras ०९८९६३-९४५६९
    Convener
    Suggested topics-

    Philosophy of Value education and Human rights
    Human rights and Indian Education System
    Concept of Values and human rights
    Historical perspective of human rights
    Role of Science in promoting Value Education
    Value System in Science and Value Education
    Scientific thinking and Human dignity
    Philosophy of Science and Idea of Humanity
    Meaning of Humanity in Science
    Philosophy of laws and human rights
    Human rights and Vedic sensibility
    Manus’ ideology of human rights
    Globalization, trade practices and human rights
    Gandhian perception & practice of human rights
    Aurobindos’ understanding of human rights
    Indian saint tradition and human rights
    Treatment of human rights in Indian languages and literature
    Defining the meaning of Value Education
    Education, Technology and Value System
    Culture of trade and Human Rights
    Human Rights and traditional value system
    Terrorist movements, Role of Science and Human Rights
    Philosophy and Politics of Human Rights
    Modern education policy and value consciousness
    Economic priorities and Value Education
    Sociology of Education and value consciousness
    Literature, language and Value Education
    Art as an expression of Value Education
    Scientific temper and Value education
    History as a tool of value education and Human Rights
    Science, Religion and Human Rights
    Human Rights in the Indian social contexts
    Need for teaching of value Education and human rights

Tuesday, October 14, 2008

आंगिरस दर्शन - एक विश्लेषण


आंगिरस दर्शन - एक विश्लेषण
भारतीयता का साक्षात् सम्बन्ध प्रकाश की उपासना से है । प्रकाश के विभिन्न आयामों को जितनी विविधता से इस संस्कृति ने ग्रहण किया है उतना किया अन्य संस्कृति द्वारा नहीं किया गया । उन अनेक आयामों में से एक आयाम है : अग्नि । इस अग्नि ने अपने नाम और रूप के विभिन्न आयामों से जितना अधिक इस आर्ष संस्कृति को प्रभावित किया, इस समाज की दिशा को निर्धारित किया, मानवीय मूल्यों का उत्कर्ष किया, मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण किया वह अपने आप में अद्भुत है । सम्भवत: इसीलिए ऋग्वेद के संकलन के समय पहला मन्त्र अग्नि का ही उपस्थित किया गया है ---- ''अग्निमीडे पुरोहितं ---1 ।''
यह निश्चित है कि आदि-काल में जब अग्नि का आविष्कार हुआ होगा तब अग्नि को उत्पन्न अथवा प्रकट करने वाले लोगों को समाज में विशिष्ट स्थान प्राप्त हो गया होगा । क्योंकि अग्नि तत्कालीन समाज की ऐसी आवश्यकता थी जो न केवल उनके जीवन का आधार ही थी अपितु उनके ज्ञान-विज्ञान, सोच-समझ, दर्शन की भी दिशा की निर्धारक तत्व थी । आदि-मानव के समाज में अग्नि को प्रकट करना अपने आप में एक कला थी जो दो रूपों में दृष्टिगोचर होती है ---
1) लकड़ी के मन्थन से अग्नि को उत्पन्न करने की कला,
ऋग्वेद, 3-29-1 से 12ु
2) उतवनन द्वारा अग्नि को प्रकट करने की कला, जैसा कि यजुर्वेद के मन्त्र 11-21 में कहा है कि
''वयं स्याम सुमतो पृथिव्याऽअग्नि खनन्त उपस्थेऽअस्या: ।'' अर्थात् जब हम धरती को खोद कर उसकी गोद से अग्नि को निकालें तो वह हमारे अनुकूल रहे । ''तत: खनेम तु प्रतीकमग्निं स्वोरूहाणाऽअधि नाकमुत्तमम् ।'' वही, 11-22, अर्थात् वहां से हम अग्नि को खोदें, जो देखने में सुन्दर है और हम उच्चतम आधारतक, स्वर्ग तक चढ़ें । ''पृथिव्या: सधस्थादग्निं पुरिष्यमंगिरस्वत् खनामि । ज्यातिष्मन्तं त्वामग्ने सुप्रतीकमजस्रेण भानुना दीद्यतम् । शवं प्रजाम्योऽहि सन्तं पृथिव्या: सध्सस्याग्निं पुरिष्यमंगिरस्वत् खनाम: । 11-28, अर्थात् जैसा आंगिरस करते थे वैसे ही हे पुरीष्य अग्नि, मैं धरती से तुमको खोद कर निकालता हूँ । इसे कला इसलिए कहा जाएगा क्योंकि सर्वप्रथम अग्नि ही अपने आप में अत्यधिक महत्वपूर्ण है और दूसरा अग्नि से सम्बन्धित जो भी क्रिया होगी वह स्वाभाविक रूप से अतिविशिष्ट होगी और यह अतिवैशिष्टय ही उसे कला के रूप में उपस्थित करता है और तीसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अग्नि से सम्बन्धित किए जाने वाले क्रिया कलाप, उसका संस्कार है । यह संस्कार मानवीय चेतना और भौतिक पदार्थों दोनों को ही संस्कारित करता है क्योंकि तभी यह प्रार्थना सम्भव है ---- ''अग्ने नय सुपया राये ---- ।2''
इस तथ्य को आत्मसात् करने वाले अथर्वन जो कि एक इतिहास पुरुष है, अग्नि के आविष्कर्ता होने के कारण आंगरस कहलाने लगे तथा उनके नाम पर अग्नि का मन्थन करने वालों की पूरी की पूरी जाति आंगिरस नाम से विख्यात हुई । 3 प्रमाण रूप में )ग्वेद के ये मन्त्र महत्वपूर्ण है ---''त्वामग्ने पुष्करादध्यर्थवा निरमन्थत । मूध्नों विश्वस्य बाघत: ।4'' अर्थात् हे अग्नि, ऋषि अथर्वन ने कमल से मन्थन करके पुरोहित विश्व के सिर से तुम्हारा आविर्भाव किया । और भी ---''अग्निर्जातो अथर्वणा विदद् विश्वानि काव्या ।''5 अर्थात् अथर्वन् द्वारा आविर्भूत हे अग्नि, आप सब स्तवनों के ज्ञाता हैं । और भी -- ''इममुत्यमथर्ववदग्नि मन्थन्ति वेधस:'' 6 अर्थात् हे अग्नि, विद्वान आपका मन्थन करते हैं, जैसा कि अथर्वन ने किया ।
वेदों के विभिन्न मन्त्रों में अथर्वन शब्द के विभिन्न रूप दृष्टिगोचर होते हैं जैसे- ऋग्वेद में उपलब्ध रूप है- अथर्वण:, अथर्वणा, अथर्वणि, अथर्वम्य:, अथर्ववत्, अथर्वा, अथर्वाण: । 7 अथर्ववेद में प्राप्त रूप हैं - अथर्व-आंगिरस, अथर्वण:, अथर्वाणं, अथर्वणि, अथर्वणे, अथर्वन्, अथर्ववत्, अथर्वा, अथर्वाण: ।8 तथा यजुर्वेद में उपलब्ध रूप है - अथर्वण:, अथर्वम्य:, अथर्वा, अथर्वाण: ।9 अथर्ववेद के 1612 मन्त्रों के ऋषि अथर्वन के द्वारा अग्नि की खोज कर लिए जाने के बाद बहुत से आंगिरस गोत्रीय अग्नि के मन्थन कर्ता के रूप में प्रसिद्ध हुए । लकड़ी से सफलतापूर्वक आग को मन्थन करके निकालना आसान कार्य नहीं था और ऐसा लगता है कि आग प्रकट करने की कला में इन आंगिरसों ने विशेषज्ञता प्राप्त कर ली थी । इसी कारण इनका समाज में विशेष सम्मानजनक स्थान था ।
यद्यपि एक )षि के रूप में कथर्वन का सम्बन्ध ऋग्वेद की किसी ऋचा से नहीं लेकिन बहुत से आंगिरस अनेक ऋचाओं के )षि हैं । ऋग्वेद में अनेक आंगिरस ऋषियों के नाम मिलते हैं जैसे ----
''अभीवीर्त, अमहीयु, अयास्य, उचथ्य, ऊरू, ऊर्ध्वसद्मा, कुत्स, ड्डतयशा, ड्डष्ण, गृत्समद, घोर, तिरश्चि, दिव्य, धरूण्, ध्रव, नृमेध, पवित्र, पुरूमीढ़, पुरूमेध, पुरूहन्मा, पूतदक्ष, प्रचेता, प्रभूवसु, प्रियमेध, बरू, बिन्दु, बृहस्पति, बृहन्मति, भिक्षु, मूर्धन्वान्, रह्गण, वसुरोचिष, विरूप, विहव्य, वीतहव्य, व्यश्व, शिशु, त्रुतकक्ष, संवनन, संवर्त, सप्तगु, सव्य, सुकक्ष, सुदीति, हरिमन्त, हिरण्यस्तूप । और अथर्ववेद में उल्लिखित आंगिरसों के नाम इस प्रकार हैं ---- अंगिरा, अंगिरा-प्रचेता, प्रचेता-यम, अथर्वांगिरस, तिरश्चि आंगिरस, प्रत्यंगिरस, भृगु आंगिरस ।
इन नामों के संग्रह पर दृष्टिपात करने पर इन के अर्थ की समस्या उत्पन्न होती है जिस के संबंध में विद्वानों के दो तीन समाधान उपलब्ध होते हैं जिसमें पहले मत के अनुसार ये नाम ऐतिहासिक संज्ञाएं हैं, दूसरे मत में ये नाम प्रतीकात्मक है, तीसरे मत में ये नाम विभिन्न आध्यात्मिक सत्ताओं के विभिन्न आयाम हैं । परन्तु ये मत हमें बोध के स्तर पर बहुत दूर नहीं ले जाते । क्योंकि इस दृष्टि से अभी तक हम किसी निश्चित बोध की प्राप्ति तक नहीं पहुंचे इन अर्थों में पूर्णता का अभाव खटकता ही है । इसलिए यदि हम इस दृष्टिकोण से देखें कि ये संज्ञाएं आदिम सभ्यता के मानवों की रूपांतरित चेतनाओं की जीवन दृष्टि के नाम है जिससे उन्होंने सत्य को बिना किसी आग्रह के सरलता से ग्रहण किया । तभी हम सूक्त और ऋषि की एकात्मकता के बोध की सम्भावना कर सकते हैं । नहीं तो हमारे सामने ये दो समस्याएं बिना किसी समाधान के उपस्थित रहेंगी ।
प्रथम समस्या है कि वैदिक ऋषि नामों का, जिन मन्त्रों के वे ऋषि माने गए हैं, उनके साथ क्या कोई विशिष्ट सम्बन्ध है ? क्या ये नाम केवल संज्ञावाचक नाम हैं अथवा किसी प्रकार के प्रतीक हैं या किसी तात्विक विशेषता के बोधक हैं ? यह समस्या निम्नलिखित प्रसंगों में महत्वपूर्ण है ----
1. जहां अग्नि देवता को मंत्रों का ऋषि माना गया है ।
2. जहां ऋषि नाम के साथ देवता संबंधी विशेषण का प्रयोग किया गया है ।जैसे
- इन्द्र अश्वनौ, अग्नि, बृहस्पति के विशेषण के रूप में आंगिरस ।
3. जहां ऋषि का नाम किसी भावना, गुण, अचेतन वस्तुओं के वाचक पदों के
रूप में प्रयुक्त है ।
4. जहां मन्त्र का देवता और ऋषि अभिन्न है । जैसे ऋग्वेद के 10-124-2 में
ऋषि और देवता अग्नि ही है ।
5. जहां मन्त्र में प्रयुक्त शब्द के आधार पर ऋषि नाम का निर्धारण होता है ।
6. जहां मंत्र में ऋषि नाम का अन्य पुरुष, मध्यम पुरुष, संबोधन या बहुवचन
के रूप में प्रयोग हुआ है ।
7. जहां मंत्र का स्वीकृत ऋषि कोई पश्चातकालिक भिन्न व्यक्ति है ।
दूसरी समस्या है जहां ---
1. कुछ मंत्रों के संबंध में भिन्न-2 ऋषियों का उल्लेख मिलता है ।
2. कुछ मंत्रों को अनेक ऋषियों ने सम्मिलित रूप से देखा ।
3. कुछ मंत्रों के ऋषि नाम के संबंध में विकल्प मिलते हैं, जैसे यजुर्वेद के 10-
96 में आंगिरस बरु या ऐन्द्र सर्वहरि, 10-10-7 में दिव्य आंगिरस या दक्षिण प्राजा ।
जो विद्वान ये मानते हैं कि वेद के प्रमुखत: चार ऋषि हैं--- अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा तथा इन्हीं से क्रमश: चार वेदों का प्रादुर्भाव हुआ तो उनके सामने यह समस्या होगी कि यदि ये चारों देवता ही वेद मंत्रों के प्रमुख ऋषि हैं तो इनके ऋषित्व या मन्त्र द्रष्टा होने का क्या अभिप्राय है ?10 इन संज्ञाओं के संबंध में यही समाधान हो सकता है कि ये संज्ञाएं जीवन दृष्टि हैं । जो दृष्टि स्फटिक मणि के समान पारदर्शी है, प्रकाश की किरणों के समान सरल है, अग्नि के समान ओजयुक्त है, आकाश के समान निर्मल है । इस दृष्टि में न तो कोई संकोच है और न ही कोई मलिनता और यही कारण है कि आज तक इन मंत्रों का निर्द्वन्द्व अर्थ पण्डितों और बुद्धिजिवियों के लिए रहस्य बने हुए हैं । इतना अवश्य है कि जो जितना अधिक सरल हुआ है वह उतना ही उसके अनुभव के निकट पहुंचा है, क्योंकि ऋषि की दृष्टि तो --''तद् अपश्यत् तदभवत् तदासीत्'' 11 वाली है । ऋषियों के लिए तो उनका अनुभव शायद रहस्यपूर्ण हो परन्तु उनकी वाणी उनके अपने लिए रहस्यपूर्ण नहीं हो सकती जैसा कि श्री अरविन्द अपनी पुस्तक वेद रहस्य में ऋषियों के अनुभवों को रहस्यवादी सिद्ध करना चाहते हैं।12 क्योंकि ऋषियों को अर्थ के लिए भाषा का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं थी । इस तथ्य को एक मात्र भवभूति ने स्पष्ट समझा और प्रतिपादित किया है कि ऋषि वाणी ऐसी है जिसके पीछे स्वयं अर्थ भागता है और लोक की भाषा ऐसी है जो अर्थ के पीछे भागती है।13 और यह इसलिए था क्योंकि तब तक मंत्रविदेवस्मि नात्मवित् वाली समस्या नहीं थी। जैसे-जैसे यह समस्या बढ़ती चली गई वैसे-वैसे जो सरल से सरलतम था वह रहस्यपूर्ण और निगूढ़ होता चला गया ।
यह निश्चित है कि आंगिरसों का संबंध अग्नि के विभिन्न आयामों से है क्योंकि आंगिरस नाम अग्नि पर्यायवाचक शब्द अथवा नाम के रूप में प्रयुक्त होता है ।14 साथ ही साथ यह भी स्पष्ट होता है कि आंगिरस अग्नि के पुत्र हैं, अग्नि से उत्पन्न हुए हैं।15 सम्भवत: इसी कारण भाष्यकार सायण यास्क और ऐतरेय ब्राह्मण का उद्धरण देते हुए कहते हैं कि जो अंगार थे वे आंगिरस बन गए-- ये अंगारा आसंस्ते आंगिरस्ते अभवन् । अथवा निरुक्तकार का यह मत कि अंगारेष्वंगिरा । अंगारा: अंकना: 3-3-17 अथवा सायण ऋग्वेद के मन्त्र 1-100-4 में आंगिरस की व्युत्पत्ति गत्यर्थक अंग् धातु से करते हुए आंगिरस का अर्थ जाने वाले या जो तेजी से जाते हैं। ये आंगिरस आकाश के पुत्र हैं, ये ऐसे द्रष्टा हैं जो देवों के पुत्र हैं, इन लोगों ने लकडी में छिपी अग्नि को प्राप्त किया और यज्ञ के प्रथम विधान का विचार किया । यज्ञ से इन्होंने अमरता और इन्द्र की मित्रता प्राप्त की । गायों की मुक्ति संबंधी पुराकथा में आंगिरसों का गायन एक विशिष्टता है । ये इन्द्र के साथ गायों को बाहर निकालते हैं और जलों को मुक्त करते हैं । महाभारत के वनपर्व में युधिष्ठिर के एक प्रश्न के उत्तार में मार्कण्डेय ने जो कथा कही है उसमें प्रच्छन्न और अस्पष्ट रूप में आंगिरस का अग्नि के साथ ड्डत्य में तादात्म्य स्थापित किया है । इन आंगिरसों को मूलत: देवों और मनुष्यों के बीच स्थित उच्चतर व्यक्तियों की एक जाति माना जाता था जो अग्नि के सेवक थे । इन लोगों के चरित्र में पौरोहित एक बाद का विकास है । ऐसी सम्भावना भी हो सकती है कि ये लोग आकाश की ओर जरने वाले दूत के रूप में अग्नि की ज्वालाओं के मूख्रतकरण रहे हों । और शायद इसीलिए यह कहा गया है कि ये विविध रूप वाले आंगिरस अग्नि के चारों तरफ और फिर सारे द्युलोक के चारों ओर घूमते हैं । नव तथा दस किरणों वाले आंगिरस्तम देवों में समृद्धि को प्राप्त करते हैं ।16 और यह समृद्धि उन्हें अग्नि के पांच आयामों को प्रकट करने से प्राप्त हुई । ये विभिन्न आयाम हैं--- 1. द्युलोकाग्नि, 2. पर्जन्याग्नि, 3. इहलोकाग्नि, 4. पुरुषाग्नि, 5. योषाग्नि । इसी अग्नि के विभिन्न प्रकाशों अर्थात् आदित्यज्योति, चंद्रज्योति, अग्निज्योति, वाग्ज्योति और आत्मज्योति की उपासना से आंगिरसों ने कवित्व और दार्शनिकता की मूल अवधारणाओं की उपस्थापनाएं की । इनमें से मुख्य अवधारणाएं दो हैं--- 1. प्राण विद्या की अवधारणा और 2. मधुविद्या की अवधारणा । ये दोनों अवधारणाएं एक दूसरे की पूरक है क्योंकि दोनों के समन्वय से ही मानवीय चेतना की कई सौन्दर्यपूर्ण और उत्साहपूर्ण आयामों का विकास हुआ । जिसका प्रत्यक्ष दर्शन हमें भारतीयता के मूल आधार गृहस्थ में सफल होता दिखाई देता है । क्योंकि ''प्राणों वै समंचनप्रसारणं'' 17 अर्थात् सिकुड़ने व फैलने वाला स्पंदन ही प्राण है । विश्व में जितनी गति है, सब स्पंदन रूप है । वही प्राण है । यही प्राण है जो प्रत्येक पुरुष में चेतनात्मक द्वोत्रज प्रजापति के रूप में उसे जीवित रखता है और इस प्राण के साथ प्रज्ञा सहयुक्त है --- यो वै प्राण: सा प्रज्ञा, या प्रज्ञा स प्राण: । स: ह्येतावस्मिन् शरीरे वसत: सहोत्क्रयमत: ।''18 इस प्राण रूप पक्षी की अथर्वांगिरसों को इसकी प्रतिष्ठा कहा गया है--- अथर्वांगिरसों पुच्छं प्रतिष्ठा ।''19 इसके साथ यह तथ्य तो स्वाभाविक रूप से स्वत: सि( है कि बृंहण या स्पंदन अग्नि के बिना नहीं होता । इसी गृहस्थ का प्रथम आधार है पुरुष, जिसे ''अथ य: पुरुष: सोऽग्नि वैश्वानर: ।''20 कहा जाता है । उसकी अग्नि रूप में मधु की आवश्यकता तो स्वाभाविक रूप से बनी ही रहती है । इसी अग्नि को मधु विद्या के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए दघ्यं अथर्वण ने कहा है कि यह अग्नि समस्त भूतों का मधु है और समस्त भूत इस अग्नि के मधु हैं ।''21 इसी मधु बिया का दूसरे दृष्टिकोण से उपपादन करते हुए कहा गया है कि आदित्य निश्चय ही देवताओं का मधु है । इस की उत्तार दिशा की किरण्ों ही मधु नाड़ियां हैं । अथर्वांगिरस श्रुतियां ही मधुकर हैं, पुराण इतिहास ही पुष्प है तथा अमृत ही आप है उन अथर्वांगिरस श्रुतियों ने ही इस इतिहास पुराण को अभितप्त किया । उसी से ही यश, तेज, इन्द्रिय, वीर्य और अन्न आदि रूप रस की उत्पत्ति हुई।22 इस प्राण और मधु का समन्वय ही आंगिरस दर्शन की आधार भूमि है । जैसा कि आचार्य शंकर बृहदारण्यक के मंत्रांश --- ''आंगिरसों अंगांनां हि रस:''23 की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इसको देवताओं ने अंतराकाश में उपलब्ध किया और इसी ने इंद्रियों को अग्नि आदि को देव भाव से युक्त किया । इसी से वह भूत और इंद्रियों का आंगिरस आत्मा है । यह आंगिरस कार्य कारण रूप अंगों का रस अर्थात् सार अर्थात् आत्मा है --- ऐसा प्रसिद्दि है । किंतु अंग रसत्व क्यों है । क्योंकि इसके चले जाने पर शरीर सूख जाता है ।
इस लिए जहां प्राण विद्या आंगिरसों की दार्शनिकता की पृष्ठभूमि है वहीं मधु विद्या उनकी सौन्दर्य दृष्टि की आधार भूमि है । इन ऋषियों की सौंदर्यानुभूति उनके लोक दर्शन को ओर भी अधिक सजीव बना देती है । इन आंगिरसों की सौंदर्य संवेदनाओं का अनुमान उनके द्वारा प्रयुक्त किए जाने वाले अग्नि के प्रकाश संबंधी विशेषणों से सहज ही अनुमानित किया जा सकता है जैसे --- घृतकेश, ज्वालकेश, स्वख्रणम, उज्जवल, ज्वालामय मस्तक इत्यादि । यह अग्नि एक दिव्य पक्षी के समान है । इसकी ज्वालाएं समुद्र की गर्जन करती हुई लहरों के समान है । प्रकाश के प्रति अत्यधिक संवेदनशीलता ने आंगिरसों के ज्ञान को विशिष्टता प्रदान की । तभी कुत्स आंगिरस यजुर्वेद के मंत्र 7-42 में घोषित करते हैं ''चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुमित्रस्य वरूणस्याग्ने: । आप्रा द्यावापृथिवी अंतरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥'' यह प्रकाश दो रूपों में )षि चेतना को प्रभावित करता है --- जीवन के प्रति उत्साहपूर्ण या उल्लासपूर्ण निष्ठा के रूप में और ज्ञान के रूप में । इसीलिए तो दंघ्यंअथर्वण यजुर्वेद के मंत्र 36-24 में कहते हैं कि ''पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतं----'' । और इसी को आंगिरस का मार्ग घोषित करते हुए शांखायन ब्राह्मण का कथन है कि ''तदेतगिंरसामयनं स एनेनायनेन प्रतिपद्यते अंगिरसां सलोकतां सायुज्यामाप्नोति''24 अर्थात् यह आंगिरसों का मार्ग है जो इस मार्ग पर चलता है वह आंगिरसों की सलोकता को और सायुज्यता को प्राप्त करता है । अपने इसी उत्साह के कारण आंगिरसों में से घोर आंगिरस ने आदित्यों के साथ स्वर्ग लोक जाने की र्स्पश की।''25 ड्डष्ण आंगिरस ने ब्राह्मणाच्छंसी के पद के लिए तृतीय सवन का साक्षात्कार किया।''26 और नाभानेदिष्ठमानव ने आंगिरसों से जब उपहव चाहा तो उन्होंने अच्छावाक के ड्डत्य को देखा ।27
प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता के कारण अग्नि और उससे संबंधिन क्रियाकलाप अधिक से अधिक महत्वपूर्ण हो गए जिसके कारण भारतीय संस्ड्डति इसी अग्नि के इर्द गिर्द विकसित होती चली गई । क्योंकि संस्कार करने की क्षमता तो अग्नि में ही है । इसी तथ्य को आंगिरसों ने अपने जीवन का सार बना लिया और अग्नि का भारतीयों के कौटुम्बिक जीवन के केन्द्र के रूप में संबंध इतना घनिष्ठ हो गया कि वह अग्नि केवल हवियों का एक निष्क्रिय ग्रहण्ाकर्ता मात्र नहीं रहा अपितु पृथ्वी और द्युलोक के बीच मध्यस्थ बन गया, एक संवाद बन गया । इसलिए जीवन दर्शन की दृष्टि से आंगिरस एक व्यापक शब्द है क्योंकि कि इसमें वह सब कुछ आ जाता है जो लोक मानस में लोक जीवन में निहित है । संहिता भाग में आंगिरस दर्शन आदिम भौतिकवाद और आदिम अध्यात्मवाद के रूप में दिखाई देता है जो बाद में विशु( अध्यात्मवाद में परिणत होता चला गया । यह बात कहने का साहस इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि यह दर्शन एक साथ इहलोकवादी एवं कामना प्रधान है तो दूसरी ओर श्र(ा सम्पृक्त एवं रहस्य प्रवण भी है । इसका जन्म भय और लोप से ही नहीं, सौंदर्यबोध से भी हुआ है । इसी कारण संवर्त आंगिरस ने त्रिपुरा रहस्य में अग्नि सामान्य का यज्ञाग्नि के रूप में विशिष्ट संस्कार से उदात्तीकरण कर के उस अग्नि को तंत्रों की चिदग्निकुण्डसम्भूता रूपी श्रीविद्या के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया ।
संक्षेप में इस दर्शन की विशिष्टताएं इस रूप में स्वीकार की जा सकती है -
1. आंगिरस दर्शन अपौरूषेय है क्योंकि इसका जनक रूवक्ति नहीं परम्परा है ।
2. आंगिरस दर्शन का अर्थ लोकविद्या है ।
3. इस दर्शन की दृष्टिभंगी कामना प्रधान और सुख प्रधान है किन्तु साथ ही साथ उपासनावादी और अध्यात्मवादी भी है ।
4. यह दर्शन रसवादी एवं समन्वयवादी है ।
5. इस दर्शन में जिज्ञासा, रहस्यबोध, सोंदर्यबोध तथा आदिम भय सहोदर रूप में
निहित है ।
परिशिष्ट
ऋग्वेद में आंगिरस शब्द के वैय्याकरणिक रूप इस प्रकार के उपलब्ध होते हैं :-
1. अंगारा: ---- 10-34-9,
2. अंगिर: ---- 1-9-6, 31-17, 74-5, 112-18, 2-23-18, 4-3-15, 9-7,
5-8-4, 10-7, 11-6, 21-1, 6-2-10, 16-11, 8-60-2, 74-
11, 75-5, 84-4, 102-17,
3. अंगिरितम: --- 1-75-2, 8-83-18, ?-27, 44-8,
4. अंगिर:ऽतम: --- 1-31-2, 100-4, 130-3, 9-107-6, 10-62-6,
5. अंगिर:तमम् --- 8-23-10,
6. अंगिर:ऽतमा --- 7-75-1, 79-3,
7. अंगिर:ऽभि: --- 1-62-5, 100-4, 2-15-8, 4-16-8, 6-18-5, 7-44-4,
10-14-3, 5, 111-4,
8. अंगिर:ऽम्य: ---1-521-3, 132-4, 139-7, 8-15, 63-3, 9-62-9, 86-23,
9. अङ.गिरस: --- 1-62-2, 71-2, 3-53-7, 4-2-15, 3-11, 5-11-6, 45-8,
6-65-5, 7-42-1, 52-3, 10-14-6, 62-5, 67-2, 78-5,
108-8,105-?, 169-2,
10. अङ.गिरसा --- 10-62-1 से 4
11. अङ.गिरसाम् ---1-62-3, 107-2, 121-1, ?-3, 127-2, 2-20-5, 6-11-3,
10-70-9,
12. अङ.गिरस्वत् --- 1-31-17, 45-3, 62-1, 78-3, 2-171, 3-31-19, 6-49-
11, 8-40-12, 43-13,
13. अङ.गिरस्वन्ते --- 8-35-14,
14. अङ.गिरस्वान् --- 2-11-20, 6-17-6,
15. अङ.गिरा: --- 1-31-1, 83-4, 139-9, 3-31-7, 5-45-7,10-92-15,
16. अङ.गिरे --- 4-51-4,
17. आङ.गिरस: --- 6-73-1, 10-47-6, 68-2, 149-5, 164-4,
18. आङ.गिरसस्य --- 4-40-1,
19. आङ.गिरसान् --- 6-35-5,
खिल-मंत्रों में उपलब्ध आंगिरस पदों की सूची इस प्रकार है :-
1. अंगार: --- 3-15-20,
2. अंगिर: --- 2-13-4, 5-20-4,
3. अंगिरस: --- 4-5-9, 4-8-9,
4. अंगिरसाम् --- 3-15-30, 32, 5-1-3,
5. अंगिरस्तम् --- 2-13-5,
6. अंगिरस्वत् --- 4-9-3,
7. अंगिरोम्य: --- 4-20-1,
8. आंगिरसम् --- 1-2-9, 2-4-2,
आङ.गिरसों के नाम से आरम्भ होने वाले ऋग्वेद के मंत्र इस प्रकार हैं :-
1. अङ. गिरसों न: पितर: नवग्वा अर्थवाणा भृगव: सोम्यास: ।
तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ॥ 10-14-6
2. अङ. गिरस्वन्ता उत विष्णुवन्ता मरुत्वन्ता जरितुर्गच्छयोहवम् ।
सजोषसा उषसा सूर्येण चादित्यैयातमश्विना ॥ 8-35-14,
3. अङ. गिरोभिरा गहि यज्ञियेभिर्यम् वैरुषैरिह मादयस्व ।
विवस्वन्तं हुवे य: पिता तेऽस्मिन्यज्ञ बहिंष्या निषध ॥ 10-14-5
आङ.गिरसों को देवता स्वीकार करने वाले )ग्वेद के मंत्र इस प्रकार हैं :-
1. 10-62-1 से 6,
ऋग्वेद में उपलब्ध आङ.गिरस ऋषियों की सूची इस प्रकार है :-
1. अभीवर्त आङ. गिरस --- 10-174,
2. अमहीयु: आङ. गिरस --- 9-61,
3. अयास्य आङ. गिरस --- 9-44, 9-46, 10-67, 10-68,
4. उचथ्य '' '' --- 9-50 से 52,
5. ऊरु --- 9-108-4, 5,
6. कुत्स --- 1-94-18, 1-101 से 115, 9-97-45 से 58,
7. ड्डतशया --- 9-108-10 से 11,
8. ड्डष्ण --- 8-85, 8-86, 8-87, 10-42 से 44,
9. गृत्समद --- 2-1 से 3, 2-8 से 43, 9-86-46 से 48,
10. घोर --- 3-36-10,
11. तिरश्ची --- 8-95, 8-95,
12. दिव्य --- 10-107,
13. धरूण --- 5-15,
14. ध्रुव --- 10-173,
15. नृमेध --- 8-89, 8-90, 8-98, 8-99, 9-27, 9-29,
16. पवित्र --- 9-67-22 से 32, 9-73, 9-83,
17. पुरुमीळह --- 8-71,
18. पुरूमेध --- 8-89, 8-90,
19. पुरूहन्मा --- 8-70,
20. पूतदक्ष --- 8-94,
21. प्रचेता --- 10-164
22. प्रभुवसु --- 5-35, 5-36, 9-35, 9-36
23. प्रियमेध --- 8-2-1 से 40, 8-68, 8-69, 8-87, 9-28
24. बरू --- 10-96
25. बिन्दु --- 8-94, 9-30
26. बृहन्मति --- 9-39, 9-40
27. बृहस्पति --- 10-71, 10-72
28. भिक्षु --- 10-117
29. मूर्धन्वान् --- 10-88
30. रह्गण --- 9-37, 9-38
31. वसुरोचिष --- 8-34-16 से 18
32. विरूप --- 8-34, 8-44, 8-75
33. विहव्य --- 10-128
34. वीतहव्य --- 6-15
35. व्यश्व --- 8-26
36. शश्वत्याङ. गिरसी --- 8-1-34
37. शिशु --- 9-112
38. श्रुतकक्ष --- 8-92
39. सैंवनन --- 10-191
40. संवर्त --- 10-172
41. सप्तगु --- 10-47
42. सव्य --- 1-51 से 57
43. सुकक्ष --- 8-92, 8-93
44. सुदीति --- 8-71
45. हरिमन्त --- 9-72
46. हिरण्यस्तूप --- 1-11-35, 9-4, 9-69
ऋग्वेद में प्राप्त स्त्री आङ.गिरस ऋषि का नाम इस प्रकार है:-
शश्वती आङ. गिरसी
यजुर्वेद में प्राप्त होने वाले आंगिरस ऋषि तथा उनसे संबंधित मंत्रों का विवरण इस प्रकार है :-
1.अंगिरस/आंगिरस: --4-10, 20-36 से 46, 7-43 से 48, 8-1 से 3, 3-1
2. कुत्स --- 7-42, 8-4, 8-5
3. बृहस्पति --- 2-11 से 13
4. हिरण्यस्तूप --- 33-43, 34-12 से 13, 24 से 27, 31
अथर्ववेद में प्राप्त आंगिरस ऋषि तथा उनसे संबंधित मंत्रों का विवरण इस प्रकार है :-
1. अंगिरा: ---2-35, 4-39, 5-12, 6-45 से 48, 7-50 से 51, 7-90, 7-95,
19-22, 19-34 से 35
2. अथर्वांगिरस --- 4-8, 6-72, 6-74, 6-83 से 84, 6-94, 6-101, 6-128,
7-78, 7-120 से 123, 19-3 से 5,
3. तिरश्चि --- ?-20, 137-7 से 11
4. प्रत्यंगिरस --- 10-1
5. भृग्वंगिरा --- 1-12 से 14, 1-25, 2-8 से 10, 3-7, 3-11, 4-11, 5-4, 5-
22, 6-20, 6-42, 6-43, 6-91, 6-95, 6-96, 6-127, 7-
31 से 32,7-93, 8-8, 9-3, 9-8, 11-12, 19-29, 19-39
5. भृग्वंगिरा ब्रह्मा --- 19-72
सामवेद में प्राप्त आंगिरस )षि तथा उनसे संबंधित मंत्रों की सूची इस प्रकार है :-
1. अमहीयु ---467, 470, 479, 484, 487, 494, 495, 510, 592,
593, 672 से 674, 762,778 से 780, 787 से 789, 815 से
817, 889 से 891, 1081 से 1083,
1210 से 1212, 1335 से 1337
2. अयास्य --- 509
3. उचय्य --- 496, 499, 1205 से 1209, 1225 से 1227,
4. उरू --- 584, 93
5. उर्ध्वसद्मा --- 599, 1011, 1395
6. कुत्स --- 66, 380, 541, 590, 626, 1064 से 1066, 1104 से
1106, 1426 से 1428, 1748 से 1751
7. ड्डतयशा --- 584, 1012
8. गौर --- 458
9. तिरश्चि --- 346, 349, 351, 883 से 885, 1402 से 1404
10. नृमेध --- 248, 257, 258, 267, 269, 283, 302, 311, 388,
393, 405, 406, 601, 710 से 712, 813, 814, 1025 से
1027, 1169 से 1171, 1247 से 1249, 1284 अन्त के
तीन पादु,1285प्रथम पादु, 1319,1320,1411, 412, 1429से
1431, 1492, 1493, 1637, 1638, 1765 से 1767,
11. पवित्र --- 565, 596, 875 से 877, 1298 से 1303,
12. पुरूमीढ़ --- 1554, 1555,
13. पुरूमेध--- 248, 257, 258, 269, 601, 1411, 1412, 1429से 1431,
1492, 1493,
14. पुरूहन्मा --- 243, 268, 273, 862, 863, 933, 934,1155, 1156,
15. पूतदक्ष --- 149, 174, 1785 से 1787,
16. प्रियमेध --- 123, 124, 157, 168, 225, 227, 354, 360, 362, 364,
719 से 321, 1280 से 1283, 1284 प्रथमपादु, 1489 से
1491, 1512, 1657 से 1659, 1768 से 1773,
17. बिन्दु --- 149, 174, 1785 से 1787,
18. बृहन्मति --- 488, 898 से 903, 924 से 926,
19. रह्गण --- 1274, 1279, 1292 से 1297,
20. विरूप --- 27, 1532 से 1534, 1541 से 1543, 1648 से 1650, 1711
से 1713,
21. संवर्त --- 443, 451,
22. सप्गु --- 317,
23. सव्य --- 373, 376, 377,
24. सुकक्ष --- 116, 125, 126, 150, 151, 155, 158, 170, 173, 188,
197, 199, 208, 213, 713 से 715, 722 से 724, 824 से
826, 1222 से 1224, 1550 से 1552, 1586, 1642 से
1644, 1660 से 1662, 1790 से 1792,
25. सुदीति --- 6, 49, 1554, 1555,
26. हिरण्यस्तूप --- 612, 1047 से 1056, 1370 से 1372

सन्दर्भ - सूची
1) ऋग्वेद, 1-1-1,
2) ईशावास्योपनिषद्, 16,
3) पृष्ठ - 4, भारतीय विज्ञान के कर्णधार, लेखक-सत्यप्रकाश, प्रकाशक - रिसर्च इन्सटीच्यूट आफ एन्शेण्ट साइण्टिफिक स्टडीज, न्यू देहली । 1967
4) ऋग्वेद, 6-11-3,
5) वही, 10-21-5,
6) वही, 6-15-17,
7) 6-16-14, 10-48-2, 10-21-5, 8-9-7, 6-47-24, 6-12-17, 10-87-12,
1-80-16,83-5, 6-16-13, 10-92-10, 10-120-9, 11-11-2, 10-14-8.
ऋग्वेद
8) 10-7-20, 10-2-27, 6-8-16, 20-140-2, 7-109-1, 5-11-2, 8-3-21, 5-
2-9, 10-2-26, 10-12-17, 18-3-54, 19-4-1, 20-25-5, 4-37-1, 10-
6-20,11-6-13, 18-1-58, 4-1-7, 5-11-11, 7-2-1 । अथर्ववेद
9) 11-33, 30-15, 8-56, 11-32, 15-22, 19-50 । यजुर्वेद
10. पृ. 4, 5, वैदिक ऋषि -- एक परिशीलन, लेखक -- कपिल देव शास्त्री,
प्रकाशक -- कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरूक्षेत्र ।
11. यजुर्वेद, 32-12
12. अभयदेव ड्डत हिन्दी अनुवाद पृ. 213 से 232
13. लौकिकानां हि साध्नामर्थ वागनुवर्तते ।
ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमयों अनुधावति ॥ उत्तर रामचरितम्, 1
14. त्वमग्ने प्रथमों अंगिरा ऋषि: । ऋग्वेद, 1-31-1
त्वमग्ने प्रथमों अंगिरस्तम: । वही, 1-31-2
स नो जुषस्व समिधानों अंगिरों देवो मर्तस्य यशसा सुदीतिभि:।वही, 5-4-8
उत ब्रम्हाण्यंगिरो जुषस्व । वही 4-3-15
15. ते अंगिरस: सूनवस्त अग्ने: परिजीज्ञरे । वही, 10-62-5
16. ये अग्ने: परिजज्ञिरे विरूपासो दिवस्परि ।
नवग्वोनु दश्ग्वो अंगिरस्तम: सच: देवेषु मंहते । वही, 10-62-6
17. शतपथ, 8-14-10,
18. कौषीतिकी,
19. तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्द वल्ली, तृतीय अनुवाक,
20. मैत्रायणी उपनिषद्, 2-6,
21. बृहदारण्यक उपनिषद्, 2-5,
22. छान्दोग्योपनिषद्, 3-4,
23. बृहदारण्यक उपनिषद, 1-3-8,
24. शांखायन ब्राह्मण, अध्याय 18, पृष्ठ-139,
25. वही, अध्याय 30, पृष्ठ-252,
26. वही, पृष्ठ-254,
27. वही, अध्याय 28, पृष्ठ-237,
------इति-------

Friday, October 3, 2008

स्त्री-चेतना एवं भारतीयता की मूलप्रकृति


'स्त्री - चेतना एवम् भारतीयता की मूल प्रकृति का पुनर्विश्लेषण'
आशुतोष आंगिरस , प्रवक्ता, संस्कृत विभाग , अम्बाला छावनी।
ऐसे विषय जो अतिबौद्दिकता, अर्ध-ऐतिहासिकता और अति-परिचय के कारण व्यक्ति और समाज के लिए अस्पष्ट हो गए हाें और उलझ गए हों या जिनका कोई सीधा स्पष्ट उत्तार न हो या जिन विषयों के सम्बन्ध घड़े बन्दियाँ हाें तो वहाँ विषयों को स्पष्ट करने का सरलतम उपाय मूलभूत प्रश्नों को सामने रखने का हो सकता है विशेष रूप से स्त्री चेतना और भारतीय प्रकृति के सन्दर्भ में। अत: उपरोक्त विषय के सम्बन्ध में मैं सरलतम और संक्षिप्त प्रश्न अपने सामने रखना चाहता हँ कि स्त्री मायने क्या या स्त्री होने का क्या अर्थ है ? क्या ऐसी कोई देह जो सन्तानोत्पत्ति करती हो, उसे स्त्री कहेंगें या काई ऐसा अस्तित्व जो पुरूष से भिन्न है या ऐसी कोई अस्मिता जो सजातीय, विजातीय और स्वगत भेद से भिन्न परिभाषित की जा सकती है अथवा सामाजिक सन्दर्भ में माँ, बहिन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका आदि में से स्त्री कौन सी है या व्यक्तिगत स्तर पर एक पुत्र को अपनी माँ को रूप में देखना चाहिए या स्त्री के रूप में ? व्यक्तिगत स्तर पर यह प्रश्न और भी महत्तवपूर्ण हो जाता है क्योंकि स्त्री-अधिकारों के हनन के सन्दर्भ में पुत्र अपने माँ के अधिकारों के लिए संघर्ष करे अथवा उसे स्त्री समझ कर उसके अधिकारों के विषय में निर्णय करें ? ये सारे प्रश्न इसलिए आवश्यक है क्योंकि एक बार 'स्त्री' का निर्णय हो जाए तो 'स्त्री चेतना' और उससे सम्बन्धित अन्य विषयों को ठीक से समझा जा सकता है। और यह समझ इसलिए आवश्यक है क्योंकि हम सभी एक स्वस्थ समाज चाहते हैं जो दैहिक रूप से और मानसिक रूप से भी स्वस्थ हो और यह तभी सम्भव है जब स्त्री दैहिक और मानसिक रूप से स्वस्थ और पूर्ण हो क्योंकि अभी तक हुआ यह है कि सामाजिक विकृतियों को अनुभव कर भारतीय परम्परा को जानने वालों ने स्त्री के पुनरुत्यान का जो आन्दोलन चलाया था वह शीघ्र ही उनके हाथों से फिसल कर औद्योगिक क्रान्ति के बुध्दिजीवियों के अधिकार में आ गया और उन्होंने स्त्री-स्वातन्त्र्य के नाम पर जो व्यापार किया उसका परिणाम टूटते परिवारों, बढ़ते अपराधों और व्यवस्थाओं के चरमराने के रूप में दिखाई देने लगा है। अभी तक भारतीय स्त्री की अस्मिता को दो छोरों ने बाँध रखा था - एक ओर सौभाग्य था और दूसरी ओर मातृवात्सल्य। उसकी प्रकृति ने ही उसे मर्यादित कर रखा था परन्तु अब आधुनिकता ने उसे सौभाग्य के स्थान पर नौकरी या आर्थिक सुरक्षा दी और मातृवात्सल्य के स्थान पर प्राकृतिक प्रजनन शक्ति का नियन्त्रण। यह कहाँ तक स्वस्थ स्त्री और स्वस्थ समाज की रचना में सहायक या उपयोगी है - यह विचारणीय है क्योंकि स्त्री चेतना की सफलता समाज की स्वस्थता पर निर्भर करती है और स्वस्थ समाज ही स्वस्थ स्त्रीत्व का उद्देश्य हैं जिसके लिए स्वातन्त्र्य मूलभूत शर्त है और वह स्वातन्त्र्य दो प्रकार का है - एक है स्त्री का सत्ताा-स्वातन्त्र्य और दूसरा है स्त्री का क्रिया-स्वातन्त्र्य। अत्यन्त सरल एवम् स्थूल शब्दों में स्त्री चेतना के दो स्तर हैं - एक उसके होने का और दूसरा करने का। स्त्री का होना उसका स्वभाव है, उसे पाने के लिए कुछ करना नहीं होता क्योंकि स्त्री तो वह है ही और यह ऐसा भी नहीं है कि वह कुछ ऐसा है जो स्त्री के पास है या स्त्री के अधिकार में है। स्त्री में और स्त्री के होने में किंचित सी भी दूरी नहीं है। वह स्त्री का होना है, उसका अस्तित्व है। दूसरी ओर क्रिया या करना उसकी उपलब्धि है। जो कुछ भी करती है वह बिना किए नहीं हो सकता। स्त्री करेगी तो वह होगा, नहीं करेगी तो नहीं होगा लेकिन जीवन जीने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है और धीरे - धीरे यह सक्रियता ही स्त्री के होने को जानने में बाधा बन जाती है और यही कारण है कि स्त्री का मूल्यांकन पुरूषोचित कर्म करने में होने लग गई है और यह स्पष्ट है कि कर्म या क्रिया पर आधारित पहचान परिधि है, केन्द्र नहीं है। आधुनिक स्त्री का अर्जन, उसकी सम्पदा, जो कुछ भी उसके पास है वह उसके कृत्य ने, उपलब्धि ने केन्द्रभूत स्त्री को आच्छादित कर रखा है। स्त्री का होना उसकी सभी उपलब्धियों से पहले है। कृत्य तो चुनाव है, वह चुना जाए या न चुना जाए, वह किया जाए न किया जाए वह स्त्री के हाथ में है। कृत्य चुना जा सकता है परन्तु अस्तित्व नहीं। इसलिए स्त्री जहाँ एक ओर विशिष्ट बोध सत्ताा है वहीं वह विशिष्ट संस्कार समूह भी है और इन दो प्रकारों ने स्त्री चेतना ने मानव मन को सदा प्रभावित किया है। इसलिए स्त्री- चेतना को मात्र कृत्यों के सन्दर्भ में देखना और उसकी अस्मिता के प्रश्न को अनदेखा करना - दोनों ही स्वस्थ विश्लेषण की अपेक्षा रखते हैं। लेकिन मानवीय दृष्टि की तरह मानव बुद्दि भी एक साथ सभी कोणों से किसी भी तथ्य को समझने मे सशक्त नहीं है इसलिए आवश्यक है कि स्त्री चेतना को तीन दृष्टिकोण्ाों से देखकर समझने का प्रयत्न किया जाए। स्त्री चेतना के भारतीय की दृष्टि में तीन रूप इस प्रकार के हैं - प्रथम पार्थिव रूप से तात्पर्य उसके जैविक, आर्थिक दृष्टि है, दूसरे शाश्वत रूप से तात्पर्य ऐतिहासिक अविच्छिन्न विकास की दृष्टि है और तीसरे चिन्मय रूप से तात्पर्य अचल मूल्य की दृष्टि है या मूल प्रकृति या मेमदबम की दृष्टि है। इन तीन दृष्टिकोणों से विश्लेषण कर स्त्री-चेतना का पार्थिव रूप हमारे घरों, गावों, नगरों, खेतखलिहनों, कार्यालयों, राजनीति, बाजारवाद, उपभोक्तावाद के साधनों में उपस्थित है और इस माध्यम से वह अर्थ और काम की सिध्दि कर रही है। स्त्री चेतना का शाश्वत रूप इतिहास में हजारों वर्षों से क्रमागत रूप से चलायमान है। यह शाश्वत इस अर्थ में ही कि यह अविच्छिन्न रहा है। वस्तुत: शाश्वत शब्द एक काल सम्बन्धी आइडिया देता है जिसे निरन्तर वर्तमान के अर्थ में लेना चाहिए। यह काल का कोई स्थिर बिन्दु नहीं है। यह निरन्तर रहते हुए भी सतत विकासशील और प्रवाह मान भी है क्योंकि यही समाज और व्यक्ति की मानसिक शक्तियों का ढँाचा तैयार करते हैं। इस दृष्टि से स्त्री चेतना अपने धर्म नामक पुरुषार्थ को सफल कर रही है और तीसरा चिन्मय रूप शाश्वतरूप से अधिक सूक्ष्म है जिसका लक्ष्य है पूर्ण स्वस्थता, पूर्ण आनन्द जो ऑंशिक रूप से क्रीड़ा, कला, संगीत, साहित्य आदि में और पूर्ण रूप से जीवन जीने के रूप में मिलता है। इस चिन्मय रूप में ही रुचिबोध और संस्कृति बोध के बीच पनपते हैं। सभी बीजों का स्रोत यही स्त्री का चिन्मय रूप ही है परन्तु उन बीजों का अंकुरण और विकास होता है शाश्वत और पार्थिव सन्दर्भ के अनुसार। सम्भवत: इस प्रकार भारतीय सन्दर्भ मे स्त्री चेतना के पकमंस या मेमदजपंस रूप को समझा जा सकता है और इसके साथ ही मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि स्त्री मेरे लिए कोई विवाद का विषय नहीं है, न हीे यौन लिंगों के नाम पर धड़ेबन्दी का मेरे से सम्बन्ध है और न ही ऐसे लोगों से सम्बन्ध है जो यह समझते है कि स्त्री कोई समझा जाने वाला तत्तव नहीं है, केवल प्रेम की, भोग की वस्तु है। सामान्य व्यक्ति का मन सदा भाषा के स्तर पर ही जीता हे और भाषा तो लिंगों के आधार पर विभाजन मानकर चलती है और केवल ऐतिहासिक दृष्टि से स्त्री-चेतना का अध्ययन द्वन्द्वात्मक संघर्ष को हवा देने की बात है। समाज में व्यवहार में लोक में स्त्री को जैसे भी समझा हो परन्तु सम्वेदनशील मनुष्य के लिए स्त्री सृष्टि का एक मूल तत्तव है जो आकर्षण भी करती है और विकर्षण भी। वह केवल लिंगों तक सीमित नहीं है इसलिए भारतीय सन्दर्भ में स्त्री के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्द तीनों लिंगों में मिलते है-जैसे 'दारा' पुल्लिंग है तो 'कलत्र' नपुंसक लिंग है तो 'नारी' स्त्रीलिंग शब्द हे। सम्भवत: यही कारण है कि एक तत्तव के रूप में स्त्री का सर्वत्र अभिनन्दन ही हुआ है परन्तु व्यक्ति-स्त्री में गुण दोष वाली दृष्टि को यथार्थ मान कर पक्ष और विपक्ष में दोनों तरह की बातें कही गई है अत: स्त्री चेतना के प्रति अभिनन्दन भारतीय प्रकृति के लिए कोई औपचारिकता की बात नहीं है -''विद्या: समस्ता तव देवि भेदा:, स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु॥'' अर्थात् हे देवी! समस्त विद्याएँ और जगत् की समस्त स्त्रियां तुम्हारे ही अनेक रूप हैं।
इस उपरोक्त विश्लेषण के मूल सन्दर्भ भारतीयता की प्रकृति के स्वरूप निर्माण में वैदिक और अवैदिक या आर्य और अनार्य परम्पराओं के तात्तिवक वैचारिक योगदान को भी जान लिया जाए क्योंकि दोनों के अति सूक्ष्म वैचारिक तत्तवों का समन्वय ही भारतीयता की मूल प्रकृति को निर्धारित करते हैं। वैदिक परम्परा के उपलब्ध तत्तव हैं-संस्कृत, यज्ञ, देववाद और आत्म या ब्रह्म। और दूसरी और अवैदिक परम्परा के तत्तव हैं - संसार का मिथ्यात्व, अत्यन्त घोर तप, पूजा - विशेष रूप से आकृति पूजा, ध्यान के प्रति योग के उपाय और अनीश्वरता। इन उपरोक्त चार वैदिक तत्तवों और पाँच अवैदिक तत्तवों के आपसी समन्वय से भारतीयता की मूल प्रकृति का स्वगत लक्षण स्पष्ट करते हैं। वे तत्तव हैं - 1. माया या लीला, 2. कर्म, 3. धर्म, 4. अर्थ, 5. काम, 6. मोक्ष, 7. भक्ति, 8. आकृति उपासना, 9. व्यक्तिगत धार्मिक या आध्यात्मिक अनुभव- इन तत्तवों ने अपनी मिथकीयता या पौराणिकता और प्रतीकात्मकता से भारत की अधिकांश भाषाओं को प्रभावित किया हैं। हलाँकि मिथक और प्रतीक ये दोनों अलग अलग हैं जैसे पुरुष और प्रकृति - ये दोनो बिम्ब प्रतीक हैं - दो तरह की आदिम और सनातन सृजन - शक्तियों के जिनके युगबध्द होने पर ही सृष्टि सम्भव हे परन्तु शिव र्पावती आदि के बिम्ब इसी तथ्य के मिथकीय रूप हैं। ये प्रतीक किसी तथ्य को या थ्योरी को सूत्र रूप में बिम्बित करते हैं लेकिन इनमें कोई लीला या कथात्मकता नहीं है इसके विपरीत मिथक का रूप कथात्मक होता है और उसके बिम्ब पुरूष-नारी आकृतियाँ लेकर एक लीला रचते हैं। मिथकीय भाषा अधिक सगुण, नामरूपवाली होती हैं। यदि भारतीयता मूलसाहित्य और दर्शन को कुछ देर के लिए छोड़ दें तो भारतीय परम्परा, लोक धर्म और लोक संस्कृति के आधार पर यह कहना सम्भव है कि भारतवर्ष की आदिम देवता देवी है क्योंकि सभ्यता का आदि रूप सर्वत्र मातृ सत्ताा प्रधान रहा है। और वहीं से भारत का 'समूह मन' या 'लोक-चित्त' का प्रारम्भ हुआ। उस देवी के सूक्ष्म से सूक्ष्मतर रूप ने भारतीय कर्मकाण्ड, दर्शन, कला, साहित्य को प्रभावित किया और दूसरी ओर उसने प्रत्येक व्यक्ति के अति भीतर स्नायुमण्डल के केन्द्र में कुल कुण्डलिनी, परा-शक्ति, त्रिपुर सुन्दरी के रूप में प्रभावित किया। सच तो यह है कि इस देवी के खप्पर में पड़ कर भारतीय आर्य के पुरुष प्रधान स्वभाव का रूपान्तर 'नव्य आर्य' या 'हिन्दू' के रूप में हो गया और हमारे समूहमन या लोकचित में स्थित इसकी 'मातर्ृमूत्तिा' या कलियुग की भाषा में 'मदर इमेज' हमारे ऐतिहासिक उत्थान पतन का नियमन कर रही है। इस प्रकार इतिहास में देवी का वाद आरम्भ हुआ जो विकसित होता हुआ ऋग्वैदिक 'श्री' या रूदुस्वसा अम्बिका' में स्थित हुआ और प्रतिवाद के रूप में प्रकृति और नारी के प्रति वर्जनशील धर्म साधना का उदय बौद्द, जैन आदि के रूप में हुआ। फिर गुप्त युग के आसपास वाद प्रतिवाद के पारस्परिक अन्त: प्रवेश के फलस्वरूप एक और महायान में देवी का प्रवेश वज्रेश्वरी, तारा आदि के रूप में हुआ तो दूसरी ओर वह वेदान्त में श्री-विद्या के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। फिर धीरे धीरे यही देवी वाद-प्रतिवाद के माध्यम से भक्ति के रूप में राधा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। तत्पश्चात् 19वीे शती में देवी का तीसरा वाद धार्मिक न होकर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से देश भक्ति के रूप में उपस्थित हुआ जिसका स्वरूप 'वन्दे मातरम्' में स्पष्ट होता है। स्त्री चेतना का यह रूप भक्ति न होकर सामाजिक शाक्ति की उपासना थी। यह सामूहिक जिजीविषा का प्रतीक बन कर स्वतन्त्रता संग्राम में उदय हुई।
अपने विषय का समापन इन विचार बिन्दुओं से करना चाहता हूँ कि भारतीयता की मूल प्रकृति का आरम्भिक रूप जितना भौतिकवादी है उतना ही अध्यात्मवादी भी है। भारतीय प्रकृति इहलोकवादी एवम् कामना प्रधान हैं परन्तु साथ ही साथ यह श्रध्दा-सम्पृक्त और रहस्य-प्रणव भी है। भारतीय प्रकृति की रचना आदिम भय और आदिम बुभुक्षा से ही नहीं हुई बल्कि सौन्दर्य-बोध और रहस्य-बोध से भी हुई है जिसने सभ्यता, संस्कृति, भोजन पान, वसन-व्यसन, शब्द-सम्भार, भाषा-बोली, कल्प और शिल्प, भावबोध और नीतिबोध को भी प्रभावित किया और यह प्रवाह आज भी प्रवहमान है। इसलिए भारतीयता की मूल प्रकृति जनसमूह की दृष्टि-भंगी है, यह जनसमूह की विश्व-दृष्टि है क्योंकि यदि इसमें भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का मूल विद्यमान न रहता तो संस्कृति का चर्तुपुरुषार्थ का संतुलित परवत्तर्ाी विकास सम्भव नहीं होता। भारतीय प्रकृति समस्त जीवन प्रक्रिया को समाविष्ट किए हुए और धारण किए हुए चलती है - चूल्हा चक्की, शिल्प से लेकर लोकनृत्य आदि तक इसका विस्तार है। अत: भारतीयता की मूल प्रकृति के विषय में यह कहना सम्भव है कि पहला यह कि यह अपौरूषेय है क्योंकि इसका जनक व्यक्ति नहीं परम्परा है। दूसरा इसका अर्थ लोकविद्या है। तीसरा इसकी दृष्टि भंगी कामना प्रधान और सुखवादी होने के साथ साथ अध्यात्मवादी है। चौथे यह रसवादी और वर्ग निरपेक्ष है परन्तु धार्मिकता प्रकृति सेक्यूलर, उदार और साम्प्रदायिकता निरपेक्ष है परन्तु धार्मिकता मुक्त कहीं नहीं है। छटे इसमें जिज्ञासा, रहस्यबोध, सौन्दर्यबोध तथा आदिम मय इसमें सहोदर रूप में निहित हैं।
-------------