Saturday, January 14, 2012

CONCEPT OF GOOD GOVERNANCE IN SANSKRIT LITERATURE – IN THE PERSPECTIVE OF POLITY AND JUSTICE


सनातन धर्म कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी

(संस्कृत की पुनःसंरचना योजना के अधीन)

एक -दिवसीय अन्तःवैषयिक राष्ट्रिय सम्वाद गोष्ठी

One Day Inter-disciplinary National Seminar

संस्कृत साहित्य मे सुशासन-तन्त्र का स्वरूप नीति एवम् न्याय के परिप्रेक्ष्य में

CONCEPT OF GOOD GOVERNANCE IN SANSKRIT LITERATURE – IN THE PERSPECTIVE OF POLITY AND JUSTICE

आयोजक- संस्कृत विभाग, सनातन धर्म कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी

अकादमिक सहयोग- डिपार्टमेण्ट आफ़ ला, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

प्रायोजक हरियाणा उच्चतर शिक्षा विभाग, पञ्चकूला

दिनाङ्क - १४ मार्च, २०१२, दिन बुधवार समय- प्रातः ९.०० से साँय ५.३० तक

मान्यवर,

’संस्कृत कि पुनःसंरचना योजना’ के अधीन संस्कृत विभाग सनातन धर्म कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी आ[पको उपरोक्त विषय पर आयोजित एक- दिवसीय राष्ट्रिय संगोष्ठी में शोध पत्र प्रस्तुति एवम् विचार विमर्श के लिए सादर साग्रह आमन्त्रित करता है।

राज्यं राजासीत् , दण्डो दाण्डिकः। स्वयमेव प्रजाः सर्वा , रक्षन्ति स्म परस्परम्॥

( राज्य था और राजा था, दण्ड था और दण्ड देने वाला। स्वयं सारी प्रजा ही एक-दूसरे की रक्षा करती थी।)

संस्कृत विभाग ने जब शासनतन्त्र के इस प्रारूप की प्राक्कल्पना करते हुए जब इतिहास पर दृष्टिपात किया तो अनुभव किया कि मानवीय इतिहास में जो भी संकट आए वे अपने मूल रूप में वस्तुओं या मनुष्यों के शोषण से सम्बन्धित रहे हैं परन्तु वर्तमान काल में संकट है विचारों के दुरुपयोग का, विचारों के शोषण का और यह संकट पहले अधिक विध्वंसकारी एवम् भयंकर है क्योंकि विचार की भूमिका मर्यादाओं को तोडने में अधिक रही है अतः अब मनुष्य महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया है , महत्त्वपूर्ण है विचार या विचार प्रणालियाँ, विशेष रूप से भारत जैसे लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जहाँ शासनतन्त्र में क्रमबद्धता गतिशील निरन्तर परिवर्तन की ओर उन्मुख प्रक्रिया है, जिसके दो पक्ष हैं १. चिन्तन पक्ष और २. विषय पक्ष। चिन्तन पक्ष से अभिप्राय विभिन्न धर्म-संविधान- दर्शन-सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक-पारिवारिक तथा व्यक्तिगत पक्ष है और विषय पक्ष का अर्थ है- शासनतन्त्र की व्यावहारिक प्रक्रिया । ये दोनों पक्ष सम्बद्ध भी हैं और एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं जो शासक के लिए पर हर क्षण एक नई चुनौति भी उत्पन्न करते हैं, विशेष रूप से नीति एवम् न्याय के परिप्रेक्ष्य में, चाहे वह सामाजिक न्याय की चुनौति हो या राजनैतिक या आपराधिक न्याय। साथ ही साथ उस न्याय की प्राप्ति या उपलब्धि या स्थापना कैसे हो और वह भी तर्क संगत मूल्याधारित हो यह और भी विचारणीय विषय है। और यह भी निश्चित है कि तर्क एवम् वैज्ञानिकता पर आश्रित आधुनिकता का दर्शन न्याय परक समाज स्थापित नहीं कर सका है क्योंकि समृद्ध को निश्चिंतता नहीं और निर्धन वर्ग अपनी अस्मिता की रक्षा के न्याय पाने के लिए प्रसाधन विहीन है। इसलिए वर्तमान काल में शासनतन्त्र के व्यवहार को देखते हुए सुशासनतन्त्र के लिए प्रमूल्यों पर नई ईमानदारी से विश्लेषण करने की आवश्यकता है। यदि हम वर्तमान शासनतन्त्र के व्यवहार एवम् प्रक्रिया से असुंतुष्ट हैं तो सभी पूर्वाग्रहों एवम् अवधारणाओं से मुक्त हो कर संस्कृत शास्त्र एवम् भारतीय परम्परा से चिन्तन प्रक्रिया को प्रारम्भ करना श्रेयस्कर होगा । जैसे कि -सामर्थ्य्मूलं स्वातन्त्र्यं, श्रममूलं च वैभवम् । न्यायमूलं सुराज्यं स्यात्, संघमूलं महाबलम् ॥अर्थात् शक्ति स्वतन्त्रता का मूल, श्रम धन-सम्पत्ति का मूल, न्याय सुराज्य का मूल है और संगठन महाशक्ति का मूल है। निश्चित ही राज्य तीन शक्तियों के अधीन है। शक्तियाँ मंत्, प्रभाव और उत्साह हैं जो एक दूसरे से लाभान्वित होकर कर्तव्यों के क्षेत्र में प्रगति करती हैं। मंत्(योजना, परामर्श) से कार्य का ठीक निर्धारण होता ह, प्रभाव (राजोचित शक्ति, तेज) से कार्य का आरम्भ होता है और उत्साह (उद्यम) से कार्य सिद्ध होता है(दशकुमारचरित)

निश्चित ही यह संस्कृत की इस प्रकार की प्रशासनिक शब्दावली किसी भी शिक्षित बुद्धिजीवि के लिए कठिन होगी और सम्भवतः प्राचीनता का तर्क देकर असंगत घोषित कर सकते हैं लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि पाश्चात्य जगत से उधार लिए गए शब्द freedom/ liberty/ secularism/ आदि की पृष्ठभूमि औद्यौगिक एवम् धार्मिक दबाव की है जबकि यह परिस्थिति भारत में कृषि प्रधानता के कारण यहाँ नहीं थी इसीलिए ये सारे शब्द भारतीय सन्दर्भ में विडम्बित हो कर रह गए हैं और अपनी गुणात्मक विश्वसनीयता का मूल्य खो चुके हैं। यही कारण है कि भारत इस समय एक बौद्धिक और भावनात्मक द्वन्द्व (intellectual & emotional crisis)की स्थिति में है। अतः शासनतन्त्र की विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए न्याय और नीति (बौद्धिक एवम् भावनात्मक) भारतीय सन्दर्भ में विश्लेषण की अपेक्षा रखती है।

For those who have been trained to think only in Constitutional/ legal terms -

What is ‘good’ governance in the Indian context? The central challenge before good governance relates to social development. In his famous ‘tryst with destiny’ speech on 14 August 1947, Jawaharlal Nehru articulated this challenge as ‘the ending of poverty and ignorance and disease and inequality of opportunities’. Good governance must aim at expansion in social opportunities and removal of poverty. In short, good governance, means securing justice, empowerment, employment and efficient delivery of services.

This seminar is an attempt to bring closer

1) the policy makers who are being transformed into policy thinkers, painstakingly slowly but surely, like Amartya Sen, who uses two indigenous Indian words – “Niti- organizational propriety and behavioral correctness” and “Nyaya – a comprehensive concept of realized justice” in his latest book –“The Idea of Justice”.,

2) the sociologists, psychologists, philosophers, linguists, thinkers from art and literature not only to raise the real positive issues regarding good governance with their indigenous understanding but also try to restructure the whole new governing system keeping the human being in the centre of the system so that needs of the man and his role to achieve the means may be redefined with the help of modern lawmakers.

It is in this sense that this seminar has been proposed by the department of Sanskrit. It is neither to initiate a social unrest nor to start a political revolution; it is just a non-belief in the present day over all system at the level of thought and human emotions. This seminar is an expression of disillusionment regarding the scientific foundations of the socio-economic system which has widened the gap in the idea of socio-economic-cultural justice. So the emerging trends in governance systems’ thinking may not be able to provide full-fledged alternative system but surely they are looking for better alternatives for a healthy and just human society in this world of ours.

You are requested to choose a topic of your conviction and convenience other than the following topics.

SUGGESTED TOPICS -

संस्कृत साहित्य में न्याय की अवधारणा और भारतीय संविधान

संस्कृत साहित्य में सुशासनतन्त्र की अवधारणा एवम् नीति निर्देशक तत्त्व

धर्म,अर्थ काम, मोक्ष एवम् संवैधानिक मूल अधिकार

संस्कृत साहित्य में राजा के दायित्व/ अधिकार और भारतीय सांसद/ प्रशासनिक अधिकारी

संस्कृत साहित्य में राज्य नीति निर्देशक तत्त्व और भारतीय संविधान के नीतिनिर्देशक

संवैधानिक प्रशासनिक मर्यादाएँ एवम् शास्त्रीय प्रशासनिक मर्यादाएँ

संस्कृत साहित्य में सामाजिक न्याय का स्वरूप और उसके आधार

Idea of Good Governance Sanskrit Literature

Idea of Justice in Sanskrit Literature and Indian Constitution

Idea Accountability in Raamaraajay and Indian Administrative Services/ Parliament

Dharma (not to be confused with religion) as a Tool of Good Governance

Constitution and Lokopal Dharma in Sanskrit Literature

Foundations of Good Governance in Indian Tradition

What is Justice in India Constitution and Sanskrit Literature?

विशेष

१. अपनी प्रतिभागिता की सूचना एवम् पत्र की प्रति दिनाङ्क १५ फ़रवरी, २०१२ तक जमा करवानी आवश्यक है ।

२. संस्कृत के विद्वानों से विशेष सादर अनुरोध है कि शोधपत्र केवल उपयोगिता की दृष्टि से अथवा किसी समस्या को पर्र्र्रिभाषित / लक्ष्य करके लिखें

३. हरियाणा उच्चतर शिक्षा विभाग के नियमानुसार यात्राभत्ता की कोई व्यवस्था नहीं है ।

४. हरियाणा उच्चतर शिक्षा विभाग को शोध पत्र जमा करवाने के लिए की लिखित/ टंकित/ साफ़्टकापी अनिवार्य है।

५. आयोजन की सफ़लता तथा अधिकतम ज्ञान चर्चा के लिए कृपया समय का सम्मान करें।

६. संस्कृत के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषयों के प्रध्यापक संगोष्ठी में परिचर्चा के लिए भाग लेने के लिए सादर आमन्त्रित हैं ।

आशुतोष आंगिरस प्रो० (डा०) विनोद राजदान डा० देशबन्धु

संगोष्ठी निदेशक अध्यक्ष, डिपार्टमेण्ट आफ़ ला प्राचार्य

098963-94569 कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र 09812053283

ई-मेल- sanskrit2010@gmail.com, Blog – sanatan Sanskrit

No comments: