गुरु नानक खालसा कालेज, यमुना नगर
(संस्कृत की पुन:संरचना योजना के अधीन)
एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी
भारतीय राष्ट्रीयता के मूल स्रोत – संस्कृत साहित्य के सन्दर्भ में
प्रायोजक : हरियाणा संस्कृत अकादमी, पंचकूला
आयोजक : संस्कृत विभाग, गुरु नानक खालसा कॉलेज, यमुना नगर
दिनाँक - 14 फरवरी, 2012 समय : 9.30 बजे प्रात: स्थान : कॉलेज सभागार
मान्यवर,
संस्कृत की पुन:संरचना योजना के अधीन संस्कृत विभाग, गुरु नानक खालसा कॉलेज, यमुना नगर तथा हरियाणा संस्कृत अकादमी, पंचकूला संयुक्त रूप से आयोजित संगोष्ठी में सहभागिता, विचार विमर्श के लिए सादर साग्रह आमन्त्रित है।
संस्कृत साहित्य के सन्दर्भ में भारतीयता एक सांस्कृतिक और सामाजिक अनिवार्य यथार्थ है। भारतीयता स्वयं में राष्ट्रियता का बोधक है जो इसे पाश्चात्य नेशनहुड अथवा नेशनिल्ज्म से भिन्न इस अर्थ में करता है कि यह किसी विद्रोह से उत्पन्न नहीं है बल्कि सहज मनुष्य और प्रकृति के सम्बन्ध ही राष्ट्रियता का परिभाषिकीकरण है क्योंकि भारतीयता याज्ञिक संस्कृति है जो अपने मूल में कृषि आधारित है। अतः जो बुद्धिजीवि औद्योगिकता,वैज्ञानिकता के चश्में से ही राष्ट्रियता को परिभाषित करना चाहते हैं उन्हें भारत को राष्ट्र ही समझने में कठिनाई होगी। इस संगोष्ठी का लक्ष्य इस भारतीय राष्ट्रियता का सार्थक और तात्त्विक विश्लेषण करना है ताकि हम यह जान सकें कि हम संस्कृतज्ञों का नियति बोध (sense of destiny) क्या है और दूसरे शिक्षा को व्यापारिक मूल्यों में ही परिभाषित करने वालों कि उस मानसिकता और पूर्वाग्रहों को चुनौति देना है जो समझते कि राष्ट्रियता केवल मात्र एक संवैधानिक दायित्व है। इस राष्ट्रियता का बोध कैसे जन मानस को हो –यह चिन्ता इस संगोष्ठी की अन्तर्धारा है। जिस मनुष्य में भारतीय अस्मिता का बोध ही न हो उससे से क्या अपेक्षा की जाए चाहे वह व्यक्ति कितनी भी वैश्विकरण के तर्क दे ले । राष्ट्र प्रेम एक मूल्य के रूप में एन सी आर टी की पुस्तकों में ८४वें स्थान पर है जबकि जापान आदि देशों में वह सर्वप्रथम मूल्य है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर लेना चाहिए कि भारत की राष्ट्रियता केवल मात्र इतना भी नहीं है कि –“कारवाँ आते गए और हिन्दोस्तां बसता गया” – भारतीयता इससे कहीं अधिक अग्रसर एवम् सूक्ष्म है जिसका स्वरूप हमें इतिहास के अवशिष्ट पन्नों जैसे वेद, महाभारत, रामायण, पुराण आदि में मिलता है और जिसका प्रस्फ़ुटन समय समय पर होता रहा है, विशेष रूप से इस राष्ट्रियता का बोध स्वतन्त्रता संग्राम में ’वन्दे मातरम्’ के रूप में हुआ। इस का कॊई भी चाहे कितना भी खण्डन कैसे भी कर ले परन्तु संस्कृत के योगदान का कोई अवमूल्यन नहीं कर सकता, चाहे कितना भी बुद्धिजीवि इतिहासकार क्यों न हो। संस्कृत साहित्य में इस भारतीयता को कैसे और किस किस रूप मे समझा गया है, राष्ट्रियता के किन किन बीजों का भारतीय मानस में वपन किया गया कि वह चाहे काश्मीर में बैठा हो, चाहे कन्याकुमारी में हो – वह व्यवहार भारतीय अर्थों में ही करेगा?
अतः भारतीयता को परिभाषित करने के लिए भारतीयता के मूल स्रोतों को हरियाणा एवम् भारत सरकार के लिए रेखाँकित करना अनिवार्य है ताकि संस्कृत की उपयोगिता पर उठने वाली दुराग्रहपूर्ण दृष्टि को चुनौति दी जा सके और साथ ही साथ संस्कृत की आवश्यकता शिक्षा जगत पहले से भी अधिक इसलिए सिद्ध हो सके कि केवल साईंस और कामर्स से राष्ट्र नहीं बना करते, उसके लिए एक हृदय और दृष्टि अपेक्षित है जो ड्ड्राईंगरूम चेयर पर सम्भव नहीं है। राष्ट्रियता संस्कृतज्ञों का अपना दायित्व है जिसका वरण उन्हें करना चाहिए। इस अपेक्षा के साथ इस संगोष्ठी में विचार विमर्श करने के आप सादर साग्रह आमन्त्रित हैं ।
विशेष : 1. संगोष्ठी का लक्ष्य विवाद नहीं सम्वाद है।
2. सामान्य श्रेणी का मार्ग व्यय अकादमी द्वारा नियमानुसार दिया जायेगा।
3. कृपया समय का सम्मान इसलिए करें ताकि चर्चा के लिए अधिक समय मिल सके।
संयोजक एवम् अध्यक्ष निदेशक प्राचार्य
संस्कृत विभाग हरियाणा संस्कृत अकादमी, गुरु नानक खालसा कालेज,
पंचकूला यमुनानगर
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