Saturday, September 25, 2010

DEFINIG INDIAN PSYCHOLOGY - PROBABILITIES & CHALLANGES


दिवसीय

राष्ट्रिय सम्वाद गोष्ठी एवम् कार्यशाला

DEFINIG INDIAN PSYCHOLOGY - PROBABILITIES & CHALLANGES

भारतीय मनोविज्ञान का परिभाषिकीकरण सम्भावनाएँ एवम् चुनौतियाँ

दिनाँ -29 अक्तूबर, 2010

प्रायोजक- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली।

आयोजक संस्कृत विभाग, एस० डी० कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी।

मान्यवर_________________,

संस्कृत की पुनः संरचना योजना के अन्तर्गत संस्कृत विभाग उपरोक्त विषय पर आयोजित द्वि-दिवसीय राष्ट्रिय संगोष्ठी एवम् कार्यशाला में पत्र प्रस्तुति एवम् समालोचना के लिए आपको सादर आमन्त्रित करने में गौरवान्वित अनुभव करता है।

भारतीय मनोविज्ञान विषय पर आयोजित इस चतुर्थ सम्वाद गोष्ठी के आयोजन का मुख्य उद्देश्य भारतीय मनोविज्ञान का एक औपचारिक, तार्किक व्यावहारिक प्रारूप उपस्थापित करना है ताकि पाश्चात्य मनोविज्ञान और भारतीय मनोविज्ञान में मानवीय हितों को दृष्टि में रखते हुए एक सम्वाद का मार्ग खुल सके और मानवीय चेतना के उन आयामों को टटोला जा सके जिसकी आवश्यकता आज सम्पूर्ण मानवता को है और इसमें मूलभूत प्रश्न यह है कि भारतीय मनोविज्ञान के नाम पर साहित्य में, शास्त्र में, परम्परा में, संस्कृति में, जीवन में, व्यवहार में जो कुछ भी सामग्री उपलब्ध है, क्या उसके आधार पर एक निश्चित प्रारूप प्रस्तुत किया जा सकता है और यदि किया जा सकता है तो वह क्या है या क्या हो सकता है और साथ ही यह भी स्पष्ट कर लेना चहिए कि क्या मनोविज्ञान सईकालोजी का सही अनुवाद है क्योंकि पश्चिम में साईकी शब्द का अपना एक इतिहास है जो एक सांस्कृतिक-वैज्ञानिक-दार्शनिक मूल्य के रूप में प्रयोग होता है जबकि भारत में मन अन्तःकरण का एक भाग है और इस अन्तःकरण में मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार सम्मिलित हैं अतः अन्तःकरण शब्द तो सम्भवतः साईकोलोजी का समीपवर्ती अनुवाद हो सकता है परन्तु फ़िर भी भारतीय मनोविज्ञान को परिभाषित करने में कई व्यावहारिक कठिनाईयां दृष्टिगत होती हैं जिनकी चर्चा इस गोष्ठी में अपेक्षित है साथ ही साथ यह भी ध्यातव्य है कि मनोविज्ञान को इस प्रकार परिभाषित किया जाए कि वह अध्यात्म के क्षेत्र का अतिक्रमण न करे और वह दैनन्दिन समस्याओं का विश्लेषण करे भी और करना सिखाए भी। वेद, उपनिषद्, सहित्य और दर्शन में अनेक गुणात्मक और विश्लेषण पूर्ण तथ्य मन के विषय में कहे गए हैं जिनकी चर्चा इस पक्ष से अपेक्षित है कि वह सब तथ्य मिल कर भारतीय मनोविज्ञान का क्या और कैसा स्वरूप प्रस्तुत करने में सक्षम है।

उपरोक्त विषय के सन्दर्भ में आपके प्रश्नों का, उत्तरों का, सुझावों और वैचारिक आयामों का विनम्रतापूर्ण स्वागत है। कृपया अपनी उपस्थिति से हमें अनुगृहीत करें।

संगोष्ठी के १.मानवीय व्यवहार एवं व्यक्तित्व सत्र, २.शरीरेन्द्रिय तथा प्राण सत्र, ३.अन्तःकरण सत्र, ४.भावानुभावादि सत्र, ५.ज्ञानाज्ञानादि सत्र, ७.कर्माकर्मविकर्मादि सत्र, ८.मनोभाषिकी सत्र में अपेक्षित विचार बिन्दु-

वैदिक/ जैन/ बौद्ध साहित्य एवम् दर्शन में मनोवौज्ञानिक अवधारणाएँ एवम् सिद्धान्त

शास्त्राधारित मानवीय व्यवहार का स्वरूप, स्तर, कोटियाँ एवम् प्रकार भेद

शरीर, पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्च कर्मेन्द्रियाँ, मन और मानवीय व्यवहार

मन, वाक्, प्राण का सम्बन्ध एवम् मानवीय व्यवहार

स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर, कारणशरीर की व्यावहारिक भूमिका

ज्ञातृत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व का स्वरूप स्थापना

मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हृदय का व्यवहारपरक स्वरूप

सत्त्व, रजस्, तमस गुणों का मानवीय व्यवहार में परिमाण एवम् परिणाम

पुरुष, प्रकृति,विकृति की मनोवैज्ञानिक उपयोगिता

पुत्रैषणा, वित्तैषणा, यशैषणा का मानवीय व्यवहार

मानवीय व्यवहार के प्रेरक तत्त्व- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर

मूढ.-क्षिप्त-विक्षिप्त-एकाग्र-निरुद्ध-चित्त का व्यावहारिक उपयोग

धारणा, ध्यान, समाधि का मनोवैज्ञानिक प्रयोग एवम् लाभ

सम्यक् शील, सम्यक् समाधि, सम्यक् प्रज्ञा,

इड़ा, पिंगला,सुषुम्ना का मनोवैज्ञानिक यथार्थता

ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, संन्यास आश्रम की समस्याओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

भाव, विभाव, अनुभाव का मनोवैज्ञानिक उपयोग

वात, पित्त, कफ़ का मनोवैज्ञानिक प्रयोग

जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति सम्बन्धी मनोवैज्ञानिक समस्याएँ एवम् समाधान

आध्यत्मिक, आधिदैविक, अधिभौतिक दुःख का मनोवैज्ञानिक व्यवहार

मानवीय व्यवहार का धर्म परिणाम, अवस्था परिणाम, लक्षण परिणाम

मानवीय व्यवहार में इच्छा-ज्ञान-क्रियाशक्ति की मनोवैज्ञानिक भूमिका

मानवीय कर्म (अकर्म, कर्म, विकर्म) का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

अपरोक्ष-ज्ञान(अवधि-ज्ञान, मनःपर्याय-ज्ञान,केवल-ज्ञान) एवम् मनोविज्ञान

आज्ञान, विज्ञान, संज्ञान और प्रज्ञान का स्वरूप एवम् व्यावहारिक उपयोग

प्रख्याशील चित्त, स्थितिशील चित्त, प्रवृत्तिशील चित्त

मनोभाषिकी में भावना, आर्थीभावना, शाब्दीभावना का प्रयोग के प्रकार

सविकल्पक-निर्विकल्पक प्रत्यक्ष, प्रत्यभिज्ञा, संशय, विपर्यय, तर्क, ऊहा का व्यवहार

अभिधा शक्ति, लक्षणाशक्ति, व्यञ्जनाशक्ति के मनोवैज्ञानिक प्रयोग

प्रतिभा, कारयित्री, भावयित्री,

विशेष-

. शोधपत्र (संस्कृत/ हिन्दी/ अंग्रेजी) की कम्पयूटरीकृत साफ़्ट एवं हार्ड प्रति आवश्यक रूप से दिनांक 12अक्तूबर, २० तक आवश्यक रूप से पहुंच जानी चाहिए।

२.ठहरने की व्यवस्था के लिए पूर्वसूचना अवश्य दें।

.यात्रा-भत्ता सामान्य श्रेणी का नियमानुसार देय होगा।

FOR THOSE WHO ARE NOT TRAINED TO THINK IN INDIAN TERMS & CONCEPTS

When academic psychology was introduced in India (in 1905), the supposed superiority of the western conception of knowledge led to an uncritical acceptance of western concepts and methodologies. The rich Indian traditions concerned with consciousness or the self, which were perceived by the British rulers as emanating from the primitive notions of a backward people, were left out of the curriculum.

The department of Sanskrit pursues to find out a unified theory of psychology which should be all inclusive. We know and realize that it is very difficult to construct a complete unified theory of everything in psychology all at one go. We have made progress by finding partial theories that describe a limited range of happenings and neglect other effects. We hope to find a complete, comprehensive, consistent, unified theory that would include all the partial theories. The quest for such a theory is known as ‘The Unification of Oriental and Western psychology.’ But can there really be a unified theory of everything in psychology? Or are we just chasing a mirage or in pursuit of a chimera? There seems to be three possibilities-

1) There really is a unified theory of psychology which we will some day discover if teachers of Sanskrit and psychology are smart enough.

2) There is no ultimate theory of psychology or human behavior, just an infinite sequence of theories that describe the human behavior more and more accurately.

3) There is no theory of human behavior. Events can not be predicted beyond a certain extent but occur in a random and arbitrary manner.

So let us begin with basic questions of Indian Psychology, like-

What do we understand by the term Indian Psychology?

Have there been any terms, systems, thinking processes in Indian tradition regarding psychology?

If there had been any thing which deals with the psychological issues in Indian tradition then a serious investigation is needed so as to find out not only new dimensions in Psychology but also to find a better alternative psychological system?

Primary investigations has led us to believe that Indian tradition deals with nature of consciousness, mind, nervous system, behavior of individuals or society, in a different manner. There are different schools of Indian tradition which not only conceptualize an advance frame-work for psychology but also practice them in a very indigenous manner which makes psychology to think in more humanistic terms like jiva, bhuta, praani, etc.

How can different schools of Indian philosophy like- Vedic, Mimaanasaa, Saamkhya-yoga, Vedanata, Buddhist, Jain, Tantra, ayurveda etc. be used to add more meaning to the realms of psychology?

Can there be any creative dialogue between the Indian systems of psychological thinking and the western understanding of psychology?

Can India contribute its experiences of psychic understanding to the world at large or humanity in its own terms in different fields of psychology?

आशुतोष अंगिरस डा० देशबन्धु

संगोष्ठी निदेशक प्राचार्य

098963-94569 09812053283

ई-मेल- sriniket2008@gmail.com

Defining relationship of Media & Indian Mindset (With special reference to integrating social value system)


एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी

मीडिया एवम् भारतीय मानस के सम्बन्धों का परिभाषिकीकरण

(समन्वित सामाजिक मूल्यों के सन्दर्भ में)

Defining relationship of Media & Indian Mindset

(With special reference to integrating social value system)

दिनाँ - 27 अक्तूबर, 2010,

समय- प्रातः ९.०० बजे

प्रायोजक - विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली।

आयोजक मास कम्यूनिकेशन विभाग, एस० डी० कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी

अकादमिक सहयोग- इन्सटिच्य़ूट आफ़ मास कम्यूनिकेशन एण्ड मीडिया टेक्नालोजी, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

मान्यवर_________________,

मास कम्यूनिकेशन विभाग, एस० डी० कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी इन्सटिच्य़ूट आफ़ मास कम्यूनिकेशन एण्ड मीडिया टेक्नालोजी के अकादमिक सहयोग से उपरोक्त विषय पर आयोजित एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में पत्र प्रस्तुति एवम् समालोना के लिए आपको सादर आमन्त्रित करने में गौरवान्वित अनुभव करता है।

मीडिया एक व्यापक अर्थ वाला बहु आयामी शब्द है जिसने अपनी विस्तार और विकास की गति से सारे विश्व को विचलित इस अर्थ में किया है कि एक ओर सूचना-प्रसार-तन्त्र के द्वारा सारे विश्व को एकीकृत कर दिया है तो दूसरी ओर सभी सभ्यताओं, उनकी परम्पराओं, उनके मूल्यों की जड़ो को उखाड़ दिया है। मीडिया का क्रान्तिकारी प्रभाव मनुष्य और समाज पर ऐसा हुआ है कि हर विचारशील एवम् संवेदनशील मनुष्य को यह सोचना पड़ रहा है कि मनुष्यता का मूल कहाँ है और उसकी जड़ें कहाँ है ?विशेष रूप से भारतीय समाज के सन्दर्भ में मीडिया की भूमिका अत्यन्त सूक्ष्म रूप से विचारणीय है। क्योंकि अपने मूल रूप में भारतीय समाज–अविस्तारवादी ओर अहिंसक रहा है। मीडिया का पदार्पण भारत में एक अकाल-प्रसव की तरह है क्योंकि भारतीय मन मीडिया से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिये तैयार नहीं था जबकि पश्चिम की औद्योगिक क्रान्ति ने मीडिया की सशक्त पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी, जिसमें पश्चिमी समाज मीडिया के व्यावसायिक उपयोग के प्रति अत्यन्त सजग था। लेकिन इसके विपरीत भारतीय मन इस तरह की सूचना क्रान्ति के प्रभावों के लिये वस्तुतः तैयार नहीं था, जिससे भारतीय समाज की भाषा, व्यवहार, चेतना एवम् संस्कारों में विसंगतियाँ पैदा हो गई। इन विसंगतियों के कारण भारतीय मानस में एक ऐसा व्यामोह उत्पन्न हुआ जिससे भारतीय समाज में बौद्धिक एवम् भावनात्मक विडम्बनायें पैदा हो गई हैं। शब्द तथ्यों को पूरी तरह से कह नहीं पा रहे हैं। जो कुछ मीडिया के द्वारा कहा जा रहा है वह सब कितना प्रासंगिक व उचित है- यह बात प्रश्न की परिधि से बाहर नहीं हैं? इसलिये वर्तमान परिस्थितियों में जहां व्यक्ति और समाज बिखराव की ओर चल रहे है। या सारी व्यवस्थायें अपने विस्तार के भार से ही बे-सम्भल होती जा रही है वहां प्रत्येक संवेदनशील और दायित्वपूर्ण व्यक्ति के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह एक ऐसी दृष्टि की खोज करे जो भारतीय मूल्यों को समझें, व मीडिया के प्रभावों का समालोचन कर दोनों के बीच सन्तुलन स्थापित कर सके। जिससे मीडिया भारतीय समाज को ऐसी दिशा में अग्रसर कर सकें जो मनुष्यता को भविष्य के प्रति आश्वासन दें सकें ।

सम्भावित विचार बिन्दु

१. मीडिया तथा भारतीय पारिवारिक मूल्यों का संकट

२. मीडिया की स्वतन्त्रता तथा भारतीय लोक मानस पर प्रभाव

३. मीडिया के सन्दर्भ में वैयक्तिक व सामाजिक मूल्य

. मीडिया का सामाजिक मूल्यों के प्रति उत्तरदायित्व

५. भारतीय राजनैतिक समस्याएं एवम् मीडिया

६. भारतीय शिक्षा प्रणाली एवम् मीडिया

७. भारतीय प्राशासनिक पारदर्शिता एवम् मीडिया की भूमिका

८. सामाजिक – आर्थिक न्याय एवम् मीडिया

९. मीडिया की भारतीय सन्दर्भ में चुनौतियाँ एवम् दिशाएँ

१०. मीडिया एवम् मानवाधिकार की संस्कृति

आशुतोष आंगिरस प्रो० मनीष गोयल प्रो० राजबीर सिंह डा० देशबन्धु

संगोष्ठी निदेशक संगोष्ठी सचिव निदेशक प्राचार्य

आई एमसीएमटी एस० डी० कालेज

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय अम्बाला छावनी 09896394569 09996722333 09416007826 09812053283

HUMAN RIGHTS AND CONSTITUTION – AN INDIAN PERSPECTIVE


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HUMAN RIGHTS AND CONSTITUTION – AN INDIAN PERSPECTIVE

मानवाधिकार की अवधारणाएँ तथा संविधान भारतीय परिप्रेक्ष्य

OCTOBER 21, 2010, THURSDAY

Time – 9.30 A.M.

Organized by

Department of Sanskrit, Sanatana Dharma College (Lahore), Ambala Cantt.

In academic collaboration with

Department of Political Science, Kurukshetra Univesity, Kurukshetra.

मान्यवर _______________________,

संस्कृत विभाग, सनातन धर्म कालेज, अम्बाला छावनी तथा राजनीति विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित गोष्ठी में सहभागिता एवम् पत्र प्रस्तुति के लिए सादर आमन्त्रित हैं।

Suggested topics:-

भारतीय सन्दर्भ में मानवाधिकार का दर्शन एवम् व्यवहार

धर्म, संविधान एवम् मानवाधिकार- विरोध तथा परिष्कार

Philosophical foundations of Human rights and Indian Constitution

Human rights in Hindu/ Sikh/ Jain/ Bauddha/ Islam/ Christian Dharma

Politics of development and human rights in India

Power politics and human rights

Elements of Indian culture and human rights

Historical perspective of human rights in India

Terrorist movements, constitution and human rights

Issues of minorities and human rights

Issues of social justice and human rights

Globalization, trade practices and human rights

Armed forces, politics and human rights

Constitution, democracy and human rights

Gandhian perception & practice of human rights

Aurobindos’ understanding of human rights

Pre-independence human rights and British law

Redefining human rights and Indian sensibility

Rights and duties – an Indian perspective

संगोष्ठी विचार

भारतीय मानवाधिकार के सन्दर्भ में मनुष्य जाति के समक्ष दो ही स्पष्ट गम्भीर एवम् व्यापक समस्याएँ हैं- एक है शुभता (goodness / अच्छाई) की घोर कमी, और दूसरी समस्या है- शुभता को व्यवस्थित करने के लिए किसी सटीक पद्धति (नीति/ strategy) का अभाव। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि मानवाधिकार की संस्कृति आधुनिकता के तर्क पर आधारित आर्थिक दर्शन के प्रति मोहभंग की अभिव्यक्ति है क्योंकि भोग (अपने लिए अधिक से अधिक उपभोग की वस्तुएँ एकत्रित करना) और प्रभुता (अपने उपभोग के लिए एकत्रित सामग्री से दूसरों पर श्रेष्ठता स्थापित कर दूसरों को ईर्ष्या का भाव देना) पर आधारित कोई भी व्यवस्था न्यायपूर्ण और स्वस्थ समाज की स्थापना नहीं कर सकी और न ही कर सकती है। ऐसे में मानवाधिकार की संस्कृति कैसे विकसित होगी।

पश्चमी इतिहास से स्पष्ट होता है कि वहँ होने वाली सभी क्रान्तियाँ राजपरिवारों से व्यापारी वर्ग को शक्ति का हस्ताँतरण मात्र था। ये क्रान्तियाँ न न्याय के लिए थीं और न ही समानता के लिए। इसलिए मानवाधिकार की बात चाहे कितने ही तर्क से, प्रचार से की जाए उसकी मूल धारा में विकृति रहेगी ही। पूँजीवाद या समाजवाद दोनों चाहे जितना भी मान्वाधिकार का प्रचार करें परन्तु उन दोनों का पदार्थवाद ही मनुष्य की सत्ता को स्वीकार नहीं करता तो मानवाधिकार की सफ़लता पर प्रश्न चिन्ह लगेंगे ही।

अतः भारतीय होने कारण हम सभी मानवाधिकार की समस्याओं का आधुनिकता के नेतृत्व और उनके विषय विशेषज्ञता से स्वतन्त्र हो कर अपनी सांस्कृतिक प्रतिभा और बुद्धि के बल पर समाधान खोजें। क्योंकि भारतीय सन्दर्भ में मानवाधिकार का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज के अधिकारों और कर्त्तव्यों से एक साथ जुड़ा हुआ है। भारतीय परम्परा में अधिकार का सम्बन्ध स्वामित्व से है और उस स्वामित्व के प्रति सुरक्षा और सम्मान की भावना से है। भारतीय परम्परा के विषय में दो शब्दों का प्रयोग अत्यन्त सघनता से पूरे कालक्रम में दिखाई देता है- एक है- नीति और दूसरा है न्याय। इन दो शब्दों को स्पष्ट करते हुए डा० अमर्त्य सेन कहते हैं- ‘The former idea, that of Niti, relates to organizational propriety as well as behavioural correctness’ whereas the latter, Nyaya, is concerned with what emerges and how, and in particular the lives that people are actually able to lead.’ यही दो शब्द भारतीय संविधान के उत्तरदायित्व को स्पष्ट करते हैं कि मानवाधिकार के सम्बन्ध में क्या नीति अभीष्ट है और कैसे मानवाधिकार के सन्दर्भ में न्याय पर आधारित समानता और स्वस्थ समाज विकसित हो? इस संगोष्ठी का यही केन्द्र बिन्दु है।

आपसे सादर निवेदन है कि आप अपनी स्वतन्त्रता एवम् मान्यता के अनुसार विषय चुनें।

कृपया अपनी सहभागिता की सूचना एवम् शोधपत्र (अंग्रेजी / हिन्दी) १० अक्तूबर तक आवश्यक रूप से प्रेषित करें।

संयोजक समिति

आशुतोष आंगिरस प्रो० (डा०) आर एस यादव डा० देश बन्धु

संस्कृत विभाग अध्यक्ष, राजनीति विभाग प्राचार्य

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय,कुरुक्षेत्र एस० डी० कालेज (लाहौर)

098963-94569 09896088655 09812053283