Saturday, January 14, 2012

CONCEPT OF GOOD GOVERNANCE IN SANSKRIT LITERATURE – IN THE PERSPECTIVE OF POLITY AND JUSTICE


सनातन धर्म कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी

(संस्कृत की पुनःसंरचना योजना के अधीन)

एक -दिवसीय अन्तःवैषयिक राष्ट्रिय सम्वाद गोष्ठी

One Day Inter-disciplinary National Seminar

संस्कृत साहित्य मे सुशासन-तन्त्र का स्वरूप नीति एवम् न्याय के परिप्रेक्ष्य में

CONCEPT OF GOOD GOVERNANCE IN SANSKRIT LITERATURE – IN THE PERSPECTIVE OF POLITY AND JUSTICE

आयोजक- संस्कृत विभाग, सनातन धर्म कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी

अकादमिक सहयोग- डिपार्टमेण्ट आफ़ ला, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

प्रायोजक हरियाणा उच्चतर शिक्षा विभाग, पञ्चकूला

दिनाङ्क - १४ मार्च, २०१२, दिन बुधवार समय- प्रातः ९.०० से साँय ५.३० तक

मान्यवर,

’संस्कृत कि पुनःसंरचना योजना’ के अधीन संस्कृत विभाग सनातन धर्म कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी आ[पको उपरोक्त विषय पर आयोजित एक- दिवसीय राष्ट्रिय संगोष्ठी में शोध पत्र प्रस्तुति एवम् विचार विमर्श के लिए सादर साग्रह आमन्त्रित करता है।

राज्यं राजासीत् , दण्डो दाण्डिकः। स्वयमेव प्रजाः सर्वा , रक्षन्ति स्म परस्परम्॥

( राज्य था और राजा था, दण्ड था और दण्ड देने वाला। स्वयं सारी प्रजा ही एक-दूसरे की रक्षा करती थी।)

संस्कृत विभाग ने जब शासनतन्त्र के इस प्रारूप की प्राक्कल्पना करते हुए जब इतिहास पर दृष्टिपात किया तो अनुभव किया कि मानवीय इतिहास में जो भी संकट आए वे अपने मूल रूप में वस्तुओं या मनुष्यों के शोषण से सम्बन्धित रहे हैं परन्तु वर्तमान काल में संकट है विचारों के दुरुपयोग का, विचारों के शोषण का और यह संकट पहले अधिक विध्वंसकारी एवम् भयंकर है क्योंकि विचार की भूमिका मर्यादाओं को तोडने में अधिक रही है अतः अब मनुष्य महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया है , महत्त्वपूर्ण है विचार या विचार प्रणालियाँ, विशेष रूप से भारत जैसे लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जहाँ शासनतन्त्र में क्रमबद्धता गतिशील निरन्तर परिवर्तन की ओर उन्मुख प्रक्रिया है, जिसके दो पक्ष हैं १. चिन्तन पक्ष और २. विषय पक्ष। चिन्तन पक्ष से अभिप्राय विभिन्न धर्म-संविधान- दर्शन-सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक-पारिवारिक तथा व्यक्तिगत पक्ष है और विषय पक्ष का अर्थ है- शासनतन्त्र की व्यावहारिक प्रक्रिया । ये दोनों पक्ष सम्बद्ध भी हैं और एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं जो शासक के लिए पर हर क्षण एक नई चुनौति भी उत्पन्न करते हैं, विशेष रूप से नीति एवम् न्याय के परिप्रेक्ष्य में, चाहे वह सामाजिक न्याय की चुनौति हो या राजनैतिक या आपराधिक न्याय। साथ ही साथ उस न्याय की प्राप्ति या उपलब्धि या स्थापना कैसे हो और वह भी तर्क संगत मूल्याधारित हो यह और भी विचारणीय विषय है। और यह भी निश्चित है कि तर्क एवम् वैज्ञानिकता पर आश्रित आधुनिकता का दर्शन न्याय परक समाज स्थापित नहीं कर सका है क्योंकि समृद्ध को निश्चिंतता नहीं और निर्धन वर्ग अपनी अस्मिता की रक्षा के न्याय पाने के लिए प्रसाधन विहीन है। इसलिए वर्तमान काल में शासनतन्त्र के व्यवहार को देखते हुए सुशासनतन्त्र के लिए प्रमूल्यों पर नई ईमानदारी से विश्लेषण करने की आवश्यकता है। यदि हम वर्तमान शासनतन्त्र के व्यवहार एवम् प्रक्रिया से असुंतुष्ट हैं तो सभी पूर्वाग्रहों एवम् अवधारणाओं से मुक्त हो कर संस्कृत शास्त्र एवम् भारतीय परम्परा से चिन्तन प्रक्रिया को प्रारम्भ करना श्रेयस्कर होगा । जैसे कि -सामर्थ्य्मूलं स्वातन्त्र्यं, श्रममूलं च वैभवम् । न्यायमूलं सुराज्यं स्यात्, संघमूलं महाबलम् ॥अर्थात् शक्ति स्वतन्त्रता का मूल, श्रम धन-सम्पत्ति का मूल, न्याय सुराज्य का मूल है और संगठन महाशक्ति का मूल है। निश्चित ही राज्य तीन शक्तियों के अधीन है। शक्तियाँ मंत्, प्रभाव और उत्साह हैं जो एक दूसरे से लाभान्वित होकर कर्तव्यों के क्षेत्र में प्रगति करती हैं। मंत्(योजना, परामर्श) से कार्य का ठीक निर्धारण होता ह, प्रभाव (राजोचित शक्ति, तेज) से कार्य का आरम्भ होता है और उत्साह (उद्यम) से कार्य सिद्ध होता है(दशकुमारचरित)

निश्चित ही यह संस्कृत की इस प्रकार की प्रशासनिक शब्दावली किसी भी शिक्षित बुद्धिजीवि के लिए कठिन होगी और सम्भवतः प्राचीनता का तर्क देकर असंगत घोषित कर सकते हैं लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि पाश्चात्य जगत से उधार लिए गए शब्द freedom/ liberty/ secularism/ आदि की पृष्ठभूमि औद्यौगिक एवम् धार्मिक दबाव की है जबकि यह परिस्थिति भारत में कृषि प्रधानता के कारण यहाँ नहीं थी इसीलिए ये सारे शब्द भारतीय सन्दर्भ में विडम्बित हो कर रह गए हैं और अपनी गुणात्मक विश्वसनीयता का मूल्य खो चुके हैं। यही कारण है कि भारत इस समय एक बौद्धिक और भावनात्मक द्वन्द्व (intellectual & emotional crisis)की स्थिति में है। अतः शासनतन्त्र की विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए न्याय और नीति (बौद्धिक एवम् भावनात्मक) भारतीय सन्दर्भ में विश्लेषण की अपेक्षा रखती है।

For those who have been trained to think only in Constitutional/ legal terms -

What is ‘good’ governance in the Indian context? The central challenge before good governance relates to social development. In his famous ‘tryst with destiny’ speech on 14 August 1947, Jawaharlal Nehru articulated this challenge as ‘the ending of poverty and ignorance and disease and inequality of opportunities’. Good governance must aim at expansion in social opportunities and removal of poverty. In short, good governance, means securing justice, empowerment, employment and efficient delivery of services.

This seminar is an attempt to bring closer

1) the policy makers who are being transformed into policy thinkers, painstakingly slowly but surely, like Amartya Sen, who uses two indigenous Indian words – “Niti- organizational propriety and behavioral correctness” and “Nyaya – a comprehensive concept of realized justice” in his latest book –“The Idea of Justice”.,

2) the sociologists, psychologists, philosophers, linguists, thinkers from art and literature not only to raise the real positive issues regarding good governance with their indigenous understanding but also try to restructure the whole new governing system keeping the human being in the centre of the system so that needs of the man and his role to achieve the means may be redefined with the help of modern lawmakers.

It is in this sense that this seminar has been proposed by the department of Sanskrit. It is neither to initiate a social unrest nor to start a political revolution; it is just a non-belief in the present day over all system at the level of thought and human emotions. This seminar is an expression of disillusionment regarding the scientific foundations of the socio-economic system which has widened the gap in the idea of socio-economic-cultural justice. So the emerging trends in governance systems’ thinking may not be able to provide full-fledged alternative system but surely they are looking for better alternatives for a healthy and just human society in this world of ours.

You are requested to choose a topic of your conviction and convenience other than the following topics.

SUGGESTED TOPICS -

संस्कृत साहित्य में न्याय की अवधारणा और भारतीय संविधान

संस्कृत साहित्य में सुशासनतन्त्र की अवधारणा एवम् नीति निर्देशक तत्त्व

धर्म,अर्थ काम, मोक्ष एवम् संवैधानिक मूल अधिकार

संस्कृत साहित्य में राजा के दायित्व/ अधिकार और भारतीय सांसद/ प्रशासनिक अधिकारी

संस्कृत साहित्य में राज्य नीति निर्देशक तत्त्व और भारतीय संविधान के नीतिनिर्देशक

संवैधानिक प्रशासनिक मर्यादाएँ एवम् शास्त्रीय प्रशासनिक मर्यादाएँ

संस्कृत साहित्य में सामाजिक न्याय का स्वरूप और उसके आधार

Idea of Good Governance Sanskrit Literature

Idea of Justice in Sanskrit Literature and Indian Constitution

Idea Accountability in Raamaraajay and Indian Administrative Services/ Parliament

Dharma (not to be confused with religion) as a Tool of Good Governance

Constitution and Lokopal Dharma in Sanskrit Literature

Foundations of Good Governance in Indian Tradition

What is Justice in India Constitution and Sanskrit Literature?

विशेष

१. अपनी प्रतिभागिता की सूचना एवम् पत्र की प्रति दिनाङ्क १५ फ़रवरी, २०१२ तक जमा करवानी आवश्यक है ।

२. संस्कृत के विद्वानों से विशेष सादर अनुरोध है कि शोधपत्र केवल उपयोगिता की दृष्टि से अथवा किसी समस्या को पर्र्र्रिभाषित / लक्ष्य करके लिखें

३. हरियाणा उच्चतर शिक्षा विभाग के नियमानुसार यात्राभत्ता की कोई व्यवस्था नहीं है ।

४. हरियाणा उच्चतर शिक्षा विभाग को शोध पत्र जमा करवाने के लिए की लिखित/ टंकित/ साफ़्टकापी अनिवार्य है।

५. आयोजन की सफ़लता तथा अधिकतम ज्ञान चर्चा के लिए कृपया समय का सम्मान करें।

६. संस्कृत के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषयों के प्रध्यापक संगोष्ठी में परिचर्चा के लिए भाग लेने के लिए सादर आमन्त्रित हैं ।

आशुतोष आंगिरस प्रो० (डा०) विनोद राजदान डा० देशबन्धु

संगोष्ठी निदेशक अध्यक्ष, डिपार्टमेण्ट आफ़ ला प्राचार्य

098963-94569 कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र 09812053283

ई-मेल- sanskrit2010@gmail.com, Blog – sanatan Sanskrit

Bhartiya Rashtriyata ke Moola Srota


गुरु नानक खालसा कालेज, यमुना नगर

(संस्कृत की पुन:संरचना योजना के अधीन)

एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी

भारतीय राष्ट्रीयता के मूल स्रोत संस्कृत साहित्य के सन्दर्भ में

प्रायोजक : हरियाणा संस्कृत अकादमी, पंचकूला

आयोजक : संस्कृत विभाग, गुरु नानक खालसा कॉलेज, यमुना नगर

दिनाँक - 14 फरवरी, 2012 समय : 9.30 बजे प्रात: स्थान : कॉलेज सभागार

मान्यवर,

संस्कृत की पुन:संरचना योजना के अधीन संस्कृत विभाग, गुरु नानक खालसा कॉलेज, यमुना नगर तथा हरियाणा संस्कृत अकादमी, पंचकूला संयुक्त रूप से आयोजित संगोष्ठी में सहभागिता, विचार विमर्श के लिए सादर साग्रह आमन्त्रित है।

संस्कृत साहित्य के सन्दर्भ में भारतीयता एक सांस्कृतिक और सामाजिक अनिवार्य यथार्थ है। भारतीयता स्वयं में राष्ट्रियता का बोधक है जो इसे पाश्चात्य नेशनहुड अथवा नेशनिल्ज्म से भिन्न इस अर्थ में करता है कि यह किसी विद्रोह से उत्पन्न नहीं है बल्कि सहज मनुष्य और प्रकृति के सम्बन्ध ही राष्ट्रियता का परिभाषिकीकरण है क्योंकि भारतीयता याज्ञिक संस्कृति है जो अपने मूल में कृषि आधारित है। अतः जो बुद्धिजीवि औद्योगिकता,वैज्ञानिकता के चश्में से ही राष्ट्रियता को परिभाषित करना चाहते हैं उन्हें भारत को राष्ट्र ही समझने में कठिनाई होगी। इस संगोष्ठी का लक्ष्य इस भारतीय राष्ट्रियता का सार्थक और तात्त्विक विश्लेषण करना है ताकि हम यह जान सकें कि हम संस्कृतज्ञों का नियति बोध (sense of destiny) क्या है और दूसरे शिक्षा को व्यापारिक मूल्यों में ही परिभाषित करने वालों कि उस मानसिकता और पूर्वाग्रहों को चुनौति देना है जो समझते कि राष्ट्रियता केवल मात्र एक संवैधानिक दायित्व है। इस राष्ट्रियता का बोध कैसे जन मानस को हो यह चिन्ता इस संगोष्ठी की अन्तर्धारा है। जिस मनुष्य में भारतीय अस्मिता का बोध ही न हो उससे से क्या अपेक्षा की जाए चाहे वह व्यक्ति कितनी भी वैश्विकरण के तर्क दे ले । राष्ट्र प्रेम एक मूल्य के रूप में एन सी आर टी की पुस्तकों में ८४वें स्थान पर है जबकि जापान आदि देशों में वह सर्वप्रथम मूल्य है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर लेना चाहिए कि भारत की राष्ट्रियता केवल मात्र इतना भी नहीं है कि –“कारवाँ आते गए और हिन्दोस्तां बसता गया भारतीयता इससे कहीं अधिक अग्रसर एवम् सूक्ष्म है जिसका स्वरूप हमें इतिहास के अवशिष्ट पन्नों जैसे वेद, महाभारत, रामायण, पुराण आदि में मिलता है और जिसका प्रस्फ़ुटन समय समय पर होता रहा है, विशेष रूप से इस राष्ट्रियता का बोध स्वतन्त्रता संग्राम में ’वन्दे मातरम्’ के रूप में हुआ। इस का कॊई भी चाहे कितना भी खण्डन कैसे भी कर ले परन्तु संस्कृत के योगदान का कोई अवमूल्यन नहीं कर सकता, चाहे कितना भी बुद्धिजीवि इतिहासकार क्यों न हो। संस्कृत साहित्य में इस भारतीयता को कैसे और किस किस रूप मे समझा गया है, राष्ट्रियता के किन किन बीजों का भारतीय मानस में वपन किया गया कि वह चाहे काश्मीर में बैठा हो, चाहे कन्याकुमारी में हो वह व्यवहार भारतीय अर्थों में ही करेगा?

अतः भारतीयता को परिभाषित करने के लिए भारतीयता के मूल स्रोतों को हरियाणा एवम् भारत सरकार के लिए रेखाँकित करना अनिवार्य है ताकि संस्कृत की उपयोगिता पर उठने वाली दुराग्रहपूर्ण दृष्टि को चुनौति दी जा सके और साथ ही साथ संस्कृत की आवश्यकता शिक्षा जगत पहले से भी अधिक इसलिए सिद्ध हो सके कि केवल साईंस और कामर्स से राष्ट्र नहीं बना करते, उसके लिए एक हृदय और दृष्टि अपेक्षित है जो ड्ड्राईंगरूम चेयर पर सम्भव नहीं है। राष्ट्रियता संस्कृतज्ञों का अपना दायित्व है जिसका वरण उन्हें करना चाहिए। इस अपेक्षा के साथ इस संगोष्ठी में विचार विमर्श करने के आप सादर साग्रह आमन्त्रित हैं ।

विशेष : 1. संगोष्ठी का लक्ष्य विवाद नहीं सम्वाद है।

2. सामान्य श्रेणी का मार्ग व्यय अकादमी द्वारा नियमानुसार दिया जायेगा।

3. कृपया समय का सम्मान इसलिए करें ताकि चर्चा के लिए अधिक समय मिल सके।

डा० हरि प्रकाश डॉ. सुधीर कुमार डॉ. ?????

संयोजक एवम् अध्यक्ष निदेशक प्राचार्य

संस्कृत विभाग हरियाणा संस्कृत अकादमी, गुरु नानक खालसा कालेज,

पंचकूला यमुनानगर

sanskrit sahitya mein rashtriya chetana


डी० ए० वी० कालेज, सढौरा (जिला यमुनानगर)

(संस्कृत की पुन:संरचना योजना के अधीन)

एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी

संस्कृत साहित्य में राष्ट्रीय चेतना

प्रायोजक : हरियाणा संस्कृत अकादमी, पंचकूला

आयोजक : संस्कृत विभाग, डी० ए० वी० कालेज, सढौरा

दिनाँक - १० फरवरी, 2012, शुक्रवार

समय : 9.30 बजे प्रात: स्थान : कॉलेज सभागार

मान्यवर,

संस्कृत की पुन:संरचना योजना के अधीन संस्कृत विभाग, डी० ए० वी० कालेज, सढौरा तथा हरियाणा संस्कृत अकादमी, पंचकूला संयुक्त रूप से आयोजित संगोष्ठी में सहभागिता, विचार विमर्श के लिए सादर साग्रह आमन्त्रित है।

संस्कृत साहित्य के सन्दर्भ में राष्ट्र का सीधा सीधा सम्बन्ध निम्नलिखित प्रश्नों से है कि- १.राष्ट्र क्या है?२. राष्ट्र किसे कहते हैं?३ राष्ट्र बनता कैसे है या इसके मूल तत्त्व क्या हैं और कैसे समायोजित होते हैं? ४. किसका होता है राष्ट्र? ५. कौन होते हैं राष्ट्र-जन?६. भारत राष्ट्र है या नहीं, विशेष रूप से राजनैतिक इतिहास की दृष्टि से? ७. यदि भारत राष्ट्र है तो यहां के राष्ट्र-जन कौन हैं? ८. भारत (संवैधानिक रूप से इण्डिया) की संस्कृति की संज्ञा क्या है? ९. किस जनसमूह के तप-त्याग, श्रम-साधना, किन लोगों की प्रेरणाओं से, अनुभवों से भारत राष्ट्र बना है? ये प्रश्न संस्कृत साहित्य के विद्वानों से ऐसे उत्तर की अपेक्षा करते हैं जिसका एक यथार्थवादी पक्ष तो परम्परा से सम्बद्ध हो और दूसरा यथार्थवादी पक्ष विश्व के अन्य देशों की राष्ट्रियता ताकि हम सभी उस राष्ट्र का अनुमोदन अथर्ववेद के मन्त्र से कर सकें जिसका समर्थन इण्डिया का संविधान नहीं करता है- भद्रं इच्छन्त ऋषयः स्वर्विदः तपो दीक्षां उपसेदुः अग्रे। ततो राष्ट्रं बलं ओजश्च जातम्। तदस्मै देवा उपसं नमन्तु॥ (११-४१-१) यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि राज्य (state) और राष्ट्र (nation) को पर्यायवाची मानने की गल्ती नहीं करनी चाहिए क्योंकि राज्ययीय एकता से राष्ट्रियता का निर्माण नहीं हुआ करता- यह इतिहास सिद्ध है। राष्ट्रिय चरित्र राष्ट्रियता की पहचान बनता है- इसी के लिए संस्कृत शास्त्र की अन्तर्धाराओं का विश्लेषण करना आज की संगोष्ठी का लक्ष्य है-जिसमें आप सबके वैचारिक विमर्श अपेक्षित है। राष्ट्र चेतना को ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित करना, राष्ट्रियता का परिभाषिकीकरण, राष्ट्रियता का राजनैतिक गतिविधि के रूप में पहचान और राष्ट्रियता को एक भाव रूप में परिभाषित करने में आपका सहयोग अपेक्षित है।

इस संगोष्ठी को आयोजित करने का दूसरा मूख्य कारण है कि संवैधानिक रूप से विकसित की जा रही राष्ट्रियता का संस्कृत की चेतना पर आधारित राष्ट्र भावना से कैसे समायोजित और विकसित करें कि वह सेक्यूलरिज्म की सीमा का उल्ल्घन भी न करे और सभी उस राष्ट्र चेतना धार्मिकता का आरोप लगाए बिना स्वीकार भी करें। अतः इस संगोष्ठी में संस्कृत विभाग इतिहास, राजनीति-विज्ञान, अंग्रेजी और हिन्दी के माननीय प्राध्यापकों को भी सादर आमन्त्रित करता है कि वे संस्कृत की राष्ट्र चेतना का मूल्यांकन भी करें और उसे विकसित करने में सहयोग करें ताकि संस्कृत का उपयोग अन्य विषय भी कर सकें।

आपकी उपस्थिति के विनम्र अनुरोध के साथ सादर

विशेष : 1. संगोष्ठी का लक्ष्य विवाद नहीं सम्वाद है।

2. सामान्य श्रेणी का मार्ग व्यय अकादमी द्वारा नियमानुसार दिया जायेगा।

3. कृपया समय का सम्मान इसलिए करें ताकि चर्चा के लिए अधिक समय मिल सके।

डा० प्रवीन शर्मा डॉ. सुधीर कुमार डॉ. रणपाल सिंह

संयोजक एवम् अध्यक्ष निदेशक प्राचार्य

संस्कृत विभाग हरियाणा संस्कृत अकादमी, डी० ए० वी० कालेज,

पंचकूला यमुनानगर

Re-visioning of Indian Nationalism – A Historical Perspective


Arya Girls College , Ambala Cantt.

ONE DAY NATIONAL SEMINAR

on

Re-visioning of Indian Nationalism – A Historical Perspective

Organized by - Department of HISTORY

Sponsored by- University Grants Commission, New Delhi

Date – 17th Feburauary, 2012, Time – 9.30 AM to 5.30 PM

Dear Sir/ Madam,

On behalf of the department of History of Arya Girls College, we cordially invite you to share your views and ideas in the form of research paper in one day interdisciplinary national seminar being held on above said date and time.

Since development stages of different human groups all over the world have been different so qualitatively the development of unity among different groups has been different. Keeping in view this fact, definition, explanations and problems of nationalism should be analyzed in the context of unity of individual groups, their structure patterns, qualities etc. The nationalism particularly in Indian context is all together is different because diversity is the basic fact of this nation / country. Nationalism in India is all things. But how do our petty, confused minds approach nationalism - that is important and not the definition or descriptions of what is nationalism is. On our approach to nationalism, all questions and answers depend. More over the addition of the suffix ‘ism’ to ‘national’ has altered profoundly the original meaning of the ‘nation’. The nation was originally conceived to be a community of people organized on the basis of common geographical area, history, language traditions and culture but the new ‘ism’ endowed it with new, excessive traits which changed the entire concept. Nationalism makes more of the nation than this political or cultural community. It is well said that the term ‘nationalism’ is the perversion of the original word ‘nation’. Nationalism has its own peculiar historical development. So nationalism like religion, is subjective, psychological, a condition of mind, a spiritual possession; a way of feeling, thinking and living. Nationalism is not a political but an educational conception. Nationalism is only accidentally a political question, but primarily it is a spiritual and educational question. So if nationalism is a state of mind, an act of consciousness or a supreme form of group consciousness or if nationalism denotes the resolve of a group of human beings to solve their fortune, and to exercise exclusive control over their own action or if development of nationalism lies in common history, common suffering, common triumphs, common achievements, common memories then finding out the basic ingredients, source of nationalism is justified particularly in the present time because India or Indian mind cannot be defined only in the terms of industry, technology and economy.

So we need to discuss and understand the following points from various angles:-

(a) Nationalism as an historical process

(b) Nationalism as a theory

(c) Nationalism as socio-political activity

(d) Nationalism as a sentiment or consciousness

We must understand and acknowledge that Indianness can not defined in western terms or on western parameters as nationalism in west was the outcome of –first religious suppression (not to be confused with Dharma) and second rapid development of industrialization and two world wars. Here in India nationalism has been understood from the agrarian perspective and languages, particularly Sanskrit is proof of this as Sanskrit developed nationalism in two forms – one at the mythical level and second at the symbolic level which further influenced all Indians. One may or may not agree with this and may argue that India was never a nation – neither historically nor politically but how come visit to North India became important to South India and vice versa and who initiated this move when we intellectuals were not there with our constitutional nationalism.

So there is an urgent need to re-integrate the whole idea of Indian Nationalism in today’s education system in such a way that it serves the humanity rather than producing the spare parts for the industries or corporate sector. Nationalism in Education not only for business or job purpose only but for a sensitive human being. Once we have good/ better human beings then business will be done only for human dignity.

It is our humble objective to evaluate the concept of “Indian Nationalism” through inter-disciplinary observations and find better needful understanding. We are sure such an interaction between different subjects and individuals can raise hopes for a better future where “Indian Nationalism” may exist in real sense.

You are kindly requested to choose topic of conviction and convenience

Suggested Topics

Vedic and non vedic elements of Indian Nationalism

Non vilionce and Indian Nationalism

Gita and Indian Nationalism

Role of social reformers and saints in Indian Nationalism

Bhakti movememts and their role in Indian nationalism

Contribution of art, culture in Indian nationalism

Role of Family institution in building Indian Nationalism

Role of women in defining Indian Nationalism

Philosophical foundations of Indian Natioalism

Emergance of the idea of Bharat Maataa and Indian Ntionalism

Neo-nationalism and Indian socialistic thoughts and practices

Role of Arya Samaj in Indian Nationalism

Defining Characteristics of Sikhs/ Muslims/ Jain/Baudha/ Hindus in Nationalism

Role of Languages in defining Nationalism

Role of Music in Indian nationalism

P.S.- 1. Submit your papers latest by 30th January, 2011.

2. You will be paid normal bus fare only.

3. Kindly be respect the time so that we may have more time to discuss and share our

ideas.

Dr. Jyoti Chandra Dr. Neena Bedi

Convener Principal

Friday, January 6, 2012

sanskrit DharamShaastra And Indian Constitution


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