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HUMAN RIGHTS AND CONSTITUTION – AN INDIAN PERSPECTIVE
मानवाधिकार की अवधारणाएँ तथा संविधान – भारतीय परिप्रेक्ष्य
OCTOBER 21, 2010, THURSDAY
Time – 9.30 A.M.
Organized by
Department of Sanskrit,
In academic collaboration with
Department of Political Science, Kurukshetra Univesity, Kurukshetra.
मान्यवर _______________________,
संस्कृत विभाग, सनातन धर्म कालेज, अम्बाला छावनी तथा राजनीति विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित गोष्ठी में सहभागिता एवम् पत्र प्रस्तुति के लिए सादर आमन्त्रित हैं।
Suggested topics:-
भारतीय सन्दर्भ में मानवाधिकार का दर्शन एवम् व्यवहार
धर्म, संविधान एवम् मानवाधिकार- विरोध तथा परिष्कार
Philosophical foundations of Human rights and Indian Constitution
Human rights in Hindu/ Sikh/ Jain/ Bauddha/ Islam/ Christian Dharma
Politics of development and human rights in
Power politics and human rights
Elements of Indian culture and human rights
Historical perspective of human rights in
Terrorist movements, constitution and human rights
Issues of minorities and human rights
Issues of social justice and human rights
Globalization, trade practices and human rights
Armed forces, politics and human rights
Constitution, democracy and human rights
Gandhian perception & practice of human rights
Aurobindos’ understanding of human rights
Pre-independence human rights and British law
Redefining human rights and Indian sensibility
Rights and duties – an Indian perspective
संगोष्ठी विचार
भारतीय मानवाधिकार के सन्दर्भ में मनुष्य जाति के समक्ष दो ही स्पष्ट गम्भीर एवम् व्यापक समस्याएँ हैं- एक है शुभता (goodness / अच्छाई) की घोर कमी, और दूसरी समस्या है- शुभता को व्यवस्थित करने के लिए किसी सटीक पद्धति (नीति/ strategy) का अभाव। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि मानवाधिकार की संस्कृति आधुनिकता के तर्क पर आधारित आर्थिक दर्शन के प्रति मोहभंग की अभिव्यक्ति है क्योंकि भोग (अपने लिए अधिक से अधिक उपभोग की वस्तुएँ एकत्रित करना) और प्रभुता (अपने उपभोग के लिए एकत्रित सामग्री से दूसरों पर श्रेष्ठता स्थापित कर दूसरों को ईर्ष्या का भाव देना) पर आधारित कोई भी व्यवस्था न्यायपूर्ण और स्वस्थ समाज की स्थापना नहीं कर सकी और न ही कर सकती है। ऐसे में मानवाधिकार की संस्कृति कैसे विकसित होगी।
पश्चमी इतिहास से स्पष्ट होता है कि वहँ होने वाली सभी क्रान्तियाँ राजपरिवारों से व्यापारी वर्ग को शक्ति का हस्ताँतरण मात्र था। ये क्रान्तियाँ न न्याय के लिए थीं और न ही समानता के लिए। इसलिए मानवाधिकार की बात चाहे कितने ही तर्क से, प्रचार से की जाए उसकी मूल धारा में विकृति रहेगी ही। पूँजीवाद या समाजवाद दोनों चाहे जितना भी मान्वाधिकार का प्रचार करें परन्तु उन दोनों का पदार्थवाद ही मनुष्य की सत्ता को स्वीकार नहीं करता तो मानवाधिकार की सफ़लता पर प्रश्न चिन्ह लगेंगे ही।
अतः भारतीय होने कारण हम सभी मानवाधिकार की समस्याओं का आधुनिकता के नेतृत्व और उनके विषय विशेषज्ञता से स्वतन्त्र हो कर अपनी सांस्कृतिक प्रतिभा और बुद्धि के बल पर समाधान खोजें। क्योंकि भारतीय सन्दर्भ में मानवाधिकार का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज के अधिकारों और कर्त्तव्यों से एक साथ जुड़ा हुआ है। भारतीय परम्परा में अधिकार का सम्बन्ध स्वामित्व से है और उस स्वामित्व के प्रति सुरक्षा और सम्मान की भावना से है। भारतीय परम्परा के विषय में दो शब्दों का प्रयोग अत्यन्त सघनता से पूरे कालक्रम में दिखाई देता है- एक है- नीति और दूसरा है न्याय। इन दो शब्दों को स्पष्ट करते हुए डा० अमर्त्य सेन कहते हैं- ‘The former idea, that of Niti, relates to organizational propriety as well as behavioural correctness’ whereas the latter, Nyaya, is concerned with what emerges and how, and in particular the lives that people are actually able to lead.’ यही दो शब्द भारतीय संविधान के उत्तरदायित्व को स्पष्ट करते हैं कि मानवाधिकार के सम्बन्ध में क्या नीति अभीष्ट है और कैसे मानवाधिकार के सन्दर्भ में न्याय पर आधारित समानता और स्वस्थ समाज विकसित हो? इस संगोष्ठी का यही केन्द्र बिन्दु है।
आपसे सादर निवेदन है कि आप अपनी स्वतन्त्रता एवम् मान्यता के अनुसार विषय चुनें।
कृपया अपनी सहभागिता की सूचना एवम् शोधपत्र (अंग्रेजी / हिन्दी) १० अक्तूबर तक आवश्यक रूप से प्रेषित करें।
संयोजक समिति
आशुतोष आंगिरस प्रो० (डा०) आर एस यादव डा० देश बन्धु
संस्कृत विभाग अध्यक्ष, राजनीति विभाग प्राचार्य
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय,कुरुक्षेत्र एस० डी० कालेज (लाहौर)
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