Monday, December 21, 2009

SYSTEM'S THINKING AND HUMAN RIGHTS – AN INDIAN PERSPECTIVE


द्वि-दिवसीय राष्ट्रिय संगोष्ठी

व्यावस्थिकी-विचार एवम् मानवाधिकार - भारतीय परिप्रेक्ष्य में

SYSTEM'S THINKING AND HUMAN RIGHTS – AN INDIAN PERSPECTIVE

प्रायोजक - विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली।

दिनांक : 28-29 जनवरी, 2010 (वीरवार, शुक्रवार)

मान्यवर ................................................

'सनातन धर्म कॉलेज (लाहौर) उपरोक्त विषय पर आयोजित संगोष्ठी में प्रतिभागिता एवम् पत्र-प्रस्तुति के लिए आपको सादर निमन्त्रित करता है। बहु-वैषयिक (multi-disciplinary) संगोष्ठी में चर्चा एवम् मत प्रतिप्रादन अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान, राजनीति विज्ञान, विधि विज्ञान, मनोविज्ञान, लोक-प्रशासन, शिक्षा, धर्म एवम् साहित्य आदि की दृष्टि से अपेक्षित है क्योंकि तभी यह स्पष्ट हो पाएगा कि भारत की सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, धार्मिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक व्यवस्थाएँ कैसे अपने उद्देश्यों के विपरीत और व्यक्ति के विरोध में व्यवहार करती है ? किसी भी व्यवस्था की अपनी विचार प्रक्रिया या पद्धति में मानवीयता का क्या अर्थ हैं इस दृष्टिकोण से बौद्धिक, तार्किक, सम्वेदनशील, सहृदयतापूर्ण विश्लेषण आप द्वारा अपेक्षित हैं आपकी वैचारिकता से हम अनुगृहीत होने के लिए विनम्रतापूर्वक तत्पर हैं।

विशेष :-

1. सीमित संसाधनों के कारण आपकी प्रतिभागिता की पूर्व सूचना 20 जनवरी तक आवश्यक रूप से अपेक्षित है।

2. मार्ग व्यय सामान्य श्रेणी का ही देय होगा।

3. संगोष्ठी के पत्रों को पुस्तक रूप में छापा जाएगा अत: शोधपत्र हिन्दी में कृतिदेव या मंगल यूनिकोड और अंग्रेजी में TIMES NEW ROMAN साईज़ 12 में A-4 प्रारूप में सी.डी. अथवा ई.मेल पर हार्ड कॉपी के साथ भेजना आवश्यक है।

व्यावस्थिकी-विचार एवम् मानवाधिकार - भारतीय परिप्रेक्ष्य में

SYSTEM'S THINKING AND HUMAN RIGHTS – AN INDIAN PERSPECTIVE

निश्चित ही आर्थिक-सामाजिक-प्रशासनिक-राजनैतिक-नैय्यायिक-पारिवारिक शैक्षिणक एवम् धार्मिक व्यवस्थाएँ व्यष्टि एवम् समष्टि व्यक्ति के हित, सुख, सम्मान, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि के लिए स्थापित एवम् स्वीकृत विभिन्न देशों, सभ्यताओं, संस्कृतियों द्वारा की गई है ताकि मनुष्य की आदिम बुभुक्षा, आदिम भय, आदिम सौन्दर्य बोध एवम् आदिम जिज्ञासा जो निरन्तर गतिशील एवम् व्यापनशील होने कारण अत्यन्त जटिल प्रक्रियाओं को उत्पन्न करते हैं उन्हें एक अभीष्ट निर्दिष्ट दिशा प्रदान कर भविष्य की मानवता को सुरक्षित एवम् व्यवस्थित कर सकें परन्तु यदि किसी भी देश की कोई भी व्यवस्था अपने नागरिक (व्यक्ति) को कोई किसी भी प्रकार की आश्वस्ति प्रदान कर रहा है तो निश्चित ही इस सम्वाद संगोष्ठी का कोई औचित्य नहीं है और यदि किसी भी देश की कोई व्यवस्था किसी एक भी व्यक्ति को किसी प्रकार आश्वस्ति प्रयत्न करने पर भी नहीं प्रदान कर सकी है तो इस संगोष्ठी के आयोजन स्वत: सिद्ध हो जाता है विशेष रूप से भारत के सन्दर्भ में जिसकी सभी व्यवस्थाएं न केवल प्राचीनता के गौरव के भार से दबी हुई हैं और आधुनिकता के व्यामोह से विसंगति और बिखराव की ओर अग्रसर इस प्रकार हो रही हैं जिसमें गरीब के पास न्याय प्राप्ति के साधन नहीं हैं और धनी को अपने धन के प्रति किसी भी प्रकार की आश्वस्ति नहीं है तो निश्चित ही विचार करना होगा कि - ''वे सभी व्यवस्थाएँ जो व्यक्ति के लिए थी, वे सारी व्यवस्थाएँ व्यक्ति पर हावी क्यों और कैसे हो गई ?'' व्यवस्था में रहते हुए 100 करोड़ भारतीयों को जीने के लिए संघर्ष क्यों करना पड़ रहा है, क्यों प्रत्येक राजनेता के चेहरे पर परेशानी का भाव है, क्यों प्रत्येक प्रशासिनक अधिकारी frustrated दिखाई पड़ता है, क्यों प्रत्येक व्यक्ति अनहोनी की आशंका से, चिन्ता से पीड़ित है ? यह मुँह खोले प्रश्न न केवल वैज्ञानिक विश्लेषण एवम् समाधान की अपेक्षा करते हैं बल्कि साहित्यिक सहृदयता की भी आवश्यकता अनुभव करते हैं, नहीं तो व्यक्तियों को मनुष्य न समझ कर केवल ऑंकड़े मानकर व्यवहार करते रहेंगे और व्यक्ति प्रत्येक व्यवस्था में अपनी संगति ढूँढता रह जाएगा। 80 प्रतिशत भारतीय यदि साधन सम्पन्न नहीं है तो भारतीय व्यवस्था सार्थकता के प्रश्नों से पीछा नहीं छुड़ा सकती।

व्यवस्था और व्यक्ति के आपसी संगति का परिभाषिकीकरण ही वस्तुत: मानवाधिकार की स्थापना कर सकता है अन्यथा मानवाधिकार मात्र संवैधानिक व्यवस्था में जकड़ कर रह जाएगा और मानवाधिकार की संस्कृति कभी विकसित नहीं हो पाएगी क्योंकि मानवाधिकार का सम्बन्ध व्यक्ति के व्यवहार से है न कि लिपकीय संवैधानिक व्यवस्थाओं से (clerical constitutional system) सांस्कृतिक व्यवहार की दृष्टि से संविधान बहुत लघु सत्व है। भारत की सांस्कृतिक परम्परा हमेशा इस विषय में सजग रही है कि व्यवस्था और व्यक्ति की न केवल तार्किक बौ(कि संगतता ही हो बल्कि व्यक्ति का व्यक्तित्व इतना मानवीय हो कि वह वैश्विक मानव हो जाए जिससे वह व्यवस्थातीत हो जाए और इसके लिए लाखों लोगों को दो महायुद्धों में मारकर अनावाश्यक रूप से भविष्य में भय के कारण स्थापित यू.एन.ओ. के चार्टर को मानने की आवश्यकता नहीं है बल्कि जैनों की अहिंसा, बौद्धों की करुणा, वैदिकों की वैश्विक दृष्टि से प्रेरणा अभीष्ट है। उन्नति और विकास का नाम लेकर व्यापार करने के उद्देश्य से दूसरों की संस्कृति को नष्ट कर, विकृत कर फिर मानवाधिकार की दुहाई देना भारतीय सिद्धान्त नहीं है। अत: वर्तमान कालिक व्यवस्थाओं के व्यवहार पक्ष (working) और विचार पक्ष (thinking) पर समालोचना करने के लिए आप सादर साग्रह निमन्त्रित हैं जिससे आपकी बौद्धिकता से उपरोक्त विषय पर नए वैचारिक आयामों से सभी लाभान्वित हो सकें। यह एक अन्त:वैषयिक संगोष्ठी है, अत: आप किसी भी विषय से सम्बन्धित हों आपके वैचारिक योगदान का स्वागत है।

सम्भावित विचार बिन्दु :-

भारतीय न्याय व्यवस्था का व्यवहार एवम् मानवाधिकार

भारतीय अर्थव्यवस्था का व्यवहार एवम् वैयक्तिक अधिकार

भारतीय समाज व्यवस्था एवम् वैयक्तिक संघर्ष

भारतीय पुलिस व्यवस्था एवम् मानवीय संवेदनशीलता के प्रश्न

भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था की विचार प्रक्रिया एवम् मानवीय संवेदनशीलता

भारतीय शैक्षिक व्यवस्था एवम् मानवीयता की प्राक्कल्पना

हिन्दी अंग्रेजी, संस्कृत पंजाबी साहित्य में व्यवस्था विश्लेषण एवम् मानवाधिकार

भारतीय परम्परा में मानवाधिकार के मूल आधार

भारतीय राजनैतिक व्यवस्था की वैचारिक प्रक्रिया एवम् मानवीय मूल्य

भारतीय धर्मव्यवस्थाएँ एवम् मानवाधिकार

भारतीय माओवादी एवम् भारतीय संवैधानिक हिंसा तथा मानवाधिकार

भारतीय कारपोरेट संस्कृति एवम् व्यक्ति के सांस्कृतिक अधिकार

व्यवस्थिकी विचार के प्रति साहित्यिक प्रति संवेदन

व्यावस्थिकी विचार प्रक्रिया का ऐतिहासिक विश्लेषण

ङ्कवादी व्यवस्था की विचार प्रक्रिया एवम् धार्मिक-अधिकार

कृषि संस्कृति एवम् मानवाधिकार

पूंजीवादी औद्योगिक संस्कृति एवम् मानवाधिकार

हिन्दू/सिक्ख/जैन/बौद्ध/इस्लाम/ईसाई धर्म व्यवस्थाएँ एवम् मानवाधिकार

मनुवादी व्यवस्था एवम् मानवाधिकार

मार्क्सवादी व्यवस्था एवम् मानवाधिकार

सैन्य व्यवस्थागत विचार एवम् व्यवहार

q हिंसा का दर्शन एवम् मानवाधिकार

q वैश्वीकरण के दार्शनिक आधार एवम् मानवाधिकार

28-29 जनवरी, 2010 दिन (वीरवार, शुक्रवार)

पंजीकरण - 9.00 प्रात:

प्रथमोन्मेष - 10.00 प्रात:

चायपान - 11.30 प्रात:

द्वितीयोन्मेष - 11.45 प्रात:

भोजनावकाश - 1.30 मध्याह्न

तृतीयोन्मेष - 2.00 मध्याह्न

चायपान - 3.30 अपराह्न

चतुर्थोन्मेष - 3.45 सायँ

29 जनवरी, 2010 दिन शुक्रवार

पञचमोन्मेष - 9.30 प्रात:

चायपान - 11.15 प्रात:

षष्ठोन्मेष - 11.30 प्रात:

भोजनावकाश - 1.00 मध्याह्न

निमेष - 2.30 अपराह्न

चायपान - 4.30 सायँ

कृपया समय का सम्मान करें।

No comments: