Monday, December 21, 2009

SYSTEM'S THINKING AND HUMAN RIGHTS – AN INDIAN PERSPECTIVE


द्वि-दिवसीय राष्ट्रिय संगोष्ठी

व्यावस्थिकी-विचार एवम् मानवाधिकार - भारतीय परिप्रेक्ष्य में

SYSTEM'S THINKING AND HUMAN RIGHTS – AN INDIAN PERSPECTIVE

प्रायोजक - विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली।

दिनांक : 28-29 जनवरी, 2010 (वीरवार, शुक्रवार)

मान्यवर ................................................

'सनातन धर्म कॉलेज (लाहौर) उपरोक्त विषय पर आयोजित संगोष्ठी में प्रतिभागिता एवम् पत्र-प्रस्तुति के लिए आपको सादर निमन्त्रित करता है। बहु-वैषयिक (multi-disciplinary) संगोष्ठी में चर्चा एवम् मत प्रतिप्रादन अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान, राजनीति विज्ञान, विधि विज्ञान, मनोविज्ञान, लोक-प्रशासन, शिक्षा, धर्म एवम् साहित्य आदि की दृष्टि से अपेक्षित है क्योंकि तभी यह स्पष्ट हो पाएगा कि भारत की सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, धार्मिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक व्यवस्थाएँ कैसे अपने उद्देश्यों के विपरीत और व्यक्ति के विरोध में व्यवहार करती है ? किसी भी व्यवस्था की अपनी विचार प्रक्रिया या पद्धति में मानवीयता का क्या अर्थ हैं इस दृष्टिकोण से बौद्धिक, तार्किक, सम्वेदनशील, सहृदयतापूर्ण विश्लेषण आप द्वारा अपेक्षित हैं आपकी वैचारिकता से हम अनुगृहीत होने के लिए विनम्रतापूर्वक तत्पर हैं।

विशेष :-

1. सीमित संसाधनों के कारण आपकी प्रतिभागिता की पूर्व सूचना 20 जनवरी तक आवश्यक रूप से अपेक्षित है।

2. मार्ग व्यय सामान्य श्रेणी का ही देय होगा।

3. संगोष्ठी के पत्रों को पुस्तक रूप में छापा जाएगा अत: शोधपत्र हिन्दी में कृतिदेव या मंगल यूनिकोड और अंग्रेजी में TIMES NEW ROMAN साईज़ 12 में A-4 प्रारूप में सी.डी. अथवा ई.मेल पर हार्ड कॉपी के साथ भेजना आवश्यक है।

व्यावस्थिकी-विचार एवम् मानवाधिकार - भारतीय परिप्रेक्ष्य में

SYSTEM'S THINKING AND HUMAN RIGHTS – AN INDIAN PERSPECTIVE

निश्चित ही आर्थिक-सामाजिक-प्रशासनिक-राजनैतिक-नैय्यायिक-पारिवारिक शैक्षिणक एवम् धार्मिक व्यवस्थाएँ व्यष्टि एवम् समष्टि व्यक्ति के हित, सुख, सम्मान, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि के लिए स्थापित एवम् स्वीकृत विभिन्न देशों, सभ्यताओं, संस्कृतियों द्वारा की गई है ताकि मनुष्य की आदिम बुभुक्षा, आदिम भय, आदिम सौन्दर्य बोध एवम् आदिम जिज्ञासा जो निरन्तर गतिशील एवम् व्यापनशील होने कारण अत्यन्त जटिल प्रक्रियाओं को उत्पन्न करते हैं उन्हें एक अभीष्ट निर्दिष्ट दिशा प्रदान कर भविष्य की मानवता को सुरक्षित एवम् व्यवस्थित कर सकें परन्तु यदि किसी भी देश की कोई भी व्यवस्था अपने नागरिक (व्यक्ति) को कोई किसी भी प्रकार की आश्वस्ति प्रदान कर रहा है तो निश्चित ही इस सम्वाद संगोष्ठी का कोई औचित्य नहीं है और यदि किसी भी देश की कोई व्यवस्था किसी एक भी व्यक्ति को किसी प्रकार आश्वस्ति प्रयत्न करने पर भी नहीं प्रदान कर सकी है तो इस संगोष्ठी के आयोजन स्वत: सिद्ध हो जाता है विशेष रूप से भारत के सन्दर्भ में जिसकी सभी व्यवस्थाएं न केवल प्राचीनता के गौरव के भार से दबी हुई हैं और आधुनिकता के व्यामोह से विसंगति और बिखराव की ओर अग्रसर इस प्रकार हो रही हैं जिसमें गरीब के पास न्याय प्राप्ति के साधन नहीं हैं और धनी को अपने धन के प्रति किसी भी प्रकार की आश्वस्ति नहीं है तो निश्चित ही विचार करना होगा कि - ''वे सभी व्यवस्थाएँ जो व्यक्ति के लिए थी, वे सारी व्यवस्थाएँ व्यक्ति पर हावी क्यों और कैसे हो गई ?'' व्यवस्था में रहते हुए 100 करोड़ भारतीयों को जीने के लिए संघर्ष क्यों करना पड़ रहा है, क्यों प्रत्येक राजनेता के चेहरे पर परेशानी का भाव है, क्यों प्रत्येक प्रशासिनक अधिकारी frustrated दिखाई पड़ता है, क्यों प्रत्येक व्यक्ति अनहोनी की आशंका से, चिन्ता से पीड़ित है ? यह मुँह खोले प्रश्न न केवल वैज्ञानिक विश्लेषण एवम् समाधान की अपेक्षा करते हैं बल्कि साहित्यिक सहृदयता की भी आवश्यकता अनुभव करते हैं, नहीं तो व्यक्तियों को मनुष्य न समझ कर केवल ऑंकड़े मानकर व्यवहार करते रहेंगे और व्यक्ति प्रत्येक व्यवस्था में अपनी संगति ढूँढता रह जाएगा। 80 प्रतिशत भारतीय यदि साधन सम्पन्न नहीं है तो भारतीय व्यवस्था सार्थकता के प्रश्नों से पीछा नहीं छुड़ा सकती।

व्यवस्था और व्यक्ति के आपसी संगति का परिभाषिकीकरण ही वस्तुत: मानवाधिकार की स्थापना कर सकता है अन्यथा मानवाधिकार मात्र संवैधानिक व्यवस्था में जकड़ कर रह जाएगा और मानवाधिकार की संस्कृति कभी विकसित नहीं हो पाएगी क्योंकि मानवाधिकार का सम्बन्ध व्यक्ति के व्यवहार से है न कि लिपकीय संवैधानिक व्यवस्थाओं से (clerical constitutional system) सांस्कृतिक व्यवहार की दृष्टि से संविधान बहुत लघु सत्व है। भारत की सांस्कृतिक परम्परा हमेशा इस विषय में सजग रही है कि व्यवस्था और व्यक्ति की न केवल तार्किक बौ(कि संगतता ही हो बल्कि व्यक्ति का व्यक्तित्व इतना मानवीय हो कि वह वैश्विक मानव हो जाए जिससे वह व्यवस्थातीत हो जाए और इसके लिए लाखों लोगों को दो महायुद्धों में मारकर अनावाश्यक रूप से भविष्य में भय के कारण स्थापित यू.एन.ओ. के चार्टर को मानने की आवश्यकता नहीं है बल्कि जैनों की अहिंसा, बौद्धों की करुणा, वैदिकों की वैश्विक दृष्टि से प्रेरणा अभीष्ट है। उन्नति और विकास का नाम लेकर व्यापार करने के उद्देश्य से दूसरों की संस्कृति को नष्ट कर, विकृत कर फिर मानवाधिकार की दुहाई देना भारतीय सिद्धान्त नहीं है। अत: वर्तमान कालिक व्यवस्थाओं के व्यवहार पक्ष (working) और विचार पक्ष (thinking) पर समालोचना करने के लिए आप सादर साग्रह निमन्त्रित हैं जिससे आपकी बौद्धिकता से उपरोक्त विषय पर नए वैचारिक आयामों से सभी लाभान्वित हो सकें। यह एक अन्त:वैषयिक संगोष्ठी है, अत: आप किसी भी विषय से सम्बन्धित हों आपके वैचारिक योगदान का स्वागत है।

सम्भावित विचार बिन्दु :-

भारतीय न्याय व्यवस्था का व्यवहार एवम् मानवाधिकार

भारतीय अर्थव्यवस्था का व्यवहार एवम् वैयक्तिक अधिकार

भारतीय समाज व्यवस्था एवम् वैयक्तिक संघर्ष

भारतीय पुलिस व्यवस्था एवम् मानवीय संवेदनशीलता के प्रश्न

भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था की विचार प्रक्रिया एवम् मानवीय संवेदनशीलता

भारतीय शैक्षिक व्यवस्था एवम् मानवीयता की प्राक्कल्पना

हिन्दी अंग्रेजी, संस्कृत पंजाबी साहित्य में व्यवस्था विश्लेषण एवम् मानवाधिकार

भारतीय परम्परा में मानवाधिकार के मूल आधार

भारतीय राजनैतिक व्यवस्था की वैचारिक प्रक्रिया एवम् मानवीय मूल्य

भारतीय धर्मव्यवस्थाएँ एवम् मानवाधिकार

भारतीय माओवादी एवम् भारतीय संवैधानिक हिंसा तथा मानवाधिकार

भारतीय कारपोरेट संस्कृति एवम् व्यक्ति के सांस्कृतिक अधिकार

व्यवस्थिकी विचार के प्रति साहित्यिक प्रति संवेदन

व्यावस्थिकी विचार प्रक्रिया का ऐतिहासिक विश्लेषण

ङ्कवादी व्यवस्था की विचार प्रक्रिया एवम् धार्मिक-अधिकार

कृषि संस्कृति एवम् मानवाधिकार

पूंजीवादी औद्योगिक संस्कृति एवम् मानवाधिकार

हिन्दू/सिक्ख/जैन/बौद्ध/इस्लाम/ईसाई धर्म व्यवस्थाएँ एवम् मानवाधिकार

मनुवादी व्यवस्था एवम् मानवाधिकार

मार्क्सवादी व्यवस्था एवम् मानवाधिकार

सैन्य व्यवस्थागत विचार एवम् व्यवहार

q हिंसा का दर्शन एवम् मानवाधिकार

q वैश्वीकरण के दार्शनिक आधार एवम् मानवाधिकार

28-29 जनवरी, 2010 दिन (वीरवार, शुक्रवार)

पंजीकरण - 9.00 प्रात:

प्रथमोन्मेष - 10.00 प्रात:

चायपान - 11.30 प्रात:

द्वितीयोन्मेष - 11.45 प्रात:

भोजनावकाश - 1.30 मध्याह्न

तृतीयोन्मेष - 2.00 मध्याह्न

चायपान - 3.30 अपराह्न

चतुर्थोन्मेष - 3.45 सायँ

29 जनवरी, 2010 दिन शुक्रवार

पञचमोन्मेष - 9.30 प्रात:

चायपान - 11.15 प्रात:

षष्ठोन्मेष - 11.30 प्रात:

भोजनावकाश - 1.00 मध्याह्न

निमेष - 2.30 अपराह्न

चायपान - 4.30 सायँ

कृपया समय का सम्मान करें।

उच्चतर शिक्षा वीभाग के नाम खुला पत्र


प्रतिष्ठायाम्

श्री राजन गुप्ता,

आई० ए० एस०

फ़ाईनेंशियल कमिश्नर कम एजुकेशन सेक्रेटरी

हरियाणा सरकार

चण्डीगढ.

उचित माध्यम द्वारा

विषयहरियाणा उच्चतर शिक्षा में सार्थक मानवीय परिवर्तन के सन्दर्भ में।

मान्यवर,

दिसम्बर मास की १५ तारीख को करनाल नगर के दयाल सिंह कालेज में हरियाणा कालेज टीचर्ज द्वारा आयोजित उपरोक्त सन्दर्भ में जो संगोष्ठी में आप द्वारा जो प्रश्न प्राध्यापकों के विचार के लिए पूरी निष्ठा एवम् सहृदयता से उपस्थापित किए गए थे उसी सम्वाद श्रृंखला को सनातन धर्म कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी का संस्कृत विभाग अग्रसर करते हुए कुछ विचार अपनी भाषा में आपसे सांझा करने को तत्पर है, जैसे कि-

१. हरियाणा की उच्चतर शिक्षा प्रणाली में छात्रों को क्या यह सिद्ध करना है कि भारत मात्र एक व्यापारिक मण्डी है और हरियाणा के छात्र का भारत से सम्बन्ध मात्र धन्धे का ही है या भारत एक ऐसा देश है जिसके लिए हर भारतीय को जीना मरना चाहिए?

२. क्या वर्तमान उच्चतर शिक्षा का लक्ष्य केवल पूँजीवादी व्यवस्था के उद्योगों के लिए कर्मचारी तैयार करना है या ऐसे विचारवान मनुष्य की सम्भावना को तैयार करना है जो भविष्य की मानवता को आश्वस्ति प्रदान कर सके ताकि विश्व एक बेह्तर और सुरक्षित स्थान बन सके? (विचारक से अर्थ बिल्कुल नहीं है कि जिसे राजनेता, प्रशासनिक आधिकारी या व्यापारी एक नारा देकर समाज में भेज दें और वे उसे न्यायोचित मान कर उसकी सिद्धता में लगे रहें। इसका अर्थ है मुक्त विचारक।)

३. हरियाणा उच्चतर शिक्षा में यदि भारत एक देश है तो उस देश की आवश्यकताओं को सार्थक रूप से पूरा करने के लिए बी०ए०/ बी०एस०सी०/ बी०काम० आदि का स्थापन्न विशिष्ट शैक्षिक-धाराओं (educational streams ) से करना चाहिए जैसे कि एडमिनिस्ट्रेटिव स्ट्रीम, टेक्निकल स्ट्रीम, जुडिशियल स्ट्रीम, लेबर स्ट्रीम, मिलिटरि स्ट्रीम, क्लैरिकल स्ट्रीम, बिजिनस स्ट्रीम, टीचिंग स्ट्रीम, साईंटिस्ट स्ट्रीम, थिंकर्स स्ट्रीम, क्रिएटिव स्ट्रीम आदि आदि तथा इन स्ट्रीम्स के सन्दर्भ में विभिन्न विषयों को पढाया जाना चाहिए ताकि देश की सभी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।

४. उच्चतर शिक्षा में भाषाओं तथा साहित्य की सार्थकतापूर्ण उपयोगिता को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता इस सन्दर्भ में है कि शिक्षा से किस प्रकार के मनुष्य की निष्पत्ति करना चाहते हैक्या हरियाणा को साईबोर्ग्स चाहिए या सम्वेदनशील सहृदय मनुष्य चाहिए?

५. उच्चतर शिक्षा में संस्कृत भाषा की उपयोगिता पर साधिकार आक्षेप सिर्फ़ इसलिए किया जाता है क्योंकि संस्कृत के हाथ पैर बाँध कर उसे दूसरे विषयों से प्रतियोगिता करने को कहा जाता है। इस सन्दर्भ में संस्कृत की यह संक्षिप्त कथा अत्यन्त सटीक है कि उच्चतर शिक्षा नाम के एक राजा के संस्कृत, साईंस और कामर्स नाम के तीन कुमार थे जिनका समयानुकूल राजकुमार पद पर अभिषेक करने का राजा के द्वारा विचार करने पर प्राचार्य नामक एक मन्त्री ने उनकी परीक्षा द्वारा योग्यता का निर्णय करने का सुझाव दिया कि तीनों कुमारों को सौ सौ रूपए दे दी जाँए और उन रूपयों से तीनों अपने अपने महल को एक महीने भर दिया जाए और जिसका महल सबसे अधिक भरा होगा उसे राजकुमार पद पर अभिषक्त किया जाए। एक महीना होते ही प्राचार्य मन्त्री सहित उच्चतर शिक्षा नामक राजा निर्णय करने के लिए आ गए और देखा कि कामर्स कुमार ने आपना महल शेयर बाजार से नोटों से भर दिया है और साईंस कुमार ने अपना महल टी०वी, कम्प्यूटर से भर दिया है और संस्कृत कुमार का महल सिर्फ़ प्रकाश से भरा था क्योंकि उसने सौ रूपए के मिट्टी के दीए खरीद कर जला दिए थे यह देख कर प्राचार्य मन्त्री और उच्चतर शिक्षा नामक राजा किसी निर्णय पर नही पहुँच पाए हैं कि किसे पदाभिषिक्त करें?

६. इसके साथ यह भी विचारणीय है कि प्राध्यापक से सर्वकार, प्राचार्य तथा प्रबन्धक समितियां किस आधार पर नैतिक एवम् सम्वेदनशील व्यवहार की अपेक्षा करते हैं जबकि वे स्वयं शिक्षा के माध्यम से यह प्रचारित कर रहे हैं कि शिक्षा एक धन्धा है और धन्धे में ईमानदारी या सम्वेदनशीलता या मनुष्यता की बात क्या कामर्स, विज्ञान सिखा सकते हैं? प्राध्यापक की स्वतन्त्रता का वर्तमान व्यवस्था में क्या स्थान है जिससे वह विकसित और प्रौढ.हो सके?

सनातन धर्म कालेज, अम्बाला छावनी का संस्कृत विभाग उपरोक्त वैचारिक प्रश्नों को प्रस्तुत करने का साहस निम्नाँकित उपलब्धियों से करना चाहता है (हालाँकि संस्कृत की दृष्टि से उपलब्धियों की चर्चा करना निकृष्ट/हीन मानसिकता का प्रतीक है लेकिन वर्तमान व्यवस्था का सम्बन्ध मनुष्य के अस्तित्व की सार्थकता से न होकर उसकी मात्र उपलब्धियों से है|)

१. यू०जी०सी०, नई दिल्ली से मेजर रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए ३लाख ८५हजार की अनुदान राशि संस्कृत के आधार पर व्यावहारिक मनोविज्ञान की स्थापना हेतु प्राप्त किया और इस विषय को हरियाणा में प्रस्तुत करने वाला प्रथम विभाग है।

२. हरियाणा में सङ्गणकीय संस्कृत (Computational Sanskrit)) को प्रारंभ करने वाला प्रथम विभाग है और इस विषय में संस्कृत विभाग ने प्रध्यापकों, विश्वविद्यालय के शोध छात्रों एवम् अन्य छात्रों के कार्यशालाओं को आयोजित कर प्रशिक्षित किया है।

३. हरियाणा का यह प्रथम विभाग है जिसका ALLSOFT SOLUTIONS Pvt. Ltd. नामक प्राईवेट साफ़्टवेयर कम्पनी से संस्कृत के विकास के लिए अनुबन्ध है। प्रमाणस्वरूप कम्पनी और संस्कृत विभाग द्वारा दो सी०डी० संस्कृत ग्रन्थों की शिक्षा के बाजार में प्रस्तुत की गई है जिसका विमोचन कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के माननीय उप-कुलपति श्री वाजपेयी द्वारा किया गया था और भविष्य में शीघ्र ही अन्य उपलब्धियों को प्रस्तुत कर संस्कृत की उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लगाने वालों को प्रत्युत्तर देने के लिए तत्पर है।

४. हरियाणा का यह प्रथम विभाग है जिसने ऐसी अन्तः-वैषयिक राष्ट्रीय संगोष्ठियां सफ़लतापूर्वक आयोजित की जिनका सम्बन्ध मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति, संविधान, इतिहास, वाणिज्य, अंग्रेजी से है और भविष्य में जीवविज्ञान, भौतिकी आदि के साथ वैचारिक सम्भावनाओं पर प्रयोग करने का निश्चय है।

यदि उपरोक्त उपलब्धियां संस्कृत विभाग की वैचारिक एवम् व्यावहारिक विश्वसनीयता की स्थापना के लिए पर्याप्त हैं तो संस्कृत विभाग आपसे अनौपचारिक चर्चा के लिए विनम्र निवेदन करता है ताकि देश और केवल मनुष्यता के हित में हरियाणा की उच्चतर शिक्षा का आमूलचूल रूपान्तरण किया जाए।

सादर

भवदीय़

आशुतोष आङ्गिरस, प्राध्यापक, संस्कृत विभाग, सनातन धर्म कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी। १३३००१ ई-मेल :- sriniket2008@gamil.com http://sanatansanskrit.blogspot.com

अग्रेषित

डा० देशबन्धु

प्राचार्य

सनातन धर्म कालेज (लाहौर)

अम्बाला छावनी।१३३००१

प्रति

१. आयुक्त, हरियाणा उच्चतर शिक्षा विभाग, पञ्चकूला।

२. उप-कुलपति, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र।

३. उपकुलपति, महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक।

४. प्रधान, हरियाणा कालेज टीचर्स एसोसिएशयन, अम्बाला।

Monday, November 2, 2009

स्वतन्त्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों पर गीता का प्रभाव


स्वतन्त्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों पर गीता का प्रभाव

आशुतोष आङ्गिरस

महाभारत के शान्तिपर्व (19-8) में युधिष्ठिर अर्जुन को कहते हैं कि 'युध्दशास्त्रविदेव त्वं न वृध्दा: से वितास्त्वया'8 अर्थात् तू युध्दशास्त्र को ही जानता है तूने वृध्दों की सेवा नहीं की - इस उक्ति को ध्यान में रखते हुए आप ज्ञान-वृध्दों की सेवा रूप में गीता के प्रभाव को राष्ट्र के जीवन के एक ऐसे पक्ष के सन्दर्भ में देखने, समझने और विश्लेषण करने का प्रयास है जो विषय न केवल आधुनिक और प्रासङ्गिक है बल्कि व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को भी प्रभावित करता है और वह विषय है 'स्वतन्त्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों पर गीता का प्रभाव।'' विचार करने पर कौतुहलपूर्ण और सुनने में विचित्र लगने वाला यह विषय वास्तव में एक प्रयोग है - परम्परागत विषयों की व्यापकता और सूक्ष्मता का विकसित हो रहे नए आयामों के सन्दर्भ में विश्लेषण करने का। ऐसे विषयों की संगतिकरण को जानने, समझने का प्रयास ही इस प्रयोग की आधारभूमि है क्योंकि कहा भी है - यथा यथा हि पुरुषो नित्यं शास्त्रमवेक्षते। तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते॥ (महाभारत, शान्तिपर्व, 130-10) अर्थात् जैसे जैसे पुरूष पुन: पुन: शास्त्र पर विचार करता है वैसे-वैसे अधिकाधिाक जानता है और ज्ञान में रूचि बढ़ती है और यदि ऐसे ज्ञान में रूचि बढ़े जो व्यावहारिक और यथार्थ से सम्बन्धित हो तो विषय और भी रूचिकर और प्रासङ्गिक बन जाता है। ध्यान रखने योग्य बात यहाँ यह है कि - 'सर्व: सर्वं न जानाति सर्वज्ञो नास्ति कश्चन। नैकत्र परिनिष्ठा च ज्ञानस्य पुरूषे क्वचित्॥ (महाभारत, वनपर्व, 72-8) अर्थात् सब कोई सब कुछ नहीं जानता, कोई सर्वज्ञ नहीं है, किसी एक व्यक्ति में परिसमाप्ति या पूर्णता नहीं होती अत: उपरोक्त विषय के सन्दर्भ में उद्यम करना तर्क संगत ही है।

उपरोकत विषय के सन्दर्भ में यदि हम स्वतन्त्रता सेनानियों के इतिहास को टटोलें तो एक विचित्र तथ्य दृष्टिगोचर होता है कि ऐसे क्रान्तिकारी या स्वतन्त्रता सेनानी जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने प्राण दण्ड दिया, फाँसी दी उनमें से अधिकांश व्यक्तियों की निष्ठा गीता पर अत्यन्त स्पष्ट दिखाई देती है जैसे खुदीराम बोस, चन्द्रशेखर आज़ाद, रामप्रसादबिस्मिल, सूर्यसेन आदि अनेक क्रान्तिकारी। ये वे क्रान्तिकारी हैं जिन्होंने गीता को प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से मृत्यु पर्यन्त अपने साथ रखा। खुदीराम बोस से जब पूछा गया तुम्हारी अन्तिम इच्छा क्या है ? तो उसका उत्तार था कि मरते समय मैं गीता अपने साथ रखना चाहता हूँ। गीता के प्रति ऐसी निष्ठा के बहुत से उदाहरण इतिहास में मिलते हैं जो व्याकुलतापूर्ण प्रश्न उत्पन्न करते हैं कि गीता के प्रति ऐसी निष्ठा क्यों ? राष्ट्र के लिए अपनी आहुति देने वालों ने गीता में ऐसा क्या पाया जिससे वे इतना प्रभावित हुए कि मृत्यु समय में भी केवल गीता की कामना की। केवल इतना ही नहीं गीता के प्रति तिलक, अरविन्द, गान्धि, विनोबा आदि लोगों की निष्ठा, आग्रह प्रत्यक्ष है और इस बात में कोई सन्देह नहीं कि जिसके प्रति व्यक्ति की, समाज की निष्ठा हो, आग्रह हो वह व्यक्ति और समाज के मूल्यों को, संस्कृति को, जीवन शैली और सोचने-समझने के तरीके को प्रभावित करती है। इस प्रभाव का प्रत्यक्ष उदाहरण 'हिन्दू पंच' नाम की 1930 की पत्रिका के बलिदान अङ्क के सम्पादकीयम में स्पष्ट दिखाई देता है, जिसे ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया था। इसमें लिाा है - ''जब-जब दैवी शक्ति पर दानवी दर्प का प्राबल्य होता हे, तभी तब दैवी शक्ति की शुध्द आन्तरिक प्रेरणा, उस दर्प का दमन करने के लिए सुप्त आत्माओं में उदम्य उत्साह प्रदान करती है। .... आत्मोध्दार के लिए स्वाधीनता का प्रकाश देखकर हमें अपनार् कत्ताव्य निर्धारित करने में क्या कठिनाई है ? वहर् कत्ताव्य हमें ही पालन करना है औरर् कत्ताव्य पालन के लिए हमारे सामने विस्तृत क्षेत्र पड़ा है। ..... जब किसी देश का या जाति की घोर दुरावस्था हो जाती है, जब दानवों के कुटिल प्रहारों से सत्य और न्याय की ध्वनि बन्द हो जाती है और धर्म तथा मानवता का सर्वत्र तिरस्कार होता है तब सज्जन तथा संयमी पुरूष का एक मात्रर् कत्ताव्य हो जाता है कि वह सत्कर्म के लिए बलिदान करे। यही गीता का कथन है। यही गीता का सन्देश है। इस तरह उपेन्द्रनाथ वन्दोपाध्याय, जो अलीपुर षडयन्त्र केस के प्रमुख षडयन्त्रकारी थे, उन्होंने मेजिस्ट्रेट के सामने जो वक्तव्य दिया उसमें अपने क्रान्तिकारी होने का प्रेरणास्रोत गीता का कर्मयोग बताया। (पृ. 139) इसी तरह यतीन्द्र नाथ मुकर्जी के बारे में प्रसिध्द है कि वह गीता का नित्यपाठ करते और बिना पाठ समाप्त किए अन्य काम नहीं करते (145)। राम प्रसाद बिस्मिल फाँसी से एक रात पूर्व गीता का अध्ययन करते रहे। इसी प्रकार राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी अपनी फाँसी से पूर्व गीता का सतत् पाठ करते रहे (पृ. 159)। श्री रोशन सिंह को जब काकोरी षडयन्त्र में फाँसी की सजा सुनाई गई तो फाँसी से एक सप्ताह पूर्व उन्होंने अपने मित्र को पत्र लिखा उसमें गीता का प्रभाव अत्यन्त स्पष्ट दिखाइर् देता है - 'इस सप्ताह के भीतर ही फाँसी होगी। आप मेरे लिए हरगिज़ रंज न करें। मेरी मौत खुशी का बायस होगी। दुनिया में पैदा होकर मरना ज़रूर है। .... इससे मेरा मोह छूट गया है और कोई वासना बाकी न रही। ..... हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्म युध्द में प्राण देता है उसकी वही गति होती है, जो जङ्गल में तपस्या करने वालों की होती है।'' फाँसी के दिन जब उन्हें ले जाया गया तो गीता अपने हाथ में लेकर गए। इसी प्रकार के और बहुत से उदाहरण क्रान्तिकारियों के इतिहास खोजने पर मिल जाएँगे। इसके साथ ही 1930 में छपी कविता संग्रह में भी गीता प्रभाव बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई देता है जैसे मधुसूदन ओझा की कविता 'हिन्दू' में 'मूर्दों में संजीवनी बूटी, देकर जान डालने को,

कर्मयोग का मन्त्रवबता कर, निज स्वतन्ता पाने को,

कायर हिन्दू को मरने का, अमर पाठ सिखलाने को।

इसी तरह मंगल पाँडे के लिए लिखी गई छबील दास मधुर की कविता, 'सिपाही विद्रोह का आहा बलिदान;' में गीता का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है -

वीरवर मंगल पाँडे!

समयातीत कार्य या यद्यपि पर तेरा वह त्याग।

कौन कहेगा किसी स्वार्थवश या तब आत्मविराग ?

स्वधम्रहित उन्मत्ता दुआ तू होगा यह आक्षेप।

यह दूषण है नहीं, किनतु है भूषण ही बड़ भाग॥

ऐसी ही कई कविताएँ जिनमें से मुख्य 'जगदीश झा' की बलिदान बी.एल. बाबू की 'सहर्ष हो जाएँ बलिदान', कुमार बदरीनारायण सिंह की उमंग, बाल कृष्ण बलदुवा की 'विप्लवी हृदय' आदि में गीता की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। गीता के प्रभाव के बारे में नेहरू अपने ग्रन्थ 'हिन्दुस्तान की खोज' में लिखते हैं कि - 'विचार और फलसफे का हर एक सम्प्रदाय इसे श्रध्दा से देखता है और अपने ढंग से व्याख्या करता है। संकट के वक्त, जब कि आदमी का दिमाग संदेह से सताया होता है, और अपने फर्ज़ के बारे में उसे दुविधा दो तरफ खींचती है, यह रौशनी और रहनुमाई के लिए गीता की ओर झुकता है क्योंकि संकट काल के लिए लिखी गई कविता है - राजनीतिक और सामाजिक संकटों के अवसर के लिए और उससे भी ज्यादा इन्सान की आत्मा के संकट काल के लिए। गीता की अनगिनित व्याख्याएँ निकल चुकी हैं और अब भी निकल रही हैं। विचार और काम के मैदान के आजकल के नेताओं - तिलक, अरविंद घोष, गाँधी ने भी इसके सम्बन्ध में लिखा है और अपनी व्याख्याएँ दी हैं। गाँधी जी ने इसे, अहिंसा में अपने दृढ़ विश्वास का आधार बनाया है और लोगों ने इसे हिंसा और धर्म-कार्य के लिए युध्द का।'' इसी सन्दर्भ में वे आगे कहते हैं कि - 'गीता में खास तौर पर इंसानी जिंदगी की रुहानी जमीन दिखाई गई है और इसी भूमिका में रोज़मर्रा की ज़िंदगी के व्यावहारिक मसले हमारे सामने आते हैं। यह हमें जिन्दगी के फर्जों औरर् कत्ताव्यों का सामना करने के लिए पुकारती है .... काम और जिन्दगी को युग के सबसे ऊँचे आदर्श के बमूजिम होना चाहिए क्योंकि हर एक युग में खुद आदर्श बदलते रहते हें। एक खास ज़माने के आदर्श, युगधर्म का सदा ध्यान रखना चाहिए। चूँकि आज के हिनदुस्तान पर मायूसी छाई हुई है और उसके चुपचाप रहने की भी हद हो गई है इसलिए काम में लगने की यह प्रकार खासतौर पर अच्छी लगती है। यह भी मुमकिन है कि ज़माने हाल के लफज़ों में, इस प्रकार को, समाज सुधार की और समाज सेवा की, और अमली, वेगरज़, देशभक्ति के और इन्सानी दर्दमन्दी के काम की प्रकार समझा जाए। गीता के बनूजिब ऐसा काम अच्छा होता है लेकिन इसके पीछे रुहानी मकसद का होना लाज़मी है। यह काम त्याग, भावना से किया जाना चाहिए और इसे नतीज़ों की फिक्र नहीं करनी चाहिए।'' इसी सन्दर्भ में गांधी का यह वक्तव्य भी महत्तवपूर्ण है कि 'गीता हमारे हृदयों में चलने वाले द्वन्द्वों का वर्णन है। भगवान् कृष्ण ने एक ऐतिहासिक घटना का सहारा लेते हुए इस बात की शिक्षा दी है कि मनुष्य को अपनार् कत्ताव्य करने के लिए अपने जीवन की बलि देने में भी संकोच नहीं करना चाहिए। इसमें परिणाम की चिंता किए बिना कर्म करने पर बल दिया गया है क्योंकि देह की मर्यादाओं में बन्धो हम मानव अपने अलावा और किन्हीं के कृत्यों को नियन्त्रित करने में असमर्थ हैं।'' अपने वक्तव्य में आगे चलकर गान्धी की यह स्वीकारोक्ति बहुत मर्मपूर्ण है कि - ''जब सन्देह मुझे घेर लेता है, जब निराशा मेरे सम्मुख खड़ी होती है, जब क्षितिज पर प्रकाश की एक किरण भी नहीं दिखाई देती, तब मैं भगवद्गीता की शरण में जाता हूँ और उसका कोई न कोई श्लोक मुझे सान्त्वना दे जाता है और मैं घोर विषाद के बीच भी तुरन्त मुस्कुराने लगता हूँ। इसका श्रेय मैं भगवद्गीता को देता हूँ।'' (महात्मा गान्धी के विचार पृ. 88) इसी तरह तिलक का 'गीता-रहस्य' ग्रन्थ उनकी गीता के प्रति निष्ठा का श्रेष्ठ उदाहरण है और उनकी स्वाराज्य की अवधारणा गीता के दर्शन से स्पष्ट तथा प्रभावित है। श्री अरविन्द अपने गीता प्रबन्ध के आरम्भिक पृष्ठों में लिखते हैं कि 'गीता तर्क की लड़ाई का हथियार नहीं है। गीता को सर्व साधारण अध्यात्म शास्त्र या नीतिशास्त्र का ग्रन्थ मान लेने से भी काम नहीं चलेगा बल्कि नीतिशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र मानव जीवन में प्रत्यक्ष प्रयोग करते हुए ही व्यवहार में जो संकट उपस्थित होता है उसे दृष्टि के सामने रखकर इस ग्रन्थ के प्रभाव को समझना होगा।''

उपरोक्त सारे कथ्य का प्रयोजन यह है कि गीता ने किस रूप में स्वतन्त्रता सेनानियों को प्रभावित किया और मेरा ऐसा विचार हे कि गीता मूल रूप में आचार-शास्त्र है, आचारण के विषय में स्पष्ट निर्देश, प्रतिपादन जैसा इसमें है वह किसी को भी प्रेरित कर सकता है और आचरण करने का हेतु और प्रश्न भी गीता प्रस्तुत कर रही है। सेनानियों, क्रान्तिकारियों के सामने जब भी प्रश्न फाँसी या माफी का रहा तो गीता ने उस द्वन्द्व को बहुत स्पष्ट कर दिया कि क्रान्तिकारी को मृत्यु चुनने या वरण करने में सोचना नहीं पड़ा। गीता का प्रभाव क्रान्तिकारियों पर रहा वह यह था कि गीता ने क्रान्तिकारियों को महासाहसवृत्तिा प्रदान की। इसलिए बहुत से क्रान्तिकारियों ने स्वयं मृत्यु का वरण किया चाहे वह झाँसी की रानी रही या चन्द्रशेखर आज़ाद रहे। इस महासाहस वृत्तिा ने लोगों को अपनी ओर ऐसा आकर्षित किया कि पूरे भारत में जनादोलन प्रकट हो गया। क्रान्तिकारी जनता में उपदेश देने नहीं गए कि तुम क्रान्ति करो, उन सभी ने स्वयं अपनी आहुति देकर लोगों को कर्म मार्ग पर प्रशस्त कर दिया। इसलिए मन्मथनाथ गुप्त लिखते हैं कि खुदीराम बोस के दाह संस्कार पर लोगों की अनन्त भीड़ ने उस शहीद की राख को अपने मस्तक पर लगाया जिसका परिणाम सारे देश में उथल-पुथल हो गई। वस्तुत: लोकसंग्रह की भावना का निर्वाह क्रान्तिकारियों के बलिदानों ने यिा जिनके लिए आत्मा अमर थी, शरीर केवल एक पुराने जीर्ण वस्त्र की तरह था जिसे कार्य सिध्दि पर त्यागना ही था। कर्म का चुनाव करने में गीता से जो प्रेरणा मिल सकती थी वह किसी अन्य ग्रन्थ से या किसी अन्य स्रोत से मिलनी कठिन ही थी।

12 जून 1897 ई. को शिवा जी का अभिषेकोत्सव मनाया गया। लोकमान्य इसके अध्यक्ष थे। उन्होंने कहा कि शिवाजी ने अफज़ल खाँ को मारकर कोई अपराध नहीं किया। भगवान् कृष्ण ने गीता में अपने सगे सम्बन्धियों को मारने की आज्ञा दी है। यदि कोई मनुष्य परार्यबुध्दि से यदि हत्या भी कर डाले तो दोष नहीं ............ यदि चोर हमारे घर में घुस आए और हममें पकड़ने की शक्ति नहीं हो तो हम बाहरसे किवाड़ बन्द कर लें और उसे जिन्दा जला डालें इसे नीति कहते हैं। अन्त में उन्होंने कहा कि 'कूप मण्डूक मत बनो। भारतीय दण्ड विधान से यह सबक मत लो कि क्या करना है और क्या नहीं इसके विपरीत गीता के भव्य वायुमण्डल में चले आओ और महापुरुषों के आचरणों पर विचार करो।''

भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास, मन्मथनाथ गुप्त पृ. 14 वास्तव में भारतीय जीवन को जीवन 1960 को जिन मानसिक अवधारणाओं ने व्याप्त कर रखा था वे भारत के अवचेतन में संगठित रुप से काम कर रही थी - कर्म सिध्दान्त, निस्वार्थ कर्म, यज्ञ कर्म, भक्ति, लोक संग्रह, स्थित प्रज्ञाता, ज्ञान की परम पावनता, विश्वरूपता और शरणागति - ये ऐसी अवधारणाएँ थीं जो भारत के लोक जीवन में जाने-अनजाने में बराबर सक्रिय होकर बराबर प्रवाहित हो रही थी। इस दृष्टि से आंग्ल शिक्षा पध्दति से पूर्व का भारत जो संघर्ष कर रहा था। उस संघर्ष की पूर्व पीठिका गीता के श्रवण मनन और निदिध्यासन में ही संलग्न थी। इसी को भरत के क्रान्तिकारियों ने अपना जीवन दर्शन बनाकर अपने ज्ञान और आचरण एक करके जीना सीखा था।

'गान्धीचेतना की दृष्टि में आतङ्कवाद और वैश्विक शान्ति की दार्शनिक व्याख्या''


'गान्धीचेतना की दृष्टि में आतङ्कवाद और वैश्विक शान्ति की दार्शनिक व्याख्या''

आशुतोष आङ्गिरस

वर्तमान युग की मूलभूत समस्या क्या है यदि यह प्रश्न गान्धीवादी चेतना से किया जाए तो सीध सटीक उत्तार सम्भवत: यह होगा - मनुष्य के अन्तर्निहित 'मनुष्यत्व' का, शील का या अच्छाई का संकट। विश्व में अशान्ति या यन्त्रणा का कारण 'बुराई' उतना नहीं है जितना अच्छाई का अक्षम और अपर्याप्त हो जाना। अच्छाई है परन्तु अक्षम है, अपर्याप्त है - यही अशान्ति का मूल कारण है। इस अच्छाई को मनुष्यता का नाम दें या शीलबोध का या गुडनेस का या कोई और - वह भयावह रुप से अक्षम और अपर्याप्त है - यह स्थिति दो प्रश्न उपस्थित करती है - पहला कि मनुष्य के अन्तर्निहित मनुष्यत्व या अच्छाई को सक्षम और पर्याप्त कैसे किया जाए ? दूसरा इस अच्छाई की व्यूहरचना कैसी हो जो एक दीर्घकालीन समधान दे सके ? इन दोनों प्रश्नों का उत्तार गान्धीवादी चेतना से ही मिल सकता है क्योंकि अन्य सभी चिन्तन या विचार या दर्शन पध्दतियाँ वाद-प्रतिवाद की शैली में सोचते हैं इसलिए अच्छाई की सर्वमान्य परिभाषा सम्भव नहीं क्योंकि उस शैली में अच्छाई का अर्थ है दलगत नीति की पक्षधरता और गान्धीवादी चेतना इस सबसे अधिक व्यापक और अग्रसर है क्योंकि वह स्वाभाविक रुप से अहिंसा, अपरिग्रह और सत्याग्रह से सम्पूर्ण मनुष्यता को अभय प्रदान करती है, आश्वस्त करती है और यह भी स्पष्ट है कि आर्थिक या सामाजिक शोषण को समाप्त करने पर भी मनुष्य स्वतन्त्र सारे विश्व में कहीं नहीं हुआ क्योंकि उसमे अवदमन तो रह ही गया, जिसे केवल गान्धीवादी चेतना ही मुक्त कर सकती है।

आतङ्कवाद और वैश्विक शान्ति इस विषय के सन्दर्भ में गान्धी जी की दृष्टि से मेरे सामने प्रथम प्रतिक्रिया के रूप में बुध्द का वट वाक्य था - 'मैं तो रूक गया तुम कब रूकोगे ?' इस एक वाक्य से अपने समय के विशिष्ट आततायी अङगुलिमाल का हिंसक उद्वेग ही शान्त नहीं हुआ बल्कि उसका रूपातन्तरण भी हो गया जिससे उसके व्यक्तित्व ने समाज को निर्भय और आश्वस्त भी किया। लगभग इसी प्रतिक्रिया के रुप में दूसरा उदाहरण वाल्मीकि का है जहाँ नारद के एक प्रश्न ने कि 'जाओ, पूछो, तुम्हारे इन कर्मों के फल में कौन-कौन भागीदार होगा ?' इस प्रश्न के उत्तार की खोज ने वाल्मीकि का ऐसा रूपातन्रण किया कि व्याध द्वारा पक्षी के मारे जाने की पीड़ा ने पूरा महाकाव्य ही लिख दिया। मित्रो, निश्चित ही इस तरह के दो चार उदाहरणों से न तो आतङ्कवाद रूकने वाला है और न ही कोई आततायी बदलने वाला है लेनिक इस तरह के उदाहरण से एक बात स्पष्ट है कि आततायी को बदल वही सकता है जो स्वयं शान्त हो, स्वयं अशान्त रहते हुए हम किस से बदलने की अपेक्षा कर सकते हैं और अभी संसार में शान्त व्यक्तित्व वाला व्यक्ति, समाज, राष्ट्र नहीं है तो आतङ्कवाद की सम्भावना लगातार बनी रहेगी क्योंकि आतङ्क के दायरे में केवल धार्मिक उन्माद ही कारण्ा नहीं है बल्कि अर्थाश्रित उपभोक्तावादी और टेक्नोलोजी की संस्कृति भी कारण है। किस नैतिक आधार पर विकसित राष्ट्र अन्य सभ्यताओं या देशों को सभ्य और सुसंस्कृत करने की कोशिश कर रहे हैं ? किस मानवाधिकार के दर्शन से अनुमोदन लेकर राष्ट्र विकास और युध्द लेकर दूसरे राष्ट्रों के दरवाज़े पर जाते हैं। अफ्रीका या अरब देश कब विकास और युध्द माँगने पश्चिम के दरवाजे पर गए थे ? अपने व्यापारिक लोभ के कारण दूसरों की सत्ता, परम्परा, मान्यता, संस्कृति को तिरस्कृत कर अपनी संस्कृति को स्थापित करने आतङ्कवाद का दुश्चक्र नहीं चलेगा तो और क्या होगा ?

गान्धीवादी संस्कृति की दृष्टि से इस स्थिति के दो मूल कारण हैं - आदिम भय और आदिम बुभुक्षा (भूख) आदिम भय का सम्बन्ध व्यक्ति या समाज की अपनी-अपनी सत्ता या अस्तित्व को बनाए रखने से है और दूसरी और आदिम बुभुक्षा का सम्बन्ध व्यक्ति या समाज के द्वारा अपनी सत्ताा या अस्तित्व की उपलब्धियों से है; सार्थकता से है। दार्शनिक शब्दावली में इसे 'अस्ति और 'भवति की स्थिति कहते हैं और आतङ्कवाद की सारी मानसिकता अपने अस्तित्व की स्वीकारोक्ति करवाने में है जिसके लिए हिंसापूर्ण, उत्तोजनापूर्ण कार्यों को करना पड़ता हौ और हिंसापूर्ण और उत्तोजनापूर्ण कार्यों को मीडिया के द्वारा समाज में विस्तृत प्रचार मिलता है और उससे आततायी को यह सन्तोष मिलता है कि उसके कार्यों से उसके होने का समाज को और उससे भी अधिक सरकार को पता चला। वस्तुत: गान्धीवादी चेतना की दृष्टि में यह सारी प्रक्रिया 'कुछ बनने' की है to be something और निश्चित ही कुछ बनने के लिए बहुत कुछ 'करना' पड़ता है और इस बहुत कुछ करने के लिए शिक्षित और गैर-शिक्षित के पास तर्कों की कोई कमी नहीं है। कोई भी व्यक्ति चाहे सभ्य हो या आततायी हो अपने अस्तित्व का चुनाव नहीं कर सकता क्योंकि यह उसके सामर्थ्य में नहीं है। लेकिन अपने अस्तित्व को सिध्द करने के लिए क्रिया का चुनाव कर सकता है - क्रिया या चुनाव उसके सामर्थ्य में है क्योंकि क्रिया तो वह है कि मनुष्य करेगा तो होगी, नहीं करेगा तो नहीं होगी। इस प्रकार आतङ्कवाद चुनाव है व्यक्ति का और ही कारण है कि आतङ्कवाद की प्रक्रिया समझने में कठिनाई होती है, उसे परिभाषित करना मुश्कित हो जाता है - यह आतङ्कवाद व्यक्ति का हो, समाज का हो या राज्यव्यवस्था का हो। गान्धीवादी संस्कृति अपने मिथकीय प्रयोगों से आतङ्कवाद को राक्षस संस्कृति के रूप स्पष्ट करती है जो अपनी कई प्रकार की श्रेष्ठताओं बावजूद केवल इस बात पर अटक जाती है कि मेरी सत्ताा स्वीकार करो। मुझे मानो यह संस्कृति अपने अतिरिक्त किसी और को स्वतन्त्रता देने के पक्ष में नहीं है इसलिए शक्ति प्रदर्शन, युध्द, उत्तोजना उस संस्कृति के मूल में विद्यमान है।

गान्धीवादी चेतना आतङ्कवाद को जिस दृष्टि से समझती है उसमें आधुनिक शब्दावली का प्रयोग तो नहीं मिलेगा - जैसे प्रादेशिक आतङ्कवाद, राष्ट्रीय आतङ्कवाद या वैश्विक आतङ्कवाद। समय और आवश्यकतानुसार शब्द बदल सकते हैं, नए शब्द बन सकते है विभिन्न परिस्थितियों, घटनाओं को समझने या व्याख्या करने के लिए परन्तु यथार्थ तो वही रहता है और रहा है। पर पीड़, स्वामित्व की इच्छा, संग्रह आदि-आदि आतङ्क की अभिव्यक्ति के प्रकार है और इस आतङ्क की समाप्ति और शान्ति स्थापना में सबसे बड़ी बाधा राज्य शासन है - कौन सा राज्य या राष्ट्र शान्ति की इच्छा या प्रयत्न केवल मानव कल्याण के लिए या शान्ति के लिए कर रहा है, शान्त् िकी बात केवल व्यवस्था चलाने के लिए है, न्याय या शान्ति या कल्याण के लिए नहीं है। व्यवस्था चलाने वाले लोग कभी नहीं चाहते कि व्यवस्था के बाहर जाकर कोई विचार करे क्योंकि विचार ही व्यवस्था का शत्रु होता है। विचार बार-बार व्यवस्था की सोच पर प्रश्न उठाता है तो व्यवस्था चलाने वालों के लिए बहुत बड़ी असुविधा है, उनके लिए है इसलिए विचार को कभी दबा दिया जाता है या उपेक्षा या असंगत घोषित कर दिया जाता है और आतङ्कवाद भी एक विचार है शान्ति के विचार की तरह और दोनों विचार व्यवस्था के लिए घातक हैं क्योंकि यदि शान्ति स्थापित हो गई तो प्रतियोगिता आधारित विकास की स्थिति दयनीय हो जाएगी। इसलिए गान्धीजी की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि शान्ति और आतङ्कवाद की शुरुआत मानव मनों से होती है इसलिए इसके समाधान के उपाय भी वहीं खोजने होंगे।

आतङ्कवाद और वैश्विक शान्ति के बीच की कड़ी राज्य है। वैश्विक शान्ति के लिए की गई राष्ट्रों की सन्धियाँ इसलिए सफल नहीं होती क्योंकि निरस्त्रीकरण कोई नहीं करता और न ही कोई करना चाहता है। भिन्न-भिन्न राष्ट्र भय के भाव के कारण सुरक्षा के नाम पर ऐसे भयंकर और बहुसंख्य हथियारों को इकट्ठा कर देते हैं जो शान्ति के नाम पर युध्द को एक आवश्यकता बना देते हैं और साथ ही यह भी निश्चित है कि व्यापारिक समझौतों से वैश्विक शान्ति नहीं आ सकती। वह तभी सम्भव है जब राष्ट्र के मूल संकल्प में कल्याण या मानव हित की बात हो। संविधान को आधार बनाकर आतङ्कवाद से लड़ना सारे राष्ट्र को ऐसे दुश्चक्र में धकेल रहा है जहाँ गरीब को न्याय नहीं और धनी को आश्वस्तता नहीं मिल रही। भारत में संविधान संस्कृति का हिस्सा नहीं है। आतङ्कवाद यदि समल नहीं हो रहा तो उसका कारण केवल राज्य प्रशासन नहीं है बल्कि भारतीय जनमानस में रहने वाला उपेक्षा का भाव, समन्वयादी प्रवृत्तिा है। आतङ्कवाद से जूझने के लिए भारतीय संविधान से ज्यादा अपेक्षा गान्धीवादी संस्कृति की है क्योंकि गान्धीवादी संस्कृति अपने मूल रूप में है (सर्व समन्वित है)। जितना स्थान इस संस्कृति में मनुष्य के लिए है उतना ही देवता के लिए है उतना ही राक्षस के लिए भी है। धार्मिक, आर्थिक और वैचारिक आतङ्क से जूझने के लिए संविधान बहुत छोटा माध्यम है। भारतीय सन्दर्भ में आतङ्कवाद से लड़ना सरल इसलिए है क्योंकि गान्धीवादी संस्कृति मूल रूप में विस्तारवादी नहीं है, इस संस्कृति की माँगें साम्राज्यवादी नहीं है। इसमें व्यक्ति और समाज के हित परस्पर विरोधी नहीं हैं। इस गान्धी दर्शन के 6 सूत्र हैं - 1. सहर्षि या होड़ नहीं बल्कि सहयोग 2. भोग नहीं संयम 3. उत्पादक शरीरश्रम 4. स्वावलम्बन 5. केन्द्रीयकरण नहीं विकेन्द्रीयकरण 6.र् कत्ताव्य भावना और इन 6 सूत्रों की आधारभूमि अहिंसा, अपरिग्रह और सत्याग्रह है।

इसलिए गान्धीवादी संस्कृति में आतङ्कवाद और वैश्विक शान्ति के सम्बन्ध में नीतिगत विषय या मुद्द हिंसा से हिंसा समाप्त करने का न होकर 'राष्ट्रीय व्यक्तित्व' का है क्योंकि 'राष्ट्रीय व्यकितत्व' का स्वरुप और प्रभाव राष्ट्रीय संविधान से बहुत अधिक विशाल है, विस्तृत है। अत: इस गान्धी-चेतना के राष्ट्रीय व्यक्तित्व को सम्पूर्णता से समझने के लिए तीन दृष्टिकोणों से देखना उचित होगा - पहला गान्धाी-चेतना या व्यक्तित्व का 'पार्थिव रूप', दूसरा उसका 'शाश्वत रूप' और तीसरा उसका 'चिन्मय रूप'। इसमें पार्थिव रूप से अभिप्राय है - भौगोलिक-आर्थिक-जैविक दृष्टि, दूसरा शाश्वत रूप का अर्थ है - ऐतिहासिक अविच्छिन्न विकास की दृष्टि और तीसरे चिन्मय रूप का अर्थ है अचल मूल्यों की दृष्टि या मूल प्रकृति का साररूपता की दृष्टि।

गान्धी के पार्थिक व्यक्तित्व रूप हमारे गाँव, नगर, खेतों, खलिहानों, चूल्हा-चक्की, हाट-बाजार आदि में दृष्टिगत होता है जो राष्ट्र के या समाज के 'काम' और 'अर्थ' को सिध्दि दे रहा है। गान्धी-चेतना का 'शाश्वत रूप' काल प्रवाह अर्थात् इतिहास में हजारों वर्षों से प्रवहमान है। 'शाश्वत' शब्द एक काल सम्बन्धी आइडिया देता है जिसे निरन्तर वर्तमान के अर्थ में लिया जाना चाहिए। वह निरन्तर उपस्थित रहते हुए भी सतत विकासशील या प्रवाहमान है। यह काल का स्थिर बिन्दु नहीं है और यह दृष्टि गाँधी के धर्म नामक पुरुषार्थ को सिध्द करती है। इस गांधी चेतना का चिन्मय रूप अधिक सूक्ष्म है जो आंशिक रूप से क्रीड़ा, उत्सव, कला, संगीत, साहित्य में और पूर्णरूप से यज्ञार्पित रूप से (समर्पण) जीवन जीने में प्राप्त होता है। गान्धी जी का यही चिन्मय व्यक्तित्व ही हमारे राष्ट्र या समाज में रुचिबोध और सांस्कृतिक बोध के बीज को स्थापित करता है। इसलिए गान्धी-चेतना का यह स्वसमंस या मेमदजपंस रूप ही भविष्य के राष्ट्र, समाज और मानवता को ऐसा आश्वासन दे सकती है जहाँ क्रियास्वातन्त्र्य और सत्ता स्वातन्त्र्य ;थ्तममकवउ व िंबजपवद - मगपेजमदबमध्द का अनुभव समाज का अन्तिम व्यक्ति भी यथार्थ रूप में अनुभव कर सकता है और सम्भवत: तभी आतङ्कवाद लोगों के मनों से समाप्त हो कर वैश्विक शान्ति के मार्ग खोल सकेंगे।