Monday, November 2, 2009

'गान्धीचेतना की दृष्टि में आतङ्कवाद और वैश्विक शान्ति की दार्शनिक व्याख्या''


'गान्धीचेतना की दृष्टि में आतङ्कवाद और वैश्विक शान्ति की दार्शनिक व्याख्या''

आशुतोष आङ्गिरस

वर्तमान युग की मूलभूत समस्या क्या है यदि यह प्रश्न गान्धीवादी चेतना से किया जाए तो सीध सटीक उत्तार सम्भवत: यह होगा - मनुष्य के अन्तर्निहित 'मनुष्यत्व' का, शील का या अच्छाई का संकट। विश्व में अशान्ति या यन्त्रणा का कारण 'बुराई' उतना नहीं है जितना अच्छाई का अक्षम और अपर्याप्त हो जाना। अच्छाई है परन्तु अक्षम है, अपर्याप्त है - यही अशान्ति का मूल कारण है। इस अच्छाई को मनुष्यता का नाम दें या शीलबोध का या गुडनेस का या कोई और - वह भयावह रुप से अक्षम और अपर्याप्त है - यह स्थिति दो प्रश्न उपस्थित करती है - पहला कि मनुष्य के अन्तर्निहित मनुष्यत्व या अच्छाई को सक्षम और पर्याप्त कैसे किया जाए ? दूसरा इस अच्छाई की व्यूहरचना कैसी हो जो एक दीर्घकालीन समधान दे सके ? इन दोनों प्रश्नों का उत्तार गान्धीवादी चेतना से ही मिल सकता है क्योंकि अन्य सभी चिन्तन या विचार या दर्शन पध्दतियाँ वाद-प्रतिवाद की शैली में सोचते हैं इसलिए अच्छाई की सर्वमान्य परिभाषा सम्भव नहीं क्योंकि उस शैली में अच्छाई का अर्थ है दलगत नीति की पक्षधरता और गान्धीवादी चेतना इस सबसे अधिक व्यापक और अग्रसर है क्योंकि वह स्वाभाविक रुप से अहिंसा, अपरिग्रह और सत्याग्रह से सम्पूर्ण मनुष्यता को अभय प्रदान करती है, आश्वस्त करती है और यह भी स्पष्ट है कि आर्थिक या सामाजिक शोषण को समाप्त करने पर भी मनुष्य स्वतन्त्र सारे विश्व में कहीं नहीं हुआ क्योंकि उसमे अवदमन तो रह ही गया, जिसे केवल गान्धीवादी चेतना ही मुक्त कर सकती है।

आतङ्कवाद और वैश्विक शान्ति इस विषय के सन्दर्भ में गान्धी जी की दृष्टि से मेरे सामने प्रथम प्रतिक्रिया के रूप में बुध्द का वट वाक्य था - 'मैं तो रूक गया तुम कब रूकोगे ?' इस एक वाक्य से अपने समय के विशिष्ट आततायी अङगुलिमाल का हिंसक उद्वेग ही शान्त नहीं हुआ बल्कि उसका रूपातन्तरण भी हो गया जिससे उसके व्यक्तित्व ने समाज को निर्भय और आश्वस्त भी किया। लगभग इसी प्रतिक्रिया के रुप में दूसरा उदाहरण वाल्मीकि का है जहाँ नारद के एक प्रश्न ने कि 'जाओ, पूछो, तुम्हारे इन कर्मों के फल में कौन-कौन भागीदार होगा ?' इस प्रश्न के उत्तार की खोज ने वाल्मीकि का ऐसा रूपातन्रण किया कि व्याध द्वारा पक्षी के मारे जाने की पीड़ा ने पूरा महाकाव्य ही लिख दिया। मित्रो, निश्चित ही इस तरह के दो चार उदाहरणों से न तो आतङ्कवाद रूकने वाला है और न ही कोई आततायी बदलने वाला है लेनिक इस तरह के उदाहरण से एक बात स्पष्ट है कि आततायी को बदल वही सकता है जो स्वयं शान्त हो, स्वयं अशान्त रहते हुए हम किस से बदलने की अपेक्षा कर सकते हैं और अभी संसार में शान्त व्यक्तित्व वाला व्यक्ति, समाज, राष्ट्र नहीं है तो आतङ्कवाद की सम्भावना लगातार बनी रहेगी क्योंकि आतङ्क के दायरे में केवल धार्मिक उन्माद ही कारण्ा नहीं है बल्कि अर्थाश्रित उपभोक्तावादी और टेक्नोलोजी की संस्कृति भी कारण है। किस नैतिक आधार पर विकसित राष्ट्र अन्य सभ्यताओं या देशों को सभ्य और सुसंस्कृत करने की कोशिश कर रहे हैं ? किस मानवाधिकार के दर्शन से अनुमोदन लेकर राष्ट्र विकास और युध्द लेकर दूसरे राष्ट्रों के दरवाज़े पर जाते हैं। अफ्रीका या अरब देश कब विकास और युध्द माँगने पश्चिम के दरवाजे पर गए थे ? अपने व्यापारिक लोभ के कारण दूसरों की सत्ता, परम्परा, मान्यता, संस्कृति को तिरस्कृत कर अपनी संस्कृति को स्थापित करने आतङ्कवाद का दुश्चक्र नहीं चलेगा तो और क्या होगा ?

गान्धीवादी संस्कृति की दृष्टि से इस स्थिति के दो मूल कारण हैं - आदिम भय और आदिम बुभुक्षा (भूख) आदिम भय का सम्बन्ध व्यक्ति या समाज की अपनी-अपनी सत्ता या अस्तित्व को बनाए रखने से है और दूसरी और आदिम बुभुक्षा का सम्बन्ध व्यक्ति या समाज के द्वारा अपनी सत्ताा या अस्तित्व की उपलब्धियों से है; सार्थकता से है। दार्शनिक शब्दावली में इसे 'अस्ति और 'भवति की स्थिति कहते हैं और आतङ्कवाद की सारी मानसिकता अपने अस्तित्व की स्वीकारोक्ति करवाने में है जिसके लिए हिंसापूर्ण, उत्तोजनापूर्ण कार्यों को करना पड़ता हौ और हिंसापूर्ण और उत्तोजनापूर्ण कार्यों को मीडिया के द्वारा समाज में विस्तृत प्रचार मिलता है और उससे आततायी को यह सन्तोष मिलता है कि उसके कार्यों से उसके होने का समाज को और उससे भी अधिक सरकार को पता चला। वस्तुत: गान्धीवादी चेतना की दृष्टि में यह सारी प्रक्रिया 'कुछ बनने' की है to be something और निश्चित ही कुछ बनने के लिए बहुत कुछ 'करना' पड़ता है और इस बहुत कुछ करने के लिए शिक्षित और गैर-शिक्षित के पास तर्कों की कोई कमी नहीं है। कोई भी व्यक्ति चाहे सभ्य हो या आततायी हो अपने अस्तित्व का चुनाव नहीं कर सकता क्योंकि यह उसके सामर्थ्य में नहीं है। लेकिन अपने अस्तित्व को सिध्द करने के लिए क्रिया का चुनाव कर सकता है - क्रिया या चुनाव उसके सामर्थ्य में है क्योंकि क्रिया तो वह है कि मनुष्य करेगा तो होगी, नहीं करेगा तो नहीं होगी। इस प्रकार आतङ्कवाद चुनाव है व्यक्ति का और ही कारण है कि आतङ्कवाद की प्रक्रिया समझने में कठिनाई होती है, उसे परिभाषित करना मुश्कित हो जाता है - यह आतङ्कवाद व्यक्ति का हो, समाज का हो या राज्यव्यवस्था का हो। गान्धीवादी संस्कृति अपने मिथकीय प्रयोगों से आतङ्कवाद को राक्षस संस्कृति के रूप स्पष्ट करती है जो अपनी कई प्रकार की श्रेष्ठताओं बावजूद केवल इस बात पर अटक जाती है कि मेरी सत्ताा स्वीकार करो। मुझे मानो यह संस्कृति अपने अतिरिक्त किसी और को स्वतन्त्रता देने के पक्ष में नहीं है इसलिए शक्ति प्रदर्शन, युध्द, उत्तोजना उस संस्कृति के मूल में विद्यमान है।

गान्धीवादी चेतना आतङ्कवाद को जिस दृष्टि से समझती है उसमें आधुनिक शब्दावली का प्रयोग तो नहीं मिलेगा - जैसे प्रादेशिक आतङ्कवाद, राष्ट्रीय आतङ्कवाद या वैश्विक आतङ्कवाद। समय और आवश्यकतानुसार शब्द बदल सकते हैं, नए शब्द बन सकते है विभिन्न परिस्थितियों, घटनाओं को समझने या व्याख्या करने के लिए परन्तु यथार्थ तो वही रहता है और रहा है। पर पीड़, स्वामित्व की इच्छा, संग्रह आदि-आदि आतङ्क की अभिव्यक्ति के प्रकार है और इस आतङ्क की समाप्ति और शान्ति स्थापना में सबसे बड़ी बाधा राज्य शासन है - कौन सा राज्य या राष्ट्र शान्ति की इच्छा या प्रयत्न केवल मानव कल्याण के लिए या शान्ति के लिए कर रहा है, शान्त् िकी बात केवल व्यवस्था चलाने के लिए है, न्याय या शान्ति या कल्याण के लिए नहीं है। व्यवस्था चलाने वाले लोग कभी नहीं चाहते कि व्यवस्था के बाहर जाकर कोई विचार करे क्योंकि विचार ही व्यवस्था का शत्रु होता है। विचार बार-बार व्यवस्था की सोच पर प्रश्न उठाता है तो व्यवस्था चलाने वालों के लिए बहुत बड़ी असुविधा है, उनके लिए है इसलिए विचार को कभी दबा दिया जाता है या उपेक्षा या असंगत घोषित कर दिया जाता है और आतङ्कवाद भी एक विचार है शान्ति के विचार की तरह और दोनों विचार व्यवस्था के लिए घातक हैं क्योंकि यदि शान्ति स्थापित हो गई तो प्रतियोगिता आधारित विकास की स्थिति दयनीय हो जाएगी। इसलिए गान्धीजी की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि शान्ति और आतङ्कवाद की शुरुआत मानव मनों से होती है इसलिए इसके समाधान के उपाय भी वहीं खोजने होंगे।

आतङ्कवाद और वैश्विक शान्ति के बीच की कड़ी राज्य है। वैश्विक शान्ति के लिए की गई राष्ट्रों की सन्धियाँ इसलिए सफल नहीं होती क्योंकि निरस्त्रीकरण कोई नहीं करता और न ही कोई करना चाहता है। भिन्न-भिन्न राष्ट्र भय के भाव के कारण सुरक्षा के नाम पर ऐसे भयंकर और बहुसंख्य हथियारों को इकट्ठा कर देते हैं जो शान्ति के नाम पर युध्द को एक आवश्यकता बना देते हैं और साथ ही यह भी निश्चित है कि व्यापारिक समझौतों से वैश्विक शान्ति नहीं आ सकती। वह तभी सम्भव है जब राष्ट्र के मूल संकल्प में कल्याण या मानव हित की बात हो। संविधान को आधार बनाकर आतङ्कवाद से लड़ना सारे राष्ट्र को ऐसे दुश्चक्र में धकेल रहा है जहाँ गरीब को न्याय नहीं और धनी को आश्वस्तता नहीं मिल रही। भारत में संविधान संस्कृति का हिस्सा नहीं है। आतङ्कवाद यदि समल नहीं हो रहा तो उसका कारण केवल राज्य प्रशासन नहीं है बल्कि भारतीय जनमानस में रहने वाला उपेक्षा का भाव, समन्वयादी प्रवृत्तिा है। आतङ्कवाद से जूझने के लिए भारतीय संविधान से ज्यादा अपेक्षा गान्धीवादी संस्कृति की है क्योंकि गान्धीवादी संस्कृति अपने मूल रूप में है (सर्व समन्वित है)। जितना स्थान इस संस्कृति में मनुष्य के लिए है उतना ही देवता के लिए है उतना ही राक्षस के लिए भी है। धार्मिक, आर्थिक और वैचारिक आतङ्क से जूझने के लिए संविधान बहुत छोटा माध्यम है। भारतीय सन्दर्भ में आतङ्कवाद से लड़ना सरल इसलिए है क्योंकि गान्धीवादी संस्कृति मूल रूप में विस्तारवादी नहीं है, इस संस्कृति की माँगें साम्राज्यवादी नहीं है। इसमें व्यक्ति और समाज के हित परस्पर विरोधी नहीं हैं। इस गान्धी दर्शन के 6 सूत्र हैं - 1. सहर्षि या होड़ नहीं बल्कि सहयोग 2. भोग नहीं संयम 3. उत्पादक शरीरश्रम 4. स्वावलम्बन 5. केन्द्रीयकरण नहीं विकेन्द्रीयकरण 6.र् कत्ताव्य भावना और इन 6 सूत्रों की आधारभूमि अहिंसा, अपरिग्रह और सत्याग्रह है।

इसलिए गान्धीवादी संस्कृति में आतङ्कवाद और वैश्विक शान्ति के सम्बन्ध में नीतिगत विषय या मुद्द हिंसा से हिंसा समाप्त करने का न होकर 'राष्ट्रीय व्यक्तित्व' का है क्योंकि 'राष्ट्रीय व्यकितत्व' का स्वरुप और प्रभाव राष्ट्रीय संविधान से बहुत अधिक विशाल है, विस्तृत है। अत: इस गान्धी-चेतना के राष्ट्रीय व्यक्तित्व को सम्पूर्णता से समझने के लिए तीन दृष्टिकोणों से देखना उचित होगा - पहला गान्धाी-चेतना या व्यक्तित्व का 'पार्थिव रूप', दूसरा उसका 'शाश्वत रूप' और तीसरा उसका 'चिन्मय रूप'। इसमें पार्थिव रूप से अभिप्राय है - भौगोलिक-आर्थिक-जैविक दृष्टि, दूसरा शाश्वत रूप का अर्थ है - ऐतिहासिक अविच्छिन्न विकास की दृष्टि और तीसरे चिन्मय रूप का अर्थ है अचल मूल्यों की दृष्टि या मूल प्रकृति का साररूपता की दृष्टि।

गान्धी के पार्थिक व्यक्तित्व रूप हमारे गाँव, नगर, खेतों, खलिहानों, चूल्हा-चक्की, हाट-बाजार आदि में दृष्टिगत होता है जो राष्ट्र के या समाज के 'काम' और 'अर्थ' को सिध्दि दे रहा है। गान्धी-चेतना का 'शाश्वत रूप' काल प्रवाह अर्थात् इतिहास में हजारों वर्षों से प्रवहमान है। 'शाश्वत' शब्द एक काल सम्बन्धी आइडिया देता है जिसे निरन्तर वर्तमान के अर्थ में लिया जाना चाहिए। वह निरन्तर उपस्थित रहते हुए भी सतत विकासशील या प्रवाहमान है। यह काल का स्थिर बिन्दु नहीं है और यह दृष्टि गाँधी के धर्म नामक पुरुषार्थ को सिध्द करती है। इस गांधी चेतना का चिन्मय रूप अधिक सूक्ष्म है जो आंशिक रूप से क्रीड़ा, उत्सव, कला, संगीत, साहित्य में और पूर्णरूप से यज्ञार्पित रूप से (समर्पण) जीवन जीने में प्राप्त होता है। गान्धी जी का यही चिन्मय व्यक्तित्व ही हमारे राष्ट्र या समाज में रुचिबोध और सांस्कृतिक बोध के बीज को स्थापित करता है। इसलिए गान्धी-चेतना का यह स्वसमंस या मेमदजपंस रूप ही भविष्य के राष्ट्र, समाज और मानवता को ऐसा आश्वासन दे सकती है जहाँ क्रियास्वातन्त्र्य और सत्ता स्वातन्त्र्य ;थ्तममकवउ व िंबजपवद - मगपेजमदबमध्द का अनुभव समाज का अन्तिम व्यक्ति भी यथार्थ रूप में अनुभव कर सकता है और सम्भवत: तभी आतङ्कवाद लोगों के मनों से समाप्त हो कर वैश्विक शान्ति के मार्ग खोल सकेंगे।

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