दिवसीय
राष्ट्रिय सम्वाद गोष्ठी एवम् कार्यशाला
DEFINIG INDIAN PSYCHOLOGY - PROBABILITIES & CHALLANGES
भारतीय मनोविज्ञान का परिभाषिकीकरण – सम्भावनाएँ एवम् चुनौतियाँ
दिनाँक -29 अक्तूबर, 2010
प्रायोजक- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली।
आयोजक – संस्कृत विभाग, एस० डी० कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी।
मान्यवर_________________,
संस्कृत की पुनः संरचना योजना के अन्तर्गत संस्कृत विभाग उपरोक्त विषय पर आयोजित द्वि-दिवसीय राष्ट्रिय संगोष्ठी एवम् कार्यशाला में पत्र प्रस्तुति एवम् समालोचना के लिए आपको सादर आमन्त्रित करने में गौरवान्वित अनुभव करता है।
भारतीय मनोविज्ञान विषय पर आयोजित इस चतुर्थ सम्वाद गोष्ठी के आयोजन का मुख्य उद्देश्य भारतीय मनोविज्ञान का एक औपचारिक, तार्किक व्यावहारिक प्रारूप उपस्थापित करना है ताकि पाश्चात्य मनोविज्ञान और भारतीय मनोविज्ञान में मानवीय हितों को दृष्टि में रखते हुए एक सम्वाद का मार्ग खुल सके और मानवीय चेतना के उन आयामों को टटोला जा सके जिसकी आवश्यकता आज सम्पूर्ण मानवता को है और इसमें मूलभूत प्रश्न यह है कि भारतीय मनोविज्ञान के नाम पर साहित्य में, शास्त्र में, परम्परा में, संस्कृति में, जीवन में, व्यवहार में जो कुछ भी सामग्री उपलब्ध है, क्या उसके आधार पर एक निश्चित प्रारूप प्रस्तुत किया जा सकता है और यदि किया जा सकता है तो वह क्या है या क्या हो सकता है और साथ ही यह भी स्पष्ट कर लेना चहिए कि क्या मनोविज्ञान सईकालोजी का सही अनुवाद है क्योंकि पश्चिम में “साईकी” शब्द का अपना एक इतिहास है जो एक सांस्कृतिक-वैज्ञानिक-दार्शनिक मूल्य के रूप में प्रयोग होता है जबकि भारत में मन “अन्तःकरण” का एक भाग है और इस अन्तःकरण में मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार सम्मिलित हैं अतः अन्तःकरण शब्द तो सम्भवतः साईकोलोजी का समीपवर्ती अनुवाद हो सकता है परन्तु फ़िर भी भारतीय मनोविज्ञान को परिभाषित करने में कई व्यावहारिक कठिनाईयां दृष्टिगत होती हैं जिनकी चर्चा इस गोष्ठी में अपेक्षित है साथ ही साथ यह भी ध्यातव्य है कि मनोविज्ञान को इस प्रकार परिभाषित किया जाए कि वह अध्यात्म के क्षेत्र का अतिक्रमण न करे और वह दैनन्दिन समस्याओं का विश्लेषण करे भी और करना सिखाए भी। वेद, उपनिषद्, सहित्य और दर्शन में अनेक गुणात्मक और विश्लेषण पूर्ण तथ्य मन के विषय में कहे गए हैं जिनकी चर्चा इस पक्ष से अपेक्षित है कि वह सब तथ्य मिल कर भारतीय मनोविज्ञान का क्या और कैसा स्वरूप प्रस्तुत करने में सक्षम है।
उपरोक्त विषय के सन्दर्भ में आपके प्रश्नों का, उत्तरों का, सुझावों और वैचारिक आयामों का विनम्रतापूर्ण स्वागत है। कृपया अपनी उपस्थिति से हमें अनुगृहीत करें।
संगोष्ठी के १.मानवीय व्यवहार एवं व्यक्तित्व सत्र, २.शरीरेन्द्रिय तथा प्राण सत्र, ३.अन्तःकरण सत्र, ४.भावानुभावादि सत्र, ५.ज्ञानाज्ञानादि सत्र, ७.कर्माकर्मविकर्मादि सत्र, ८.मनोभाषिकी सत्र में अपेक्षित विचार बिन्दु-
वैदिक/ जैन/ बौद्ध साहित्य एवम् दर्शन में मनोवौज्ञानिक अवधारणाएँ एवम् सिद्धान्त
शास्त्राधारित मानवीय व्यवहार का स्वरूप, स्तर, कोटियाँ एवम् प्रकार भेद
शरीर, पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्च कर्मेन्द्रियाँ, मन और मानवीय व्यवहार
मन, वाक्, प्राण का सम्बन्ध एवम् मानवीय व्यवहार
स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर, कारणशरीर की व्यावहारिक भूमिका
ज्ञातृत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व का स्वरूप स्थापना
मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हृदय का व्यवहारपरक स्वरूप
सत्त्व, रजस्, तमस गुणों का मानवीय व्यवहार में परिमाण एवम् परिणाम
पुरुष, प्रकृति,विकृति की मनोवैज्ञानिक उपयोगिता
पुत्रैषणा, वित्तैषणा, यशैषणा का मानवीय व्यवहार
मानवीय व्यवहार के प्रेरक तत्त्व- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर
मूढ.-क्षिप्त-विक्षिप्त-एकाग्र-निरुद्ध-चित्त का व्यावहारिक उपयोग
धारणा, ध्यान, समाधि का मनोवैज्ञानिक प्रयोग एवम् लाभ
सम्यक् शील, सम्यक् समाधि, सम्यक् प्रज्ञा,
इड़ा, पिंगला,सुषुम्ना का मनोवैज्ञानिक यथार्थता
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, संन्यास आश्रम की समस्याओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
भाव, विभाव, अनुभाव का मनोवैज्ञानिक उपयोग
वात, पित्त, कफ़ का मनोवैज्ञानिक प्रयोग
जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति सम्बन्धी मनोवैज्ञानिक समस्याएँ एवम् समाधान
आध्यत्मिक, आधिदैविक, अधिभौतिक दुःख का मनोवैज्ञानिक व्यवहार
मानवीय व्यवहार का धर्म परिणाम, अवस्था परिणाम, लक्षण परिणाम
मानवीय व्यवहार में इच्छा-ज्ञान-क्रियाशक्ति की मनोवैज्ञानिक भूमिका
मानवीय कर्म (अकर्म, कर्म, विकर्म) का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
अपरोक्ष-ज्ञान(अवधि-ज्ञान, मनःपर्याय-ज्ञान,केवल-ज्ञान) एवम् मनोविज्ञान
आज्ञान, विज्ञान, संज्ञान और प्रज्ञान का स्वरूप एवम् व्यावहारिक उपयोग
प्रख्याशील चित्त, स्थितिशील चित्त, प्रवृत्तिशील चित्त
मनोभाषिकी में भावना, आर्थीभावना, शाब्दीभावना का प्रयोग के प्रकार
सविकल्पक-निर्विकल्पक प्रत्यक्ष, प्रत्यभिज्ञा, संशय, विपर्यय, तर्क, ऊहा का व्यवहार
अभिधा शक्ति, लक्षणाशक्ति, व्यञ्जनाशक्ति के मनोवैज्ञानिक प्रयोग
प्रतिभा, कारयित्री, भावयित्री,
विशेष-
१. शोधपत्र (संस्कृत/ हिन्दी/ अंग्रेजी) की कम्पयूटरीकृत साफ़्ट एवं हार्ड प्रति आवश्यक रूप से दिनांक 12अक्तूबर, २०१० तक आवश्यक रूप से पहुंच जानी चाहिए।
२.ठहरने की व्यवस्था के लिए पूर्वसूचना अवश्य दें।
३.यात्रा-भत्ता सामान्य श्रेणी का नियमानुसार देय होगा।
FOR THOSE WHO ARE NOT TRAINED TO THINK IN INDIAN TERMS & CONCEPTS
When academic psychology was introduced in
The department of Sanskrit pursues to find out a unified theory of psychology which should be all inclusive. We know and realize that it is very difficult to construct a complete unified theory of everything in psychology all at one go. We have made progress by finding partial theories that describe a limited range of happenings and neglect other effects. We hope to find a complete, comprehensive, consistent, unified theory that would include all the partial theories. The quest for such a theory is known as ‘The Unification of Oriental and Western psychology.’ But can there really be a unified theory of everything in psychology? Or are we just chasing a mirage or in pursuit of a chimera? There seems to be three possibilities-
1) There really is a unified theory of psychology which we will some day discover if teachers of Sanskrit and psychology are smart enough.
2) There is no ultimate theory of psychology or human behavior, just an infinite sequence of theories that describe the human behavior more and more accurately.
3) There is no theory of human behavior. Events can not be predicted beyond a certain extent but occur in a random and arbitrary manner.
So let us begin with basic questions of Indian Psychology, like-
What do we understand by the term Indian Psychology?
Have there been any terms, systems, thinking processes in Indian tradition regarding psychology?
If there had been any thing which deals with the psychological issues in Indian tradition then a serious investigation is needed so as to find out not only new dimensions in Psychology but also to find a better alternative psychological system?
Primary investigations has led us to believe that Indian tradition deals with nature of consciousness, mind, nervous system, behavior of individuals or society, in a different manner. There are different schools of Indian tradition which not only conceptualize an advance frame-work for psychology but also practice them in a very indigenous manner which makes psychology to think in more humanistic terms like jiva, bhuta, praani, etc.
How can different schools of Indian philosophy like- Vedic, Mimaanasaa, Saamkhya-yoga, Vedanata, Buddhist, Jain, Tantra, ayurveda etc. be used to add more meaning to the realms of psychology?
Can there be any creative dialogue between the Indian systems of psychological thinking and the western understanding of psychology?
Can
आशुतोष अंगिरस डा० देशबन्धु
संगोष्ठी निदेशक प्राचार्य
098963-94569 09812053283
ई-मेल- sriniket2008@gmail.com