दृष्टि-प्रपत्र
-२०१२
VISION DOCUMENT
2012
भाग -१
संस्कृत विभाग , सनातन
धर्म कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी
माननीय विजन-डाक्यूमेण्ट समिति सदस्यों के प्रति,
किसी
भी संस्था की स्थापना के आधार में जो मूलभूत मूल्य होते हैं उनके आधार पर जो
मानवता, विश्व, देश, समाज और व्यक्ति के लिए जो सकारात्मक कल्पना की जाती है जिससे
मानवीय भविष्य को आश्वस्ति इस बात की दी जाती है कि अब मनुष्यता पहले अधिक
सुरक्षित, न्यायपूर्ण, सम्वेदनशील, नैतिकता प्रधान होगी ताकि विश्व में शारीरिक और
मानसिक रूप से स्वस्थ मनुष्य होंगे । अतः दृष्टि
या विजन उसे कहते हैं जो मूलतः इस बात से अधिक सम्बन्धित होता है कि यह संस्था और
उसमें कार्यरत कर्मचारी चाहे वे मैनेजमैण्ट के हों प्राचार्य हो या शैक्षिक या गैर
शैक्षिक हों वो यह विचार करते हैं कि वे कैसा मनुष्य इस विश्व को, राष्ट्र को और
समाज को देना चाहते हैं? इसके लिए इस समिति और संस्था के अन्य कर्मचारियों को दृष्टि
और उसकी दिशाएँ समझने के लिए यह आवश्यक है कि इस दृष्टि की कुछ पूर्ववर्ती तथ्यों
को स्पष्ट कर लें ताकि सरकारी तौर पर अध्यापन के क्षेत्र में होने पर भी बतौर
क्लर्क सोचने न लगें (जैसा कि अभी तक की तीन बैठकों से स्पष्ट है कि एक भी विषय
ऐसा विमर्श नहीं किया गया जो हमें प्राध्यापक होने के नाते विचारित करने चाहिए
अपितु सारी शक्ति आफ़िस क्लर्क की सुविधा के लिए सोचे गए हैं जैसे कि प्रवेशप्रपत्र
का स्वरूप क्या हो, रोल नम्बर कैसे आवँटित करने हैं, फ़ार्म से सूचनाएं किस प्रकार
की और कैसी चाहिए, इत्यादि इत्यादि जो कि सामान्य रूप कोई भी अनुभवी क्लर्क हमारे
से बेहतर व्यावहारिक सलाह दे कर समस्या हल कर सकता है क्योंकि वह अपने दैनन्दिन
व्यवहार में उन विषयों को व्यवस्थित कर रहा है बल्कि प्राध्यापकों द्वारा उत्पन्न की
गई उलझनों को ही सुलझा रहे होते हैं।) मानित प्राध्यापकों का कार्य विश्व,
राष्ट्र, समाज को कैसा मनुष्य प्रदान करना है – यह विचार करने का दायित्व
स्वीकार करना चाहिए था और सम्भवतः विजन डाक्यूमेंट की मूल भावना यह ही थी न कि ऐसे
नियम कानून बनाने की जो पहले से ही स्पष्ट हैं । संस्कृत विभाग की ओर से अपने सम्मानित
साथी शैक्षिक कर्मचारियों की सोच विचार से असहमति प्रकट करते हुए मेरा विनम्र
निवेदन है कि हम एक बार पुनः स्पष्ट करें कि हमारी सोच का स्तर क्या है और कैसे
मनुष्यता के विषय में वह दूसरों की सोच से श्रेष्ठ है?
मानवीय
समझ किसी भी परिस्थिति/ वस्तु/ अवधारणा / विचार को सभी दृष्टिकोणों से नहीं समझ
पाती इसलिए विजन डाक्यूमेण्ट को तीन दृष्टिकोणों से स्पष्ट कर लेना चाहिए – १. व्यावहारिक दृष्टिकोण, २. ऐतिहासिक दृष्टिकोण और ३. चिन्मय दृष्टिकोण
( इनका स्पष्टीकरण यदि आप सम्मानितों की रुचि होगी तो किया जाएगा) विजन के चार
तत्त्व होते हैं – बुभुक्षा (primordial hunger), भय (primordial fear), जिज्ञासा (sense of
enquiry) और सौन्दर्य बोध (aesthetic living) | इन चार तत्त्वों पर यदि सामूहिक
रूप से विचार करेंगे तब हम कह सकते हैं कि हमारा विजन मनुष्यता के प्रति यह है या
ऐसा है – वह विजन आर्थिक- राजनैतिक –
सामाजिक- धार्मिक – सांस्कृतिक कोई भी हो सकता है लेकिन वह
क्लैरिकल तौर पर कानूनी नहीं हो सकता। और अगर यह मानते हैं कि पर्सनेल्टी
डिवेल्पमेण्ट कोर्सेस से किसी विजनरी मनुष्य की परिकल्पना कर सकते हैं तो यह भ्रम
हमें नहीं पालना चाहिए क्योंकि इस तरह के कोर्सेस से आप एक चालाक और स्वार्थी और
कानूनी आड़ में जीने वाला तो मनुष्य विकसित कर सकते हैं लेकिन वह स्वस्थ मनुष्य ही
होगा इस बात का दायित्व कौन लेगा? फ़िर भी आप
यदि यह अनुभव करते हैं कि सनातन
धर्म संस्था को एक व्यापारिक शैक्षिक संस्था के रूप में ही पहचान होनी चाहिए और
मनुष्यता के निर्माण के दायित्व जैसी
पिछड़ी सोच से विरोध है तो संस्कृत विभाग आप सबसे बहुत स्पष्ट शब्दों में आपकी सोच
से असहमत है।
मेरा
आप सम्माननीयों से सादर आग्रह है कि आप यह स्पष्ट करें कि –
१.
हमारी सोच (जैसा भी
आप सोचते हों) कैसे और किस प्रकार समाज को श्रेष्ठ मनुष्य की संकल्पना में योगदान
दे सकती है?
२.
क्या हमारी सोच
कम्प्य़ूटर और कामर्स से अधिक सार्थक मानवीय भविष्य की संकल्पना करती है?
३.
हमारे व्यवहार ने इस
संस्था में अनियमित प्राध्यापक साथियों के लिए अधिक सम्मानित, समान एवम् सुरक्षित
वातावरण की संरचना में कितना और कैसा योगदान किया है?
४.
क्या हम सभी के
व्यवहार ने आपस में पहले से अधिक विश्वास और सद्भावना का वातावरण तैयार किया है ?
५.
क्या हम सभी यह
मानते हैं कि केवल कामर्स और कम्प्य़ूटर विषय पढाने से ही ईमानदार सम्वेदनशील मनुष्य
का निर्माण हो सकता है जिस पर मनुष्य़ता विश्वास कर सकती है?
६.
क्या हमें यह मान
लेना चाहिए कि कामर्स या कम्प्यूटर से से ही विकास या तरक्की हो सकती है और क्या
हमें यह भी मान लेना चाहिए विकास का जो अर्थ हम समझ रहे हैं वह दूसरों के शोषण पर
आश्रित नहीं है?
७.
क्या हमने यह स्पष्ट
कर लिया है कि हमारा संस्था से क्या सम्बन्ध है – केवल शैक्षिक कर्मचारी का या प्राध्यापक
का ।
८.
क्या हमें यह मान
लेना चाहिए कि मदन मोहन मालवीय आदि जिन्होंने इस संस्था को स्थापित किया वे असंगत
हो गए है या वे लोग साईंस, कम्प्यूटर, कामर्स ही को विकास मानते थे और वे चाहते थे
कि इस तथाकथित विकास की दौड में अन्य सभी की तरह भागें और कहें की हमने बड़ा काम कर
दिया और जब बात मनुष्यता की हो मूल्यों की हो तो उसे कहें कि वह हमारा दायित्व
नहीं है?
९.
क्या हम कानूनी नैतिकता
में विश्वास करते हैं और उसकी आड़ में अपनी सुविधा और दूसरों में दोष दर्शन करते
हैं और सांस्कृतिक नैतिकता को तुच्छ मानते हैं?हमारा संस्था में अकादमिक संस्कृति
को विकसित करने में क्या और कैसा योगदान है या वह आपके कार्यक्षेत्र के बाहर है?
१०.अभी तक की चर्चा में भविष्य की संकल्पना में हमने आर्टस ह्यूमैनिटी जैसे
विषयों के बारे में क्या विचार किया?
११.हमने मनुष्यता और उसके भविष्य के विषय में अन्य कितने विद्वानों से चर्चा की
या विचारों को सुना या पढ़ा है या ऐसा मानते हैं कि जो हम जानते समझते वह अन्तिम
ज्ञान है?
१२.क्या हम अपनी सुविधा के अनुसार अपनी ड्यूटी कटवा लेते हैं या कोई चलाकी से जिसे समान्य रूप से व्यवहारिकता कहा
जाता है उसका समर्थन करते हैं ?
१३.क्या संस्था ने अभी तक कॊई ईमानदार और सम्वेदनशील मनुष्यों की सूची तैयार की
है या सिर्फ़ वही सूची बनाई है जो बड़े पदों पर आ गए, व्यापारी हो गए ?
१४.क्या हमने यह विचार कर लिया कि हमारे कार्यों और इस तरह की सोच विचार का
भविष्यकालीन सकारात्मक प्रभाव क्या और कैसा होगा?
हम सभी जिन नियमों कानूनों को बनाने की कवायद कर रहे हैं उससे न तो किसी
प्रकार की आकादमिक संस्कृति के विकास की सम्भावना है और न उसमें कोई दायित्व बोध
की व्यवस्था है, न ही आर्ट्स जैसे विषयों के लिए कोई लाभ और सम्मान का स्थान या
योजना है । मैं आप सभी को विश्वास दिला सकता हूँ कि एक सम्वेदनशील मनुष्य को, जिस
पर मनुष्यता विश्वास कर सकती हो, उसके संस्कार प्रक्रिया में आपका कोई योगदान नहीं
हो सकता मात्र डिग्री दिलवाने के अतिरिक्त। संस्कृत विभाग की ओर ( इसमें डा० उमा
शर्मा के विचार शामिल नहीं हैं क्योंकि निवेदन के बावजूद अभी तक उनकी ओर से कोई
विचार प्राप्त नहीं हुआ है) से मैं आप सभी
की सोच/ मान्यताओं से असहमति व्यक्त करता हूँ कि अभी तक किए विचारों में, सारी सोच
में न तो कोई मौलिकता है, न संवेदनशीलता है न कोई दायित्व बोध, न संस्कार
प्रक्रिया । केवल मात्र कानूनी आड़ ले कर अपनी नौकरी कर अपने अहंकारपूर्ति का भाव
प्रदर्शन है । अतः इस असहमति को यदि अव्यावहारिक कह कर अपना पीछा छुडाना चाहें
तो वह आपकी इच्छा लेकिन जो कुछ आप कर रहे हैं वह किसी भी प्रकर से विजन डाक्यूमेंट
की कोटि में नहीं आता । हाँ, वह किसी शिक्षा फ़ैक्टरी के कायदे कानून की एक
नियमावली तो हो सकती है लेकिन शैक्षिक या अकादमिक संस्कृति का मनिफ़ेस्टो तो कदापि नहीं
हो सकता ।
मैं आशा करता हूँ कि जो कुछ भी जैसा कुछ भी इस बैठक में निर्णय किया जाएगा वह
दूसरे माननीय प्राध्यापकों पर लादा नहीं जाएगा और यह उनकी समालोचना के लिए
प्रस्तुत किया जाएगा।
संस्कृत विभाग और व्यक्तिगत रूप से मैं तभी संतुष्ट अनुभव करूँगा यदि सनातन
धर्म कालेज नाम की संस्था यदि बाकि शिक्षा-व्यापारिक धन्धे वाली संस्थाओं से इस
अर्थ में भिन्न होगी कि यह संस्था संस्कारित सम्वेदनशील मनुष्य़ को निर्मित करने के
लिए प्रतिबद्ध है और यह केवल दिखावे के लिए नहीं बल्कि इसके लिए सनातन धर्म
शैक्षिक संस्था धन्धे पर आधारित शिक्षा व्यस्था के प्रति एक असहमति में उठा हुआ
हाथ है और भविष्य के मनुष्य के निर्माण के प्रयोगों के लिए तत्पर एवम् उत्सुक है
।
सभी के प्रति आदर भाव सहित
०६-०६-२०१२
आशुतोष आंगिरस
प्राध्यापक
संस्कृत विभाग
प्रति
– डा० देशबन्धु,
प्राचार्य, सनातन धर्म कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी
डा०
एस पी शर्मा, कार्यकारी सचिव, विजन् डाक्यूमेण्ट समिति एवम् अध्यक्ष एवम् एसोसिएट
प्रोफ़ैसर,
इक्नोमिक्स
विभाग,
डा० ए के टण्डन, वाईस प्रींसिपल, अध्यक्ष एवम् एसोसिएट प्रोफ़ैसर, कामर्स
विभाग,
डा० सुशील कन्सल, ऐसोसिएट प्रोफ़ैसर, अंग्रेजी विभाग,
डा० राजेन्द्र सिंह राणा, ऐसोसिएट प्रोफ़ैसर, इलैक्ट्रोनिक एवम् कम्प्यूटर
विभाग,
श्री प्रवीन माथुर, अध्यक्ष एवम् एसोसिएट प्रोफ़ैसर, इलैक्ट्रोनिक एवम्
कम्प्यूटर विभाग,
डा० इन्दिरा यादव, एसोसिएट प्रोफ़ैसर, कैमिस्ट्री विभाग
डा० विजय शर्मा, ऐसोसिएट प्रोफ़ैसर एवम् लेफ़्टिनेन्ट, हिन्दी विभाग,
डा० सुनील शर्मा, अध्यक्ष एवम् एसोसिएट प्रोफ़ैसर, फिजिक्स विभाग,
डा० नवीन गुलाटी, अध्यक्ष एवम् एसिस्टेण्ट प्रोफ़ैसर, मैथ्स विभाग,
No comments:
Post a Comment