विजन डाक्यूमेण्ट २०१२
भाग -२
माननीय विजन
डाक्यूमेण्ट समिति के सदस्यों के प्रति,
किसी
व्यवस्था या संस्था मे दो मूलभूत शर्तें होती हैं – एक
यह कि संस्था या व्यवस्था की कम्पलशन्स (मजबूरियाँ) क्या हैं और दूसरा संस्था या
व्यवस्था की निसेस्टी (आवश्यक्ताएँ) क्या हैं? इन कम्पल्शन और नेसेस्टी का अन्तर
यह है कि जैसे राजनीति और वेश्यालय समाज
की कम्पलशन तो है लेकिन नेसेस्टी नहीं है और स्वस्थता (मन, शरीर और व्यवहार की),
संस्कार , बुभुक्षा, भय से मुक्ति, सामाजिक सम्बन्ध आवश्यकता हैं कम्पल्शन नहीं ।
अतः हम सभी को विजन डाक्यूमेण्ट की तैयारी करते हुए विचार करते हुए सावधान होना पड़ेगा कि क्या हम सभी सदस्यों ने
स्पष्ट कर लिया है कि हम प्राध्यापकों ( नियमित और अनियमित) की, प्राचार्य की,
छात्रों कि, शैक्षिक- गैर शिक्षिक कर्मचारियों की, सस्था की कम्पल्शन्स और नेसेस्टिस
क्या क्या हैं और कैसे हैं, कौन सी हैं और हम जो तथाकथित विजन डाक्य़ूमेण्ट के नाम
पर एक मात्र क्लैरिकल निर्णय कर के दूसरों पर थोपेंगे तो उसके वर्तमान कालिक और
भविष्यकालिक दायित्व भी क्या स्वीकार करेंगे? यह दायित्व बोध केवल शब्दों में कह
कर दूसरों को चलता कर देने वाली मानसिकता नहीं होनी चाहिए उसके लिए तदनुकूल
दायित्व बोध को व्यवहार द्वारा सिद्ध करना होगा।
अब
कम्पल्शन और निसेस्टी के सम्बन्ध मे कुछ प्रश्न हम स्वयं विचार कर लें उसके बाद विजन डाक्यूमेण्ट में
विजन स्थापित करने की कोशिश करेंगे और वह भी मनुष्यता, देश, समाज और अध्यापन
क्षेत्र के प्रति दायित्व बोध साथ ।
१.
क्या शिक्षा संस्था
के लिए मैनेजमेण्ट एक कम्पल्शन है या निसेस्टी?
२.
क्या मात्र जाब ओरियण्टिड कोर्सेस निसेस्टी हैं या
कम्पल्शन?
३.
क्या जो मैनेजमेण्ट
या प्राचार्य सोचें उसी लकीर पर सोचना प्राध्यापक की नेसेस्टी है या कम्पलशन?
४.
अध्यापन में शिक्षण,
अनुसन्धान और प्रयोग करना प्रत्येक प्राध्यापक के लिए नेसेस्टी है या कम्पल्शन?
५.
अपने साथी
प्राध्यापकों से निम्न कोटि का द्वेष करना क्या यह नेसेस्टी है या कम्पल्शन?
६.
मात्र चार कक्षाएँ
पढा कर इतने अधिक वेतन के अधिकार को सिद्ध करना हम प्राध्यापकों की नेसेस्टी है या
कम्पल्शन?
सनातन
धर्म नामक शिक्षा संस्था का संस्कृत विभाग की ओर से (सम्भावित) विजन निम्नलिखित है
जो आपके परीक्षण/ समालोचना के लिए प्रस्तुत है –
क्योंकि मनुष्यता के
प्रति शिक्षा क्षेत्र का गम्भीर दायित्व है अतः सनातन धर्म नामक संस्था इस दायित्व
को स्वीकार करती है कि इस शिक्षण संस्था के माध्यम से सम्पूर्ण मनुष्यता के लिए,
देश और समाज के लिए एक ऐसे संस्कारित स्वस्थ मनुष्य की संकल्पना करती है - धर्मे
ते धीयतां बुद्धिर्महदस्तु च ते मनः अर्थात् ऐसा मनुष्य जिसकी बुद्धि धर्म को धारण
करती है और मन महत् हो । (कृपया धर्म का रिलिजन अर्थ करके अपनी अज्ञानता का परिचय
न दीजिए। यदि धर्म , बुद्धि, महत् और मन का अर्थ न स्पष्ट हो तो कृपया संस्कृत
विभाग से कभी भी औपचारिक स्पष्टीकरण ले सकते हैं)
निश्चित ही संस्कृत विभाग अपनी परम्परागत ज्ञान के आधार पर एक ऐसे समाज का
निर्माण की संकल्पना करता है जिसमें ऐसी योग और भोग की स्वस्थ मानसिकता विकसित जो
होड नहीं सहयोग पर आधारित हो, जिससे सारी आर्थिक-सामाजिक- राजनैतिक व्यवस्था में
मनुष्य केन्द्र में स्थापित होगा न कि टेक्नोलोजी और अर्थ। अर्थ सम्बन्धों को
परिभाषित नहीं करेगा और संविधान मात्र एक औपचारिकता होगा। मनुष्यता survival
of the fittest की अपेक्षा विचार और भाव से प्रेरित होगी। सनातन
धर्म कालेज में शैक्षिक कर्मचारी होने के कारण इस दृष्टि की पूर्ण स्थापना और वह
तर्क सम्मत ढग से करने का दायित्व संस्कृत विभाग ने कई संगोष्ठियों के माध्यम से
दिया और भविष्य में अभी और स्थापनाएँ करेगा और इस भेड बकरी सोच को चुनौति
देगा।
इसके
लिए निम्नलिखित सुझाव हैं –
१.
शिक्षा संस्था में
मैनेजमेण्ट नहीं होनी चाहिए केवल सेवक समुदाय होना चाहिए जो प्राध्यापकों के
द्वारा दिए गए निर्देशों या आवश्यकताओं को पूरा करते रहें वह भी निस्वार्थ भाव से
और बिना किसी पदवी के।
२.
कालेज प्राध्यापकों
को आपसी सहयोग या सहकारी भाव (cooperative) से चलाना चाहिए और सीनियर मोस्ट प्राध्यापक बाकि सहकारी परिषद् के सदस्यों
के दिए निर्णयों को लागू करवाने का कार्य करना चाहिए।
३.
सभी गैरशिक्षक
कर्मचारी सहकारी संस्था के निर्णयों में समान रूप से भागीदार होंगे और उनका वही
सम्मान और स्थान का होगा जो प्राध्यापकों का चाहे वे सफ़ाई कर्ता हों या लिपिक हों
लाईब्रेरी स्टाफ़ या लेब स्टाफ़।
४.
प्रत्येक विभाग में
केवल ज्येष्ठ प्राध्यापक /सीनियर तो होगा पर अध्यक्ष पद नहीं होगा और वह भी
अनावश्यक या चालाकी से अपना वर्कलोड कम नहीं करेगा और पेपर चेक आदि के काम से नहीं
बचेगा और न ही दूसरों पर किसी बात का रोब झाडने की कोशिश कर अपने ओछेपन से विभाग
की अकादमिक सद्भाव नष्ट करेगा ।
५.
कालेज की समयसारिणी
(time table) का निर्माण या रचना छात्रों के हित को ध्यान में
रख कर की जाए जिसमें वह एन सीसी/ एनएसएस/
सांस्कृतिक गतिविधियों/ अन्यान्य परिषदों के कार्यक्रमों में भाग ले सके और
पुस्तकालय का उपयोग भी कर सके।
६.
कालेज स्पोर्टस
गाऊँड, लाईब्रेरी और सेमीनार रूम का अधिकतम उपयोग होना चाहिए।
७.
छात्रों को आवश्यक
रूप से मानवाधिकार, डिसास्टर मैनेजमेन्ट, प्राथमिक चिकित्सा, सिविलडिफ़ेन्स,
विचार-क्रिया के संक्षिप्त और सारगर्भित कोर्सिस करने चाहिए। इसके लिए चाहे तो
पहला पीरियड निश्चित किया जा सकता है।
८.
अन्तःवैषयिक चर्चा
को बढावा देने के लिए सप्ताह में एक कक्षा अवश्य होनी चाहिए, ताकि एक विषय पढाते
-२ जो प्रध्यापक का ज्ञान सीमित संकुचित हो जाता है उस ज्ञान का विस्तार हो सके ।
९.
कालेज में काउँसलिंग
सेल अवश्य होना चाहिए जिससे कालेज के छात्रों में बढती हुई हिंसा और यौन वृत्ति का
संस्कार करके उनको सही मार्ग पर प्रेरित किया जा सके।
१०. प्रध्यापकों को नई पढी गई नई पुस्तक/ पत्रिका / लेख की चर्चा या सूचना अवश्य
छात्रों और साथी अध्यापकों से सांझी करनी चाहिए।
११. चारों भाषाओं (अंग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत, पञ्जाबी) में से कोई दो भाषाओं का
छात्र चुनाव कर सके इसके लिए विश्वविद्यालय और उच्चतर शिक्षा विभाग को समझाना
चाहिए।
१२. अन्तःवैषयिक कोर्सिस जिनसे ज्ञान के नए आयामों से हमारा और संस्था का हित हो
(जो केवल शिक्षा की दुकानदारी के लिए ही नहो) उसको बढावा देने के लिए उद्यम करना
चहिए क्योंकि चाहे कालेज ने कम्प्यूटर की और कामर्स की काफ़ी बिक्री की है परन्तु अभी
तक न तो उसमें लेंग्वेज टेक्ननालोजी के क्षेत्र में उद्यम हो सका है और न ही alternative
economic/ commercial management thinking पर कोई कोर्स प्रारम्भ
किए जा सके हैं । (यदि प्राचार्य चाहें या साथी प्रध्यापक चाहें तो संस्कृत विभाग अपने
अनुभव और वैचारिकता को सांझा करने का नैतिक दायित्व स्वीकार कर सकता है।)
१३. जो प्रध्यापक प्राचार्य से किसी भी प्रकार की फ़ेवर लेता है चाहे वह एडमीशन
कराने की हो या किसी भी अन्य प्रकार की, तो उसे नोटिस बोर्ड पर प्राचार्य के
द्वारा आवश्यक रूप से सभी के लिए सूचित किया जाए।
१४. छात्रों के प्रवेश से पूर्व उनके स्वभाव और शैक्षिक उद्देश्य को ध्यान में रख
कर संस्था में प्रवेश दिया जाए केवल अंक प्राप्ति के आधार पर नहीं। (जैसे कि
कामर्स छात्रों के अधिक अंक प्राप्ति के बाद भी उनके दुर्व्यवहार की कई घटनाएँ
विशेष रूप से प्राध्यपकों के साथ, सभी को पता है।) तात्पर्य यह है कि अधिक अंक
प्राप्त करना किसी छात्र के सदव्यवहार का प्रमाण
नहीं है। इसलिए उसका साक्षात्कार अंक प्राप्ति के साथ मुख्य आधार होना
चाहिए।
१५. प्राचार्य को केवल प्रथम वर्ष के
छात्रों का साक्षात्कार करके प्रवेश प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने चाहिए शेष अन्य सभी
छात्रों का प्रवेश सीधे कार्यालय से होना चाहिए। उसमें न प्राध्यपकों की आवश्यकता
नहीं है।
१६. संस्कृत विभाग को भी शैक्षिक व्यापार करने के लिए वैसी ही परिस्थितियां
प्रदान की जाऎँ जैसी अंग्रेजी और हिन्दी को ताकि संस्कृत पर छात्रों की कमी का
आक्षेप न लगाया जा सके। इसके लिए शिक्षा के ढाँचे में परिवर्तन किया जाए उसके लिए
संस्कृत विभाग द्वारा दिए गए पूर्व पत्रों जो प्राचार्य के माध्यम से उच्चतर
शिक्षा विभाग और विश्वविद्यालय प्रेषित किए गए हैं उनको अवश्य ध्यान में रखना
चाहिए।
यदि आप सम्मानित प्राध्यापकों को यह सुझाव या सोच / विचार
अव्यवहारिक प्रतीत होती हो तो कृपया व्यहारिकता की अवधारणा को संस्कृत विभाग के
लिए लिए स्पष्ट करें ताकि संस्कृत विभाग अपनी वैचारिर्कता की पुनः समीक्षा करे और
समालोचन करे कि अन्य विभाग किस अर्थ में या किस दिशा में संस्कृत से श्रेष्ठ विचार
या व्यवहार करते हैं।
सभी के प्रति आदर भाव सहित
११-०६-२०१२
आशुतोष आंगिरस
प्राध्यापक
संस्कृत विभाग
प्रति – डा० देशबन्धु,
प्राचार्य, सनातन धर्म कालेज (लाहौर), अम्बाला छावनी
डा०
एस पी शर्मा, कार्यकारी सचिव, विजन् डाक्यूमेण्ट समिति एवम् अध्यक्ष एवम् एसोसिएट
प्रोफ़ैसर,
इक्नोमिक्स
विभाग,
डा० ए के टण्डन, वाईस प्रींसिपल, अध्यक्ष एवम् एसोसिएट प्रोफ़ैसर, कामर्स
विभाग,
डा० सुशील कन्सल, ऐसोसिएट प्रोफ़ैसर, अंग्रेजी विभाग,
डा० राजेन्द्र सिंह राणा, ऐसोसिएट प्रोफ़ैसर, इलैक्ट्रोनिक एवम् कम्प्यूटर
विभाग,
श्री प्रवीन माथुर, अध्यक्ष एवम् एसोसिएट प्रोफ़ैसर, इलैक्ट्रोनिक एवम्
कम्प्यूटर विभाग,
डा० इन्दिरा यादव, एसोसिएट प्रोफ़ैसर, कैमिस्ट्री विभाग
डा० विजय शर्मा, ऐसोसिएट प्रोफ़ैसर एवम् लेफ़्टिनेन्ट, हिन्दी विभाग,
डा० सुनील शर्मा, अध्यक्ष एवम् एसोसिएट प्रोफ़ैसर, फिजिक्स विभाग,
डा० नवीन गुलाटी, अध्यक्ष एवम् एसिस्टेण्ट प्रोफ़ैसर, मैथ्स विभाग,