स्वतन्त्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों पर गीता का प्रभाव
आशुतोष आङ्गिरस
महाभारत के शान्तिपर्व (19-8) में युधिष्ठिर अर्जुन को कहते हैं कि 'युध्दशास्त्रविदेव त्वं न वृध्दा: से वितास्त्वया'8 अर्थात् तू युध्दशास्त्र को ही जानता है तूने वृध्दों की सेवा नहीं की - इस उक्ति को ध्यान में रखते हुए आप ज्ञान-वृध्दों की सेवा रूप में गीता के प्रभाव को राष्ट्र के जीवन के एक ऐसे पक्ष के सन्दर्भ में देखने, समझने और विश्लेषण करने का प्रयास है जो विषय न केवल आधुनिक और प्रासङ्गिक है बल्कि व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को भी प्रभावित करता है और वह विषय है 'स्वतन्त्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों पर गीता का प्रभाव।'' विचार करने पर कौतुहलपूर्ण और सुनने में विचित्र लगने वाला यह विषय वास्तव में एक प्रयोग है - परम्परागत विषयों की व्यापकता और सूक्ष्मता का विकसित हो रहे नए आयामों के सन्दर्भ में विश्लेषण करने का। ऐसे विषयों की संगतिकरण को जानने, समझने का प्रयास ही इस प्रयोग की आधारभूमि है क्योंकि कहा भी है - यथा यथा हि पुरुषो नित्यं शास्त्रमवेक्षते। तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते॥ (महाभारत, शान्तिपर्व, 130-10) अर्थात् जैसे जैसे पुरूष पुन: पुन: शास्त्र पर विचार करता है वैसे-वैसे अधिकाधिाक जानता है और ज्ञान में रूचि बढ़ती है और यदि ऐसे ज्ञान में रूचि बढ़े जो व्यावहारिक और यथार्थ से सम्बन्धित हो तो विषय और भी रूचिकर और प्रासङ्गिक बन जाता है। ध्यान रखने योग्य बात यहाँ यह है कि - 'सर्व: सर्वं न जानाति सर्वज्ञो नास्ति कश्चन। नैकत्र परिनिष्ठा च ज्ञानस्य पुरूषे क्वचित्॥ (महाभारत, वनपर्व, 72-8) अर्थात् सब कोई सब कुछ नहीं जानता, कोई सर्वज्ञ नहीं है, किसी एक व्यक्ति में परिसमाप्ति या पूर्णता नहीं होती अत: उपरोक्त विषय के सन्दर्भ में उद्यम करना तर्क संगत ही है।
उपरोकत विषय के सन्दर्भ में यदि हम स्वतन्त्रता सेनानियों के इतिहास को टटोलें तो एक विचित्र तथ्य दृष्टिगोचर होता है कि ऐसे क्रान्तिकारी या स्वतन्त्रता सेनानी जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने प्राण दण्ड दिया, फाँसी दी उनमें से अधिकांश व्यक्तियों की निष्ठा गीता पर अत्यन्त स्पष्ट दिखाई देती है जैसे खुदीराम बोस, चन्द्रशेखर आज़ाद, रामप्रसादबिस्मिल, सूर्यसेन आदि अनेक क्रान्तिकारी। ये वे क्रान्तिकारी हैं जिन्होंने गीता को प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से मृत्यु पर्यन्त अपने साथ रखा। खुदीराम बोस से जब पूछा गया तुम्हारी अन्तिम इच्छा क्या है ? तो उसका उत्तार था कि मरते समय मैं गीता अपने साथ रखना चाहता हूँ। गीता के प्रति ऐसी निष्ठा के बहुत से उदाहरण इतिहास में मिलते हैं जो व्याकुलतापूर्ण प्रश्न उत्पन्न करते हैं कि गीता के प्रति ऐसी निष्ठा क्यों ? राष्ट्र के लिए अपनी आहुति देने वालों ने गीता में ऐसा क्या पाया जिससे वे इतना प्रभावित हुए कि मृत्यु समय में भी केवल गीता की कामना की। केवल इतना ही नहीं गीता के प्रति तिलक, अरविन्द, गान्धि, विनोबा आदि लोगों की निष्ठा, आग्रह प्रत्यक्ष है और इस बात में कोई सन्देह नहीं कि जिसके प्रति व्यक्ति की, समाज की निष्ठा हो, आग्रह हो वह व्यक्ति और समाज के मूल्यों को, संस्कृति को, जीवन शैली और सोचने-समझने के तरीके को प्रभावित करती है। इस प्रभाव का प्रत्यक्ष उदाहरण 'हिन्दू पंच' नाम की 1930 की पत्रिका के बलिदान अङ्क के सम्पादकीयम में स्पष्ट दिखाई देता है, जिसे ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया था। इसमें लिाा है - ''जब-जब दैवी शक्ति पर दानवी दर्प का प्राबल्य होता हे, तभी तब दैवी शक्ति की शुध्द आन्तरिक प्रेरणा, उस दर्प का दमन करने के लिए सुप्त आत्माओं में उदम्य उत्साह प्रदान करती है। .... आत्मोध्दार के लिए स्वाधीनता का प्रकाश देखकर हमें अपनार् कत्ताव्य निर्धारित करने में क्या कठिनाई है ? वहर् कत्ताव्य हमें ही पालन करना है औरर् कत्ताव्य पालन के लिए हमारे सामने विस्तृत क्षेत्र पड़ा है। ..... जब किसी देश का या जाति की घोर दुरावस्था हो जाती है, जब दानवों के कुटिल प्रहारों से सत्य और न्याय की ध्वनि बन्द हो जाती है और धर्म तथा मानवता का सर्वत्र तिरस्कार होता है तब सज्जन तथा संयमी पुरूष का एक मात्रर् कत्ताव्य हो जाता है कि वह सत्कर्म के लिए बलिदान करे। यही गीता का कथन है। यही गीता का सन्देश है। इस तरह उपेन्द्रनाथ वन्दोपाध्याय, जो अलीपुर षडयन्त्र केस के प्रमुख षडयन्त्रकारी थे, उन्होंने मेजिस्ट्रेट के सामने जो वक्तव्य दिया उसमें अपने क्रान्तिकारी होने का प्रेरणास्रोत गीता का कर्मयोग बताया। (पृ. 139) इसी तरह यतीन्द्र नाथ मुकर्जी के बारे में प्रसिध्द है कि वह गीता का नित्यपाठ करते और बिना पाठ समाप्त किए अन्य काम नहीं करते (145)। राम प्रसाद बिस्मिल फाँसी से एक रात पूर्व गीता का अध्ययन करते रहे। इसी प्रकार राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी अपनी फाँसी से पूर्व गीता का सतत् पाठ करते रहे (पृ. 159)। श्री रोशन सिंह को जब काकोरी षडयन्त्र में फाँसी की सजा सुनाई गई तो फाँसी से एक सप्ताह पूर्व उन्होंने अपने मित्र को पत्र लिखा उसमें गीता का प्रभाव अत्यन्त स्पष्ट दिखाइर् देता है - 'इस सप्ताह के भीतर ही फाँसी होगी। आप मेरे लिए हरगिज़ रंज न करें। मेरी मौत खुशी का बायस होगी। दुनिया में पैदा होकर मरना ज़रूर है। .... इससे मेरा मोह छूट गया है और कोई वासना बाकी न रही। ..... हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्म युध्द में प्राण देता है उसकी वही गति होती है, जो जङ्गल में तपस्या करने वालों की होती है।'' फाँसी के दिन जब उन्हें ले जाया गया तो गीता अपने हाथ में लेकर गए। इसी प्रकार के और बहुत से उदाहरण क्रान्तिकारियों के इतिहास खोजने पर मिल जाएँगे। इसके साथ ही 1930 में छपी कविता संग्रह में भी गीता प्रभाव बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई देता है जैसे मधुसूदन ओझा की कविता 'हिन्दू' में 'मूर्दों में संजीवनी बूटी, देकर जान डालने को,
कर्मयोग का मन्त्रवबता कर, निज स्वतन्ता पाने को,
कायर हिन्दू को मरने का, अमर पाठ सिखलाने को।
इसी तरह मंगल पाँडे के लिए लिखी गई छबील दास मधुर की कविता, 'सिपाही विद्रोह का आहा बलिदान;' में गीता का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है -
वीरवर मंगल पाँडे!
समयातीत कार्य या यद्यपि पर तेरा वह त्याग।
कौन कहेगा किसी स्वार्थवश या तब आत्मविराग ?
स्वधम्रहित उन्मत्ता दुआ तू होगा यह आक्षेप।
यह दूषण है नहीं, किनतु है भूषण ही बड़ भाग॥
ऐसी ही कई कविताएँ जिनमें से मुख्य 'जगदीश झा' की बलिदान बी.एल. बाबू की 'सहर्ष हो जाएँ बलिदान', कुमार बदरीनारायण सिंह की उमंग, बाल कृष्ण बलदुवा की 'विप्लवी हृदय' आदि में गीता की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। गीता के प्रभाव के बारे में नेहरू अपने ग्रन्थ 'हिन्दुस्तान की खोज' में लिखते हैं कि - 'विचार और फलसफे का हर एक सम्प्रदाय इसे श्रध्दा से देखता है और अपने ढंग से व्याख्या करता है। संकट के वक्त, जब कि आदमी का दिमाग संदेह से सताया होता है, और अपने फर्ज़ के बारे में उसे दुविधा दो तरफ खींचती है, यह रौशनी और रहनुमाई के लिए गीता की ओर झुकता है क्योंकि संकट काल के लिए लिखी गई कविता है - राजनीतिक और सामाजिक संकटों के अवसर के लिए और उससे भी ज्यादा इन्सान की आत्मा के संकट काल के लिए। गीता की अनगिनित व्याख्याएँ निकल चुकी हैं और अब भी निकल रही हैं। विचार और काम के मैदान के आजकल के नेताओं - तिलक, अरविंद घोष, गाँधी ने भी इसके सम्बन्ध में लिखा है और अपनी व्याख्याएँ दी हैं। गाँधी जी ने इसे, अहिंसा में अपने दृढ़ विश्वास का आधार बनाया है और लोगों ने इसे हिंसा और धर्म-कार्य के लिए युध्द का।'' इसी सन्दर्भ में वे आगे कहते हैं कि - 'गीता में खास तौर पर इंसानी जिंदगी की रुहानी जमीन दिखाई गई है और इसी भूमिका में रोज़मर्रा की ज़िंदगी के व्यावहारिक मसले हमारे सामने आते हैं। यह हमें जिन्दगी के फर्जों औरर् कत्ताव्यों का सामना करने के लिए पुकारती है .... काम और जिन्दगी को युग के सबसे ऊँचे आदर्श के बमूजिम होना चाहिए क्योंकि हर एक युग में खुद आदर्श बदलते रहते हें। एक खास ज़माने के आदर्श, युगधर्म का सदा ध्यान रखना चाहिए। चूँकि आज के हिनदुस्तान पर मायूसी छाई हुई है और उसके चुपचाप रहने की भी हद हो गई है इसलिए काम में लगने की यह प्रकार खासतौर पर अच्छी लगती है। यह भी मुमकिन है कि ज़माने हाल के लफज़ों में, इस प्रकार को, समाज सुधार की और समाज सेवा की, और अमली, वेगरज़, देशभक्ति के और इन्सानी दर्दमन्दी के काम की प्रकार समझा जाए। गीता के बनूजिब ऐसा काम अच्छा होता है लेकिन इसके पीछे रुहानी मकसद का होना लाज़मी है। यह काम त्याग, भावना से किया जाना चाहिए और इसे नतीज़ों की फिक्र नहीं करनी चाहिए।'' इसी सन्दर्भ में गांधी का यह वक्तव्य भी महत्तवपूर्ण है कि 'गीता हमारे हृदयों में चलने वाले द्वन्द्वों का वर्णन है। भगवान् कृष्ण ने एक ऐतिहासिक घटना का सहारा लेते हुए इस बात की शिक्षा दी है कि मनुष्य को अपनार् कत्ताव्य करने के लिए अपने जीवन की बलि देने में भी संकोच नहीं करना चाहिए। इसमें परिणाम की चिंता किए बिना कर्म करने पर बल दिया गया है क्योंकि देह की मर्यादाओं में बन्धो हम मानव अपने अलावा और किन्हीं के कृत्यों को नियन्त्रित करने में असमर्थ हैं।'' अपने वक्तव्य में आगे चलकर गान्धी की यह स्वीकारोक्ति बहुत मर्मपूर्ण है कि - ''जब सन्देह मुझे घेर लेता है, जब निराशा मेरे सम्मुख खड़ी होती है, जब क्षितिज पर प्रकाश की एक किरण भी नहीं दिखाई देती, तब मैं भगवद्गीता की शरण में जाता हूँ और उसका कोई न कोई श्लोक मुझे सान्त्वना दे जाता है और मैं घोर विषाद के बीच भी तुरन्त मुस्कुराने लगता हूँ। इसका श्रेय मैं भगवद्गीता को देता हूँ।'' (महात्मा गान्धी के विचार पृ. 88) इसी तरह तिलक का 'गीता-रहस्य' ग्रन्थ उनकी गीता के प्रति निष्ठा का श्रेष्ठ उदाहरण है और उनकी स्वाराज्य की अवधारणा गीता के दर्शन से स्पष्ट तथा प्रभावित है। श्री अरविन्द अपने गीता प्रबन्ध के आरम्भिक पृष्ठों में लिखते हैं कि 'गीता तर्क की लड़ाई का हथियार नहीं है। गीता को सर्व साधारण अध्यात्म शास्त्र या नीतिशास्त्र का ग्रन्थ मान लेने से भी काम नहीं चलेगा बल्कि नीतिशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र मानव जीवन में प्रत्यक्ष प्रयोग करते हुए ही व्यवहार में जो संकट उपस्थित होता है उसे दृष्टि के सामने रखकर इस ग्रन्थ के प्रभाव को समझना होगा।''
उपरोक्त सारे कथ्य का प्रयोजन यह है कि गीता ने किस रूप में स्वतन्त्रता सेनानियों को प्रभावित किया और मेरा ऐसा विचार हे कि गीता मूल रूप में आचार-शास्त्र है, आचारण के विषय में स्पष्ट निर्देश, प्रतिपादन जैसा इसमें है वह किसी को भी प्रेरित कर सकता है और आचरण करने का हेतु और प्रश्न भी गीता प्रस्तुत कर रही है। सेनानियों, क्रान्तिकारियों के सामने जब भी प्रश्न फाँसी या माफी का रहा तो गीता ने उस द्वन्द्व को बहुत स्पष्ट कर दिया कि क्रान्तिकारी को मृत्यु चुनने या वरण करने में सोचना नहीं पड़ा। गीता का प्रभाव क्रान्तिकारियों पर रहा वह यह था कि गीता ने क्रान्तिकारियों को महासाहसवृत्तिा प्रदान की। इसलिए बहुत से क्रान्तिकारियों ने स्वयं मृत्यु का वरण किया चाहे वह झाँसी की रानी रही या चन्द्रशेखर आज़ाद रहे। इस महासाहस वृत्तिा ने लोगों को अपनी ओर ऐसा आकर्षित किया कि पूरे भारत में जनादोलन प्रकट हो गया। क्रान्तिकारी जनता में उपदेश देने नहीं गए कि तुम क्रान्ति करो, उन सभी ने स्वयं अपनी आहुति देकर लोगों को कर्म मार्ग पर प्रशस्त कर दिया। इसलिए मन्मथनाथ गुप्त लिखते हैं कि खुदीराम बोस के दाह संस्कार पर लोगों की अनन्त भीड़ ने उस शहीद की राख को अपने मस्तक पर लगाया जिसका परिणाम सारे देश में उथल-पुथल हो गई। वस्तुत: लोकसंग्रह की भावना का निर्वाह क्रान्तिकारियों के बलिदानों ने यिा जिनके लिए आत्मा अमर थी, शरीर केवल एक पुराने जीर्ण वस्त्र की तरह था जिसे कार्य सिध्दि पर त्यागना ही था। कर्म का चुनाव करने में गीता से जो प्रेरणा मिल सकती थी वह किसी अन्य ग्रन्थ से या किसी अन्य स्रोत से मिलनी कठिन ही थी।
12 जून 1897 ई. को शिवा जी का अभिषेकोत्सव मनाया गया। लोकमान्य इसके अध्यक्ष थे। उन्होंने कहा कि शिवाजी ने अफज़ल खाँ को मारकर कोई अपराध नहीं किया। भगवान् कृष्ण ने गीता में अपने सगे सम्बन्धियों को मारने की आज्ञा दी है। यदि कोई मनुष्य परार्यबुध्दि से यदि हत्या भी कर डाले तो दोष नहीं ............ यदि चोर हमारे घर में घुस आए और हममें पकड़ने की शक्ति नहीं हो तो हम बाहरसे किवाड़ बन्द कर लें और उसे जिन्दा जला डालें इसे नीति कहते हैं। अन्त में उन्होंने कहा कि 'कूप मण्डूक मत बनो। भारतीय दण्ड विधान से यह सबक मत लो कि क्या करना है और क्या नहीं इसके विपरीत गीता के भव्य वायुमण्डल में चले आओ और महापुरुषों के आचरणों पर विचार करो।''
भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास, मन्मथनाथ गुप्त पृ. 14 वास्तव में भारतीय जीवन को जीवन 1960 को जिन मानसिक अवधारणाओं ने व्याप्त कर रखा था वे भारत के अवचेतन में संगठित रुप से काम कर रही थी - कर्म सिध्दान्त, निस्वार्थ कर्म, यज्ञ कर्म, भक्ति, लोक संग्रह, स्थित प्रज्ञाता, ज्ञान की परम पावनता, विश्वरूपता और शरणागति - ये ऐसी अवधारणाएँ थीं जो भारत के लोक जीवन में जाने-अनजाने में बराबर सक्रिय होकर बराबर प्रवाहित हो रही थी। इस दृष्टि से आंग्ल शिक्षा पध्दति से पूर्व का भारत जो संघर्ष कर रहा था। उस संघर्ष की पूर्व पीठिका गीता के श्रवण मनन और निदिध्यासन में ही संलग्न थी। इसी को भरत के क्रान्तिकारियों ने अपना जीवन दर्शन बनाकर अपने ज्ञान और आचरण एक करके जीना सीखा था।