Friday, October 3, 2008

स्त्री-चेतना एवं भारतीयता की मूलप्रकृति


'स्त्री - चेतना एवम् भारतीयता की मूल प्रकृति का पुनर्विश्लेषण'
आशुतोष आंगिरस , प्रवक्ता, संस्कृत विभाग , अम्बाला छावनी।
ऐसे विषय जो अतिबौद्दिकता, अर्ध-ऐतिहासिकता और अति-परिचय के कारण व्यक्ति और समाज के लिए अस्पष्ट हो गए हाें और उलझ गए हों या जिनका कोई सीधा स्पष्ट उत्तार न हो या जिन विषयों के सम्बन्ध घड़े बन्दियाँ हाें तो वहाँ विषयों को स्पष्ट करने का सरलतम उपाय मूलभूत प्रश्नों को सामने रखने का हो सकता है विशेष रूप से स्त्री चेतना और भारतीय प्रकृति के सन्दर्भ में। अत: उपरोक्त विषय के सम्बन्ध में मैं सरलतम और संक्षिप्त प्रश्न अपने सामने रखना चाहता हँ कि स्त्री मायने क्या या स्त्री होने का क्या अर्थ है ? क्या ऐसी कोई देह जो सन्तानोत्पत्ति करती हो, उसे स्त्री कहेंगें या काई ऐसा अस्तित्व जो पुरूष से भिन्न है या ऐसी कोई अस्मिता जो सजातीय, विजातीय और स्वगत भेद से भिन्न परिभाषित की जा सकती है अथवा सामाजिक सन्दर्भ में माँ, बहिन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका आदि में से स्त्री कौन सी है या व्यक्तिगत स्तर पर एक पुत्र को अपनी माँ को रूप में देखना चाहिए या स्त्री के रूप में ? व्यक्तिगत स्तर पर यह प्रश्न और भी महत्तवपूर्ण हो जाता है क्योंकि स्त्री-अधिकारों के हनन के सन्दर्भ में पुत्र अपने माँ के अधिकारों के लिए संघर्ष करे अथवा उसे स्त्री समझ कर उसके अधिकारों के विषय में निर्णय करें ? ये सारे प्रश्न इसलिए आवश्यक है क्योंकि एक बार 'स्त्री' का निर्णय हो जाए तो 'स्त्री चेतना' और उससे सम्बन्धित अन्य विषयों को ठीक से समझा जा सकता है। और यह समझ इसलिए आवश्यक है क्योंकि हम सभी एक स्वस्थ समाज चाहते हैं जो दैहिक रूप से और मानसिक रूप से भी स्वस्थ हो और यह तभी सम्भव है जब स्त्री दैहिक और मानसिक रूप से स्वस्थ और पूर्ण हो क्योंकि अभी तक हुआ यह है कि सामाजिक विकृतियों को अनुभव कर भारतीय परम्परा को जानने वालों ने स्त्री के पुनरुत्यान का जो आन्दोलन चलाया था वह शीघ्र ही उनके हाथों से फिसल कर औद्योगिक क्रान्ति के बुध्दिजीवियों के अधिकार में आ गया और उन्होंने स्त्री-स्वातन्त्र्य के नाम पर जो व्यापार किया उसका परिणाम टूटते परिवारों, बढ़ते अपराधों और व्यवस्थाओं के चरमराने के रूप में दिखाई देने लगा है। अभी तक भारतीय स्त्री की अस्मिता को दो छोरों ने बाँध रखा था - एक ओर सौभाग्य था और दूसरी ओर मातृवात्सल्य। उसकी प्रकृति ने ही उसे मर्यादित कर रखा था परन्तु अब आधुनिकता ने उसे सौभाग्य के स्थान पर नौकरी या आर्थिक सुरक्षा दी और मातृवात्सल्य के स्थान पर प्राकृतिक प्रजनन शक्ति का नियन्त्रण। यह कहाँ तक स्वस्थ स्त्री और स्वस्थ समाज की रचना में सहायक या उपयोगी है - यह विचारणीय है क्योंकि स्त्री चेतना की सफलता समाज की स्वस्थता पर निर्भर करती है और स्वस्थ समाज ही स्वस्थ स्त्रीत्व का उद्देश्य हैं जिसके लिए स्वातन्त्र्य मूलभूत शर्त है और वह स्वातन्त्र्य दो प्रकार का है - एक है स्त्री का सत्ताा-स्वातन्त्र्य और दूसरा है स्त्री का क्रिया-स्वातन्त्र्य। अत्यन्त सरल एवम् स्थूल शब्दों में स्त्री चेतना के दो स्तर हैं - एक उसके होने का और दूसरा करने का। स्त्री का होना उसका स्वभाव है, उसे पाने के लिए कुछ करना नहीं होता क्योंकि स्त्री तो वह है ही और यह ऐसा भी नहीं है कि वह कुछ ऐसा है जो स्त्री के पास है या स्त्री के अधिकार में है। स्त्री में और स्त्री के होने में किंचित सी भी दूरी नहीं है। वह स्त्री का होना है, उसका अस्तित्व है। दूसरी ओर क्रिया या करना उसकी उपलब्धि है। जो कुछ भी करती है वह बिना किए नहीं हो सकता। स्त्री करेगी तो वह होगा, नहीं करेगी तो नहीं होगा लेकिन जीवन जीने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है और धीरे - धीरे यह सक्रियता ही स्त्री के होने को जानने में बाधा बन जाती है और यही कारण है कि स्त्री का मूल्यांकन पुरूषोचित कर्म करने में होने लग गई है और यह स्पष्ट है कि कर्म या क्रिया पर आधारित पहचान परिधि है, केन्द्र नहीं है। आधुनिक स्त्री का अर्जन, उसकी सम्पदा, जो कुछ भी उसके पास है वह उसके कृत्य ने, उपलब्धि ने केन्द्रभूत स्त्री को आच्छादित कर रखा है। स्त्री का होना उसकी सभी उपलब्धियों से पहले है। कृत्य तो चुनाव है, वह चुना जाए या न चुना जाए, वह किया जाए न किया जाए वह स्त्री के हाथ में है। कृत्य चुना जा सकता है परन्तु अस्तित्व नहीं। इसलिए स्त्री जहाँ एक ओर विशिष्ट बोध सत्ताा है वहीं वह विशिष्ट संस्कार समूह भी है और इन दो प्रकारों ने स्त्री चेतना ने मानव मन को सदा प्रभावित किया है। इसलिए स्त्री- चेतना को मात्र कृत्यों के सन्दर्भ में देखना और उसकी अस्मिता के प्रश्न को अनदेखा करना - दोनों ही स्वस्थ विश्लेषण की अपेक्षा रखते हैं। लेकिन मानवीय दृष्टि की तरह मानव बुद्दि भी एक साथ सभी कोणों से किसी भी तथ्य को समझने मे सशक्त नहीं है इसलिए आवश्यक है कि स्त्री चेतना को तीन दृष्टिकोण्ाों से देखकर समझने का प्रयत्न किया जाए। स्त्री चेतना के भारतीय की दृष्टि में तीन रूप इस प्रकार के हैं - प्रथम पार्थिव रूप से तात्पर्य उसके जैविक, आर्थिक दृष्टि है, दूसरे शाश्वत रूप से तात्पर्य ऐतिहासिक अविच्छिन्न विकास की दृष्टि है और तीसरे चिन्मय रूप से तात्पर्य अचल मूल्य की दृष्टि है या मूल प्रकृति या मेमदबम की दृष्टि है। इन तीन दृष्टिकोणों से विश्लेषण कर स्त्री-चेतना का पार्थिव रूप हमारे घरों, गावों, नगरों, खेतखलिहनों, कार्यालयों, राजनीति, बाजारवाद, उपभोक्तावाद के साधनों में उपस्थित है और इस माध्यम से वह अर्थ और काम की सिध्दि कर रही है। स्त्री चेतना का शाश्वत रूप इतिहास में हजारों वर्षों से क्रमागत रूप से चलायमान है। यह शाश्वत इस अर्थ में ही कि यह अविच्छिन्न रहा है। वस्तुत: शाश्वत शब्द एक काल सम्बन्धी आइडिया देता है जिसे निरन्तर वर्तमान के अर्थ में लेना चाहिए। यह काल का कोई स्थिर बिन्दु नहीं है। यह निरन्तर रहते हुए भी सतत विकासशील और प्रवाह मान भी है क्योंकि यही समाज और व्यक्ति की मानसिक शक्तियों का ढँाचा तैयार करते हैं। इस दृष्टि से स्त्री चेतना अपने धर्म नामक पुरुषार्थ को सफल कर रही है और तीसरा चिन्मय रूप शाश्वतरूप से अधिक सूक्ष्म है जिसका लक्ष्य है पूर्ण स्वस्थता, पूर्ण आनन्द जो ऑंशिक रूप से क्रीड़ा, कला, संगीत, साहित्य आदि में और पूर्ण रूप से जीवन जीने के रूप में मिलता है। इस चिन्मय रूप में ही रुचिबोध और संस्कृति बोध के बीच पनपते हैं। सभी बीजों का स्रोत यही स्त्री का चिन्मय रूप ही है परन्तु उन बीजों का अंकुरण और विकास होता है शाश्वत और पार्थिव सन्दर्भ के अनुसार। सम्भवत: इस प्रकार भारतीय सन्दर्भ मे स्त्री चेतना के पकमंस या मेमदजपंस रूप को समझा जा सकता है और इसके साथ ही मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि स्त्री मेरे लिए कोई विवाद का विषय नहीं है, न हीे यौन लिंगों के नाम पर धड़ेबन्दी का मेरे से सम्बन्ध है और न ही ऐसे लोगों से सम्बन्ध है जो यह समझते है कि स्त्री कोई समझा जाने वाला तत्तव नहीं है, केवल प्रेम की, भोग की वस्तु है। सामान्य व्यक्ति का मन सदा भाषा के स्तर पर ही जीता हे और भाषा तो लिंगों के आधार पर विभाजन मानकर चलती है और केवल ऐतिहासिक दृष्टि से स्त्री-चेतना का अध्ययन द्वन्द्वात्मक संघर्ष को हवा देने की बात है। समाज में व्यवहार में लोक में स्त्री को जैसे भी समझा हो परन्तु सम्वेदनशील मनुष्य के लिए स्त्री सृष्टि का एक मूल तत्तव है जो आकर्षण भी करती है और विकर्षण भी। वह केवल लिंगों तक सीमित नहीं है इसलिए भारतीय सन्दर्भ में स्त्री के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्द तीनों लिंगों में मिलते है-जैसे 'दारा' पुल्लिंग है तो 'कलत्र' नपुंसक लिंग है तो 'नारी' स्त्रीलिंग शब्द हे। सम्भवत: यही कारण है कि एक तत्तव के रूप में स्त्री का सर्वत्र अभिनन्दन ही हुआ है परन्तु व्यक्ति-स्त्री में गुण दोष वाली दृष्टि को यथार्थ मान कर पक्ष और विपक्ष में दोनों तरह की बातें कही गई है अत: स्त्री चेतना के प्रति अभिनन्दन भारतीय प्रकृति के लिए कोई औपचारिकता की बात नहीं है -''विद्या: समस्ता तव देवि भेदा:, स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु॥'' अर्थात् हे देवी! समस्त विद्याएँ और जगत् की समस्त स्त्रियां तुम्हारे ही अनेक रूप हैं।
इस उपरोक्त विश्लेषण के मूल सन्दर्भ भारतीयता की प्रकृति के स्वरूप निर्माण में वैदिक और अवैदिक या आर्य और अनार्य परम्पराओं के तात्तिवक वैचारिक योगदान को भी जान लिया जाए क्योंकि दोनों के अति सूक्ष्म वैचारिक तत्तवों का समन्वय ही भारतीयता की मूल प्रकृति को निर्धारित करते हैं। वैदिक परम्परा के उपलब्ध तत्तव हैं-संस्कृत, यज्ञ, देववाद और आत्म या ब्रह्म। और दूसरी और अवैदिक परम्परा के तत्तव हैं - संसार का मिथ्यात्व, अत्यन्त घोर तप, पूजा - विशेष रूप से आकृति पूजा, ध्यान के प्रति योग के उपाय और अनीश्वरता। इन उपरोक्त चार वैदिक तत्तवों और पाँच अवैदिक तत्तवों के आपसी समन्वय से भारतीयता की मूल प्रकृति का स्वगत लक्षण स्पष्ट करते हैं। वे तत्तव हैं - 1. माया या लीला, 2. कर्म, 3. धर्म, 4. अर्थ, 5. काम, 6. मोक्ष, 7. भक्ति, 8. आकृति उपासना, 9. व्यक्तिगत धार्मिक या आध्यात्मिक अनुभव- इन तत्तवों ने अपनी मिथकीयता या पौराणिकता और प्रतीकात्मकता से भारत की अधिकांश भाषाओं को प्रभावित किया हैं। हलाँकि मिथक और प्रतीक ये दोनों अलग अलग हैं जैसे पुरुष और प्रकृति - ये दोनो बिम्ब प्रतीक हैं - दो तरह की आदिम और सनातन सृजन - शक्तियों के जिनके युगबध्द होने पर ही सृष्टि सम्भव हे परन्तु शिव र्पावती आदि के बिम्ब इसी तथ्य के मिथकीय रूप हैं। ये प्रतीक किसी तथ्य को या थ्योरी को सूत्र रूप में बिम्बित करते हैं लेकिन इनमें कोई लीला या कथात्मकता नहीं है इसके विपरीत मिथक का रूप कथात्मक होता है और उसके बिम्ब पुरूष-नारी आकृतियाँ लेकर एक लीला रचते हैं। मिथकीय भाषा अधिक सगुण, नामरूपवाली होती हैं। यदि भारतीयता मूलसाहित्य और दर्शन को कुछ देर के लिए छोड़ दें तो भारतीय परम्परा, लोक धर्म और लोक संस्कृति के आधार पर यह कहना सम्भव है कि भारतवर्ष की आदिम देवता देवी है क्योंकि सभ्यता का आदि रूप सर्वत्र मातृ सत्ताा प्रधान रहा है। और वहीं से भारत का 'समूह मन' या 'लोक-चित्त' का प्रारम्भ हुआ। उस देवी के सूक्ष्म से सूक्ष्मतर रूप ने भारतीय कर्मकाण्ड, दर्शन, कला, साहित्य को प्रभावित किया और दूसरी ओर उसने प्रत्येक व्यक्ति के अति भीतर स्नायुमण्डल के केन्द्र में कुल कुण्डलिनी, परा-शक्ति, त्रिपुर सुन्दरी के रूप में प्रभावित किया। सच तो यह है कि इस देवी के खप्पर में पड़ कर भारतीय आर्य के पुरुष प्रधान स्वभाव का रूपान्तर 'नव्य आर्य' या 'हिन्दू' के रूप में हो गया और हमारे समूहमन या लोकचित में स्थित इसकी 'मातर्ृमूत्तिा' या कलियुग की भाषा में 'मदर इमेज' हमारे ऐतिहासिक उत्थान पतन का नियमन कर रही है। इस प्रकार इतिहास में देवी का वाद आरम्भ हुआ जो विकसित होता हुआ ऋग्वैदिक 'श्री' या रूदुस्वसा अम्बिका' में स्थित हुआ और प्रतिवाद के रूप में प्रकृति और नारी के प्रति वर्जनशील धर्म साधना का उदय बौद्द, जैन आदि के रूप में हुआ। फिर गुप्त युग के आसपास वाद प्रतिवाद के पारस्परिक अन्त: प्रवेश के फलस्वरूप एक और महायान में देवी का प्रवेश वज्रेश्वरी, तारा आदि के रूप में हुआ तो दूसरी ओर वह वेदान्त में श्री-विद्या के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। फिर धीरे धीरे यही देवी वाद-प्रतिवाद के माध्यम से भक्ति के रूप में राधा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। तत्पश्चात् 19वीे शती में देवी का तीसरा वाद धार्मिक न होकर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से देश भक्ति के रूप में उपस्थित हुआ जिसका स्वरूप 'वन्दे मातरम्' में स्पष्ट होता है। स्त्री चेतना का यह रूप भक्ति न होकर सामाजिक शाक्ति की उपासना थी। यह सामूहिक जिजीविषा का प्रतीक बन कर स्वतन्त्रता संग्राम में उदय हुई।
अपने विषय का समापन इन विचार बिन्दुओं से करना चाहता हूँ कि भारतीयता की मूल प्रकृति का आरम्भिक रूप जितना भौतिकवादी है उतना ही अध्यात्मवादी भी है। भारतीय प्रकृति इहलोकवादी एवम् कामना प्रधान हैं परन्तु साथ ही साथ यह श्रध्दा-सम्पृक्त और रहस्य-प्रणव भी है। भारतीय प्रकृति की रचना आदिम भय और आदिम बुभुक्षा से ही नहीं हुई बल्कि सौन्दर्य-बोध और रहस्य-बोध से भी हुई है जिसने सभ्यता, संस्कृति, भोजन पान, वसन-व्यसन, शब्द-सम्भार, भाषा-बोली, कल्प और शिल्प, भावबोध और नीतिबोध को भी प्रभावित किया और यह प्रवाह आज भी प्रवहमान है। इसलिए भारतीयता की मूल प्रकृति जनसमूह की दृष्टि-भंगी है, यह जनसमूह की विश्व-दृष्टि है क्योंकि यदि इसमें भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का मूल विद्यमान न रहता तो संस्कृति का चर्तुपुरुषार्थ का संतुलित परवत्तर्ाी विकास सम्भव नहीं होता। भारतीय प्रकृति समस्त जीवन प्रक्रिया को समाविष्ट किए हुए और धारण किए हुए चलती है - चूल्हा चक्की, शिल्प से लेकर लोकनृत्य आदि तक इसका विस्तार है। अत: भारतीयता की मूल प्रकृति के विषय में यह कहना सम्भव है कि पहला यह कि यह अपौरूषेय है क्योंकि इसका जनक व्यक्ति नहीं परम्परा है। दूसरा इसका अर्थ लोकविद्या है। तीसरा इसकी दृष्टि भंगी कामना प्रधान और सुखवादी होने के साथ साथ अध्यात्मवादी है। चौथे यह रसवादी और वर्ग निरपेक्ष है परन्तु धार्मिकता प्रकृति सेक्यूलर, उदार और साम्प्रदायिकता निरपेक्ष है परन्तु धार्मिकता मुक्त कहीं नहीं है। छटे इसमें जिज्ञासा, रहस्यबोध, सौन्दर्यबोध तथा आदिम मय इसमें सहोदर रूप में निहित हैं।
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2 comments:

डॉ. सुधीर शर्मा said...

aapka yeh aalekh pasand hai kya ham ise apne patrika chhattisgarh mitra mein prakashit kar sakte hain kripya sahmati pradan kar anugrahit karenge

Sudhir Sharma
Head Department of Hindi
Kalyan PG collge bhilainagar Cg

Ashutosh Angiras said...

जी कोई कठिनाई नहीं है। सादर आशुतोष