हरियाणा संस्कृत अकादमी, पंचकूला द्वारा आयोजित संगोष्ठी में प्रस्तुत शोधपत्र
(संस्कृत की पुनःसंरचना योजना के अधीन)
सर्वेक्षण आधारित आधुनिक संस्कृत साहित्य की दशा और दिशा
दिनाङ्क – ०९, १०–०२-२०१२
आशुतोष आङ्गिरस पीयूष अग्रवाल
संस्कृतविभाग, शोधछात्र
एस. डी. कॉलेज (लाहौर), संस्कृतविभाग, पञ्जाब विश्वविद्यालय
अम्बाला छावनी चण्डीगढ़
[यह पत्र का आधार आचार्य तुलसी की संस्कृत रचनाओं – जैनसिद्धान्तदीपिका, भिक्षुन्यायकर्णिका, मनोनुशासनम्, पञ्चसूत्रम, शिक्षाषण्णवतिः, कर्त्तव्यषट्त्रींशिका, संघषट्त्रिंशिका, आराध्यस्तुतिः, प्रसंगोपात्तम्, निबन्धनिकुरम्, कथालोकः, प्रो० रामदास निराकारी का सावित्री, शब्दतत्त्वदर्शनम्, अध्यात्माद्वैतदर्शनम्, आत्मदर्शनम्, डा० शक्तिधर शर्मा की रचना भौतिकीगणितम्, डा० सुद्युम्न आचार्य की रचना अधिविज्ञानं दर्शनशास्त्रम्, डा० हरिद्वारी लाल शर्मा के मनश्चिकित्सा-विज्ञान-भूमिका और आचार्य महावीरप्रसाद शर्मा, जगदीश चन्द्र शास्त्री, डा० रामेश्वरदत्त शर्मा की रचनाओं पर आधारित है।]
मत्वा पदग्रन्थनमेव काव्यं मन्दाः स्वयं तावति चेष्टमानाः।
मज्जन्ति बाला इव पाणिपाद परिचालनं संप्लवनं विदन्तः॥
संस्कृत साहित्य के साथ आधुनिकता के प्रश्न को ध्यान में रखते हुए हमें सबसे पहले आधुनिकता का सन्दर्भ स्पष्ट कर लेना होगा क्योंकि यूरोप में जब आधुनिकता का जन्म हुआ तब विकास की वे परिस्थितियाँ अपने चरम पर थीं जिन्हें औद्योगिकता, तकनीकीयान्त्रिकता और वैज्ञानिकता कहा जाता है परन्तु भारत में वैसा नहीं था। यहाँ आधुनिकता अकालप्रसव की तरह है। इसलिए संस्कृतज्ञों के लिए आधुनिकता बोध नहीं अपितु एक मानसिक धक्का (मेण्टल शाक) है। यही कारण है कि संस्कृतज्ञों और संस्कृत साहित्यकारों के दो समकेन्द्रित सन्दर्भ हैं – एक भारतीय परम्परागत सन्दर्भ और दूसरा है विश्वगत सन्दर्भ और इस कारण संस्कृत साहित्यकार दोहरा जीवन जी रहा है । आधुनिकता के बोध में संस्कृत साहित्य का दोष यह रहा कि इसका सम्बन्ध रचनात्मक साहित्य से ज्यादा रहा और दार्शनिक चिन्तन लगभग समाप्त हो गया। अस्तित्व और स्वयं के सम्बन्ध में साहित्यकारों ने प्रश्न नए ढंग से नही किये। जिसके कारण स्वतन्त्र संस्कृत दर्शन उत्पन्न नहीं हुआ है। यूरोप में आधुनिकता सम्पूर्ण गुम्फ के साथ उत्पन्न हुई है अतः उसका बोध खाण्डित या आभास मात्र नहीं है जबकि संस्कृत साहित्य में यह बोध खण्डित है। संस्कारों का आत्मिक संघात (स्पिरचुअल इन्टरेक्शन) के अभाव में आधुनिकता का फैशन तो प्राप्त हो सकता है , आधुनिकता नहीं। आधुनिकता मूल्य या तथ्य नहीं है वह संस्कार प्रवाह या स्वाभाव है। प्रत्येक आधुनिकतावादी अस्तित्ववादी तो नहीं होता है परन्तु अस्तित्व को सर्वाधिक प्राथमिकता देता है और साथ ही उसका आवधारणा या कान्सेप्ट से, आईडिया से सम्बन्ध प्राथमिकता नहीं है। संक्रान्तिकालीन मूड/ चित्तवृत्ति या प्रश्नगर्भी संक्रान्ति के प्रति सचेतता को आधुनिकता कहते हैं और यह सचेतता क्रान्ति या साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। महायुद्धों के प्रभाव से उत्पन्न वैचारिकता के तीन आयाम हैं – १. त्रास या भविष्य का आतङ्क, २. प्राचीन मूल्यों के प्रति मोह भङ्ग, ३. आत्माभिज्ञान (आईडेन्टिटी) के लिए छटपटाहट और जो मानस, जो सहृदय इसके प्रति सचेत है वही आधुनिक है। इसी के साथ यह भी ध्यान योग्य है कि आधुनिकता के दो रूप हैं एक है – पुरानी आधुनिकता जो मूल्य आधारित है और दूसरी है – नई आधुनिकता जो मूल्यों के प्रति मोहभग से उत्पन्न । संस्कृत साहित्य के सन्दर्भ में प्रथम संक्रान्ति काल वह था जब संशय या सन्देह से अनेकान्तवाद, अनात्मवाद और आत्मवाद आविर्भूत हुए। संस्कृत साहित्य का दूसरा संक्रान्ति काल मुस्लिम आक्रान्ताओं के आने पर आरम्भ हुआ, जिसमें संस्कृत साहित्य पड़ती हुई मार में अपने जीने का आधार भक्ति में खोजने में लग गया और तीसरा संस्कृत का संक्रान्तिकाल स्वतन्त्रता पूर्व समाज-सुधार आन्दोलनों से आरम्भ हुआ । सती प्रथा और जाति प्रथा के विरोध में और शिक्षा के समर्थन में लोग आने लगे थे। तब वह पुराना संस्कृत साहित्य आधुनिक होने का प्रयत्न कर रहा था। सामाजिक-सुधार के आन्दोलन के सूत्रधार मूल रूप में संस्कृत साहित्यकार ही थे, वे चाहे अम्बिकादत्त व्यास थे, स्वामी दयानन्द थे । सामाजिक सुधार वाले संस्कृतज्ञों की इस प्रथम कोटि की इस धारा के साथ संस्कृत साहित्यकारों की एक और धारा दृष्टिगोचर होती है वह है स्वतन्त्रता सेनानियों और क्रान्तिकारियों की। जैसे - बंकिम चन्द्र चैटर्जी आदि अपने संस्कृतज्ञ होने का प्रमाण वन्दे मातरम् के रूप में दे गए। बल्कि बंकिम चन्द्र चैटर्जी को तो ऋषि ही माना जाता है । इनके साथ ही एक तीसरे प्रकार के संस्कृत साहित्यकार ओर थे जिनका उल्लेख इतिहास के पृष्ठों में नहीं मिलता । वे ऐसे संस्कृत साहित्यकार थे जो अपने घरों में घोर दरिद्रता और संकटों में भी साहित्य रचना करते रहे । अभावग्रस्तता भी संस्कृत और उसकी रचनाधर्मिता के प्रति उन लोगों में विमुखता या अनास्था नहीं ला सकी। इन संस्कृतज्ञों ने कोई बड़े काम नहीं किए, बड़े नारे नहीं दिए, युद्ध और हिंसा नहीं की परन्तु साहित्य रचना के व्रत का निर्वाह पूरी निष्ठा से किया। कुल मिलाकर उपरोक्त प्रकार के संस्कृत साहित्यकारों का योगदान स्वतन्त्रता प्राप्ति तक बहुत स्पष्ट रूप से विचार और व्यवहार के स्तर पर दिखाई देता है।
संस्कृत साहित्य की आधुनिकता की चतुर्थ संक्रान्ति काल आरम्भ हुआ १९४७ की स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जिसमें संस्कृत साहित्य के विचार और व्यवहार की दशा और दिशा बिल्कुल अचानक एकदम बदल गई। स्वतन्त्र भारत में नए आधुनिक संस्कृत साहित्यकारों की दशा और दिशा की बात बहुत कुछ सन्देहास्पद हो गई । क्योंकि जब तक स्वतन्त्रता प्राप्त नही हुई थी तब तक तो नेताओं के पास एक लक्ष्य था, आज़ादी का, स्वतन्त्रता का, स्वाधीनता का । परन्तु जिस दिन वह स्वाधीनता, स्वतन्त्रता, आज़ादी मिल गई उस दिन वह लक्ष्य भी समाप्त हो गया, लक्ष्य से जुड़ी सभी साहित्यिक क्रियाएँ अर्थहीन हो गईं और नेताओं और साहित्यकारों के सामने प्रश्न उपस्थित हो गया कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद क्या करें और कैसे करें ? इस प्रश्न के उत्तर का चुनाव नेहरूवादी विचारधारा ने औद्योगिकरण के माध्यम से नए भारत के निर्माण का किया । आनन फानन में किए गए औद्योगिक भारत के निर्माण की कल्पना ने सारे भारत के इतिहास, परम्परा, मूल्यों, विचारों और व्यवहारों में विसङ्गति पैदा कर दी और संस्कृत साहित्य और साहित्यकार हाशिए पर जा खड़ा हुआ ।
इस समय इस लोक में ऐसे 'संस्कृत साहित्य की क्या दशा है और क्या दिशा है' यह् जानने के लिए हम अपने से प्रश्न करें कि कौन सा संस्कृत साहित्य ऐसा है जो १. उपयोगितापूर्ण, २. सार्थक, ३. प्रासङ्गिक, ४. वर्तमान परिस्थितियों के प्रति अनुकूल, ५. यथार्थपरक ६. आजीविका प्रदान करेने वाला, ७. वैचारिकतापूर्ण, ८. जीवन दृष्टि युक्त, ९. जीवन पद्धति की विसंगतियों को स्प्ष्ट करने वाला, १०. छात्रों के प्रति उत्तरदायित्वपूर्ण, ११. संस्कृत की प्रतिष्ठा [औद्योगिक एवम् सामाजिक] को स्थापित करने वाला, १२.
रुचिरता और आकर्षण [ग्लैमर] से पूर्ण, १३. स्मार्ट एवम् डायेनेमिकता युक्त, १४. अग्रसरता एवम् परिवर्तनशीलता से युक्त, १८. मार्किट डिमाण्ड से युक्त है? ऐसा कौन सा संस्कृत साहित्य है जो गुणवान्, वीर्यवान् सुसंगत, सार्थक, उपयोगी, प्रायोगिक, आजीविका देने वाला, नई वैचारिकता को स्थापित करने वाला, नई पूञ्जीवादी व्यवस्था को चुनौति देने वाला, वैकल्पिक समाज व्यवस्था देने वाला, अन्य भाषाओं के विचारकों , साहित्यकारों में कौतुहल उत्पन्न कर प्रभावित करने वाला है? संसार के इस युद्धक्षेत्र में किस संस्कृत साहित्य के विचारों से सरकारें भी भयभीत होती हैं – ऐसा प्रश्न विचार करने पर हमारी दशा और दिशा स्पष्ट हो जाती है। इस प्रश्न को को व्यक्तिगत आक्षेप के रूप में लेने की आवश्यकता नहीं है। यह प्रश्न किसी के भी रचनाधर्मिता पर प्रश्नचिन्ह नहीं है। परन्तु कौतुहल का विषय है कि विगत ६० वर्षों में कितने आधुनिक संस्कृत काव्यों , नाटकों, कथाओं का अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ या कौन सी नई विचारधारा की स्थापना की गई। ऐसी जिज्ञासा के उत्पन्न होते ही उत्तर की खोज के विषय में यह जान लेना चाहिए कि जिस देश और जाति के पास जितना बड़ा इतिहास होता है समुन्नत संस्कृति, धार्मिक उदात्त दृष्टि एवम् श्रेष्ठ साहित्य होता है, उसके दो ही परिणाम हुआ करते हैं या तो वे सामान्य व्यक्ति की भाँति अपने अतीत का गौरव गान करते हुए अपनी हीनता को छुपाते रहें या अतीत की उस महिमा मण्डित महाद्वीपता के समकक्ष अपना भी कोई यशद्वीप समानान्तर रूप से निर्मित एवम् विकसित करें। यह अथवा वाला यह कार्य उतना सामान्य नहीं है। इसके लिए असामान्य वर्चस्व और निर्मम संकल्प की अपेक्षा होती है। अतीत को वर्तमान बनाकर भविष्य के रूप में प्रस्तुत कर देना भगीरथ व्यक्तित्व की माँग रखता है । वैसे तो सभी देशों, जातियों, सभ्यताओं के पास या तो अतीत की पौराणिकता है या मध्यकालीन ऐतिहासिकता की कुछ न कुछ परम्पराएँ हैं, जिन पर वे उचित अनुचित गर्व कर सकते हैं परन्तु संस्कृत साहित्यकारों की कठिनाई दूसरी सभ्यताओं, जातियों और देशों से बहुत अधिक है। इतिहास के क्रम में अधिकांश सभ्यताएँ अपने अतीत से कट कर सर्वथा भिन्न भाव भूमि ग्रहण कर चुकी हैं, अत: उनका अतीत एक प्रकार से उनके रचनात्मक व्यक्तित्व के लिए समाप्त हो चुका है । परन्तु संस्कृत साहित्यकारों की कठिनाई यह है कि एक ओर वे बहुश्रुत तथा बहुविध परम्पराओं से मण्डित हैं और दूसरी ओर उनकी अस्मिता पर गत दो-ढ़ाई सहस्र वर्षों से क्षारपर्तें निरन्तर गिरते-गिरते इतनी कड़ी हो गई हैं कि राम, कृष्ण, विवेकानन्द, दयानन्द, गान्धी या अरविन्द द्वारा किए जाने वाले मोह भंग से भी इनका स्वत्व जाग्रत नहीं होता । इस अस्मिता हीनता और जड़ता में थोड़ा ही अन्तर रह गया है । भले ही संस्कृत साहित्यकार अपनी अस्मिता हरण के लिए सामी (sematic thinking) वैचारिकता को दोषी ठहरा दें परन्तु अब उन्हें किसी बाहरी शत्रु की आवश्यकता नहीं रह गई है।
इसी उपरोक्त कथन का यह पक्ष भी स्पष्ट कर लें कि संस्कृत साहित्यकार एक ऐसा उभयधर्मी प्राणी है जो एक साथ दो विश्वों में रहता है - एक तो विश्व तो वह है जो उसे दिया गया है जो जड़, जीवन और चेतना का विश्व है और दूसरा विश्व वह है जो स्वयं संस्कृतज्ञों द्वारा बनाया हुआ है, जो प्रतीकों का विश्व है। संस्कृत साहित्यकार अपनी विचार प्रक्रिया में भाषात्मक, गणितीय, चित्रात्मक, संगीतात्मक, कर्मकाण्ड सम्बन्धी आदि विभिन्न प्रकार की प्रतीक प्रणालियों का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार की प्रतीक-प्रणालियों के अभाव में कोई कला, साहित्य, विज्ञान, विधियाँ, दर्शन सम्भव नहीं। इनके अभाव में सभ्यता का आरम्भ ही सम्भव नहीं है। अत: प्रतीक अपरिहार्य हैं। संस्कृत साहित्यकरों का इतिहास भली भाँति स्पष्ट करता है कि ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में प्रतीकों की शब्दावली में विचार कर तदनुसार क्रिया करके प्रकृति की मूलभूत शक्तियों को उन्होंने समझा, सावधानी से उनका विश्लेषण किया तथा भौतिक अस्तित्व के उद्घाटित होने वाले तथ्यों के साथ उनका उत्तरोत्तर सामञ्जस्य किया - जो नितान्त उचित था और प्रशंसा के योग्य है परन्तु वर्तमान कालिक संस्कृत साहित्यकार क्या कर रहा है? -यह बात आग्रहपूर्वक विचार की अपेक्षा करती है क्योंकि किसी भी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक-पारिवारिक-वैश्विक समस्या के समाधान के लिए जो कुछ भी श्लोकों को संस्कृत साहित्यकार उद्धृत करते हैं तो नि:सन्देह वे उसे दोहराते हैं? और जिसे दोहराया जाता है वह सत्य नहीं हो सकता । सत्य दोहराया नहीं जा सकता ।
जिन संस्कृत साहित्यकारों का यह मत है या विश्वास है कि इतिहास या परम्परा के नाम पर प्रदत्त प्रतीक प्रणाली या शब्द पूर्णतया उपादेय हैं, उसका महत्त्व सर्वाधिक है - यह बात या विश्वास उनको और उनका अनुमोदन करने वालों को मुक्ति की ओर नहीं ले जाती, हाँ इतिहास की ओर, प्राचीन विपत्तियों की ओर ही ले जाती है और ध्यान रखने योग्य बात यह भी है कि विश्वास अनिवार्यत:विभाजित करता है। यदि संस्कृत साहित्यकार के रूप में आपका कोई विश्वास है या आप किसी विशेष विश्वास में सुरक्षा खोजते हैं तो आप उन व्यक्तियों से पृथक् हो जाते हैं जो किसी दूसरे प्रकार के विश्वास में सुरक्षा खोजते हैं। सभी संगठित विश्वास विभाजन पर आधारित हैं यद्यपि हम सभी भ्रातृत्व का उपदेश करते हैं। जिस साहित्यकार ने प्रदत्तों और प्रतीकों के दोनों विश्वों के साथ अपने सम्बन्ध की समस्या हल कर ली वही वास्तविक संस्कृत साहित्यकार है जिसका कोई पूर्व घोषित विश्वास नहीं है- जैसे वैदिक ऋषि। जहाँ तक उसके व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का सम्बन्ध है वह कार्यवाहक प्राक-कल्पनाओं की श्रृंखला को स्वीकार करता है । वे उसकी आवश्यकताओं को पूरा करती है परन्तु वे प्राक्कल्पनाएँ उसके लिए एक माध्यम, एक साधन से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं । अपने साथी प्राणियों, जीवों के प्रति और उस यथार्थ के प्रति जिसमें वे सब अवस्थित और व्यवस्थित हैं उसके पास प्रेम एवम् साक्षात् प्रातिभ अनुभव हैं।
इसके विपरीत सामान्य रूप से वे संस्कृत साहित्यकार सर्वदा एक ऐसी चुनौती को देखते हैं, जो सदा नवीन होती है उसके प्रति किसी प्राचीन प्रारूप के अनुरूप प्रतिक्रिया करते हैं इसलिए उस प्रतिक्रिया में उस चुनौती की तदुनुरूप यथार्थता, नवीनता, ताज़ापन नहीं होता है। अत: ऐसे संस्कृत साहित्यकार की प्रतिक्रिया की कोई सार्थकता नहीं है और न ही पुरानी प्रतिबद्धता के अनुसार की गई प्रतिक्रिया चुनौती को समझने में सक्षम बनाती है।
नवीन चुनौती का सामना करने के लिए आवश्यक है कि संस्कृत साहित्यकार अपने को आवरणों से पूर्णतया मुक्त कर दे, अपनी पृष्ठभूमि का पूर्ण तथा परित्याग कर दे और तब नवीन चुनौती का सामना करे जैसे स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द या श्री अरविन्द या गान्धी। दूसरे शब्दों में प्रतीकों को रुढ़ सिद्धान्तों के स्तर पर नहीं लाना चाहिए और कभी भी विचार प्रणाली को एक कार्य निर्वाही सुविधा से अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए। फार्मूलों में विश्वास के अनुसार कर्म समस्या का समाधान नहीं दे सकते। अत: संस्कृत साहित्यकार अपने प्रति सर्जनशील बोध के द्वारा ही एक सर्जनशील संसार, सर्जनशील भारत को सम्भव कर सकते हैं। तब आज के समय की संस्कृत कविता, नाटक प्रभावी हो जाएँगे जब हम यह समझ पाएँगे कि जीवन के तथ्यों और मनुष्य के भावों में आज इतनी तीव्रता से विस्तार हो रहा है कि संस्कृत भाषा के शब्द इस गुणात्मक परिवर्तन के साथ पग से पग मिलाकर चल नहीं पा रहे हैं। तथ्य शब्द में पूरा-पूरा व्याप्त या स्थिर नहीं हो पा रहा है। यह पद पदार्थ को आज सम्पूर्णत: व्यक्त करने में अपर्याप्त सिद्ध हो रहा है। सामान्य स्थिति में पूरी ईमानदारी से चेष्टा करने पर भी भाषिक विडम्बना का बोध पग-पग पर होता है - विशेषत: अवधारणात्मक (कान्सेप्च्युल) शब्दों के सन्दर्भ में।
दूसरी ओर उस संस्कृत साहित्य को मान्यता देनी चाहिए जो अभी स्पष्ट रूप से अपनी उपस्थिति स्थापित नहीं कर पाई है परन्तु वह उभर रही है वह है प्रयोगधर्मी संस्कृत साहित्य जो संस्कृत का उपयोग ज्ञान प्रबन्धन, समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, कम्प्यूटर्स, मानवाधिकार, पर्यावरण, आदि के क्षेत्रों में का व्यावहारिक प्रयत्न कर रहा है ताकि सँस्कृत पढ़ने वाले वर्तमान और भविष्यकालिक छात्रों को यह विश्वास दिला सकें कि सँस्कृत के नाम पर जो कुछ भी वे पढ़ रहे हैं या पढ़ाया जा रहा है वह न केवल आजीविका की प्राप्ति के प्रति आश्वस्त करेगा बल्कि स्थानीय, देशिक एवम् विश्व स्तर पर घटित होने वाले परिवर्तनों, समस्याओं एवम् प्रभावों के प्रति अपना दृष्टिकोण, अपना मत, अपनी राय और समझ और व्यक्तित्व विकसित कर सकेगा । क्योंकि व्यावहारिक परिवेश में जहाँ बेईमानी ही सर्वमान्य ईमान है और अस्पष्टता ही सर्वश्रेष्ठ रणनीति है, यह भाषिक त्रासदी और भी भयावह हो गई है । भाषिक कपटाचार के कारण 'डेमोक्रेसी, समाजवाद, प्रगतिशील, प्रतिक्रियावादी, पूँजीवाद, सामाजिक न्याय, सर्वहारा नेतृत्व, जनवादी, जनहित, वैश्वीकरण आदि दर्जन या दो दर्जन शब्द अपनी अर्थगत प्रमाणिकता खो कर अविश्वसनीय बन गए हैं। और मनुष्य के स्थान पर उसकी सुविधाएँ प्रधान हो गई हैं जिसके कारण व्यष्टि और समष्टि स्तर पर समाज में बुद्धिगत और मनोगत दोनों तरह क्रायसिस पैदा हो रहे हैं। इसलिए ऐसी परिस्थिति में संस्कारवान् और विचारशील संस्कृतज्ञ के लिए प्रथम आवश्यकता है, ऐसे साहित्य दृष्टि की जो न केवल उपयोगी हो बल्कि प्रस्तुत आक्षेपों का निराकरण भी कर सके।
इस संस्कृत साहित्य का सार और रूप (form and essence) क्या है जिसके आधार पर इसकी दशा और दिशा का मूल्याँकन किया जाना चाहिए- वे सम्भवतः तीन स्तरों पर हो सकता है –
एक है भौगोलिक आर्थिक-जैविक स्तर पर,
दूसरा ऐतिहासिक अविच्छिन्न विकास के स्तर पर और
तीसरा है अचल मूल्यों के स्तर पर ।
यही आधुनिक संस्कृत साहित्य की मूल प्रकृतियाँ (एसेन्स) होनी चाहिए ताकि प्रथम स्तर पर संस्कृत साहित्य 'काम' और 'अर्थ' सिद्ध करने में सहायता कर सके, दूसरे स्तर पर धर्म नामक पुरुषार्थ को सिद्ध करने में सहायता करे और तीसरे स्तर पर मोक्षधर्म अर्थात् शुद्ध आनन्द जो ऑंशिक रूप से उत्सव, क्रीड़ा, कला, संगीत, साहित्य में और पूर्ण रूप से जीवन को यज्ञार्पित रूप से जीने के मूल्यों की स्थापना करने में योगदान करे जैसे गान्धी, विनोबा अरविन्द, मदनमोहन मालवीय, लोक मान्य तिलक, विवेकानन्द, गोपीनाथ कविराज आदि ने किया ।