Tuesday, October 14, 2008

आंगिरस दर्शन - एक विश्लेषण


आंगिरस दर्शन - एक विश्लेषण
भारतीयता का साक्षात् सम्बन्ध प्रकाश की उपासना से है । प्रकाश के विभिन्न आयामों को जितनी विविधता से इस संस्कृति ने ग्रहण किया है उतना किया अन्य संस्कृति द्वारा नहीं किया गया । उन अनेक आयामों में से एक आयाम है : अग्नि । इस अग्नि ने अपने नाम और रूप के विभिन्न आयामों से जितना अधिक इस आर्ष संस्कृति को प्रभावित किया, इस समाज की दिशा को निर्धारित किया, मानवीय मूल्यों का उत्कर्ष किया, मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण किया वह अपने आप में अद्भुत है । सम्भवत: इसीलिए ऋग्वेद के संकलन के समय पहला मन्त्र अग्नि का ही उपस्थित किया गया है ---- ''अग्निमीडे पुरोहितं ---1 ।''
यह निश्चित है कि आदि-काल में जब अग्नि का आविष्कार हुआ होगा तब अग्नि को उत्पन्न अथवा प्रकट करने वाले लोगों को समाज में विशिष्ट स्थान प्राप्त हो गया होगा । क्योंकि अग्नि तत्कालीन समाज की ऐसी आवश्यकता थी जो न केवल उनके जीवन का आधार ही थी अपितु उनके ज्ञान-विज्ञान, सोच-समझ, दर्शन की भी दिशा की निर्धारक तत्व थी । आदि-मानव के समाज में अग्नि को प्रकट करना अपने आप में एक कला थी जो दो रूपों में दृष्टिगोचर होती है ---
1) लकड़ी के मन्थन से अग्नि को उत्पन्न करने की कला,
ऋग्वेद, 3-29-1 से 12ु
2) उतवनन द्वारा अग्नि को प्रकट करने की कला, जैसा कि यजुर्वेद के मन्त्र 11-21 में कहा है कि
''वयं स्याम सुमतो पृथिव्याऽअग्नि खनन्त उपस्थेऽअस्या: ।'' अर्थात् जब हम धरती को खोद कर उसकी गोद से अग्नि को निकालें तो वह हमारे अनुकूल रहे । ''तत: खनेम तु प्रतीकमग्निं स्वोरूहाणाऽअधि नाकमुत्तमम् ।'' वही, 11-22, अर्थात् वहां से हम अग्नि को खोदें, जो देखने में सुन्दर है और हम उच्चतम आधारतक, स्वर्ग तक चढ़ें । ''पृथिव्या: सधस्थादग्निं पुरिष्यमंगिरस्वत् खनामि । ज्यातिष्मन्तं त्वामग्ने सुप्रतीकमजस्रेण भानुना दीद्यतम् । शवं प्रजाम्योऽहि सन्तं पृथिव्या: सध्सस्याग्निं पुरिष्यमंगिरस्वत् खनाम: । 11-28, अर्थात् जैसा आंगिरस करते थे वैसे ही हे पुरीष्य अग्नि, मैं धरती से तुमको खोद कर निकालता हूँ । इसे कला इसलिए कहा जाएगा क्योंकि सर्वप्रथम अग्नि ही अपने आप में अत्यधिक महत्वपूर्ण है और दूसरा अग्नि से सम्बन्धित जो भी क्रिया होगी वह स्वाभाविक रूप से अतिविशिष्ट होगी और यह अतिवैशिष्टय ही उसे कला के रूप में उपस्थित करता है और तीसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अग्नि से सम्बन्धित किए जाने वाले क्रिया कलाप, उसका संस्कार है । यह संस्कार मानवीय चेतना और भौतिक पदार्थों दोनों को ही संस्कारित करता है क्योंकि तभी यह प्रार्थना सम्भव है ---- ''अग्ने नय सुपया राये ---- ।2''
इस तथ्य को आत्मसात् करने वाले अथर्वन जो कि एक इतिहास पुरुष है, अग्नि के आविष्कर्ता होने के कारण आंगरस कहलाने लगे तथा उनके नाम पर अग्नि का मन्थन करने वालों की पूरी की पूरी जाति आंगिरस नाम से विख्यात हुई । 3 प्रमाण रूप में )ग्वेद के ये मन्त्र महत्वपूर्ण है ---''त्वामग्ने पुष्करादध्यर्थवा निरमन्थत । मूध्नों विश्वस्य बाघत: ।4'' अर्थात् हे अग्नि, ऋषि अथर्वन ने कमल से मन्थन करके पुरोहित विश्व के सिर से तुम्हारा आविर्भाव किया । और भी ---''अग्निर्जातो अथर्वणा विदद् विश्वानि काव्या ।''5 अर्थात् अथर्वन् द्वारा आविर्भूत हे अग्नि, आप सब स्तवनों के ज्ञाता हैं । और भी -- ''इममुत्यमथर्ववदग्नि मन्थन्ति वेधस:'' 6 अर्थात् हे अग्नि, विद्वान आपका मन्थन करते हैं, जैसा कि अथर्वन ने किया ।
वेदों के विभिन्न मन्त्रों में अथर्वन शब्द के विभिन्न रूप दृष्टिगोचर होते हैं जैसे- ऋग्वेद में उपलब्ध रूप है- अथर्वण:, अथर्वणा, अथर्वणि, अथर्वम्य:, अथर्ववत्, अथर्वा, अथर्वाण: । 7 अथर्ववेद में प्राप्त रूप हैं - अथर्व-आंगिरस, अथर्वण:, अथर्वाणं, अथर्वणि, अथर्वणे, अथर्वन्, अथर्ववत्, अथर्वा, अथर्वाण: ।8 तथा यजुर्वेद में उपलब्ध रूप है - अथर्वण:, अथर्वम्य:, अथर्वा, अथर्वाण: ।9 अथर्ववेद के 1612 मन्त्रों के ऋषि अथर्वन के द्वारा अग्नि की खोज कर लिए जाने के बाद बहुत से आंगिरस गोत्रीय अग्नि के मन्थन कर्ता के रूप में प्रसिद्ध हुए । लकड़ी से सफलतापूर्वक आग को मन्थन करके निकालना आसान कार्य नहीं था और ऐसा लगता है कि आग प्रकट करने की कला में इन आंगिरसों ने विशेषज्ञता प्राप्त कर ली थी । इसी कारण इनका समाज में विशेष सम्मानजनक स्थान था ।
यद्यपि एक )षि के रूप में कथर्वन का सम्बन्ध ऋग्वेद की किसी ऋचा से नहीं लेकिन बहुत से आंगिरस अनेक ऋचाओं के )षि हैं । ऋग्वेद में अनेक आंगिरस ऋषियों के नाम मिलते हैं जैसे ----
''अभीवीर्त, अमहीयु, अयास्य, उचथ्य, ऊरू, ऊर्ध्वसद्मा, कुत्स, ड्डतयशा, ड्डष्ण, गृत्समद, घोर, तिरश्चि, दिव्य, धरूण्, ध्रव, नृमेध, पवित्र, पुरूमीढ़, पुरूमेध, पुरूहन्मा, पूतदक्ष, प्रचेता, प्रभूवसु, प्रियमेध, बरू, बिन्दु, बृहस्पति, बृहन्मति, भिक्षु, मूर्धन्वान्, रह्गण, वसुरोचिष, विरूप, विहव्य, वीतहव्य, व्यश्व, शिशु, त्रुतकक्ष, संवनन, संवर्त, सप्तगु, सव्य, सुकक्ष, सुदीति, हरिमन्त, हिरण्यस्तूप । और अथर्ववेद में उल्लिखित आंगिरसों के नाम इस प्रकार हैं ---- अंगिरा, अंगिरा-प्रचेता, प्रचेता-यम, अथर्वांगिरस, तिरश्चि आंगिरस, प्रत्यंगिरस, भृगु आंगिरस ।
इन नामों के संग्रह पर दृष्टिपात करने पर इन के अर्थ की समस्या उत्पन्न होती है जिस के संबंध में विद्वानों के दो तीन समाधान उपलब्ध होते हैं जिसमें पहले मत के अनुसार ये नाम ऐतिहासिक संज्ञाएं हैं, दूसरे मत में ये नाम प्रतीकात्मक है, तीसरे मत में ये नाम विभिन्न आध्यात्मिक सत्ताओं के विभिन्न आयाम हैं । परन्तु ये मत हमें बोध के स्तर पर बहुत दूर नहीं ले जाते । क्योंकि इस दृष्टि से अभी तक हम किसी निश्चित बोध की प्राप्ति तक नहीं पहुंचे इन अर्थों में पूर्णता का अभाव खटकता ही है । इसलिए यदि हम इस दृष्टिकोण से देखें कि ये संज्ञाएं आदिम सभ्यता के मानवों की रूपांतरित चेतनाओं की जीवन दृष्टि के नाम है जिससे उन्होंने सत्य को बिना किसी आग्रह के सरलता से ग्रहण किया । तभी हम सूक्त और ऋषि की एकात्मकता के बोध की सम्भावना कर सकते हैं । नहीं तो हमारे सामने ये दो समस्याएं बिना किसी समाधान के उपस्थित रहेंगी ।
प्रथम समस्या है कि वैदिक ऋषि नामों का, जिन मन्त्रों के वे ऋषि माने गए हैं, उनके साथ क्या कोई विशिष्ट सम्बन्ध है ? क्या ये नाम केवल संज्ञावाचक नाम हैं अथवा किसी प्रकार के प्रतीक हैं या किसी तात्विक विशेषता के बोधक हैं ? यह समस्या निम्नलिखित प्रसंगों में महत्वपूर्ण है ----
1. जहां अग्नि देवता को मंत्रों का ऋषि माना गया है ।
2. जहां ऋषि नाम के साथ देवता संबंधी विशेषण का प्रयोग किया गया है ।जैसे
- इन्द्र अश्वनौ, अग्नि, बृहस्पति के विशेषण के रूप में आंगिरस ।
3. जहां ऋषि का नाम किसी भावना, गुण, अचेतन वस्तुओं के वाचक पदों के
रूप में प्रयुक्त है ।
4. जहां मन्त्र का देवता और ऋषि अभिन्न है । जैसे ऋग्वेद के 10-124-2 में
ऋषि और देवता अग्नि ही है ।
5. जहां मन्त्र में प्रयुक्त शब्द के आधार पर ऋषि नाम का निर्धारण होता है ।
6. जहां मंत्र में ऋषि नाम का अन्य पुरुष, मध्यम पुरुष, संबोधन या बहुवचन
के रूप में प्रयोग हुआ है ।
7. जहां मंत्र का स्वीकृत ऋषि कोई पश्चातकालिक भिन्न व्यक्ति है ।
दूसरी समस्या है जहां ---
1. कुछ मंत्रों के संबंध में भिन्न-2 ऋषियों का उल्लेख मिलता है ।
2. कुछ मंत्रों को अनेक ऋषियों ने सम्मिलित रूप से देखा ।
3. कुछ मंत्रों के ऋषि नाम के संबंध में विकल्प मिलते हैं, जैसे यजुर्वेद के 10-
96 में आंगिरस बरु या ऐन्द्र सर्वहरि, 10-10-7 में दिव्य आंगिरस या दक्षिण प्राजा ।
जो विद्वान ये मानते हैं कि वेद के प्रमुखत: चार ऋषि हैं--- अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा तथा इन्हीं से क्रमश: चार वेदों का प्रादुर्भाव हुआ तो उनके सामने यह समस्या होगी कि यदि ये चारों देवता ही वेद मंत्रों के प्रमुख ऋषि हैं तो इनके ऋषित्व या मन्त्र द्रष्टा होने का क्या अभिप्राय है ?10 इन संज्ञाओं के संबंध में यही समाधान हो सकता है कि ये संज्ञाएं जीवन दृष्टि हैं । जो दृष्टि स्फटिक मणि के समान पारदर्शी है, प्रकाश की किरणों के समान सरल है, अग्नि के समान ओजयुक्त है, आकाश के समान निर्मल है । इस दृष्टि में न तो कोई संकोच है और न ही कोई मलिनता और यही कारण है कि आज तक इन मंत्रों का निर्द्वन्द्व अर्थ पण्डितों और बुद्धिजिवियों के लिए रहस्य बने हुए हैं । इतना अवश्य है कि जो जितना अधिक सरल हुआ है वह उतना ही उसके अनुभव के निकट पहुंचा है, क्योंकि ऋषि की दृष्टि तो --''तद् अपश्यत् तदभवत् तदासीत्'' 11 वाली है । ऋषियों के लिए तो उनका अनुभव शायद रहस्यपूर्ण हो परन्तु उनकी वाणी उनके अपने लिए रहस्यपूर्ण नहीं हो सकती जैसा कि श्री अरविन्द अपनी पुस्तक वेद रहस्य में ऋषियों के अनुभवों को रहस्यवादी सिद्ध करना चाहते हैं।12 क्योंकि ऋषियों को अर्थ के लिए भाषा का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं थी । इस तथ्य को एक मात्र भवभूति ने स्पष्ट समझा और प्रतिपादित किया है कि ऋषि वाणी ऐसी है जिसके पीछे स्वयं अर्थ भागता है और लोक की भाषा ऐसी है जो अर्थ के पीछे भागती है।13 और यह इसलिए था क्योंकि तब तक मंत्रविदेवस्मि नात्मवित् वाली समस्या नहीं थी। जैसे-जैसे यह समस्या बढ़ती चली गई वैसे-वैसे जो सरल से सरलतम था वह रहस्यपूर्ण और निगूढ़ होता चला गया ।
यह निश्चित है कि आंगिरसों का संबंध अग्नि के विभिन्न आयामों से है क्योंकि आंगिरस नाम अग्नि पर्यायवाचक शब्द अथवा नाम के रूप में प्रयुक्त होता है ।14 साथ ही साथ यह भी स्पष्ट होता है कि आंगिरस अग्नि के पुत्र हैं, अग्नि से उत्पन्न हुए हैं।15 सम्भवत: इसी कारण भाष्यकार सायण यास्क और ऐतरेय ब्राह्मण का उद्धरण देते हुए कहते हैं कि जो अंगार थे वे आंगिरस बन गए-- ये अंगारा आसंस्ते आंगिरस्ते अभवन् । अथवा निरुक्तकार का यह मत कि अंगारेष्वंगिरा । अंगारा: अंकना: 3-3-17 अथवा सायण ऋग्वेद के मन्त्र 1-100-4 में आंगिरस की व्युत्पत्ति गत्यर्थक अंग् धातु से करते हुए आंगिरस का अर्थ जाने वाले या जो तेजी से जाते हैं। ये आंगिरस आकाश के पुत्र हैं, ये ऐसे द्रष्टा हैं जो देवों के पुत्र हैं, इन लोगों ने लकडी में छिपी अग्नि को प्राप्त किया और यज्ञ के प्रथम विधान का विचार किया । यज्ञ से इन्होंने अमरता और इन्द्र की मित्रता प्राप्त की । गायों की मुक्ति संबंधी पुराकथा में आंगिरसों का गायन एक विशिष्टता है । ये इन्द्र के साथ गायों को बाहर निकालते हैं और जलों को मुक्त करते हैं । महाभारत के वनपर्व में युधिष्ठिर के एक प्रश्न के उत्तार में मार्कण्डेय ने जो कथा कही है उसमें प्रच्छन्न और अस्पष्ट रूप में आंगिरस का अग्नि के साथ ड्डत्य में तादात्म्य स्थापित किया है । इन आंगिरसों को मूलत: देवों और मनुष्यों के बीच स्थित उच्चतर व्यक्तियों की एक जाति माना जाता था जो अग्नि के सेवक थे । इन लोगों के चरित्र में पौरोहित एक बाद का विकास है । ऐसी सम्भावना भी हो सकती है कि ये लोग आकाश की ओर जरने वाले दूत के रूप में अग्नि की ज्वालाओं के मूख्रतकरण रहे हों । और शायद इसीलिए यह कहा गया है कि ये विविध रूप वाले आंगिरस अग्नि के चारों तरफ और फिर सारे द्युलोक के चारों ओर घूमते हैं । नव तथा दस किरणों वाले आंगिरस्तम देवों में समृद्धि को प्राप्त करते हैं ।16 और यह समृद्धि उन्हें अग्नि के पांच आयामों को प्रकट करने से प्राप्त हुई । ये विभिन्न आयाम हैं--- 1. द्युलोकाग्नि, 2. पर्जन्याग्नि, 3. इहलोकाग्नि, 4. पुरुषाग्नि, 5. योषाग्नि । इसी अग्नि के विभिन्न प्रकाशों अर्थात् आदित्यज्योति, चंद्रज्योति, अग्निज्योति, वाग्ज्योति और आत्मज्योति की उपासना से आंगिरसों ने कवित्व और दार्शनिकता की मूल अवधारणाओं की उपस्थापनाएं की । इनमें से मुख्य अवधारणाएं दो हैं--- 1. प्राण विद्या की अवधारणा और 2. मधुविद्या की अवधारणा । ये दोनों अवधारणाएं एक दूसरे की पूरक है क्योंकि दोनों के समन्वय से ही मानवीय चेतना की कई सौन्दर्यपूर्ण और उत्साहपूर्ण आयामों का विकास हुआ । जिसका प्रत्यक्ष दर्शन हमें भारतीयता के मूल आधार गृहस्थ में सफल होता दिखाई देता है । क्योंकि ''प्राणों वै समंचनप्रसारणं'' 17 अर्थात् सिकुड़ने व फैलने वाला स्पंदन ही प्राण है । विश्व में जितनी गति है, सब स्पंदन रूप है । वही प्राण है । यही प्राण है जो प्रत्येक पुरुष में चेतनात्मक द्वोत्रज प्रजापति के रूप में उसे जीवित रखता है और इस प्राण के साथ प्रज्ञा सहयुक्त है --- यो वै प्राण: सा प्रज्ञा, या प्रज्ञा स प्राण: । स: ह्येतावस्मिन् शरीरे वसत: सहोत्क्रयमत: ।''18 इस प्राण रूप पक्षी की अथर्वांगिरसों को इसकी प्रतिष्ठा कहा गया है--- अथर्वांगिरसों पुच्छं प्रतिष्ठा ।''19 इसके साथ यह तथ्य तो स्वाभाविक रूप से स्वत: सि( है कि बृंहण या स्पंदन अग्नि के बिना नहीं होता । इसी गृहस्थ का प्रथम आधार है पुरुष, जिसे ''अथ य: पुरुष: सोऽग्नि वैश्वानर: ।''20 कहा जाता है । उसकी अग्नि रूप में मधु की आवश्यकता तो स्वाभाविक रूप से बनी ही रहती है । इसी अग्नि को मधु विद्या के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए दघ्यं अथर्वण ने कहा है कि यह अग्नि समस्त भूतों का मधु है और समस्त भूत इस अग्नि के मधु हैं ।''21 इसी मधु बिया का दूसरे दृष्टिकोण से उपपादन करते हुए कहा गया है कि आदित्य निश्चय ही देवताओं का मधु है । इस की उत्तार दिशा की किरण्ों ही मधु नाड़ियां हैं । अथर्वांगिरस श्रुतियां ही मधुकर हैं, पुराण इतिहास ही पुष्प है तथा अमृत ही आप है उन अथर्वांगिरस श्रुतियों ने ही इस इतिहास पुराण को अभितप्त किया । उसी से ही यश, तेज, इन्द्रिय, वीर्य और अन्न आदि रूप रस की उत्पत्ति हुई।22 इस प्राण और मधु का समन्वय ही आंगिरस दर्शन की आधार भूमि है । जैसा कि आचार्य शंकर बृहदारण्यक के मंत्रांश --- ''आंगिरसों अंगांनां हि रस:''23 की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इसको देवताओं ने अंतराकाश में उपलब्ध किया और इसी ने इंद्रियों को अग्नि आदि को देव भाव से युक्त किया । इसी से वह भूत और इंद्रियों का आंगिरस आत्मा है । यह आंगिरस कार्य कारण रूप अंगों का रस अर्थात् सार अर्थात् आत्मा है --- ऐसा प्रसिद्दि है । किंतु अंग रसत्व क्यों है । क्योंकि इसके चले जाने पर शरीर सूख जाता है ।
इस लिए जहां प्राण विद्या आंगिरसों की दार्शनिकता की पृष्ठभूमि है वहीं मधु विद्या उनकी सौन्दर्य दृष्टि की आधार भूमि है । इन ऋषियों की सौंदर्यानुभूति उनके लोक दर्शन को ओर भी अधिक सजीव बना देती है । इन आंगिरसों की सौंदर्य संवेदनाओं का अनुमान उनके द्वारा प्रयुक्त किए जाने वाले अग्नि के प्रकाश संबंधी विशेषणों से सहज ही अनुमानित किया जा सकता है जैसे --- घृतकेश, ज्वालकेश, स्वख्रणम, उज्जवल, ज्वालामय मस्तक इत्यादि । यह अग्नि एक दिव्य पक्षी के समान है । इसकी ज्वालाएं समुद्र की गर्जन करती हुई लहरों के समान है । प्रकाश के प्रति अत्यधिक संवेदनशीलता ने आंगिरसों के ज्ञान को विशिष्टता प्रदान की । तभी कुत्स आंगिरस यजुर्वेद के मंत्र 7-42 में घोषित करते हैं ''चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुमित्रस्य वरूणस्याग्ने: । आप्रा द्यावापृथिवी अंतरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥'' यह प्रकाश दो रूपों में )षि चेतना को प्रभावित करता है --- जीवन के प्रति उत्साहपूर्ण या उल्लासपूर्ण निष्ठा के रूप में और ज्ञान के रूप में । इसीलिए तो दंघ्यंअथर्वण यजुर्वेद के मंत्र 36-24 में कहते हैं कि ''पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतं----'' । और इसी को आंगिरस का मार्ग घोषित करते हुए शांखायन ब्राह्मण का कथन है कि ''तदेतगिंरसामयनं स एनेनायनेन प्रतिपद्यते अंगिरसां सलोकतां सायुज्यामाप्नोति''24 अर्थात् यह आंगिरसों का मार्ग है जो इस मार्ग पर चलता है वह आंगिरसों की सलोकता को और सायुज्यता को प्राप्त करता है । अपने इसी उत्साह के कारण आंगिरसों में से घोर आंगिरस ने आदित्यों के साथ स्वर्ग लोक जाने की र्स्पश की।''25 ड्डष्ण आंगिरस ने ब्राह्मणाच्छंसी के पद के लिए तृतीय सवन का साक्षात्कार किया।''26 और नाभानेदिष्ठमानव ने आंगिरसों से जब उपहव चाहा तो उन्होंने अच्छावाक के ड्डत्य को देखा ।27
प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता के कारण अग्नि और उससे संबंधिन क्रियाकलाप अधिक से अधिक महत्वपूर्ण हो गए जिसके कारण भारतीय संस्ड्डति इसी अग्नि के इर्द गिर्द विकसित होती चली गई । क्योंकि संस्कार करने की क्षमता तो अग्नि में ही है । इसी तथ्य को आंगिरसों ने अपने जीवन का सार बना लिया और अग्नि का भारतीयों के कौटुम्बिक जीवन के केन्द्र के रूप में संबंध इतना घनिष्ठ हो गया कि वह अग्नि केवल हवियों का एक निष्क्रिय ग्रहण्ाकर्ता मात्र नहीं रहा अपितु पृथ्वी और द्युलोक के बीच मध्यस्थ बन गया, एक संवाद बन गया । इसलिए जीवन दर्शन की दृष्टि से आंगिरस एक व्यापक शब्द है क्योंकि कि इसमें वह सब कुछ आ जाता है जो लोक मानस में लोक जीवन में निहित है । संहिता भाग में आंगिरस दर्शन आदिम भौतिकवाद और आदिम अध्यात्मवाद के रूप में दिखाई देता है जो बाद में विशु( अध्यात्मवाद में परिणत होता चला गया । यह बात कहने का साहस इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि यह दर्शन एक साथ इहलोकवादी एवं कामना प्रधान है तो दूसरी ओर श्र(ा सम्पृक्त एवं रहस्य प्रवण भी है । इसका जन्म भय और लोप से ही नहीं, सौंदर्यबोध से भी हुआ है । इसी कारण संवर्त आंगिरस ने त्रिपुरा रहस्य में अग्नि सामान्य का यज्ञाग्नि के रूप में विशिष्ट संस्कार से उदात्तीकरण कर के उस अग्नि को तंत्रों की चिदग्निकुण्डसम्भूता रूपी श्रीविद्या के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया ।
संक्षेप में इस दर्शन की विशिष्टताएं इस रूप में स्वीकार की जा सकती है -
1. आंगिरस दर्शन अपौरूषेय है क्योंकि इसका जनक रूवक्ति नहीं परम्परा है ।
2. आंगिरस दर्शन का अर्थ लोकविद्या है ।
3. इस दर्शन की दृष्टिभंगी कामना प्रधान और सुख प्रधान है किन्तु साथ ही साथ उपासनावादी और अध्यात्मवादी भी है ।
4. यह दर्शन रसवादी एवं समन्वयवादी है ।
5. इस दर्शन में जिज्ञासा, रहस्यबोध, सोंदर्यबोध तथा आदिम भय सहोदर रूप में
निहित है ।
परिशिष्ट
ऋग्वेद में आंगिरस शब्द के वैय्याकरणिक रूप इस प्रकार के उपलब्ध होते हैं :-
1. अंगारा: ---- 10-34-9,
2. अंगिर: ---- 1-9-6, 31-17, 74-5, 112-18, 2-23-18, 4-3-15, 9-7,
5-8-4, 10-7, 11-6, 21-1, 6-2-10, 16-11, 8-60-2, 74-
11, 75-5, 84-4, 102-17,
3. अंगिरितम: --- 1-75-2, 8-83-18, ?-27, 44-8,
4. अंगिर:ऽतम: --- 1-31-2, 100-4, 130-3, 9-107-6, 10-62-6,
5. अंगिर:तमम् --- 8-23-10,
6. अंगिर:ऽतमा --- 7-75-1, 79-3,
7. अंगिर:ऽभि: --- 1-62-5, 100-4, 2-15-8, 4-16-8, 6-18-5, 7-44-4,
10-14-3, 5, 111-4,
8. अंगिर:ऽम्य: ---1-521-3, 132-4, 139-7, 8-15, 63-3, 9-62-9, 86-23,
9. अङ.गिरस: --- 1-62-2, 71-2, 3-53-7, 4-2-15, 3-11, 5-11-6, 45-8,
6-65-5, 7-42-1, 52-3, 10-14-6, 62-5, 67-2, 78-5,
108-8,105-?, 169-2,
10. अङ.गिरसा --- 10-62-1 से 4
11. अङ.गिरसाम् ---1-62-3, 107-2, 121-1, ?-3, 127-2, 2-20-5, 6-11-3,
10-70-9,
12. अङ.गिरस्वत् --- 1-31-17, 45-3, 62-1, 78-3, 2-171, 3-31-19, 6-49-
11, 8-40-12, 43-13,
13. अङ.गिरस्वन्ते --- 8-35-14,
14. अङ.गिरस्वान् --- 2-11-20, 6-17-6,
15. अङ.गिरा: --- 1-31-1, 83-4, 139-9, 3-31-7, 5-45-7,10-92-15,
16. अङ.गिरे --- 4-51-4,
17. आङ.गिरस: --- 6-73-1, 10-47-6, 68-2, 149-5, 164-4,
18. आङ.गिरसस्य --- 4-40-1,
19. आङ.गिरसान् --- 6-35-5,
खिल-मंत्रों में उपलब्ध आंगिरस पदों की सूची इस प्रकार है :-
1. अंगार: --- 3-15-20,
2. अंगिर: --- 2-13-4, 5-20-4,
3. अंगिरस: --- 4-5-9, 4-8-9,
4. अंगिरसाम् --- 3-15-30, 32, 5-1-3,
5. अंगिरस्तम् --- 2-13-5,
6. अंगिरस्वत् --- 4-9-3,
7. अंगिरोम्य: --- 4-20-1,
8. आंगिरसम् --- 1-2-9, 2-4-2,
आङ.गिरसों के नाम से आरम्भ होने वाले ऋग्वेद के मंत्र इस प्रकार हैं :-
1. अङ. गिरसों न: पितर: नवग्वा अर्थवाणा भृगव: सोम्यास: ।
तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ॥ 10-14-6
2. अङ. गिरस्वन्ता उत विष्णुवन्ता मरुत्वन्ता जरितुर्गच्छयोहवम् ।
सजोषसा उषसा सूर्येण चादित्यैयातमश्विना ॥ 8-35-14,
3. अङ. गिरोभिरा गहि यज्ञियेभिर्यम् वैरुषैरिह मादयस्व ।
विवस्वन्तं हुवे य: पिता तेऽस्मिन्यज्ञ बहिंष्या निषध ॥ 10-14-5
आङ.गिरसों को देवता स्वीकार करने वाले )ग्वेद के मंत्र इस प्रकार हैं :-
1. 10-62-1 से 6,
ऋग्वेद में उपलब्ध आङ.गिरस ऋषियों की सूची इस प्रकार है :-
1. अभीवर्त आङ. गिरस --- 10-174,
2. अमहीयु: आङ. गिरस --- 9-61,
3. अयास्य आङ. गिरस --- 9-44, 9-46, 10-67, 10-68,
4. उचथ्य '' '' --- 9-50 से 52,
5. ऊरु --- 9-108-4, 5,
6. कुत्स --- 1-94-18, 1-101 से 115, 9-97-45 से 58,
7. ड्डतशया --- 9-108-10 से 11,
8. ड्डष्ण --- 8-85, 8-86, 8-87, 10-42 से 44,
9. गृत्समद --- 2-1 से 3, 2-8 से 43, 9-86-46 से 48,
10. घोर --- 3-36-10,
11. तिरश्ची --- 8-95, 8-95,
12. दिव्य --- 10-107,
13. धरूण --- 5-15,
14. ध्रुव --- 10-173,
15. नृमेध --- 8-89, 8-90, 8-98, 8-99, 9-27, 9-29,
16. पवित्र --- 9-67-22 से 32, 9-73, 9-83,
17. पुरुमीळह --- 8-71,
18. पुरूमेध --- 8-89, 8-90,
19. पुरूहन्मा --- 8-70,
20. पूतदक्ष --- 8-94,
21. प्रचेता --- 10-164
22. प्रभुवसु --- 5-35, 5-36, 9-35, 9-36
23. प्रियमेध --- 8-2-1 से 40, 8-68, 8-69, 8-87, 9-28
24. बरू --- 10-96
25. बिन्दु --- 8-94, 9-30
26. बृहन्मति --- 9-39, 9-40
27. बृहस्पति --- 10-71, 10-72
28. भिक्षु --- 10-117
29. मूर्धन्वान् --- 10-88
30. रह्गण --- 9-37, 9-38
31. वसुरोचिष --- 8-34-16 से 18
32. विरूप --- 8-34, 8-44, 8-75
33. विहव्य --- 10-128
34. वीतहव्य --- 6-15
35. व्यश्व --- 8-26
36. शश्वत्याङ. गिरसी --- 8-1-34
37. शिशु --- 9-112
38. श्रुतकक्ष --- 8-92
39. सैंवनन --- 10-191
40. संवर्त --- 10-172
41. सप्तगु --- 10-47
42. सव्य --- 1-51 से 57
43. सुकक्ष --- 8-92, 8-93
44. सुदीति --- 8-71
45. हरिमन्त --- 9-72
46. हिरण्यस्तूप --- 1-11-35, 9-4, 9-69
ऋग्वेद में प्राप्त स्त्री आङ.गिरस ऋषि का नाम इस प्रकार है:-
शश्वती आङ. गिरसी
यजुर्वेद में प्राप्त होने वाले आंगिरस ऋषि तथा उनसे संबंधित मंत्रों का विवरण इस प्रकार है :-
1.अंगिरस/आंगिरस: --4-10, 20-36 से 46, 7-43 से 48, 8-1 से 3, 3-1
2. कुत्स --- 7-42, 8-4, 8-5
3. बृहस्पति --- 2-11 से 13
4. हिरण्यस्तूप --- 33-43, 34-12 से 13, 24 से 27, 31
अथर्ववेद में प्राप्त आंगिरस ऋषि तथा उनसे संबंधित मंत्रों का विवरण इस प्रकार है :-
1. अंगिरा: ---2-35, 4-39, 5-12, 6-45 से 48, 7-50 से 51, 7-90, 7-95,
19-22, 19-34 से 35
2. अथर्वांगिरस --- 4-8, 6-72, 6-74, 6-83 से 84, 6-94, 6-101, 6-128,
7-78, 7-120 से 123, 19-3 से 5,
3. तिरश्चि --- ?-20, 137-7 से 11
4. प्रत्यंगिरस --- 10-1
5. भृग्वंगिरा --- 1-12 से 14, 1-25, 2-8 से 10, 3-7, 3-11, 4-11, 5-4, 5-
22, 6-20, 6-42, 6-43, 6-91, 6-95, 6-96, 6-127, 7-
31 से 32,7-93, 8-8, 9-3, 9-8, 11-12, 19-29, 19-39
5. भृग्वंगिरा ब्रह्मा --- 19-72
सामवेद में प्राप्त आंगिरस )षि तथा उनसे संबंधित मंत्रों की सूची इस प्रकार है :-
1. अमहीयु ---467, 470, 479, 484, 487, 494, 495, 510, 592,
593, 672 से 674, 762,778 से 780, 787 से 789, 815 से
817, 889 से 891, 1081 से 1083,
1210 से 1212, 1335 से 1337
2. अयास्य --- 509
3. उचय्य --- 496, 499, 1205 से 1209, 1225 से 1227,
4. उरू --- 584, 93
5. उर्ध्वसद्मा --- 599, 1011, 1395
6. कुत्स --- 66, 380, 541, 590, 626, 1064 से 1066, 1104 से
1106, 1426 से 1428, 1748 से 1751
7. ड्डतयशा --- 584, 1012
8. गौर --- 458
9. तिरश्चि --- 346, 349, 351, 883 से 885, 1402 से 1404
10. नृमेध --- 248, 257, 258, 267, 269, 283, 302, 311, 388,
393, 405, 406, 601, 710 से 712, 813, 814, 1025 से
1027, 1169 से 1171, 1247 से 1249, 1284 अन्त के
तीन पादु,1285प्रथम पादु, 1319,1320,1411, 412, 1429से
1431, 1492, 1493, 1637, 1638, 1765 से 1767,
11. पवित्र --- 565, 596, 875 से 877, 1298 से 1303,
12. पुरूमीढ़ --- 1554, 1555,
13. पुरूमेध--- 248, 257, 258, 269, 601, 1411, 1412, 1429से 1431,
1492, 1493,
14. पुरूहन्मा --- 243, 268, 273, 862, 863, 933, 934,1155, 1156,
15. पूतदक्ष --- 149, 174, 1785 से 1787,
16. प्रियमेध --- 123, 124, 157, 168, 225, 227, 354, 360, 362, 364,
719 से 321, 1280 से 1283, 1284 प्रथमपादु, 1489 से
1491, 1512, 1657 से 1659, 1768 से 1773,
17. बिन्दु --- 149, 174, 1785 से 1787,
18. बृहन्मति --- 488, 898 से 903, 924 से 926,
19. रह्गण --- 1274, 1279, 1292 से 1297,
20. विरूप --- 27, 1532 से 1534, 1541 से 1543, 1648 से 1650, 1711
से 1713,
21. संवर्त --- 443, 451,
22. सप्गु --- 317,
23. सव्य --- 373, 376, 377,
24. सुकक्ष --- 116, 125, 126, 150, 151, 155, 158, 170, 173, 188,
197, 199, 208, 213, 713 से 715, 722 से 724, 824 से
826, 1222 से 1224, 1550 से 1552, 1586, 1642 से
1644, 1660 से 1662, 1790 से 1792,
25. सुदीति --- 6, 49, 1554, 1555,
26. हिरण्यस्तूप --- 612, 1047 से 1056, 1370 से 1372

सन्दर्भ - सूची
1) ऋग्वेद, 1-1-1,
2) ईशावास्योपनिषद्, 16,
3) पृष्ठ - 4, भारतीय विज्ञान के कर्णधार, लेखक-सत्यप्रकाश, प्रकाशक - रिसर्च इन्सटीच्यूट आफ एन्शेण्ट साइण्टिफिक स्टडीज, न्यू देहली । 1967
4) ऋग्वेद, 6-11-3,
5) वही, 10-21-5,
6) वही, 6-15-17,
7) 6-16-14, 10-48-2, 10-21-5, 8-9-7, 6-47-24, 6-12-17, 10-87-12,
1-80-16,83-5, 6-16-13, 10-92-10, 10-120-9, 11-11-2, 10-14-8.
ऋग्वेद
8) 10-7-20, 10-2-27, 6-8-16, 20-140-2, 7-109-1, 5-11-2, 8-3-21, 5-
2-9, 10-2-26, 10-12-17, 18-3-54, 19-4-1, 20-25-5, 4-37-1, 10-
6-20,11-6-13, 18-1-58, 4-1-7, 5-11-11, 7-2-1 । अथर्ववेद
9) 11-33, 30-15, 8-56, 11-32, 15-22, 19-50 । यजुर्वेद
10. पृ. 4, 5, वैदिक ऋषि -- एक परिशीलन, लेखक -- कपिल देव शास्त्री,
प्रकाशक -- कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरूक्षेत्र ।
11. यजुर्वेद, 32-12
12. अभयदेव ड्डत हिन्दी अनुवाद पृ. 213 से 232
13. लौकिकानां हि साध्नामर्थ वागनुवर्तते ।
ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमयों अनुधावति ॥ उत्तर रामचरितम्, 1
14. त्वमग्ने प्रथमों अंगिरा ऋषि: । ऋग्वेद, 1-31-1
त्वमग्ने प्रथमों अंगिरस्तम: । वही, 1-31-2
स नो जुषस्व समिधानों अंगिरों देवो मर्तस्य यशसा सुदीतिभि:।वही, 5-4-8
उत ब्रम्हाण्यंगिरो जुषस्व । वही 4-3-15
15. ते अंगिरस: सूनवस्त अग्ने: परिजीज्ञरे । वही, 10-62-5
16. ये अग्ने: परिजज्ञिरे विरूपासो दिवस्परि ।
नवग्वोनु दश्ग्वो अंगिरस्तम: सच: देवेषु मंहते । वही, 10-62-6
17. शतपथ, 8-14-10,
18. कौषीतिकी,
19. तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्द वल्ली, तृतीय अनुवाक,
20. मैत्रायणी उपनिषद्, 2-6,
21. बृहदारण्यक उपनिषद्, 2-5,
22. छान्दोग्योपनिषद्, 3-4,
23. बृहदारण्यक उपनिषद, 1-3-8,
24. शांखायन ब्राह्मण, अध्याय 18, पृष्ठ-139,
25. वही, अध्याय 30, पृष्ठ-252,
26. वही, पृष्ठ-254,
27. वही, अध्याय 28, पृष्ठ-237,
------इति-------

Friday, October 3, 2008

स्त्री-चेतना एवं भारतीयता की मूलप्रकृति


'स्त्री - चेतना एवम् भारतीयता की मूल प्रकृति का पुनर्विश्लेषण'
आशुतोष आंगिरस , प्रवक्ता, संस्कृत विभाग , अम्बाला छावनी।
ऐसे विषय जो अतिबौद्दिकता, अर्ध-ऐतिहासिकता और अति-परिचय के कारण व्यक्ति और समाज के लिए अस्पष्ट हो गए हाें और उलझ गए हों या जिनका कोई सीधा स्पष्ट उत्तार न हो या जिन विषयों के सम्बन्ध घड़े बन्दियाँ हाें तो वहाँ विषयों को स्पष्ट करने का सरलतम उपाय मूलभूत प्रश्नों को सामने रखने का हो सकता है विशेष रूप से स्त्री चेतना और भारतीय प्रकृति के सन्दर्भ में। अत: उपरोक्त विषय के सम्बन्ध में मैं सरलतम और संक्षिप्त प्रश्न अपने सामने रखना चाहता हँ कि स्त्री मायने क्या या स्त्री होने का क्या अर्थ है ? क्या ऐसी कोई देह जो सन्तानोत्पत्ति करती हो, उसे स्त्री कहेंगें या काई ऐसा अस्तित्व जो पुरूष से भिन्न है या ऐसी कोई अस्मिता जो सजातीय, विजातीय और स्वगत भेद से भिन्न परिभाषित की जा सकती है अथवा सामाजिक सन्दर्भ में माँ, बहिन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका आदि में से स्त्री कौन सी है या व्यक्तिगत स्तर पर एक पुत्र को अपनी माँ को रूप में देखना चाहिए या स्त्री के रूप में ? व्यक्तिगत स्तर पर यह प्रश्न और भी महत्तवपूर्ण हो जाता है क्योंकि स्त्री-अधिकारों के हनन के सन्दर्भ में पुत्र अपने माँ के अधिकारों के लिए संघर्ष करे अथवा उसे स्त्री समझ कर उसके अधिकारों के विषय में निर्णय करें ? ये सारे प्रश्न इसलिए आवश्यक है क्योंकि एक बार 'स्त्री' का निर्णय हो जाए तो 'स्त्री चेतना' और उससे सम्बन्धित अन्य विषयों को ठीक से समझा जा सकता है। और यह समझ इसलिए आवश्यक है क्योंकि हम सभी एक स्वस्थ समाज चाहते हैं जो दैहिक रूप से और मानसिक रूप से भी स्वस्थ हो और यह तभी सम्भव है जब स्त्री दैहिक और मानसिक रूप से स्वस्थ और पूर्ण हो क्योंकि अभी तक हुआ यह है कि सामाजिक विकृतियों को अनुभव कर भारतीय परम्परा को जानने वालों ने स्त्री के पुनरुत्यान का जो आन्दोलन चलाया था वह शीघ्र ही उनके हाथों से फिसल कर औद्योगिक क्रान्ति के बुध्दिजीवियों के अधिकार में आ गया और उन्होंने स्त्री-स्वातन्त्र्य के नाम पर जो व्यापार किया उसका परिणाम टूटते परिवारों, बढ़ते अपराधों और व्यवस्थाओं के चरमराने के रूप में दिखाई देने लगा है। अभी तक भारतीय स्त्री की अस्मिता को दो छोरों ने बाँध रखा था - एक ओर सौभाग्य था और दूसरी ओर मातृवात्सल्य। उसकी प्रकृति ने ही उसे मर्यादित कर रखा था परन्तु अब आधुनिकता ने उसे सौभाग्य के स्थान पर नौकरी या आर्थिक सुरक्षा दी और मातृवात्सल्य के स्थान पर प्राकृतिक प्रजनन शक्ति का नियन्त्रण। यह कहाँ तक स्वस्थ स्त्री और स्वस्थ समाज की रचना में सहायक या उपयोगी है - यह विचारणीय है क्योंकि स्त्री चेतना की सफलता समाज की स्वस्थता पर निर्भर करती है और स्वस्थ समाज ही स्वस्थ स्त्रीत्व का उद्देश्य हैं जिसके लिए स्वातन्त्र्य मूलभूत शर्त है और वह स्वातन्त्र्य दो प्रकार का है - एक है स्त्री का सत्ताा-स्वातन्त्र्य और दूसरा है स्त्री का क्रिया-स्वातन्त्र्य। अत्यन्त सरल एवम् स्थूल शब्दों में स्त्री चेतना के दो स्तर हैं - एक उसके होने का और दूसरा करने का। स्त्री का होना उसका स्वभाव है, उसे पाने के लिए कुछ करना नहीं होता क्योंकि स्त्री तो वह है ही और यह ऐसा भी नहीं है कि वह कुछ ऐसा है जो स्त्री के पास है या स्त्री के अधिकार में है। स्त्री में और स्त्री के होने में किंचित सी भी दूरी नहीं है। वह स्त्री का होना है, उसका अस्तित्व है। दूसरी ओर क्रिया या करना उसकी उपलब्धि है। जो कुछ भी करती है वह बिना किए नहीं हो सकता। स्त्री करेगी तो वह होगा, नहीं करेगी तो नहीं होगा लेकिन जीवन जीने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है और धीरे - धीरे यह सक्रियता ही स्त्री के होने को जानने में बाधा बन जाती है और यही कारण है कि स्त्री का मूल्यांकन पुरूषोचित कर्म करने में होने लग गई है और यह स्पष्ट है कि कर्म या क्रिया पर आधारित पहचान परिधि है, केन्द्र नहीं है। आधुनिक स्त्री का अर्जन, उसकी सम्पदा, जो कुछ भी उसके पास है वह उसके कृत्य ने, उपलब्धि ने केन्द्रभूत स्त्री को आच्छादित कर रखा है। स्त्री का होना उसकी सभी उपलब्धियों से पहले है। कृत्य तो चुनाव है, वह चुना जाए या न चुना जाए, वह किया जाए न किया जाए वह स्त्री के हाथ में है। कृत्य चुना जा सकता है परन्तु अस्तित्व नहीं। इसलिए स्त्री जहाँ एक ओर विशिष्ट बोध सत्ताा है वहीं वह विशिष्ट संस्कार समूह भी है और इन दो प्रकारों ने स्त्री चेतना ने मानव मन को सदा प्रभावित किया है। इसलिए स्त्री- चेतना को मात्र कृत्यों के सन्दर्भ में देखना और उसकी अस्मिता के प्रश्न को अनदेखा करना - दोनों ही स्वस्थ विश्लेषण की अपेक्षा रखते हैं। लेकिन मानवीय दृष्टि की तरह मानव बुद्दि भी एक साथ सभी कोणों से किसी भी तथ्य को समझने मे सशक्त नहीं है इसलिए आवश्यक है कि स्त्री चेतना को तीन दृष्टिकोण्ाों से देखकर समझने का प्रयत्न किया जाए। स्त्री चेतना के भारतीय की दृष्टि में तीन रूप इस प्रकार के हैं - प्रथम पार्थिव रूप से तात्पर्य उसके जैविक, आर्थिक दृष्टि है, दूसरे शाश्वत रूप से तात्पर्य ऐतिहासिक अविच्छिन्न विकास की दृष्टि है और तीसरे चिन्मय रूप से तात्पर्य अचल मूल्य की दृष्टि है या मूल प्रकृति या मेमदबम की दृष्टि है। इन तीन दृष्टिकोणों से विश्लेषण कर स्त्री-चेतना का पार्थिव रूप हमारे घरों, गावों, नगरों, खेतखलिहनों, कार्यालयों, राजनीति, बाजारवाद, उपभोक्तावाद के साधनों में उपस्थित है और इस माध्यम से वह अर्थ और काम की सिध्दि कर रही है। स्त्री चेतना का शाश्वत रूप इतिहास में हजारों वर्षों से क्रमागत रूप से चलायमान है। यह शाश्वत इस अर्थ में ही कि यह अविच्छिन्न रहा है। वस्तुत: शाश्वत शब्द एक काल सम्बन्धी आइडिया देता है जिसे निरन्तर वर्तमान के अर्थ में लेना चाहिए। यह काल का कोई स्थिर बिन्दु नहीं है। यह निरन्तर रहते हुए भी सतत विकासशील और प्रवाह मान भी है क्योंकि यही समाज और व्यक्ति की मानसिक शक्तियों का ढँाचा तैयार करते हैं। इस दृष्टि से स्त्री चेतना अपने धर्म नामक पुरुषार्थ को सफल कर रही है और तीसरा चिन्मय रूप शाश्वतरूप से अधिक सूक्ष्म है जिसका लक्ष्य है पूर्ण स्वस्थता, पूर्ण आनन्द जो ऑंशिक रूप से क्रीड़ा, कला, संगीत, साहित्य आदि में और पूर्ण रूप से जीवन जीने के रूप में मिलता है। इस चिन्मय रूप में ही रुचिबोध और संस्कृति बोध के बीच पनपते हैं। सभी बीजों का स्रोत यही स्त्री का चिन्मय रूप ही है परन्तु उन बीजों का अंकुरण और विकास होता है शाश्वत और पार्थिव सन्दर्भ के अनुसार। सम्भवत: इस प्रकार भारतीय सन्दर्भ मे स्त्री चेतना के पकमंस या मेमदजपंस रूप को समझा जा सकता है और इसके साथ ही मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि स्त्री मेरे लिए कोई विवाद का विषय नहीं है, न हीे यौन लिंगों के नाम पर धड़ेबन्दी का मेरे से सम्बन्ध है और न ही ऐसे लोगों से सम्बन्ध है जो यह समझते है कि स्त्री कोई समझा जाने वाला तत्तव नहीं है, केवल प्रेम की, भोग की वस्तु है। सामान्य व्यक्ति का मन सदा भाषा के स्तर पर ही जीता हे और भाषा तो लिंगों के आधार पर विभाजन मानकर चलती है और केवल ऐतिहासिक दृष्टि से स्त्री-चेतना का अध्ययन द्वन्द्वात्मक संघर्ष को हवा देने की बात है। समाज में व्यवहार में लोक में स्त्री को जैसे भी समझा हो परन्तु सम्वेदनशील मनुष्य के लिए स्त्री सृष्टि का एक मूल तत्तव है जो आकर्षण भी करती है और विकर्षण भी। वह केवल लिंगों तक सीमित नहीं है इसलिए भारतीय सन्दर्भ में स्त्री के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्द तीनों लिंगों में मिलते है-जैसे 'दारा' पुल्लिंग है तो 'कलत्र' नपुंसक लिंग है तो 'नारी' स्त्रीलिंग शब्द हे। सम्भवत: यही कारण है कि एक तत्तव के रूप में स्त्री का सर्वत्र अभिनन्दन ही हुआ है परन्तु व्यक्ति-स्त्री में गुण दोष वाली दृष्टि को यथार्थ मान कर पक्ष और विपक्ष में दोनों तरह की बातें कही गई है अत: स्त्री चेतना के प्रति अभिनन्दन भारतीय प्रकृति के लिए कोई औपचारिकता की बात नहीं है -''विद्या: समस्ता तव देवि भेदा:, स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु॥'' अर्थात् हे देवी! समस्त विद्याएँ और जगत् की समस्त स्त्रियां तुम्हारे ही अनेक रूप हैं।
इस उपरोक्त विश्लेषण के मूल सन्दर्भ भारतीयता की प्रकृति के स्वरूप निर्माण में वैदिक और अवैदिक या आर्य और अनार्य परम्पराओं के तात्तिवक वैचारिक योगदान को भी जान लिया जाए क्योंकि दोनों के अति सूक्ष्म वैचारिक तत्तवों का समन्वय ही भारतीयता की मूल प्रकृति को निर्धारित करते हैं। वैदिक परम्परा के उपलब्ध तत्तव हैं-संस्कृत, यज्ञ, देववाद और आत्म या ब्रह्म। और दूसरी और अवैदिक परम्परा के तत्तव हैं - संसार का मिथ्यात्व, अत्यन्त घोर तप, पूजा - विशेष रूप से आकृति पूजा, ध्यान के प्रति योग के उपाय और अनीश्वरता। इन उपरोक्त चार वैदिक तत्तवों और पाँच अवैदिक तत्तवों के आपसी समन्वय से भारतीयता की मूल प्रकृति का स्वगत लक्षण स्पष्ट करते हैं। वे तत्तव हैं - 1. माया या लीला, 2. कर्म, 3. धर्म, 4. अर्थ, 5. काम, 6. मोक्ष, 7. भक्ति, 8. आकृति उपासना, 9. व्यक्तिगत धार्मिक या आध्यात्मिक अनुभव- इन तत्तवों ने अपनी मिथकीयता या पौराणिकता और प्रतीकात्मकता से भारत की अधिकांश भाषाओं को प्रभावित किया हैं। हलाँकि मिथक और प्रतीक ये दोनों अलग अलग हैं जैसे पुरुष और प्रकृति - ये दोनो बिम्ब प्रतीक हैं - दो तरह की आदिम और सनातन सृजन - शक्तियों के जिनके युगबध्द होने पर ही सृष्टि सम्भव हे परन्तु शिव र्पावती आदि के बिम्ब इसी तथ्य के मिथकीय रूप हैं। ये प्रतीक किसी तथ्य को या थ्योरी को सूत्र रूप में बिम्बित करते हैं लेकिन इनमें कोई लीला या कथात्मकता नहीं है इसके विपरीत मिथक का रूप कथात्मक होता है और उसके बिम्ब पुरूष-नारी आकृतियाँ लेकर एक लीला रचते हैं। मिथकीय भाषा अधिक सगुण, नामरूपवाली होती हैं। यदि भारतीयता मूलसाहित्य और दर्शन को कुछ देर के लिए छोड़ दें तो भारतीय परम्परा, लोक धर्म और लोक संस्कृति के आधार पर यह कहना सम्भव है कि भारतवर्ष की आदिम देवता देवी है क्योंकि सभ्यता का आदि रूप सर्वत्र मातृ सत्ताा प्रधान रहा है। और वहीं से भारत का 'समूह मन' या 'लोक-चित्त' का प्रारम्भ हुआ। उस देवी के सूक्ष्म से सूक्ष्मतर रूप ने भारतीय कर्मकाण्ड, दर्शन, कला, साहित्य को प्रभावित किया और दूसरी ओर उसने प्रत्येक व्यक्ति के अति भीतर स्नायुमण्डल के केन्द्र में कुल कुण्डलिनी, परा-शक्ति, त्रिपुर सुन्दरी के रूप में प्रभावित किया। सच तो यह है कि इस देवी के खप्पर में पड़ कर भारतीय आर्य के पुरुष प्रधान स्वभाव का रूपान्तर 'नव्य आर्य' या 'हिन्दू' के रूप में हो गया और हमारे समूहमन या लोकचित में स्थित इसकी 'मातर्ृमूत्तिा' या कलियुग की भाषा में 'मदर इमेज' हमारे ऐतिहासिक उत्थान पतन का नियमन कर रही है। इस प्रकार इतिहास में देवी का वाद आरम्भ हुआ जो विकसित होता हुआ ऋग्वैदिक 'श्री' या रूदुस्वसा अम्बिका' में स्थित हुआ और प्रतिवाद के रूप में प्रकृति और नारी के प्रति वर्जनशील धर्म साधना का उदय बौद्द, जैन आदि के रूप में हुआ। फिर गुप्त युग के आसपास वाद प्रतिवाद के पारस्परिक अन्त: प्रवेश के फलस्वरूप एक और महायान में देवी का प्रवेश वज्रेश्वरी, तारा आदि के रूप में हुआ तो दूसरी ओर वह वेदान्त में श्री-विद्या के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। फिर धीरे धीरे यही देवी वाद-प्रतिवाद के माध्यम से भक्ति के रूप में राधा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। तत्पश्चात् 19वीे शती में देवी का तीसरा वाद धार्मिक न होकर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से देश भक्ति के रूप में उपस्थित हुआ जिसका स्वरूप 'वन्दे मातरम्' में स्पष्ट होता है। स्त्री चेतना का यह रूप भक्ति न होकर सामाजिक शाक्ति की उपासना थी। यह सामूहिक जिजीविषा का प्रतीक बन कर स्वतन्त्रता संग्राम में उदय हुई।
अपने विषय का समापन इन विचार बिन्दुओं से करना चाहता हूँ कि भारतीयता की मूल प्रकृति का आरम्भिक रूप जितना भौतिकवादी है उतना ही अध्यात्मवादी भी है। भारतीय प्रकृति इहलोकवादी एवम् कामना प्रधान हैं परन्तु साथ ही साथ यह श्रध्दा-सम्पृक्त और रहस्य-प्रणव भी है। भारतीय प्रकृति की रचना आदिम भय और आदिम बुभुक्षा से ही नहीं हुई बल्कि सौन्दर्य-बोध और रहस्य-बोध से भी हुई है जिसने सभ्यता, संस्कृति, भोजन पान, वसन-व्यसन, शब्द-सम्भार, भाषा-बोली, कल्प और शिल्प, भावबोध और नीतिबोध को भी प्रभावित किया और यह प्रवाह आज भी प्रवहमान है। इसलिए भारतीयता की मूल प्रकृति जनसमूह की दृष्टि-भंगी है, यह जनसमूह की विश्व-दृष्टि है क्योंकि यदि इसमें भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का मूल विद्यमान न रहता तो संस्कृति का चर्तुपुरुषार्थ का संतुलित परवत्तर्ाी विकास सम्भव नहीं होता। भारतीय प्रकृति समस्त जीवन प्रक्रिया को समाविष्ट किए हुए और धारण किए हुए चलती है - चूल्हा चक्की, शिल्प से लेकर लोकनृत्य आदि तक इसका विस्तार है। अत: भारतीयता की मूल प्रकृति के विषय में यह कहना सम्भव है कि पहला यह कि यह अपौरूषेय है क्योंकि इसका जनक व्यक्ति नहीं परम्परा है। दूसरा इसका अर्थ लोकविद्या है। तीसरा इसकी दृष्टि भंगी कामना प्रधान और सुखवादी होने के साथ साथ अध्यात्मवादी है। चौथे यह रसवादी और वर्ग निरपेक्ष है परन्तु धार्मिकता प्रकृति सेक्यूलर, उदार और साम्प्रदायिकता निरपेक्ष है परन्तु धार्मिकता मुक्त कहीं नहीं है। छटे इसमें जिज्ञासा, रहस्यबोध, सौन्दर्यबोध तथा आदिम मय इसमें सहोदर रूप में निहित हैं।
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